विनियमन की आड़ में नियंत्रण की कोशिश है प्रसारण विधेयक
भारत में टीवी चैनलों के विनियमन के उद्देश्य से लाए जा रहे प्रसारण सेवाएं विनियमन विधेयक' 2006 (प्रसारण विधेयक) को लेकर उठे विवाद और विरोध के तीखे स्वरों के बीच सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह विधेयक कैबिनेट से वापस लेने का फैसला करना पड़ा है। 'देर आयद, दुरस्त आयद` की तर्ज पर मंत्रालय ने अब इस विधेयक को खुली बहस के लिए सार्वजनिक कर दिया है। लेकिन इस विधेयक को लेकर मंत्रालय और यूपीए सरकार का रवैया सचमुच हैरान और चिंतित करनेवाला है। उसने जिस तरह से बिना किसी सार्वजनिक चर्चा और विचार-विमर्श के इस विधेयक को तैयार किया और जिस जल्दबाजी और हड़बड़ी में इसे संसद के मानसून सत्र में पेश करने की कोशिश की, उससे इन आशंकाओं को बल मिला कि सरकार इलेक्ट्रानिक मीडिया खासकर समाचार चैनलों का मुंह बंद करने की तैयारी कर रही है।
विधेयक के मसौदे से इन आशंकाओं की पुष्टि ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं है कि अगर मौजूदा स्वरूप में यह विधेयक संसद में पास हो जाता तो टीवी चैनलों पर सरकार का पूरी तरह से नियंत्रण हो जाता और उसे हर तरह की मनमानी की छूट मिल जाती। लेकिन अब उम्मीद की जा सकती है कि इस विधेयक पर होनेवाली सार्वजनिक चर्चाओं और बहसों के आलोक में सरकार इस विधेयक में फेरबदल करने के बाद ही उसे संसद में पेश करने के बारे में सोचेगी। निश्चय ही, इस विधेयक ने टीवी चैनलों के विनियमन से जुड़े कई बुनियादी और जरूरी सवालों को एक बार फिर से उठा दिया है जिनपर व्यापक और खुली चर्चा की जरूरत है।
विनियमन बनाम नियंत्रण: क्या जरूरी है विनियमन
इस विधेयक के संदर्भ में सबसे बुनियादी सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या टीवी चैनलों का विनियमन जरूरी है ? उदार बुद्धिजीवियों और मीडिया उद्योग के एक बड़े हिस्से का मानना है कि राज्य की ओर से टीवी चैनलों के विनियमन की कोई जरूरत नहीं है। उनका तर्क है कि विनियमन वास्तव में, नियत्रंण का पर्याय है और राज्य की ओर से विनियमन का अर्थ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करना है। उनका यह भी तर्क है कि एक लोकतांत्रिक ढांचे और उदार अर्थव्यवस्था में राज्य की ओर से मीडिया के विनियमन का कोई तुक नहीं है। उनका कहना है कि ऐसी व्यवस्था खुद ही मीडिया की कमियों और गलतियों का हिसाब-किताब कर लेती है।
एक मायने में इन तर्कों में दम है। दुनिया के अधिकांश देशों और खुद भारत का अनुभव यह बताता है कि राज्य ने जब भी मीडिया के विनियमन की कोशिश की है तो वह व्यवहार में नियंत्रण और अंकुश में तब्दील हो गया है। भारत में इमरजेंसी की दौरान जिस तरह से पे्रस को नियंत्रित और उसका मुंह बंद करने की कोशिश की गई, उसके कड़वे अनुभवों के बाद से जब भी इस तरह के दूसरे प्रयास हुए हैं, नागरिक समाज की ओर से उनका कड़ा विरोध हुआ है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि नागरिक अधिकारों विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या उसे सीमित करने की प्रवृत्ति, राज्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। पूंजीवादी राज्य और शासक-अभिजात्य वर्ग हमेशा इस या उस बहाने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने की कोशिश करते रहते हैं, जिसमे प्रेस और मीडिया की स्वतंत्रता भी शामिल है।
दरअसल, राज्य हमेशा ऐसे मौकों की तलाश में रहता है जब वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित या सीमित कर सके और दूसरी ओर, नागरिक और राजनीतिक आंदोलतों की कोशिश इस स्वतंत्रता के दायरे को लगातार फैलाने की होती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि पूंजीवादी मीडिया संस्थान अपने कारनामों से राज्य को पे्रस की स्वतंत्रता को सीमित या बाधित करने का अवसर देते रहते हैं। यहां इस तथ्य का उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले कुछ वर्षों में टीवी चैनलों ने समाचार और मनोरंजन के नाम पर दर्शकों के सामने जो कुछ परोसा है, उसने नागरिक समाज के एक बड़े हिस्से को चैनलों के विनियमन की मांग उठाने के लिए बाध्य कर दिया है।
टीवी चैनलों के विनियमन की जमीन यहीं से तैयार होती है। यह सवाल पिछले काफी समय से उठ रहा है कि अभिव्यक्ति यानि मीडिया की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह से टीवी चैनल लगातार लोक मर्यादाओं की सभी सीमाएं लांघते जा रहे हैं और स्वतंत्रता सामाजिक अराजकता, मनमानी और विचलन का पर्याय बन गयी है, उसे देखते हुए उनका विनियमन क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर मीडिया की भी सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही होती है और इस जिम्मेदारी और जवाबदेही को सुनिश्चित करने के लिए एक सांस्थानिक व्यवस्था यानि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसी क्यों नहीं होनी चाहिए ? यही नहीं, प्रेस की निगरानी और जवाबदेही के साथ-साथ उसकी स्वतंत्रता की हिफाजत के लिए जब पे्रस परिषद जैसी एजेंसी पहले से काम कर रही है तो टीवी चैनलों के लिए एक ऐसी एजेंसी गठित करने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए ?
यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनिया के बहुतेरे लोकतांत्रिक देशों में प्रेस के साथ-साथ टीवी चैनलों के कामकाज पर निगरानी रखने और उनकी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसियां काम कर रही हैं। उन्हें लेकर यह सवाल हो सकता है कि वे कितनी सफल या प्रभावी हैं या उनके भूमिका क्या होनी चाहिए लेकिन उनकी होने को लेकर बहुत सवाल नहीं हैं। इसलिए मुद्दा यह नहीं है कि विनियमन होना चाहिए या नहीं बल्कि सवाल यह है कि विनियमन का परिपे्रक्ष्य क्या होना चाहिए और उसके मद्देनजर विनियामक एजेंसी की भूमिका क्या होनी चाहिए ?
निश्चय ही, विनियमन, नियंत्रण की विपरीत धारणा है। विनियमन की लोकतांत्रिक अवधारणा के मूल में राज्य की निरंकुश शक्ति और निजी पूंजी के सीमित स्वार्थों के दोतरफा दबावों से नागरिकों के सूचना के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना है। विनियमन का अर्थ राज्य को मीडिया को 'नियंत्रित` करने का अधिकार देना नहीं है और न ही उसका उद्देश्य राज्य और उस पर काबिज प्रभुत्वशाली वर्गों को छान-बीन और आलोचना के दायरे से बाहर करना है। इसीलिए लोकतांत्रिक विनियमन का सबसे उपयुक्त मॉडल यही हो सकता है कि विनियामक एजेंसी को दोनों यानि राज्य और निजी स्वार्थों के कब्जे से बाहर रखा जाए और उसकी खुद की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी की जाए।
प्रसारण सेवा विनियामक: सरकार का विस्तार या स्वतंत्र एजेंसी
यह स्वीकार करने के बावजूद कि विनियमन जरूरी है, यूपीए सरकार द्वारा पेश प्रसारण विधेयक न सिर्फ निराश करता है बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में विनियमन को बदतर सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश करता दिखायी पड़ता है। हालांकि इस विधेयक के साथ जारी किए गए विमर्श पत्र और खुद विधेयक में कहा गया है कि विनियामक प्राधिकरण एक स्वतंत्र संस्था होगी लेकिन इसके ठीक उलट विधेयक का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि दावों के विपरीत यह विनियमन का दायित्व केन्द्र सरकार और उसके अफसरों के हाथ में सौंपने की सिफारिश करता है। इस विधेयक में विनियामक एजेंसी एक स्वतंत्र और स्वायत एजेंसी के बजाय खुले तौर पर केन्द्र सरकार का विस्तार दिखायी पड़ती है।
विधेयक के मसौदे की धारा 5, 9, 38 और 48 आदि में केन्द्र सरकार को व्यापक अधिकार दिए गए हैं। इन धाराओं को देखने से ऐसा लगता है कि विनियामक एजेंसी एक तरह से केन्द्र सरकार की कठपुतली होगी जिसे नचाने का पूरा अधिकार सरकार के पास होगा। जाहिर है कि केन्द्र सरकार को इतने अधिकार देने के बाद किसी स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। विनियामक प्राधिकरण के अधिकांश कार्य और अधिकार सीधे या परोक्ष रूप से केन्द्र सरकार के पास ही होंगे। ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि जब विनियमन के सारे दायित्व, कार्य और अधिकारों का प्रयोग केन्द्र सरकार और उसके नौकरशाह ही करेंगे तो विनियामक प्राधिकरण के आवरण की जरूरत क्या है ?
