बुधवार, सितंबर 26, 2007

समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण का बढ़ता खतरा

यह लोकतंत्र के लिए जरूरी विविधता और बहुलता के लिए खतरे की घंटी है

लंबे अरसे बाद भारतीय समाचारपत्र उद्योग में इन दिनों काफी हलचल है। समाचारपत्र उद्योग में इस बीच कई ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण यह उद्योग एक बार फिर चर्चाओं में है। बीच के दौर में टेलीविजन और इंटरनेट के तीव्र विस्तार के कारण समाचारपत्र उद्योग फोकस में नहीं रह गया था। लेकिन पिछले साल से समाचारपत्र उद्योग में खासकर बड़े समाचारपत्र समूहों के विस्तार के कारण गतिविधियां काफी तेज हो गई हैं। न सिर्फ समाचारपत्रों के नए संस्करण शुरू हो रहे हैं और उनके बीच प्रतियोगिता तीखी होती जा रही है बल्कि समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में भी महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई पड़ रहा है।

इस सिलसिले में समाचारपत्र उद्योग में उभर रही कुछ महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों पर गौर करना जरूरी है। समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे प्रतिस्पर्द्धा तीखी होती जा रही है, वैसे-वैसे छोटे और मंझोले अखबारों के लिए अपना अस्तित्व बचाना कठिन होता जा रहा है। कुछ महीने पहले देश के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह) ने कन्नड के जानेमाने अखबार 'विजय टाइम्स` को खरीद लिया। ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि झारखंड का एक बड़ा और अपनी अलग पहचान के लिए मशहूर समाचारपत्र 'प्रभात खबर` भी बिकने के लिए तैयार है। उसे खरीदने के लिए देश के कई बड़े अखबार समूह कतार में हैं। हालांकि इन दो घटनाओं के आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है लेकिन इससे एक निश्चित प्रवृत्ति का संकेत जरूर मिलता है।

पूंजीवादी समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। दुनिया के अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में यह पहले ही हो चुका है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और जैसे बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को हजम कर जाती हैं, वैसे ही बड़े अखबार समूह छोटे और मंझोले अखबारों को खा जाते हैं। हालांकि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में यह प्रवृत्ति अभी सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति नहीं है लेकिन यह आशंका लंबे अरसे से प्रकट की जा रही है कि जैसे-जैसे समाचारपत्र उद्योग में बड़ी और विदेशी पूंजी का प्रवेश बढ़ रहा है, प्रतिस्पर्द्धा तीखी हो रही है, वैसे-वैसे छोटे समाचारपत्रों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना मुश्किल होता जाएगा।

हाल की घटनाओं से यह आशंका पुष्ट हुई है। क्या इसका अर्थ यह है कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में भी कंसोलिडेशन की प्रक्रिया शुरू हो गई है ? क्या समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का खतरा बढ़ रहा है ? इसका अभी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस प्रश्न पर मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के बीच सहमति नहीं है। बहुतेरे ऐसे मीडिया विशेषज्ञ हैं जो यह मानते हैं कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का कोई खतरा नहीं है। उनके अनुसार भारत की भाषाई और क्षेत्रीय विविधता और बहुलता ऐसे किसी भी संकेन्द्रण और एकाधिकार के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।

इन मीडिया विशेषज्ञों का तर्क है कि देश के अधिकांश राज्यों की अलग-अलग भाषाओं और क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण किसी एक या दो मीडिया कंपनियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे सभी भाषाओं में अखबार निकालें और पूरे बाजार पर कब्जा कर लें। भारत में समाचारपत्र उद्योग के विकास पर निगाह डाले तो वह इस तर्क की पुष्टि करता है। भारतीय समाचारपत्र उद्योग में क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों का बढ़ता दबदबा इसका प्रमाण है। पिछले कुछ दशकों में साक्षरता, तकनीक, उपभोक्तावाद और राजनीतिक जागरूकता के विकास का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी ताकत और हैसियत में लगातार इजाफा किया है। आज लगभग हर प्रमुख भाषा में क्षेत्रीय अखबार समूहों का दबदबा है। इस दबदबे को बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूह चुनौती नहीं दे पाए और पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपना कद राष्ट्रीयस्तर तक बढ़ा लिया है। इनमें से कई समूह आज बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूहों को चुनौती दे रहे हैं।

ये तथ्य अपनी जगह पूरी तरह सही है। लेकिन इनसे सिर्फ अबतक के विकास का पता चलता है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग ने अपने विकास का एक वृत्त पूरा कर लिया है। यहां से आगे उसकी विकासयात्रा की दिशा पहले की तरह नहीं होगी, यह तय है। ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तथ्य और तर्क हैं। दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में आ रहे परिवर्तनों को देश के आर्थिक ढांचे में आ रहे परिवर्तनों के संदर्भ में देखने की जरूरत है। 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से भारतीय अर्थतंत्र में बड़ी देशी और विदेशी पूंजी का दबदबा बढ़ा है। भारतीय उद्योगों का कारपोरेटीकरण हुआ है।

