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शुक्रवार, दिसंबर 28, 2012

जादू की छड़ी नहीं है डायरेक्ट कैश ट्रांसफर

असली 'गेम चेंजर' योजना खाद्य सुरक्षा कानून को होना था लेकिन वह कहाँ हैं?

भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों से घिरी और आसमान छूती महंगाई को काबू करने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार को आगामी चुनावों का डर सताने लगा है. इसलिए वह भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों को बदलने की हताशापूर्ण कोशिश कर रही है. इसी कोशिश के तहत उसने खूब जोर-शोर से सब्सिडी के नगद हस्तांतरण योजना (कैश ट्रांसफर) की घोषणा की है जो अगले साल जनवरी से देश के ५१ जिलों में लागू की जाएगी.

अगले साल के आखिर तक इसे देश के सभी ६४० जिलों में लागू करने की घोषणा की गई है. इस योजना के तहत शुरुआत में केन्द्र सरकार की २९ विभिन्न योजनाओं के तहत मिलनेवाली पेंशन और स्कालरशिप जैसी राशि सीधे लाभार्थी के बैंक एकाउंट में जाएगी.
वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का दावा है कि यह एक ‘खेल बदलनेवाली’ (गेम चेंजर) योजना है. इससे सरकारी सब्सिडी को गरीबों तक पहुंचाने में होनेवाले भ्रष्टाचार, लूट, अनियमितताओं और लालफीताशाही पर रोक लगेगी और लाभार्थियों को सीधा फायदा होगा. यह सुनिश्चित करने के लिए आधार कार्ड की मदद ली जाएगी और जिन लाभार्थियों के पास आधार कार्ड होगा, उन्हें ही कैश ट्रांसफर का फायदा मिलेगा.

यू.पी.ए सरकार को उम्मीद है कि इससे इन योजनाओं में फर्जीवाड़े पर रोक लगेगी, लालफीताशाही कम होने से सरकार पर सब्सिडी का बोझ भी कम होगा, वहीँ दूसरी ओर लाभार्थियों को भी बिना सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाये और सरकारी बाबुओं को घूस खिलाये सीधे पैसा मिलने लगेगा. यह भी कहा जा रहा है कि इस योजना के कारण सभी लाभार्थियों के बैंक खाते खुलेंगे जिससे करोड़ों लोगों को बैंकिंग सुविधाओं का लाभ मिल सकेगा.

हालाँकि वित्त मंत्री ने इस योजना से अभी पी.डी.एस राशन, खाद और किरोसीन-रसोई गैस सब्सिडी को बाहर रखने की बात कही है लेकिन यह संकेत दिया है कि आगे चलकर इन्हें भी कैश ट्रांसफर के तहत लाने पर विचार किया जाएगा.
साफ़ है कि देर-सवेर सरकार पी.डी.एस राशन, उर्वरक और किरोसीन सब्सिडी को भी कैश ट्रांसफर के दायरे में ले आएगी. असल में, यू.पी.ए सरकार का असली मकसद पी.डी.एस राशन, उर्वरक और किरोसीन सब्सिडी को कैश ट्रांसफर के तहत लाना है और इसके लिए बाकी योजनाओं की आड़ ली जा रही है.

तथ्य यह है कि अभी जिन २९ योजनाओं को कैश ट्रांसफर के तहत लाने की घोषणा की गई है, उनमें नया कुछ भी नहीं है. ये सभी योजनाएं पहले से ही कैश ट्रांसफर यानी लाभार्थी को सीधे नगदी मुहैया कराने की योजनाएं हैं. इसमें लाभार्थियों को पहले से ही कैश उनके बैंक खाते में पहुँचता रहा है.

यही नहीं, इन योजनाओं में भ्रष्टाचार और लूट की उतनी शिकायतें नहीं रही हैं, जितनी पी.डी.एस राशन और किरोसीन में रही हैं. इस मायने में यह किसी भी तरह से ‘गेम चेंजर’ योजना नहीं है. सच पूछिए तो यह अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र योजना को बचाने और नया जीवन देने की योजना है. कैश ट्रांसफर को आधार के साथ जोड़कर उसे प्रासंगिक बनाने की कोशिश की गई है.

असल में, ‘गेम चेंजर’ योजना तो खाद्य सुरक्षा कानून हो सकती थी जिसे यू.पी.ए सरकार ने २००९ के आम चुनावों में वायदे के बावजूद न सिर्फ पिछले साढ़े तीन साल लटका रखा है बल्कि उसे सीमित, हल्का, आधा-अधूरा और कमजोर करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है.
उल्लेखनीय है कि कुछ महीनों पहले तक सरकारी हलकों में खाद्य सुरक्षा विधेयक को ‘गेम चेंजर’ बताया जा रहा था और दावे किये जा रहे थे कि यह कानून मनरेगा और कर्ज माफ़ी जैसी योजनाओं को भी पीछे छोड़ देगा. लेकिन जिस तरह से कैश ट्रांसफर योजना का शोर मचाया जा रहा है, उससे यह आशंका बढ़ती जा रही है कि यू.पी.ए सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाने के वायदे से पीछे हटने या उसे और टालने का बहाना खोज रही है.
सवाल यह है कि क्या कैश ट्रांसफर योजना सचमुच में, हर मर्ज की दवा यानी ‘गेम चेंजर’ है? असल में, कैश ट्रांसफर योजना कोई ऐसी नई या नायाब योजना नहीं है और न ही देश में पहली बार लागू होने जा रही है. वृद्धावस्था, विधवा पेंशन, आंगनवाडी कर्मियों का मानदेय और छात्रवृत्ति आदि लाभार्थियों को पहले से ही बैंक में नगद या चेक के जरिये मिलती रही हैं.

इन सभी योजनाओं में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही से ज्यादा बड़ा और असल मुद्दा यह रहा है कि उनका लाभ अभी भी सीमित लोगों को मिलता है और उसके तहत मिलनेवाली राशि बुनियादी जरूरतों की तुलना में बहुत ही ज्यादा कम है. उदाहरण के लिए, वृद्धावस्था पेंशन के तहत ३०० रूपये प्रति माह और विधवा पेंशन के तहत ३०० रूपये प्रति माह मिलते हैं.