जाहिर है कि इन प्रावधानों के कारण एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक एजेंसी के गठन का पूरा उद्देश्य ही पराजित हो जाता है। इससे उन आशंकाओं और आलोचनाओं को बल मिलता है कि यूपीए सरकार के लिए विनियमन सिर्फ एक बहाना है और उसका असली मकसद टीवी चैनलों की बढ़ती ताकत पर अंकुश लगाना और उन्हें नियंत्रित करना है। कहने की जरूरत नहीं है कि कोई भी लोकतांत्रिक समाज ऐसी विनियामक एजेंसी का समर्थन नहीं कर सकता है जो मीडिया की स्वतंत्रता का गला घोंटने या उसे सीमित करने का उपकरण बन सकता है। ऐसी एजेंसी की तुलना में बिना किसी विनियमन का मीडिया फिर भी बेहतर है। अपनी सीमाओं और लोक मर्यादाओं को लांघने और 'लोकहित` पर 'निजी हित` को प्राथमिकता देनेवाला मीडिया भी सरकारी नियंत्रण, मनमानी और निरंकुशता की तुलना में कम नुकसानदेह और खतरनाक है।
यह सचमुच अफसोस की बात है कि विनियमन जैसी एक लोकतांत्रिक और स्वायत्त अवधारणा को सरकारी नियंत्रण का पर्याय बनाने की कोशिश की जा रही है जिसके कारण उस पूरी अवधारणा का ही विरोध हो रहा है। यह स्वाभाविक भी है। लेकिन इसमें गौर करने वाली बात यह है कि जहां एक ओर सरकार विनियमन को नियंत्रण का हथियार बनाना चाहती है, वहीं संकीर्ण निजी स्वार्थ इसका लाभ उठाते हुए स्वयं को अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता का पहरेदार साबित करने में जुटे हुए हैं। इसका बहाना लेकर वे विनियमन के खुले विरोध में उतर आए हैं। इस तरह दो-तरफा संकीर्ण हितों की लड़ाई में व्यापक दर्शकों के हितों को कुर्बान किया जा रहा है जबकि विनियमन की सबसे अधिक जरूरत उन्हें ही है।
एकाधिकार बनाम बहुलता और विविधता: किस्सा क्रास मीडिया पाबंदियों का
इस विधेयक का इस बात के लिए स्वागत किया जाना चाहिए कि इसमें पहली बार मीडिया में एकाधिकारवादी (मोनोपॉली) प्रवृत्तियों को चिन्हित करते हुए उसपर रोक लगाने के प्रावधान किए गए है। विधेयक की धारा 10 में मीडिया में निजी हितों के संग्रहण पर पाबंदी लगाने के प्रावधान किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि केन्द्र सरकार को प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में हितों के संग्रहण (एकाधिकार) को रोकने के लिए अर्हता की शर्तें और प्रतिबंध लगाने का अधिकार होगा।
इस विधेयक में इस सिलसिले में तीन प्रस्ताव किए गए हैं। पहले प्रस्ताव के तहत किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता (टीवी चैनल) को किसी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी (केबल नेटवर्क) में 20 प्रतिशत से अधिक के शेयर रखने की इजाजत नहीं होगी जबकि इसी तरह कोई ब्राडकास्टिंग नेटवर्क सेवा प्रदाता कंपनी किसी कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी में 20 प्रतिशत से अधिक के शेयर नहीं रख सकती है। तीसरा प्रस्ताव यह है कि कंटेंट ब्राडकास्टिंग सेवा प्रदाता कंपनी और उसकी सहयोगी कंपनियों को किसी शहर या राज्य में एक निश्चित संख्या से अधिक चैनल चलाने की इजाजत नहीं होगी जिसकी पूरे देश में अधिकतम सीमा 15 प्रतिशत होगी।
कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी मीडिया कंपनियों की बढ़ती ताकत और वर्चस्व के मद्देनजर एकाधिकार के खतरों को रोकने के लिए क्रास मीडिया होल्डिंग पर पाबंदी लगाने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता है। अमेरिका सहित कई विकसित देशों में इस तरह के प्रावधान हैं। हालांकि भारत में अभी स्पष्ट तौर पर मीडिया एकाधिकार की स्थिति नहीं पैदा हुई है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस तरह की एकाधिकारवादी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं। किसी और आर्थिक गतिविधि और क्षेत्र की तुलना में मीडिया में एकाधिकार का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह सूचना और विचारों के प्रसार के मामले में विविधता और बहुलता को सीमित कर देता है।
जाहिर है कि इसका सबसे बुरा प्रभाव लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसे पर पड़ता है। लोकतंत्र की सफलता के लिए अकसर जिस ''जनक्षेत्र`` (पब्लिक स्फेयर) को मजबूत करने की बात की जाती है, उसका एक महत्वपूर्ण माध्यम और मंच मीडिया है। ''जनक्षेत्र`` की सफलता इस बात में निहित है कि वह राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय मुद्दों और विषयों पर होनेवाली लोकतांत्रिक बहसों और चर्चाओं में विभिन्न विचारों को सामने आने की किस हद तक जगह और गुंजाइश पैदा करता है। मीडिया खासकर समाचार माध्यमों में एकाधिकार के कारण एक ही तरह के विचारों और सूचनाओं को जगह मिल पाती है और इस तरह आर्थिक एकाधिकार के कारण मीडिया कंपनियों के धनी होने के बावजूद लोकतंत्र गरीब होता चला जाता है।
इसलिए आम पाठकों और दर्शकों के परिपे्रक्ष्य को ध्यान में रखें तो प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में क्रास मीडिया प्रतिबंधों का स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि इस विधेयक में प्रस्तावित प्रावधान न सिर्फ बहुत कमजोर बल्कि आधे-अधूरे हैं। इसके बावजूद प्रसारण विधेयक के जिस एक पहलू की मीडिया कंपनियों खासकर बड़े मीडिया संस्थानों ने सबसे अधिक विरोध किया है, वह क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव ही है। वैसे यह आश्चर्य की बात है कि उदारीकरण का मंत्र जपनेवाली सरकार क्रास मीडिया प्रतिबंधों का प्रस्ताव लेकर आई है जिसका उसकी आर्थिक नीतियों के साथ कोई तालमेल नहीं दिखाई पड़ता है। इसलिए हैरत नहीं होगी अगर यूपीए सरकार सबसे पहले क्रास मीडिया प्रतिबंधों की ही बलि चढ़ाए। अगर ऐसा होता है तो यह बहुत अफसोस की बात होगी।
प्राधिकरण का ढांचा : कैसे सुनिश्चित करें स्वतंत्रता और स्वायत्तता
प्रसारण विधेयक के अध्याय तीन में विनियामक प्राधिकरण के जिस ढांचे का प्रस्ताव किया गया है, उससे साफ है कि सरकार प्राधिकरण को एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में खड़ा नहीं होने देना चाहिए है। विधेयक के मुताबिक विनियामक प्राधिकरण को दूरसंचार क्षेत्र की विनियामक संस्था-दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई) - के मॉडल पर खड़ा किया जाएगा लेकिन ट्राई के मॉडल की सीमाएं स्पष्ट हैं। पहली बात तो यह है कि प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) का दायरा और भूमिका ट्राई के मुकाबले कहीं ज्यादा व्यापक और महत्वपूर्ण है क्योंकि ब्राई टीवी की अंतर्वस्तु (कंटेंट) को भी विनियमित (रेग्यूलेट) करेगी। दूसरे, ट्राई के अनुभव से साफ है कि वह उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के बजाय टेलीकॉम कंपनियों के हितो को अधिक ध्यान रखती है। वह टेलीकॉम कंपनियों का अखाड़ा बन गयी है। इसलिए प्रसारण प्राधिकरण का मॉडल ट्राई कतई नहीं हो सकती है।
लेकिन सरकार प्रसारण प्राधिकरण (ब्राई) को ट्राई के मॉडल पर ही खड़ा करना चाहती है। विधेयक के अनुसार ब्राई के अध्यक्ष और अन्य छह पूर्णकालिक सदस्यों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार करेगी। केन्द्र सरकार का अर्थ है- स०त्तारूढ़ दल। जाहिर है कि ब्राई के अध्यक्ष और सदस्य सत्तारूढ़ दल के पसंद के होंगे और वे वही करेंगे जो सत्तारूढ़ दल चाहेगा। यह स्थित स्वतंत्र विनियमन की अवधारण के बिल्कुल विपरीत है। हैरत की बात यह है कि प्रसारण विधेयक के निर्माताओं को प्रसार भारती कानून का भी ध्यान नहीं रहा जिसमें प्रसार भारती बोर्ड की स्वतंत्रता और स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए उसके अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति हेतु राज्यसभा के अध्यक्ष, प्रेस परिषद के अध्यक्ष और राष्ट्रपति के प्रतिनिधि की एक समिति करती है। हालांकि यह समिति भी प्रसार भारती की स्वतंत्रता और स्वायत्ता की गारंटी करने में नाकाम रही है, वैसे में सीधे केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त ब्राई कितनी 'स्वतंत्र और स्वायत्त` होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
लेकिन सरकार को इतने से संतोष नहीं है। प्रसारण विधेयक के अनुसार ब्राई का सचिव प्राधिकरण का मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) होगा जो केन्द्र सरकार की ओर से मुहैया कराए गए तीन अतिरिक्त सचिव स्तर के अधिकारियों में से चुना जाएगा। इसी तरह ब्राई के पांच क्षेत्रीय केन्द्रांे-दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता, मुंबई और गुवाहाटी- के निदेशक केन्द्र सरकार के संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी होंगे। इस तरह ब्राई केन्द्र सरकार का, केन्द्र सरकार के लिए और केन्द्र सरकार द्वारा गठित एक ऐसी संस्था होगी जो प्रमुख तौर पर केन्द्र सरकार के गुन गाएगी। उसके 'स्वतंत्र` रवैया अपनाना चाहे तो विधेयक की धारा 38 के तहत केन्द्र सरकार को उसे निर्देश देने का अधिकार है जिसे ब्राई को मानना ही होगा।
जाहिर है कि इस तरह का विनियामक प्राधिकरण स्वतंत्र और स्वायत्त विनियमन के बजाय संकीर्ण नियंत्रण का औजार बन जाएगा। ऐसी ऐजेंसी को चैनलों के अन्तर्वस्तु (कंटेंट) जैसे संवेदनशील मसले को विनियमित करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अन्तर्वस्तु का मसला सीधे-सीधे अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है। इस स्वतंत्रता के साथ किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जा सकता है और न ही किसी भी एजेंसी खासकर सरकारी एजेंसी को उसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जा सकती है। वैसे तो आदर्श स्थिति यही हो सकती है कि किसी भी किस्म का विनियमन न हो लेकिन उसके लिए यह जरूरी है कि मीडिया राज्य और निजी पूंजी दोनों के कब्जे से बाहर हो। चूंकि ऐसी आदर्श स्थिति नहीं है, इसलिए राज्य और निजी पूंजी दोनों के दबावों से नागरिकों के सूचना और अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण जरूरी है।
सवाल यह है कि एक स्वतंत्र और स्वायत्त विनियामक प्राधिकरण का ढांचा कैसा होना चाहिए ? क्या इस प्राधिकरण को किसी और देश के विनियामक प्राधिकरण के मॉडल (जैसे ब्रिटेन के ऑफकॉम या अमेरिका के एफसीसी) पर खड़ा किया जाए ? कहने की जरूरत नहीं है कि ब्रिटिश और अमेरिका मॉडल की भी कई सीमाएं हैं। अमेरिका में तो एफसीसी द्वारा मीडिया उद्योग को अ-विनियमित (डीरेगुलेट) करने के प्रयासों के खिलाफ व्यापक जन अभियान चल रहा है। ऐसे में, उनके और अन्य देशों के अनुभवों से सीखते हुए भारत में देश के आंतरिक जरूरतों के मुताबिक एक ऐसा विनियामक प्राधिकरण का ढांचा तैयार किया जाना चाहिए जो पूरी तरह से लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो।
इसके लिए जरूरी है कि प्राधिकरण के गठन की प्रक्रिया से केन्द्र सरकार और उसके अफसरों को दूर रखा जाए। प्राधिकरण के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए जिसमें लोकसभा अध्यक्ष, उपराष्ट्रपति, लोकसभा में विपक्ष के नेता, प्रेस परिषद के अध्यक्ष, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, निर्वाचन आयोग के मुख्य चुनाव आयुक्त, एडीटर्स गिल्ड के अध्यक्ष, आईएनएस के अध्यक्ष, दिल्ली स्थित केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में से एक विश्वविद्यालय के कुलपति, मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पत्रकार संगठन के अध्यक्ष, साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और केन्द्रीय सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त आदि को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। प्राधिकरण के अध्यक्ष और सदस्यों के लिए स्पष्ट तौर पर कुछ अर्हताएं निश्चित की जानी चाहिए जिनमें सार्वजनिक जीवन में उनकी स्वतंत्र और निष्पक्ष भूमिका, मीडिया के साथ संबंध और किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य न होना जरूरी होना चाहिए।
इस बोर्ड द्वारा प्राधिकरण के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों के चयन के बाद उसके अधिकारियों और कर्मचारियों के चयन और नियुक्ति का अधिकार प्राधिकरण के पास होना चाहिए और उसमें केन्द्र सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। प्राधिकरण के सीईओ और क्षेत्रीय निदेशको के बतौर किसी नौकरशाह की नियुक्ति नहीं होनी चाहिए। प्राधिकरण को स्वयं अपने नियम और कानून बनाने के अधिकार होने चाहिए। जनता द्वारा मिलनेवाली शिकायतो खासकर कंटेंट से संबंधित शिकायतो पर प्राधिकरण को खुली जांच-पड़ताल करना चाहिए और जहां तक संभव हो, उसकी कार्यवाहियां खुली और पारदर्शी होनी चाहिए। प्राधिकरण के निर्णयों को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
यहां एक और सवाल पर विचार जरूरी है कि क्या प्राधिकरण को टीवी चैनलों और केबल आपरेटरों को दंडित करने का अधिकार होना चाहिए ? और अगर यह अधिकार होना चाहिए तो दंड की सीमा क्या होनी चाहिए ? प्रसारण विधेयक ने प्राधिकरण को दंड के व्यापक और सख्त अधिकार दिए गए हैं। प्राधिकरण दो साल से लेकर पांच साल तक की सजा सुना सकता है और दस लाख से लेकर पच्चास लाख रूपये तक का जुर्माना कर सकता है। उसे चैनलों और केबल आपरेटरों के स्टूडियों और दफ्तरों पर छापा मारने से लेकर उनके उपकरणों को जब्त करने तक का अधिकार दिया गया है।
निश्चय ही, एक उदार लोकतंत्र में किसी विनियामक प्राधिकरण को इतने व्यापक अधिकार देने का कोई औचित्य नहीं है। यह तर्क दिया जा सकता है कि कड़े दंड की व्यवस्था सिर्फ डराने या निरोधक (डेटरेंट) उपाय के रूप में रखी गई है। लेकिन फिर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को देखते हुए इतने सख्त निरोधक उपाय को किसी तरह से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इसलिए दंड और जुर्माने की व्यवस्था को हल्का किया जाना चाहिए और इसके बजाय गड़बड़ी करने वाले चैनलों पर अंकुश लगाने के लिए 'नाम लेकर शर्मिंदा करने` (नेम एंड शेम) की पद्धति पर जोर देना चाहिए। एक लोकतांत्रिक और स्वतंत्र विनियामक प्राधिकरण का उद्देश्य टीवी चैनलों पर अंकुश लगाने से अधिक एक ऐसा लोकतांत्रिक माहौल बनाने पर होना चाहिए जिसमें दर्शकों को अधिक से अधिक सक्रिय और जागरूक बनाया जा सके।
दरअसल, विनियमन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया उपर के बजाय नीचे से शुरू हो तो वह स्थिति आदर्श स्थिति होगी। इसके लिए जरूरी है कि दर्शकों में मीडिया साक्षरता का अभियान चलाया जाए। प्राधिकरण के साथ-साथ यह जिम्मेदारी तमाम नागरिक संगठनो, शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया संस्थानों को उठाना चाहिए। जागरूक और सचेत दर्शकों का समूह ही गड़बड़ी करनेवाले मीडिया का वास्तविक जवाब हो सकता है।
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