जाहिर है कि इसका असर भारतीय समाचारपत्र उद्योग पर भी पड़ा है। आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के तहत देशी अखबारों में 26 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत को एक बड़ी घटना माना जाना चाहिए। इस फैसले का शुरू में लगभग सभी बड़े और छोटे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूह विरोध कर रहे थे। लेकिन कुछ साल पहले कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों को छोड़कर कई बड़े और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूहों ने विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके बाद समाचारपत्र उद्योग में बड़ी देशी पूंजी के साथ-साथ बड़ी विदेशी पूंजी का प्रवेश हुआ है। इससे समाचारपत्र उद्योग में कई परिवर्तन हुए हैं।

भाषाई और क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपने छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर निकलकर व्यावसायिक जोखिम उठाना, प्रबंधन को प्रोफेसनल हाथों में सौपना, मार्केटिंग के आधुनिक तौर तरीकों को अपनाना और ब्राडिंग पर जोर देना शुरू कर दिया है। उनमें शेयर और पूंजी बाजार से पूंजी उठाने या विदेशी पूंजी से हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रह गई है। कई क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों ने कारपोरेटीकरण के जरिए अपना पूरा कायांतरण कर लिया है। हिंदी के दो अखबार समूहों-जागरण और भाष्कर, जो पाठक संख्या के मामले में देश के पहले और दूसरे नंबर के अखबार हैं, ने आधुनिक और व्यावसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के तौर-तरीकों को अपनाने में गजब की आक्रामकता दिखाई है।

जागरण भाषाई समाचारपत्र समूहों में पहला ऐसा समूह है जिसने आर्थिक उदारीकरण के बाद अपने पुराने स्टैंड से पलटते हुए सबसे पहले आयरलैंड के इंडिपेडेंट न्यूज एंड मीडिया समूह से डेढ़ सौ करोड रूपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आमंत्रित किया। यही नहीं, वह हिंदी का पहला और भारतीय भाषाओं का भी संभवत: पहला समाचारपत्र है जो आईपीओ लेकर पूंजी बाजार में आया। आज जागरण प्रकाशन शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है जिसका बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैप) 1,789 करोड रूपये है। विदेशी और शेयर बाजार की पूंजी ने जागरण समूह को कानपुर के एक छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर एक कारपोरेट कंपनी के रूप में खड़ा कर दिया है।

निश्चय ही समाचारपत्र घरानों का शेयर बाजार में आना और विदेशी पूंजी के साथ हाथ मिलाना हाल के वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन है। हालांकि यह परिवर्तन अभी तक हिंदी के जागरण समूह के अलावा हिंदुस्तान टाइम्स, डेक्कन क्रानिकल और मिड डे समूह तक ही पहुंचा है। लेकिन इसका समाचारपत्र उद्योग पर गहरा असर पड़ा है। इससे उद्योग में प्रतियोगिता तीखी हुई है और होड़ में आगे रहने के लिए समाचारपत्र समूह न सिर्फ अपने क्षेत्रीय/स्थानीय वर्चस्व के क्षेत्र से बाहर निकलने और फैलने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे के वर्चस्व के क्षेत्र में घुसकर चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, कई अखबार समूह मीडिया के नए क्षेत्रों जैसे- टीवी, रेडियो, इंटरनेट में घुसने और पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं तो कई समूह अपने ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबले के लिए आपस में हाथ मिलाते और गठबंधन करते दिख रहे हैं।

इस सब के कारण कुछ अखबार समूह पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं जबकि कुछ अन्य अखबार समूह कमजोर हुए हैं। उदाहरण के लिए समाचारपत्र उद्योग में जहां टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भाष्कर, डेक्कन क्रानिकल, आनंद बाजार आदि ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है वहीं कई बड़े, मझोले और छोटे समाचारपत्र समूहों-आज, देशबंधु, नई दुनिया, पायनियर, इंडियन एक्सप्रेस, स्टेटसमैन, अमृत बाजार आदि को होड़ में टिके रहने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यही नही, कुछ और बड़े अखबार समूहों- अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (मध्यप्रदेश), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में अपने राजस्व के लिए विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता के कारण छोटे और मझोले समाचारपत्रों के साथ-साथ कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों के लिए भी खुद को प्रतिस्पर्धा में टिकाए रख पाना मुश्किल होता जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय और विज्ञापन आय के बीच का संतुलन पूरी तरह से विज्ञापनों के पक्ष झुक गया है। बड़े अंगे्रजी अखबारों में विज्ञापन आय कुल राजस्व का 85 से लेकर 95 फीसदी तक हो गई है। जबकि भाषाई समाचारपत्रों के राजस्व में विज्ञापनों का हिस्सा 65 से 75 फीसदी तक पहुंच गया है। आज बिना विज्ञापन के अखबार या पत्रिका चलाना संभव नहीं रह गया है।