साफ़ है कि कैश ट्रांसफर योजना को ‘गेम चेंजर’ बनाने के लिए यह जरूरी है कि न सिर्फ उसका दायरा बढ़ाया जाए यानी उसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों तक सीमित न किया जाए और दूसरे, उसके तहत दी जानेवाली राशि को कम से कम ५००० रूपये प्रति माह किया जाए. लेकिन साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार का ऐसा कोई इरादा नहीं है क्योंकि वह तो सब्सिडी कम करने पर तुली हुई है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि यू.पी.ए सरकार ने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए हाल में एक रोडमैप जारी किया है जिसमें दावा किया गया है कि राजकोषीय घाटे को चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में जी.डी.पी के ५.३ फीसदी, अगले वर्ष १३-१४ में जी.डी.पी के ४.८ फीसदी, वर्ष १४-१५ में जी.डी.पी के ४.२ फीसदी, वर्ष १५-१६ में जी.डी.पी के ३.६ फीसदी और वर्ष १६-१७ में जी.डी.पी के ३ फीसदी तक कर दिया जाएगा.
सवाल है कि यह कैसे होगा क्योंकि पिछले वित्तीय वर्ष (११-१२) में राजकोषीय घाटा ५.९ फीसदी रहा था और इस साल इसके जी.डी.पी के ६.१ फीसदी रहने का अनुमान जाहिर किया जा रहा था? इसका उत्तर वित्त मंत्रालय द्वारा गठित केलकर समिति की उस रिपोर्ट में मिलता है जिसे पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय संभालने के तुरंत बाद राजकोषीय घाटे को काबू में करने के लिए सुझाव देने के वास्ते बनाया था.
इस समिति ने सुझाव दिया है कि राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सरकार को सब्सिडी खासकर पेट्रोलियम, उर्वरक और खाद्य सब्सिडी में कटौती करना अनिवार्य है. समिति ने इसके लिए डीजल, किरोसीन, रसोई गैस, उर्वरकों और राशन से मिलनेवाले गेहूं-चावल आदि की कीमतों में बढ़ोत्तरी की सिफारिश की है और इस तरह इन सब्सिडी को जी.डी.पी के मौजूदा २.२ फीसदी से घटाकर चालू वित्तीय वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी का २ फीसदी, १३-१४ में जी.डी.पी का १.७ और १४-१५ में १.५ फीसदी करने को कहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार ने इन सिफारिशों को मान लिया है और इसका सबूत यह है कि सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों से लेकर उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोत्तरी की है. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा विधेयक को किनारे कर दिया है. इसके अलावा खुद वित्त मंत्री ने एक प्रेस कांफ्रेंस में इन सिफारिशों को स्वीकार करने का एलान किया है.
साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार का असली इरादा सब्सिडी के ‘बोझ’ (वह इसे बोझ ही मानती है) को कम करने का है. कैश ट्रांसफर योजना इसी मकसद के साथ लाई गई है. असल में, इस साल मार्च में बजट से पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण में सब्सिडी के बढ़ते बोझ से निपटने के लिए कैश ट्रांसफर योजना को आगे बढ़ाने की सिफारिश की गई थी. यही नहीं, सर्वेक्षण में भी इसे ‘गेम चेंजर’ योजना बताया गया था.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार पिछले कई सालों से सब्सिडी में कटौती के उपाय के बतौर कैश ट्रांसफर योजना की जोरशोर से पैरवी करते रहे हैं. इसकी प्रेरणा उन्हें विश्व बैंक से मिली है जो वर्षों से न सिर्फ राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए भारत पर दबाव डालता रहा है बल्कि इसके लिए विनिवेश से लेकर सब्सिडी के बोझ को न्यूनतम करने पर जोर देता रहा है.

इसके लिए विश्व बैंक की ओर से दिए अनेक सुझावों में एक सुझाव कैश ट्रांसफर का भी रहा है. लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य न तो सामाजिक सुरक्षा के दायरे को बढ़ाना और उसे प्रतीकात्मक के बजाय वास्तविक बनाना रहा है और न ही सब्सिडी वितरण में भ्रष्टाचार-धांधली खत्म करना और उसे वास्तविक लाभार्थियों तक पहुंचाना है.

इसके उलट इसका असली मकसद सब्सिडी में कटौती है. उदाहरण के लिए कैश ट्रांसफर योजना को ही लीजिए जिसे हर मर्ज की दवा की तरह पेश किया जा रहा है. आखिर इससे क्या बदलनेवाला है? कैश ट्रांसफर के साथ आधार कार्ड को जोड़ देने से क्या बदल जाएगा?
असल में, आधार कार्ड सिर्फ एक पहचानपत्र भर है जो किसी भी व्यक्ति की पहचान बताता है. लेकिन अधिकांश सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के साथ असल समस्या यह है कि वे लक्षित समूहों खासकर गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों तक सीमित हैं. लेकिन असली मुद्दा और विवाद तो इस गरीब रेखा की परिभाषा और गरीबों की पहचान का है. पिछले साल योजना आयोग की ओर से दी गई गरीब और गरीबी की परिभाषा एक त्रासद मजाक से ज्यादा नहीं थी.
मुश्किल यह है कि योजना आयोग की उस गरीबी रेखा के आधार पर ही विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान की जा रही है. साफ़ है कि आधार कार्ड गरीबों की पहचान नहीं करेगा क्योंकि गरीबों की पहचान तो राज्य सरकारें करेंगी और उनके लिए योजना आयोग ने हर राज्य में एक कृत्रिम सीमा बाँध दी है.

इस कारण आधार कार्ड कोई जादू की छड़ी नहीं बनने जा रही है जिससे गरीबों की सही-सही पहचान हो जाए. राज्य सरकार और जिला प्रशासन जिसे गरीब घोषित करेगा, उसे उसकी आधार कार्ड की पहचान के आधार पर इन योजनाओं का सीमित लाभ मिलेगा.

यही नहीं, आगे चलकर सरकार का इरादा राशन और उर्वरक सब्सिडी को भी इसके तहत लाने का है जिसका मतलब होगा कि पी.डी.एस की मौजूदा व्यवस्था को खत्म करके सरकार अनाज के बजाय सीधे लोगों को उतना पैसा दे देगी जिससे वे खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद लें. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर ऐसा हुआ तो एक ओर सरकार को किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने से मुक्ति मिल जाएगी क्योंकि जब पी.डी.एस राशन नहीं तो अनाज खरीदने की क्या जरूरत है?
दूसरी ओर, गरीबों को खुले बाजार की दया पर छोड़ दिया जाएगा क्योंकि राशन के बदले जितना नगद देगी, उससे खुले बाजार में उन्हें पी.डी.एस से मिलनेवाले अनाज का दस प्रतिशत अनाज भी नहीं मिल पायेगा.
यही स्थिति उर्वरकों के मामले में भी होगी. साफ़ है कि इससे किसानों और गरीबों दोनों को नुकसान होगा. निश्चय ही, इससे अनाज के कारोबार में लगी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों, देशी कंपनियों और बड़े व्यापारियों को फायदा होगा. आश्चर्य नहीं कि कैश ट्रांसफर योजना का समर्थन सबसे ज्यादा वे ही कर रही हैं.

('समकालीन जनमत' के दिसंबर अंक के लिए लिखी टिप्पणी)

शनिवार, जून 16, 2012

'गरीबी' को सरकारी शब्दकोष से बाहर करने की तैयारी

'आम आदमी' सिर्फ बहाना है गरीबों को किनारे करने और 'खास आदमी' को आगे बढाने का  

यह तो गरीबों और गरीबी में कुछ ऐसी बात है कि वे मिथकीय फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी ही राख से बार-बार जी उठते हैं. अन्यथा सरकारों, सत्तारुढ़ पार्टियों और नेताओं-अफसरों का वश चलता तो गरीब और गरीबी कब के खत्म हो चुके होते.
यह किसी से छुपा नहीं है कि उत्तर उदारीकरण दौर खासकर ९० के दशक और उसके बाद के वर्षों में बिना किसी अपवाद के सभी रंगों और झंडों की सरकारों और सत्तारुढ़ पार्टियों ने ‘गरीबी’ शब्द को सरकारी और राजनीतिक शब्दकोष से हटाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है.
इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में न सिर्फ गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के आकलन के साथ छेड़छाड़ की गई है बल्कि आंकड़ों में गरीबी को कम से कम दिखाने की हरसंभव कोशिश की गई है.
लेकिन माफ कीजिए, यह सिर्फ योजना आयोग और उसके उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया की ‘गरीबी और गरीबों’ से मुक्ति पाने की हड़बड़ी और व्यग्रता का मामला भर नहीं है बल्कि सच यह है कि सत्ता के खेल में शामिल मुख्यधारा की सभी राजनीतिक पार्टियां ‘गरीबी और गरीबों’ से पीछा छुड़ाने के लिए व्यग्र हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज ‘गरीब और गरीबी’ शब्द अधिकांश राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के शब्दकोष से गायब हो चुके हैं या उसे हटाने की कोशिशें जारी हैं. उदाहरण के लिए, भाजपा के राजनीतिक शब्दकोष में पहले भी ‘गरीबी’ शब्द उपयोग से बाहर और किसी कोने-अंतरे में पड़ा शब्द रहा है लेकिन ‘इंडिया शाइनिंग’ के बाद तो ‘गरीबी’ शब्द उसके लिए एक बहिष्कृत और अभिशप्त शब्द हो गया.

लेकिन खुद को गरीबों की सबसे बड़ी हमदर्द और गरीबनवाज़ पार्टी बतानेवाली कांग्रेस ने भी ९० के दशक के बाद बहुत बारीकी और चतुराई के साथ ‘गरीबी’ शब्द से पीछा छुडा लिया. यह सिर्फ संयोग नहीं था कि ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ गरीबी और गरीबों के जरिये सत्ता की राजनीति करनेवाली कांग्रेस ने २००४ के चुनावों से ठीक पहले ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया.
कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द की विदाई और उसकी जगह ‘आम आदमी’ शब्द का आना सिर्फ शब्दों के हेरफेर भर का मसला नहीं था. यह कांग्रेस की राजनीति और उसके राजनीतिक सोच में आए बड़े बदलाव का संकेत था.
इस बदलाव का निहितार्थ यह था कि कांग्रेस ने ९० के दशक के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और ‘इंडिया शाइनिंग’ के कोरस के बीच देश की आर्थिकी, समाज और राजनीति में आए बदलावों के मद्देनजर यह मान लिया कि ‘गरीबी’ अब कोई मुद्दा नहीं रहा क्योंकि आर्थिक सुधारों के कारण गरीबों की दशा में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और उनकी संख्या तेजी से कम हुई है.
लगातार तीन आम/मध्यावधि चुनाव हार चुकी कांग्रेस को लगने लगा कि ‘गरीबी’ के नारे में वह राजनीतिक लाभांश नहीं रह गया है जो ७०-८० के दशक तक सत्ता तक पहुँचने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता था. पार्टी के रणनीतिकारों के यह लगने लगा कि गरीबों के बजाय अब तेजी से उभरते और मुखर मध्य और निम्न मध्यवर्ग को लक्षित करना ज्यादा जरूरी है और उसके लिए बेहतर शब्द ‘गरीबी’ नहीं बल्कि ‘आम आदमी’ है जो गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग को भी अपने अंदर समेट लेता है.

इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस ने अपने राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ को रखने का फैसला किया. २००४ के आम चुनावों में कांग्रेस ने नारा दिया: “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ.”
कांग्रेस को इसका राजनीतिक फायदा भी मिला. कांग्रेस उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की मार से त्रस्त गरीबों के साथ-साथ मध्यवर्ग खासकर निम्न मध्यवर्ग को अपनी ओर खींचने में कामयाब रही. नतीजा, कांग्रेस ने न सिर्फ अनुमानों के विपरीत बेहतर प्रदर्शन किया बल्कि उसके नेतृत्व में गठित यू.पी.ए सत्ता में भी पहुँच गई.
हालाँकि कांग्रेस ने वैचारिक-राजनीतिक तौर पर अपने नारों और कार्यक्रमों से ‘गरीबी’ शब्द को हटाकर उसकी जगह ‘आम आदमी’ रखते हुए अपने राजनीतिक आधार को व्यापक बनाने और उसमें गरीबों के साथ-साथ मध्य और निम्न मध्यवर्ग को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन व्यवहार में यह उसके एजेंडे से गरीबों की विदाई और उनकी जगह ज्यादा मुखर और मांग करनेवाला मध्यवर्ग के हावी होते जाने के रूप में सामने आया.

हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर यू.पी.ए-दो के एजेंडे पर गरीबों के मुद्दे और सवाल हाशिए पर जाने लगे और मध्यवर्ग को खुश करने के लिए आर्थिक सुधारों को तेज करने पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा.

यह सच है कि यू.पी.ए-एक सरकार के कार्यकाल में नरेगा जैसी योजनाएं गरीबों के लिए शुरू की गईं और इस आधार पर कुछ विश्लेषक और कांग्रेस नेता दावा करते नहीं थकते हैं कि कांग्रेस अभी भी गरीबों के साथ खड़ी है. लेकिन यह एक बहुत बड़ा भ्रम है.
तथ्य यह है कि यू.पी.ए सरकार के आठ सालों के कार्यकाल में जितना आर्थिक-भौतिक फायदा मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग को मिला है, उसका १० फीसदी भी गरीबों और निम्न मध्यवर्ग को नहीं मिला है. अपनी गरीबनवाजी का गुण गाने के लिए जिस नरेगा का इतना अधिक हवाला दिया जाता है, उसकी सच्चाई यह है कि उसके लिए केन्द्र सरकार औसतन हर साल ३५ से ४० हजार करोड़ रूपये खर्च करती है. वह भी गरीबों तक पूरा नहीं पहुँचता है.
लेकिन दूसरी ओर इसी दौरान मध्य और उच्च मध्यवर्ग को बजट में टैक्स छूटों/रियायतों के रूप में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से हर साल औसतन दो से ढाई लाख करोड़ रूपये का सालाना उपहार मिलता रहा. केन्द्र सरकार और उसके सार्वजनिक उपक्रमों के कोई १.८ करोड़ कर्मचारियों और अफसरों को छठे वेतन आयोग के वेतन वृद्धि के रूप में ५० हजार करोड़ रूपये से अधिक का लाभ दिया गया.

यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ‘आम आदमी’ के नाम पर हर साल देश के बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों और मध्यवर्ग को सालाना टैक्स छूटों/रियायतों में पांच लाख करोड़ रूपये से ज्यादा का तोहफा दे रही है.

इससे साफ़ है कि ‘आम आदमी’ की सरकार वास्तव में किसकी सरकार है और कांग्रेस के लिए ‘आम आदमी’ के मायने क्या हैं? सच यह है कि गरीबों को अर्थनीति से बाहर करने के लिए ‘आम आदमी’ को आड़ की तरह इस्तेमाल किया गया है.
लेकिन पिछले आठ सालों के अनुभवों से यह साफ़ हो चुका है है कि ‘आम आदमी’ के नाम पर ‘खास आदमी’ की अर्थनीति को आगे बढ़ाया जा रहा है. इसलिए यह हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस के राजनीतिक शब्दकोष से ‘गरीबी’ बेदखल हो चुकी है और उसी के स्वाभाविक और तार्किक विस्तार के तहत बाकी का बचा-खुचा काम योजना आयोग में बैठे मोंटेक सिंह आहलुवालिया पूरा कर रहे हैं.
उनके नेतृत्व में योजना आयोग गरीबी को न सिर्फ आंकड़ों में सीमित करने में जुटा है बल्कि योजनाओं/नीतियों से भी गरीबों को बाहर करने में लगा हुआ है. उनके इन प्रयासों को कांग्रेस नेतृत्व और यू.पी.ए सरकार का पूरा समर्थन हासिल है.

इसका सबूत यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक न सिर्फ पिछले तीन सालों से लटका हुआ है बल्कि उसमें से गरीबों को बाहर रखने के लिए हर दांव आजमाया जा रहा है. लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबी को राष्ट्रीय एजेंडे से बाहर कर देने और हाशिए पर धकेल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद गरीब और गरीबी का मुद्दा लौट-लौटकर राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने लग रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि २२ रूपये और ३२ रूपरे की गरीबी रेखा को देश पचा नहीं पा रहा है. यही नहीं, देश भर में ‘जल-जमीन-जंगल’ के हक के लिए गरीबों की लड़ाइयों ने भी नव उदारवादी अर्थनीति के उन समर्थकों को गहरा झटका दिया है जो गरीबी और गरीबों को बीती बात मान चुके थे.
असल में, वे भूल गए कि गरीब उस फीनिक्स पक्षी की तरह से हैं जो अपनी ही राख से फिर-फिर जी उठते हैं. आश्चर्य नहीं कि गरीब फिर-फिर दस्तक दे रहे हैं और पूरा सत्ता प्रतिष्ठान हिला हुआ है. उसे मजबूरी में ही सही, अपमानजनक और मजाक बन चुकी गरीबी रेखा पर पुनर्विचार के लिए तैयार होना पड़ रहा है.

साफ़ है कि गरीब और गरीबी के सवाल इतनी आसानी से शासक वर्गों का पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के 16 जून के हस्तक्षेप परिशिष्ट में प्रकाशित आलेख) 

शनिवार, दिसंबर 31, 2011

गरीबी रेखा से ही तय होगा भोजन के अधिकार का फैसला

इस कानून से देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी

दूसरी और आखिरी किस्त


यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने के बजाय कई मामलों में और सीमित कर देता है. इसमें खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को ‘प्राथमिकता’ और ‘सामान्य’ के दो खांचों में बांटा गया है जो वास्तव में पहले से मौजूद बी.पी.एल और ए.पी.एल श्रेणियों के ही नए नाम हैं.

विधेयक में प्राथमिकता श्रेणी में शामिल लाभार्थियों में प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते दर (दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल) पर सात किलो अनाज मिलेगा जबकि सामान्य श्रेणी में शामिल प्रत्येक लाभार्थी को अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत (मौजूदा कीमतों के आधार पर ६.५० रूपये किलो गेहूं और ५.५० रूपये किलो चावल) पर तीन किलो अनाज मिलेगा.


साफ़ है कि सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को न सिर्फ अनाजों की दोगुनी से लेकर तिगुनी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि उन्हें प्राथमिकता श्रेणी की तुलना में अनाज भी आधे से कम मिलेगा. इस तरह लगभग सभी व्यावहारिक अर्थों में सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को खाद्य सुरक्षा नाम पर एक झुनझुना भर थमा दिया गया है.

यही नहीं, खाद्य सुरक्षा का यह केन्द्रीय कानून तमिलनाडु जैसे राज्यों में जहां पी.डी.एस का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है, उसे भी सीमित कर देगा. इसके अलावा देश के कई राज्यों में प्रस्तावित कानून की तुलना में कहीं ज्यादा सस्ता अनाज राज्य सरकारें पहले से दे रही हैं, उसपर भी रोक लग जायेगी.

खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक कितना सीमित है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके तहत कथित खाद्य सुरक्षा का लाभ ग्रामीण क्षेत्र के ७५ प्रतिशत और शहरी क्षेत्र के ५० प्रतिशत नागरिकों को मिलेगा. लेकिन इसमें भी प्राथमिकता (पूर्व बी.पी.एल) श्रेणी के लाभार्थियों की संख्या विधेयक के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में ४६ फीसदी और शहरी इलाकों में २८ फीसदी होगी.

यह और कुछ नहीं बल्कि तेंदुलकर समिति द्वारा तय गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों की संख्या में १० फीसदी और जोड़कर बनाई गई सीमा है. इस तरह ना-ना करते हुए भी वही पुरानी गरीबी रेखा फिर से भूखमरी के शिकार करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला करने आ गई.

यह साफ़ तौर पर यू.पी.ए सरकार की वायदाखिलाफी है. याद रहे कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये और शहरी क्षेत्रों में ३२ रूपये से कम की आय वाले लोगों को ही गरीब मानने वाले योजना आयोग के हलफनामे के बाद पूरे देश में जबरदस्त हंगामा हुआ था. उस समय केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने वायदा किया था कि इस गरीबी रेखा को भोजन के अधिकार के लाभार्थियों के साथ नहीं जोड़ा जाएगा.

लेकिन संसद में पेश विधेयक से साफ़ है कि गरीबी निर्धारण के नाम पर गरीबों का मजाक उड़ानेवाली गरीबी रेखा से ही यह तय होगा कि देश में कितने और कौन लोगों को खाद्य सुरक्षा का लाभ मिलेगा.

साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने इस विधेयक के जरिये न सिर्फ भोजन के सार्वभौम (यूनिवर्सल) अधिकार यानी सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा के अधिकार को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है बल्कि करोड़ों गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के कृत्रिम विभाजन में बांटकर करोड़ों भूखे लोगों को भी ठेंगा दिखा दिया है.

लेकिन इस मजाक के लिए सिर्फ यू.पी.ए सरकार ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके नेतृत्व में काम करनेवाली एन.ए.सी भी उतनी ही जिम्मेदार है. एन.ए.सी ने ही सबसे पहले प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के इस कृत्रिम विभाजन का प्रस्ताव करके सरकार को और मनमानी करने की छूट दे दी.

लेकिन मजा देखिए कि इतने सीमित प्रावधानों बावजूद अभी भी इस विधेयक का सरकार के अंदर और बाहर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की ओर से जितना कड़ा विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस सीमित कानून को भी लागू करने को लेकर सरकार बहुत उत्सुक और उत्साहित नहीं है. साफ़ है कि भोजन के मौलिक अधिकार की लड़ाई अभी लंबी चलनी है.


समाप्त

('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और अंतिम किस्त)

शुक्रवार, अक्टूबर 14, 2011

गरीबी ही नहीं, बढ़ती गैर बराबरी भी बड़ा मुद्दा है

अमीरों और गरीबों के बीच खाई तेजी से बढ़ रही है


योजना आयोग की शहरों में ३२ रूपये और गाँवों में २६ रूपये प्रतिदिन की गरीबी रेखा ने राष्ट्रीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है. इसके खिलाफ पूरे देश में हैरानी, गुस्से और प्रतिवाद के तीखे सुर सामने आए हैं. यह स्वाभाविक भी है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसमें दोनों जून भरपेट भोजन भी संभव है?

खासकर हाल के वर्षों में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं और जिंसों के अलावा बुनियादी जरूरत की सभी चीजों और सेवाओं की महंगाई आसमान छू रही है, उसके कारण आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है. यही कारण है है कि कई विश्लेषक इसे गरीबी नहीं, भूखमरी रेखा कह रहे हैं.

लेकिन इस हवाई गरीबी रेखा ने पूरे देश को इसलिए भी चौंकाया है क्योंकि गरीबी निरंतर असह्य होती जा रही है. इसकी वजह यह है कि देश के तेजी से बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में दिन पर दिन गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है.

पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच की खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है. यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में दिन दूनी, रात चौगुनी बढोत्तरी हो रही है, वहीँ दूसरी ओर, गरीबों की हालत बाद से बदतर होती जा रही है.

असल में, पिछले कुछ दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के डेढ़ दशक में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है. ७० और कुछ हद तक ८० के दशक शुरूआती वर्षों तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है.

इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नया दौलतिया वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वर्गों में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है.

इसकें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है. वह दो से तीन फीसदी के हिंदू वृद्धि दर के दौर से बाहर निकलकर सात से नौ फीसदी रफ़्तार वाले हाई-वे पर पहुँच गई है. इस तेज वृद्धि दर के साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है.

लेकिन इसके साथ ही, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि यह समृद्धि कुछ ही हाथों में सिमटकर रह गई है. इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहाँ अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीँ गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है.

सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुँच गई है. इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है. आप देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग माल्स में चले जाइए. वहां देश-दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आँखें चौंधियाने के लिए काफी हैं.

यही नहीं, आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार कर रहे हैं. उनके कारण आज लन्दन-पेरिस-न्यूयार्क और दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु-हैदराबाद में कोई खास फर्क नहीं रह गया है.

नतीजा, देश में अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में कोई खास फर्क नहीं रह गया है. आज देश में बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों-करोड़ों की घड़ियाँ, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रानिक साजों-सामान और यहाँ तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं.

जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है. देश के एक बड़े उद्योगपति का ४५०० करोड़ रूपये का आलीशान बंगला हो या दूसरे उद्योगपति का प्राइवेट जेट या तीसरे की निजी लक्जरी नौका या चौथे की पांच करोड़ की कार.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है. लेकिन यहाँ इनके उल्लेख का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस देश में कोई ७८ फीसदी से अधिक लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त हों, वहां अमीरी की यह तड़क-भड़क और उसका खुला प्रदर्शन सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता नहीं तो और क्या है?

देश में बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और विषमता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर १० फीसदी लोग देश के कुल उपभोग व्यय का ३१ फीसदी गड़प कर जाते हैं, सबसे अमीर और उच्च मध्यवर्ग के २० फीसदी लोग कुल उपभोग व्यय के ४५ फीसदी चट कर जाते हैं जबकि सबसे गरीब १० फीसदी लोगों के हिस्से कुल उपभोग व्यय का मात्र ३.६ फीसदी हिस्सा आता है.

यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री को कुछ साल पहले उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहना पड़ा कि इस तरह का ‘दिखावे का उपभोग’ समाज के लिए अच्छा नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए. यह और बात है कि खुद प्रधानमंत्री ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि उनकी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण यह सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता सफलता का पैमाना बनती जा रही है.

यही नहीं, इस दौर में आज़ादी के आंदोलन के दौर में बने सादगी, संतोष और मितव्ययिता जैसे सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार बेमानी होते चले गए हैं. नए मूल्य यह हैं - ‘ग्रीड इज गुड’ यानी लालच अच्छी बला है, मोक्ष का रास्ता उपभोग, और अधिक उपभोग है और कर्ज लेकर घी पीएं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में समावेशी विकास के नारों के बीच देश में गैर बराबरी बेतहाशा बढ़ी है. तथ्य यह है कि अगर आज इस देश में नरेगा के तहत मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी १०० रूपये प्रतिदिन (मासिक ३००० रूपये) और कारपोरेट क्षेत्र के अधिकांश सी.इ.ओ की १० लाख से एक करोड़ रूपये मासिक की तनख्वाह को आधार मानें तो देश में आय के स्तर पर गैर बराबरी बढ़ते-बढ़ते ३००:१, ५००:१ के अनुपात और यहाँ तक कि १०००:१ के असह्य स्तर से भी ऊपर पहुँच गई है. यहाँ तक कि भारत सरकार के सबसे आला अधिकारियों यानी सचिवों की मासिक तनख्वाह और नरेगा की मासिक मजदूरी के बीच ५००:१ का अनुपात बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी का एक और उदाहरण है.

याद रहे कि देश में योजना की शुरुआत में १०:१ के आर्थिक गैर बराबरी अनुपात को कुछ हद तक बर्दाश्त लायक माना गया था. इसी तरह, मैनजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने कारपोरेट क्षेत्र के लिए २०:१ का अनुपात सुझाया था लेकिन आय और उपभोग के स्तर पर मौजूदा गैर बराबरी को देखते लगता है कि यह किसी सतयुग की बात है.

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि इस दौर में तेज आर्थिक विकास के बावजूद न सिर्फ रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं बल्कि रोजगार की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है. देश में अभी भी कुल श्रम शक्ति का ९२ फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने और उससे गुजर चलने के लिए बाध्य है.

यही नहीं, सी.ई.ओ से लेकर सरकारी नौकरशाहों की तनख्वाहों में भारी इजाफा हुआ है लेकिन न्यूनतम मजदूरी गरीबी रेखा की तरह अतीत में अंटकी हुई है. निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन उसमें रोजगार के संविदाकरण और अस्थाईकरण के अलावा श्रम कानूनों का उल्लंघन बढ़ा है.

दूसरी ओर, कृषि क्षेत्र पर आबादी के साठ प्रतिशत की निर्भरता के बावजूद कुल जी.डी.पी में उसका हिस्सा घटता हुआ मात्र १४ फीसदी रह गया है. मतलब ६० फीसदी आबादी को देश की कुल आय में सिर्फ १४ फीसदी हिस्सा मिल रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबके कारण गैर बराबरी बढ़ती और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है.

योजना आयोग की गरीबी (गल्प) रेखा इसलिए और चुभने और बेमानी लगने लगी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १४ अक्तूबर को प्रकाशित लेख)

मंगलवार, अक्टूबर 04, 2011

गरीबी रेखा की गरीबी


देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है.


 

मशहूर लेखक थामस कार्लाइल ने कभी खिन्न होकर अर्थशास्त्र को ‘निराशापूर्ण या कहिये, शोक का विज्ञान’ (डिज्मल साइंस) कहा था. यह बात कहीं और लागू होती हो या नहीं लेकिन अपने योजना आयोग के अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों पर जरूर लागू होती है. उनका अर्थशास्त्र देश-काल-समाज की वास्तविकताओं और आम भारतीयों के जीवन से किस कदर कट चुका है, इसका अंदाज़ा सुप्रीम कोर्ट में पेश उस हलफनामे से लगाया जा सकता है.

इसमें आयोग ने गरीबी रेखा को स्पष्ट करते हुए दावा किया है कि अगर कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है. आयोग के अर्थशास्त्र के मुताबिक, इस राशि से कम पर गुजारा करनेवाले ही गरीब माने जाएंगे.

यही नहीं, योजना आयोग के महान अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करके आराम से गुजर-बसर कर सकता है. इसलिए आयोग ऐसे लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) की श्रेणी में रखता है.

लेकिन आयोग के यह कहने का असली मतलब यह है कि ऐसे लोगों और परिवारों को गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों (बी.पी.एल) के लिए लक्षित विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा. स्वाभाविक तौर पर योजना आयोग की इस नायाब खोज या कहिये कि गरीबों के साथ क्रूर मजाक ने न सिर्फ पूरे देश को स्तब्ध और हैरान कर दिया है बल्कि उसकी चारों ओर तीखी आलोचना हुई है.

इसकी प्रतिक्रिया में स्वाभाविक मांग हुई है कि योजना आयोग के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के अलावा आयोग के अन्य अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों को कुछेक महीनों के लिए ३२ से ३५ रूपये प्रतिदिन के उपभोग पर ‘आराम से जीने’ और अपना गुजारा चलाने के लिए कहा जाए.

यही नहीं, इस पायलट परियोजना में संसद सदस्यों, विभिन्न मंत्रालयों के उच्च अधिकारियों, कैबिनेट मंत्रियों को भी शामिल किया जाना चाहिए और इसे बिना किसी विलम्ब के तुरंत लागू किया जाना चाहिए ताकि सच्चाई सामने आ सके. अगर देश के ये सभी भाग्य विधाता ३२ रूपये प्रतिदिन से कुछ अधिक के दैनिक उपभोग में कुछ महीने गुजारा कर लेते हैं तो देश को बिना किसी संकोच के गरीबी की इस परिभाषा को स्वीकार कर लेना चाहिए.

गरीबी की परिभाषा गढ़ने वाले अपने अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्रियों पर योजना आयोग को इतना विश्वास है तो उसे इस चुनौती को जरूर स्वीकार करना चाहिए अन्यथा गरीबों के साथ इस मजाक को तुरंत बंद करना चाहिए. गरीबों के साथ यह मजाक बहुत लंबा चल चुका है. याद रहे कि ७० के दशक से ही गरीबी रेखा के मानदंडों और उसके निर्धारण को लेकर गंभीर और तीखे सवाल उठते रहे हैं.

जिस तरह से गरीबी के निर्धारण के लिए ग्रामीण इलाके में प्रतिदिन २४०० कैलोरी और शहरी इलाके में २१०० कैलोरी के उपभोग को पैमाना बनाया गया, उससे शुरू से साफ़ हो गया था कि यह गरीबी की नहीं भूखमरी की रेखा है. आखिर गरीबी को सिर्फ दो जून भोजन की उपलब्धता तक कैसे सीमित किया जा सकता है?

कहने की जरूरत नहीं है कि एक ऐसे देश में जो खुद को ‘सभ्य स्वतंत्र जनतांत्रिक गणराज्य’ मानता है और अपने संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में सभी नागरिकों के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और घर के अधिकार की वकालत करता है, वहां गरीबी की यह परिभाषा कैसे स्वीकार की जा सकती है जो किसी व्यक्ति के सिर्फ दो जून भोजन का जुगाड़ कर लेने को गरीबी रेखा से बाहर रखने के लिए पर्याप्त मानती है?

क्या गरीबी के मायने वह हर सामाजिक-आर्थिक-मानवीय वंचना नहीं है जो किसी भी व्यक्ति और उसके परिवार के सम्पूर्ण मानवीय विकास को बाधित करती है? क्या हर उस व्यक्ति और परिवार को गरीब नहीं माना जाना चाहिए जो एक स्वस्थ-सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन के लिए जरूरी बुनियादी अधिकारों और जरूरतों से वंचित है?

लेकिन इसके उलट भारतीय अर्थशास्त्रियों की गरीबी की परिभाषा वैचारिक तौर पर इतनी दरिद्र रही है कि उसे गरीबी के बजाय भूखमरी की रेखा कहना ज्यादा बेहतर होगा. सच पूछिए तो गरीबी की मौजूदा रेखा एक ऐसी काल्पनिक गल्प रेखा है जिसका मकसद गरीबों की ईमानदारी से पहचान करना नहीं बल्कि किसी भी तरह से उनकी संख्या को कम से कम करके दिखाना है.

गरीबों की संख्या को कम करके दिखाने का मकसद भी किसी से छुपा नहीं है. एक तो भारतीय शासक वर्ग गरीबों की संख्या कम दिखाके देश की कथित तरक्की और आर्थिक नीतियों की सफलता के ढिंढोरे पीटता और उनकी वैधता साबित करता है. दूसरे, कृत्रिम तरीके से गरीबों की संख्या कम करके राष्ट्रीय संसाधनों में उन्हें उनके संवैधानिक हकों से वंचित किया जाता है.

यही नहीं, गरीबों की संख्या इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि इसके आधार पर ही राष्ट्रीय प्राथमिकताएं और राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक नीतियों की दिशा तय होती है. अगर योजना आयोग का सर्वेक्षण यह बता रहा है कि गरीबों की संख्या न सिर्फ कम हुई है बल्कि लगातार घट रही है तो नीतिगत तौर पर इसका अर्थ यह होता है कि मौजूदा आर्थिक-सामाजिक नीतियां सही हैं और उनसे गरीबी को खत्म करने में सफलता मिल रही है.

जाहिर है कि इससे न सिर्फ उन नीतियों को जारी रखने का औचित्य सिद्ध किया जाता है बल्कि आर्थिक नीति और योजनाओं/कार्यक्रमों के एजेंडे की प्राथमिकता सूची से गरीबी को बाहर करने तर्क गढा जाता है.

साफ है कि गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के निर्धारण के पैमाने सिर्फ सैद्धांतिक और शैक्षणिक चर्चा और बहस के मुद्दे भर नहीं हैं. सच्चाई यह है कि उनकी वास्तविक गणना नहीं करने का अर्थ उन्हें राष्ट्रीय सरोकारों और चिंताओं से बेदखल करना है. यही नहीं, देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है.

खासकर ९० के दशक से जब से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत पहले से ही सीमित और आधे-अधूरे मन से लागू सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्यक्रमों को और सीमित करने के लिए उन्हें लक्षित (टारगेट) करने करने का फैसला हुआ ताकि सब्सिडी में कटौती की जा सके.

इसके तहत न सिर्फ लोगों को मनमाने तरीके से गरीबी रेखा से नीचे (बी.पी.एल) और गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) के दो कृत्रिम वर्गों में बाँट दिया गया बल्कि योजना आयोग के सरकारी अर्थशास्त्रियों का सारा जोर और परिश्रम बी.पी.एल परिवारों की संख्या को कम से कमतर करने पर लगने लगा.

जाहिर है कि इस प्रक्रिया में बी.पी.एल रेखा और उसकी पहचान का पूरा उपक्रम गरीबों के साथ एक धोखा और क्रूर मजाक साबित हुआ है. इसमें वास्तविक गरीबों का हक मारने और मनमानी, भ्रष्टाचार, और अनियमितताओं के लिए न सिर्फ गुंजाइश बनी है बल्कि खुलकर लूटने की छूट मिल गई है.

यह बी.पी.एल रेखा कितना बड़ा धोखा बन गई है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं, इसे लेकर पिछले चार-पांच सालों से खुद सरकारी हलकों और उनके अर्थशास्त्रियों में बहस छिड़ी हुई है. सबसे पहले योजना आयोग ने कहा कि देश में गरीब २८ फीसदी हैं.

लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने कहा कि देश में ७८ फीसदी यानी करीब ८३ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर कर रहे हैं. इसके बाद शुरू हुई बहस और विवाद के कारण मजबूर होकर योजना आयोग ने सुरेश तेंदुलकर समिति गठित की जिसने माना कि ३७ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं.

इसी बीच, ग्रामीण विकास मंत्रालय की एन.सी. सक्सेना समिति ने काफी झिझकते हुए कहा कि वैसे तो देश में गरीबों की वास्तविक संख्या ८० फीसदी के आसपास है लेकिन कम से कम ५० प्रतिशत को बी.पी.एल परिवारों में जरूर शामिल कर लेना चाहिए. एक गैर सरकारी आकलन (प्रो. ज्यां द्रेज और डेटन) के मुताबिक, कैलोरी पैमाने पर भी देश में गरीबों की कुल संख्या ७५.८ फीसदी है जिसमें ग्रामीण इलाकों में ७९.८ प्रतिशत और शहरी इलाकों में ६३.९ प्रतिशत गरीब हैं.

सबसे मजे की बात यह है कि गरीबों की संख्या के बारे में ये सभी अनुमान एन.एस.एस.ओ के २००४-०५ के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. एक ही सर्वेक्षण से इतने अंतर्विरोधी और भिन्न नतीजों से साफ है कि न सिर्फ गरीबी मापने के पैमाने बल्कि उनके आकलन के तरीकों में भी गंभीर समस्याएं हैं.

यही नहीं, गरीबी के मौजूदा सरकारी अनुमानों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह भी है कि एक बार जब योजना आयोग राष्ट्रीय स्तर और राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का आकलन घोषित कर देता है तो राज्य सरकारों की जिम्मेदारी उस घोषित संख्या के अंदर वास्तविक गरीब परिवारों की पहचान करने भर की रह जाती है.

इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वास्तविक गरीब चाहे जितने हों लेकिन राज्य सरकारें गरीबों की संख्या को उसी सीमा के अंदर रखने के लिए बाध्य हैं. अगर वे बी.पी.एल परिवारों की संख्या बढाती हैं तो बढ़ी हुई संख्या के लिए सरकारी योजनाओं को लागू करने के वास्ते जरूरी संसाधनों का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा. जाहिर है कि इस कारण सभी राज्य सरकारें योजना आयोग के बी.पी.एल अनुमानों का विरोध करने के बावजूद उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं.

दरअसल, गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों के ये सभी, खासकर योजना आयोग अनुमान कितने बेमानी हैं, इसका अंदाज़ा अनेक सामाजिक-आर्थिक-मानवीय विकास के सूचकांकों पर भारत के प्रदर्शन से लगाया जा सकता है. आखिर यह कैसे हो सकता है कि देश में गरीब तो सिर्फ ३७ फीसदी हों लेकिन कुपोषणग्रस्त बच्चों की संख्या लगभग ४७ फीसदी हो?

ऐसे बीसियों आंकड़े यहाँ दिए जा सकते हैं जो गरीबी रेखा को झूठा साबित करते हैं. साफ है कि गरीबी के मौजूदा पैमानों को सिरे से ख़ारिज करने का समय आ चुका है. इसके अलावा आज जब गरीबी निर्धारण के पैमानों पर बहस चल रही है तो इस बहस के दायरे को बढ़ाने और उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है.

आखिर २६ और ३२ रूपये की बहस में इस सच्चाई को कैसे नजरंदाज किया जा सकता है कि पिछले सात सालों में महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है जबकि उस अनुपात में कामगारों के बड़े हिस्से की मजदूरी और वेतन में वृद्धि नहीं हुई है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के बढ़ते निजीकरण के बीच उनके खर्चों में बेतहाशा बढोत्तरी हुई है.

दूसरे, गरीबी को देश में कुछ वर्गों की तेजी से बढ़ती अमीरी के सापेक्ष में भी देखा जाना चाहिए. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में अमीरों और गरीबों के बीच फासला और बढ़ा है. देश में गैर बराबरी और आर्थिक विषमता और बढ़ी है. इसके कारण गरीबों का जीना दिन पर दिन और मुश्किल होता जा रहा है.

इसलिए अब समय आ गया है कि गरीबी की परिभाषा को व्यापक करके उसमें पर्याप्त और पोषण युक्त भोजन के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, यातायात से लेकर अन्य बुनियादी जरूरतों को भी शामिल किया जाए जो किसी भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन के लिए जरूरी हैं. यही नहीं, इन मदों पर होनेवाले वास्तविक खर्च की ईमानदार गणना की जाए.

लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति कभी ऐसा होने देगी, इसकी उम्मीद बहुत कम है. गरीबों के राजनीतिक संघर्षों और हस्तक्षेप से ही स्थिति बदल सकती है. वैसे भी गरीबों को बिना लड़े शायद ही कुछ मिला है.

('जनसत्ता' के ३ अक्तूबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)