लेकिन विज्ञापन देनेवाली कंपनियां और विज्ञापन एजेंसियां विज्ञापन देते हुए किसी उदारता के बजाय उन्हीं बड़े अखबारों और मीडिया समूहों को पसंद करती हैं जिनके पाठक अधिक हों और वे उच्च और मध्यवर्ग से आते हों। असल में, समाचारपत्र उद्योग में एक 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) चलता है। जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश सेठ ने पेश किया था। इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नम्बर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिससा उडा ले जाता है। दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह ब्रेक इवेन यानि थोड़ा बहुत मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी अखबार व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यावसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।

गौरतलब है कि वर्ष 2005 में देश के सभी समाचारपत्रों को मिलनेवाला कुल विज्ञापन राजस्व 7,929 करोड रूपये तक पहुंच गया। यह 1980 में मात्र 150 करोड रूपये था और उस समय कुल राजस्व में प्रसार और विज्ञापन आय का हिस्सा 50-50 फीसदी था। लेकिन आज समाचारपत्र उद्योग में विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता का नतीजा यह हुआ है कि छोटे, मंझोले और वैसे बड़े अखबारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है जो किसी शहर या क्षेत्र में पहले या दूसरे या अधिक से अधिक तीसरे नंबर के अखबार नहीं हैं। इस तरह से हर क्षेत्र में दो या तीन अखबार ही प्रतियोगिता में रह गए हैं। प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अखबार समूह के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए क्योंकि पाठकों को आकर्षित करने के लिए मार्केटिंग के आक्रामक तौर-तरीकों पर काफी पैसा बहाना पड़ रहा है।
लेकिन जो अखबार समूह विज्ञापनों से पर्याप्त पैसा नहीं कमा रहा है और पहले तीन में नहीं है तो उसके लिए ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करना लगातार कठिन होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार समूहों के लिए बड़े समाचारपत्र समूहों से कीमतों में कटौती (प्राइसवार) और मुफ्त उपहार आदि का मुकाबला करना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वे विज्ञापनों से उतनी कमाई नहीं कर रहे हैं और वे अपनी आय के लिए पाठको पर निर्भर होते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे बड़ी देशी विदेशी पूंजी का दबाव बढ़ता जाएगा, छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर होते जाएंगे। जैसे एक क्षेत्र या बाजार में दो या तीन अखबार समूहों का वर्चस्व होगा, वैसे ही राष्ट्रीयस्तर पर भी धीरे-धीरे अधिग्रहण और विलयन (एक्वीजीशन और मर्जर) के जरिए दो-तीन बड़े समाचारपत्र समूह उभरकर आएंगे।

विज्ञापनों पर निर्भरता का एक नतीजा यह भी हुआ है कि समाचारपत्रों में विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए होड़ शुरू हो गई है। एक तरह से विज्ञापनदाता समाचारपत्रों को निर्देशित कर रहें हैं कि उन्हें किस तरह का अखबार निकालना चाहिए। इस कारण अधिकतर सफल अखबार एक-दूसरे की कॉपी बन गए हैं। इस तरह समाचारपत्रों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बावजूद उनके बीच की विविधता खत्म होती जा रही है। व्यावसायिक रूप से सफल सभी समाचारपत्रों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आखिर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में क्या फर्क है ? इसी तरह भाष्कर और दैनिक जागरण के बीच का फर्क मिटता जा रहा है।

जाहिर है कि इससे भारतीय समाचारपत्र उद्योग में मौजूदा विविधता और बहुलता की स्थिति खतरे में पड़ती जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है। किसी भी लोकतंत्र की ताकत उसके मीडिया की विविधता और बहुलता पर निर्भर करती है। नागरिकों के पास सूचना और विचार के जितने विविधतापूर्ण और अधिक स्रोत होंगे, वे अपने मताधिकार का उतना ही बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। यही कारण है कि अधिकांश विकसित पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में मीडिया में संकेन्द्रण और एकाधिकार की स्थिति को रोकने के लिए क्रॉस मीडिया होल्डिंग को लेकर कई तरह की पाबंदियां हैं। भारत में अब तक ऐसा कोई कानून नहीं है। बड़े मीडिया समूह ऐसे कानून का विरोध करते रहे हैं। लेकिन भारतीय समाचारपत्र उद्योग में जिस तरह से कुछ बड़े अखबार समूहों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसे कानून के बारे में विचार करने का समय आ गया है। यही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनजर समाचारपत्र उद्योग में घटती विविधता और बहुलता पर विचार करने का समय भी आ गया है।

कोई टिप्पणी नहीं: