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बुधवार, जुलाई 04, 2012

सिर्फ यूनान का नहीं, नव उदारवादी यूरो प्रोजेक्ट का संकट

याराना पूंजीवाद अपवाद नहीं नियम बन गया है नव उदारवादी आर्थिकी का

यूनान से शुरू हुआ यूरोपीय संघ का आर्थिक-वित्तीय संकट जहाँ एक ओर आयरलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली जैसे देशों से होता हुआ साइप्रस तक पहुँच गया है, वहीं यह आर्थिक संकट लगातार गहराता और एक बड़े राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. इस संकट ने एकल मुद्रा- यूरो स्वीकार करनेवाले यूरोपीय देशों यानी यूरो क्षेत्र के आर्थिक-राजनीतिक भविष्य पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि देर-सवेर संकट में फंसे देशों- यूनान या स्पेन आदि को यूरो क्षेत्र से बाहर निकलना पड़ेगा या यूरो को बचाने के लिए उन्हें निकाल दिया जायेगा और उसके बाद यूरो को संभालना मुश्किल हो जाएगा.    
इस आशंका को कई कारणों से बल मिल रहा है. पहली बात यह है कि यूनान, स्पेन और पुर्तगाल आदि देशों को इस संकट से उबारने के लिए जर्मनी और फ़्रांस के नेतृत्व में यूरोपीय संघ ने जो बचाव योजना बनाई है, वह वित्तीय बाजारों को आश्वस्त करने में नाकाम रही है. उल्टे संकट फैलता और गहराता जा रहा है और जर्मनी ने हाथ खड़ा करना शुरू कर दिया है.

दूसरी ओर, इस योजना के तहत संकटग्रस्त देशों पर थोपी गई शर्तों खासकर किफायतशारी के नामपर आमलोगों पर बोझ लादने और सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इससे राजनीतिक संकट बढ़ रहा है और संकट से निपटने की रणनीति को लेकर यूरोपीय देशों के बीच मतभेद और विवाद बढ़ने लगे हैं.

दूसरा कारण यह है कि यूरो क्षेत्र के इस संकट ने यूरोपीय देशों के मौद्रिक एकीकरण और एकल मुद्रा- यूरो के विचार और उसपर आधारित प्रोजेक्ट पर सवाल उठा दिए हैं. कहा जा रहा है कि बिना राजनीतिक एकीकरण के मौद्रिक एकीकरण का फैसला गलत था.
यही नहीं, यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं के बीच मौजूद विभिन्नताओं और असमानताओं को अनदेखा करते हुए उन्हें जिस तरह से एकल मुद्रा प्रोजेक्ट में शामिल किया गया और शर्त के रूप में उनपर वित्तीय और मौद्रिक अंकुश थोपे गए, उसने अर्थनीति तय करने के मामले में राष्ट्रीय सरकारों के हाथ बाँध दिए लेकिन वित्तीय व्यवस्था की देनदारी उनके मत्थे ही रही.
हैरानी की बात यह है कि एकल मुद्रा- यूरो के अस्तित्व में आने के बाद यूरो क्षेत्र के देशों के लिए राजकोषीय घाटे, सरकारी कर्ज, मुद्रास्फीति दर और ब्याज दर को लेकर सीमा बाँध दी गई और उसकी निगरानी का जिम्मा यूरोपीय केन्द्रीय बैंक (ई.सी.बी) को दे दिया गया लेकिन बैंकिंग व्यवस्था को एकीकृत करने यानी बैंकिंग संघ बनाने को नजरंदाज कर दिया गया.

इस तरह बैंकों की देनदारियों की कोई संघीय गारंटी या बीमा नहीं होने के कारण वित्तीय संकट में फंसे देशों के बैंकों से पूंजी के सुरक्षित ठिकानों के पलायन के बाद डूबते बैंकों को संभालने का जिम्मा राष्ट्रीय सरकारों पर आ पड़ा है. इससे संकट और गहरा गया है.

साफ़ है कि यूरोप के आर्थिक-वित्तीय एकीकरण का नव उदारवादी प्रोजेक्ट संकट में है. यह सिर्फ यूनान या स्पेन या पुर्तगाल जैसे देशों का संकट नहीं हैं बल्कि यह पूरे यूरोपीय संघ और वित्तीय पूंजीवाद का संकट है. वित्तीय पूंजीवाद के हितों को आगे बढ़ाने के लिए जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को थोपा गया और आवारा पूंजी के असीमित मुनाफे की भूख और मनमानियों को प्रोत्साहित किया गया, उसके कारण इस संकट को देर-सवेर आना ही था.
सच पूछिए तो २००७-०८ के अमेरिकी सब-प्राइम संकट ने सिर्फ एक ट्रिगर का काम किया और यूरो क्षेत्र के आंतरिक अंतर्विरोधों और कमजोरियों को उघाड़कर सामने रख दिया. इस अर्थ में यूरो क्षेत्र का आर्थिक-वित्तीय संकट अमेरिकी आर्थिक-वित्तीय संकट का ही विस्तार है जिसकी जड़ें नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के संरक्षण में आवारा पूंजी ने जिस तरह से सस्ती और आसान वित्तीय पूंजी के जरिये दुनिया भर में और खासकर २००२-२००८ के बीच अमेरिका और यूरोप में रीयल इस्टेट बुलबुले को पैदा किया, उसे एक न एक दिन फूटना था.

लेकिन जब यह बुलबुला फूटा तो वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने की आड़ में डूबते हुए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को सार्वजनिक धन से उबारा गया और इस तरह निजी बैंकों/वित्तीय संस्थाओं की मनमानी, आपराधिक धोखाधड़ी और मिलीभगत को अनदेखा करते हुए उनके नुकसान का समाजीकरण किया गया. इसके कारण इन देशों में सार्वजनिक ऋण में भारी वृद्धि हुई और जिसकी भरपाई के लिए अब आमलोगों पर बोझ लादा जा रहा है.

लेकिन मुश्किल यह है कि चाहे यूरोपीय राजनीतिक नेतृत्व हो या अमेरिकी नेतृत्व या फिर जी-२० देशों का राजनीतिक नेतृत्व, कोई इस सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं है. उल्टे इसपर पर्दा डालने की कोशिश हो रही है.
नतीजा यह हो रहा है कि इस संकट के लिए एक ओर जहाँ खुद संकटग्रस्त देशों को उनकी आंतरिक आर्थिक कमजोरियों और गडबडियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, वहीँ दूसरी ओर, समाधान के नामपर उन्हीं नीतियों की कड़वी घूँट उनके गले उतारने की कोशिश हो रही है. आश्चर्य नहीं कि इससे संकट और गहराता और फैलता जा रहा है.
असल में, यूरो क्षेत्र के नीति नियंता देशों खासकर जर्मनी और अभिजात शासक वर्ग में यूनान जैसे संकटग्रस्त देशों को सजा देने का भाव अधिक है. गोया इस संकट के लिए वे अकेले जिम्मेदार हों. यह सच है कि यूनान और बहुत हद तक स्पेन के मौजूदा आर्थिक-वित्तीय संकट के लिए मूलतः इन देशों का भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और उसका लुटेरे कारपोरेट क्षेत्र/वित्तीय संस्थाओं के साथ गठजोड़ जिम्मेदार है.

लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि इन देशों का भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को जोरशोर से आगे बढ़ा रहा था जिसमें सार्वजनिक हितों की कीमत पर निजी क्षेत्र को आगे बढ़ाया गया, सार्वजनिक कंपनियों-उपक्रमों का बेलगाम निजीकरण किया गया और उन्हें मनमाना मुनाफा बनाने की इजाजत दी गई.

सबसे अधिक हैरानी और अफसोस की बात यह है कि यूनान, पुर्तगाल और स्पेन आदि देशों में इन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को सबसे अधिक जोरशोर से सोशलिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में बढ़ाया गया. इन देशों में पिछले तीन दशकों में सबसे अधिक समय तक सोशलिस्ट पार्टियों ने ही राज किया है लेकिन वे कहने को ही सोशलिस्ट पार्टियां थीं.
आर्थिक और कुछ हद तक सामाजिक नीतियों के मामले में उनके और अनुदारवादी-दक्षिणपंथी पार्टियों के बीच का फर्क खत्म हो गया था. यही नहीं, इन पार्टियों के शासनकाल में याराना (क्रोनी) पूंजीवाद, भ्रष्टाचार और पसंदीदा कार्पोरेट्स को छूट/रियायतें आदि अपने चरम पर था.
इस राजनीतिक नेतृत्व के दिवालिएपन का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यूनान को यूरो क्षेत्र और एकल मुद्रा का हिस्सा बनाने की इतनी जल्दी थी कि उसके लिए जरूरी आर्थिक-वित्तीय शर्तों को पूरा करने के लिए राजकोषीय घाटे और सरकारी कर्ज आदि के फर्जी आंकड़े तैयार किये गए.

इस फर्जीवाड़े में यूनान की मदद वाल स्ट्रीट के बड़े अमेरिकी निवेश बैंकों जैसे गोल्डमैन साक्स आदि ने की और बदले में मोती कमाई की. इसके जरिये यूनान ने अपने राजकोषीय घाटे को कम करके दिखाया. लेकिन यह भी सच है कि यूरो क्षेत्र के विस्तार के लिए बेचैन यूरोपीय संघ के अधिकारियों और नेताओं ने भी जानबूझकर इसे अनदेखा किया.

जाहिर है कि इससे यूनान के अधिकारियों और राजनीतिक नेतृत्व का हौसला बढ़ा और एक के बाद दूसरी सरकारों ने राजकोषीय घाटे और सार्वजनिक कर्ज को कम दिखाने के लिए आंकड़ों में हेरफेर किया. लेकिन जब तक यूरो क्षेत्र और यूनान में आर्थिक बूम का माहौल था, इसे अनदेखा किया गया लेकिन जब २००७-०८ में अमेरिकी बुलबुला फूटा और उसके साथ आए आर्थिक संकट के संक्रमण ने यूरोप को चपेट में लेना शुरू किया तो यूनानी अर्थव्यवस्था की कमजोरियां उजागर होने लगीं.
पता चला कि २००९ की शुरुआत में राजकोषीय घाटे का अनुमान जी.डी.पी का ३.७ फीसदी था जो सितम्बर महीने में संशोधित करके पहले जी.डी.पी का ६ फीसदी और बाद में सीधे १२.७ फीसदी तक पहुँच गया.
कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. मई’२०१० में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी का १३.७ फीसदी और यूनान का कुल सार्वजनिक कर्ज जी.डी.पी का १२० फीसदी रहने का संशोधित अनुमान पेश किया गया. लेकिन नवंबर में यूरो क्षेत्र के आधिकारिक आडिट के बाद यूरोस्टैट ने इसे और संशोधित कर दिया जिसके मुताबिक वर्ष २००९ में यूनान का राजकोषीय घाटा बढ़कर जी.डी.पी का १५.४ फीसदी और सार्वजनिक कर्ज जी.डी.पी का १२६.८ फीसदी पहुँच गया.

इस फर्जीवाड़े के उजागर होने के बाद से यूरो क्षेत्र के प्रभावशाली देशों और मुद्रा कोष-वाल स्ट्रीट के प्रतिनिधियों की ओर से यूनानी राजनेताओं और अधिकारियों की लानत-मलामत शुरू हो गई, गोया इस सबके लिए वे अकेले जिम्मेदार हों. यही नहीं, अत्यधिक राजकोषीय घाटे और सरकारी कर्ज का सारा ठीकरा यूनानी जनता पर फोड़ा जाने लगा कि वे काम नहीं करते लेकिन उनकी तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, उनके सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर व्यय बहुत अधिक है आदि-आदि.

जाहिर है कि यह सब यूनान को दिए बचाव पैकेज के बदले में उसपर थोपे गए किफायतशारी उपायों को जायज ठहराने के लिए गढ़ी गई कहानियां थीं. सच यह है कि यूनान में यह फर्जीवाडा एक दिन या साल में नहीं हुआ था और न ही यूरो क्षेत्र के नेताओं/अधिकारियों और बड़ी पूंजी की जानकारी के बिना हुआ था.
यह सही है कि यूनानी राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही निहायत ही भ्रष्ट और याराना पूंजीवाद को आगे बढ़ानेवाली रही है लेकिन यूनान में सालों से मची इस लूट में सभी शामिल थे. यूरो क्षेत्र का राजनीतिक नेतृत्व यूनान के आर्थिक-वित्तीय संकट की जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है और इसके लिए यूनानी जनता कहीं से जिम्मेदार नहीं है. अलबत्ता वह इस संकट की भुक्तभोगी और पीड़ित है.
दूसरी बात यह है कि अगर मौजूदा संकट के लिए सिर्फ यूनान जिम्मेदार होता तो यह आर्थिक संकट सिर्फ यूनान तक सीमित रहता. लेकिन तथ्य यह है कि इसकी चपेट में यूनान के साथ-साथ पुर्तगाल, स्पेन, साइप्रस, आयरलैंड आ चुके हैं और इटली, इंग्लैण्ड और फ़्रांस का नंबर आनेवाला है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था पहले से ही मुश्किलों में है.

यही नहीं, यूरो क्षेत्र के इस आर्थिक संकट के संक्रमण का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी असर दिखने लगा है. साफ़ है कि यह आर्थिक संकट कहीं ज्यादा व्यापक, गहरा और व्यवस्थागत है. वास्तव में, यह संकट नव उदारवादी पूंजीवाद का है जो मुनाफे के अपने असीमित लोभ-लालच और मनमानियों की अंधी सुरंग के आखिरी छोर पर पहुँच गया है. 

दोहराने की जरूरत नहीं है कि यूनान और यूरो क्षेत्र के संकट ने नव उदारवादी पूंजीवाद के यूरो प्रोजेक्ट के भविष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं. सवाल यह है कि घाटे का समाजीकरण और मुनाफे का निजीकरण की व्यवस्था और कितने दिन चलेगी?
यह भी कि लोगों की कीमत पर मुनाफे की अर्थनीति को लोग कब तक बर्दाश्त करेंगे? मतलब यह कि आनेवाले दिनों में एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी की बहस न सिर्फ प्रासंगिक बनी रहेगी बल्कि तेज होगी और उसी से यूरो और वैश्विक अर्थव्यवस्था का भविष्य तय होगा.
पश्च नोट: भारत के लिए भी यह बहस बहुत प्रासंगिक है जहाँ आर्थिक--सामाजिक असमानता बहुत तेजी से बढती जा रही है. यही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्था भी याराना पूंजीवाद के चंगुल में फंस गई है और लोगों की कीमत पर सार्वजानिक संसाधनों की लूट अपने चरम पर है. 
('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 4 जुलाई को प्रकाशित आलेख)                                   

गुरुवार, नवंबर 10, 2011

दुष्चक्र में यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं

आर्थिक संकट अब राजनीतिक संकट में तब्दील होता दिख रहा है



यूरोप का आर्थिक-वित्तीय संकट दिन पर दिन गहराता जा रहा है. इस संकट की आग में यूरो जोन की एक के बाद दूसरी अर्थव्यवस्थाएं झुलसती जा रही हैं. मुश्किल यह है कि यह संकट सिर्फ एक या दो देशों तक सीमित या केवल आर्थिक और वित्तीय संकट नहीं रह गया है.

इस संकट से निपटने में यूरोपीय और अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व की नाकामी के कारण यह एक गंभीर राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. यूनान (ग्रीस) के प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू की बलि चढ़ चुकी है और इटली के प्रधानमंत्री सिल्वियो बर्लुस्कोनी की कुर्सी खतरे में है. यही नहीं, इसने यूरोप के आर्थिक और वित्तीय एकीकरण की प्रक्रिया को गंभीर खतरे में डाल दिया है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले सप्ताह फ़्रांस के कान शहर में जी-२० के राष्ट्राध्यक्षों की बैठक में भी यूरोपीय आर्थिक संकट ही छाया रहा. इस बैठक में यूरोप के साथ-साथ अन्य विकसित और विकासशील देशों के राष्ट्राध्यक्ष और मुद्रा कोष के अधिकारी यूरोपीय आर्थिक संकट खासकर यूनान (ग्रीस) को दिवालिया होने से बचाने के उपाय ढूंढते रहे.

हालांकि इस बैठक में खूब माथापच्ची हुई, अनेकों सुझाव आए और इस संकट के समाधान के प्रस्ताव भी पारित किये गए लेकिन उसमें ठोस उपाय कुछ भी नहीं है. सिर्फ दावे और वायदे हैं और संकट में फंसे यूनान से लेकर इटली जैसे देशों के लिए कड़वी आर्थिक और राजनीतिक गोलियाँ हैं.

असल में, इस आर्थिक-वित्तीय संकट खासकर यूनान को दिवालिया होने से बचाने, इटली से लेकर स्पेन तक की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाओं को सहारा देने और सबसे बढ़कर निवेशकों में विश्वास पैदा करने के लिए से जितने वित्तीय संसाधनों और जैसी राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, उसकी कमी साफ़ दिखाई दे रही है.

संकट से निपटने की बातें खूब हो रही हैं, बैठकें खूब हो रही हैं और समाधान भी पेश किये जा रहे हैं लेकिन कोई भी देश इसके लिए अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार नहीं है. खासकर जर्मनी, फ़्रांस और ब्रिटेन जैसे यूरोपीय देश अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं.

नतीजा, यूनान (ग्रीस) को संकट से बाहर निकालने के लिए यूरोपीय नेताओं की माथापच्ची अभी जारी ही थी कि इटली की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने उनका सिरदर्द बढ़ा दिया है. समस्या यह है कि इटली की अर्थव्यवस्था यूरोप की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर इटली की अर्थव्यवस्था एक बार ढही तो उसे सँभालने के लिए यूरोप के पास न तो इतने संसाधन हैं और न ही उसके झटके से उबरने की तैयारी है.

उन्हें यह भी पता है कि इटली की अर्थव्यवस्था के ढहने की स्थिति में स्पेन, पुर्तगाल जैसी पहले से संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्थाएं ही नहीं बल्कि फ़्रांस, जर्मनी जैसी बड़ी और ताकतवर अर्थव्यवस्थाओं को भी लड़खड़ाते देर नहीं लगेगी.

इसके बावजूद संकट से निपटने के लिए जैसी राजनीतिक प्रतिबद्धता, इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए सक्रिय पहलकदमी की जरूरत है, उसके लिए राजनीतिक-आर्थिक रूप से सक्षम जर्मनी और फ़्रांस जैसे यूरोपीय देश और बाकी विकसित देश तैयार नहीं हैं. उल्टे कर्ज संकट से निपटने के नाम पर यूनान, इटली, पुर्तगाल, आयरलैंड और स्पेन जैसे देशों को खर्चों में कटौती के लिए मजबूर किया जा रहा है, उसके कारण स्थिति संभलने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.

एक तो खर्चों में कटौती का सारा बोझ जिस तरह से आम लोगों पर डाला जा रहा है, उसके कारण न सिर्फ लोगों की नाराजगी बढ़ रही है बल्कि इन उपायों को लोगों के गले उतारना भी राजनीतिक रूप से मुश्किल होता जा रहा है.

यूरोप के अधिकांश देशों में लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर उतरकर इन कटौती प्रस्तावों का विरोध कर रहे हैं जिसके कारण सरकारें अलोकप्रिय और राजनीतिक वैधता खोती जा रही हैं. हालात कितने गंभीर होते जा रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आम लोग एक ओर हैं और सरकारें/संसद दूसरी ओर.

इन हालात में यूनानी प्रधानमंत्री जार्ज पापेंद्र्यू ने जब यूरोपीय संघ के साथ हुई डील और बेल आउट पैकेज पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की तो यूरोप के बाजारों में घबराहट फ़ैल गई और बाजार गिरने लगा. वित्तीय बाजार को यह आशंका थी और सही थी कि इस डील को लोग नामंजूर कर देंगे.

नतीजा, जर्मनी और फ़्रांस सहित यूरोपीय संघ और मुद्रा कोष के अधिकारियों ने पापेंद्र्यू पर जनमत संग्रह न कराने का जबरदस्त दबाव डाला. पापेंद्र्यू को धमकाया गया कि यूनान बेल आउट की शर्तों को तुरंत स्वीकार करे अन्यथा उसे कोई मदद नहीं मिलेगी. मजबूरी में पापेंद्र्यू को अपना फैसला बदलना पड़ा.

लेकिन इससे उनकी जो राजनीतिक फजीहत हुई, उसके कारण आखिरकार पापेंद्र्यू को जाना पड़ा. अब यूनान में एक सर्वदलीय सरकार बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि बेल आउट पैकेज के साथ जुड़ी शर्तों और आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू किया जा सके.

ऐसे ही हालात इटली में भी बन गए हैं जहाँ बाजार को खुश करने और सुधारों और कटौतियों की कड़वी गोली को लोगों के गले के नीचे उतारने के लिए यूरोपीय संघ के नेता बर्लुस्कोनी की बलि चढाने के लिए तैयार हैं. लेकिन इससे संकट सुलझ जाएगा, इसके आसार कम हैं.

असल में, यूरोपीय संघ और विकसित देशों के नेता मौजूदा कर्ज संकट से निपटने के लिए जिस रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं, उससे संकट और गहराता जा रहा है. इसकी वजह यह है कि यह वित्तीय संकट जिन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करने के कारण पैदा हुआ है, उससे निपटने के नाम पर उन्हीं नीतियों को और कड़ाई से थोपने की कोशिश की जा रही है.

इससे आवारा वित्तीय पूंजी भले खुश और आश्वस्त हो जाए लेकिन संकट नहीं दूर होनेवाला है. दरअसल, यूरोप के मौजूदा वित्तीय संकट के समाधान के बतौर जिस तरह से खर्चों और वित्तीय घाटे में कटौती को आगे बढ़ाया जा रहा है, उससे तय है कि लोगों की क्रयशक्ति पर बुरा असर पड़ेगा और मांग में कमी आ सकती है जिससे इन अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा.

अर्थव्यवस्थाएं न सिर्फ मंदी में फंस सकती हैं बल्कि यह मंदी लंबी खिंच सकती है. मंदी के कारण सरकारी राजस्व की वसूली में कमी आ सकती है जिससे कर्ज संकट और गंभीर रूप ले सकता है. साफ है कि यह एक दुष्चक्र है जिसमें यूरोप फंस गया है.

लेकिन यूरोप का राजनीतिक नेतृत्व इस सच्चाई को सुनने और समझने को तैयार नहीं है. तथ्य यह है कि उसकी इसी जिद के कारण यूरोप को मौजूदा संकट का सामना करना पड़ रहा है.

अगर यूरोप के राजनीतिक नेतृत्व ने अमेरिकी मंदी के बाद लडखडाई वैश्विक अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए तैयार स्टिमुलस उपायों को हड़बड़ी में वापस नहीं लिया होता और वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए किफ़ायतसारी नहीं शुरू की होती तो यह संकट शायद आता ही नहीं.

साफ है कि यूरोप अपने ही बनाए जाल में उलझ गया है.

('राजस्थान पत्रिका' के १० नवम्बर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

शुक्रवार, अक्टूबर 07, 2011

संकट में फंसती वैश्विक अर्थव्यवस्था

यू.पी.ए सरकार को अपनी निश्चिंतता और आत्मविश्वास से बाहर निकलना होगा    



वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एक बार फिर से संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं. दिन पर दिन यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है. खुद विश्व बैंक के अध्यक्ष राबर्ट जोलिक और मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टिन लगार्ड ने भी स्वीकार किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के फिर से लड़खड़ाने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं. इस मामले में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं खासकर यूरोपीय और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेत बहुत निराशाजनक हैं.


वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बढ़ते खतरे का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले सप्ताह अमेरिकी केन्द्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व ने यह स्वीकार किया कि पिछली मंदी से उबरने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ़्तार न सिर्फ अपेक्षा से बहुत धीमी है बल्कि उसे पटरी पर आने में उम्मीद से कहीं अधिक यानी कई बरसों का समय लग सकता है.

हालांकि फेडरल रिजर्व ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए ४०० अरब डालर से अधिक के मौद्रिक उपायों की घोषणा की है लेकिन अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि इन उपायों से संकट नहीं दूर होनेवाला है.

वित्तीय बाजार को यह सच्चाई मालूम है. आश्चर्य नहीं कि फेडरल रिजर्व की इन घोषणाओं के तुरंत बाद अमेरिकी शेयर बाजारों से लेकर यूरोपीय और एशियाई शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. यहाँ तक कि भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहे.

असल में, फेडरल रिजर्व के मौद्रिक उपायों की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. मुश्किल यह है कि फेडरल रिजर्व के इन उपायों में नया कुछ नहीं है और वह इन्हें पिछले तीन-साढ़े तीन वर्षों में कई बार आजमा चुका है. इसका बहुत फायदा नहीं हुआ है.

एक बार हाथ जला चुके बैंक कर्ज देने में अतिरिक्त सतर्कता बरत रहे हैं जबकि पिछले संकट के दौरान घर गंवाने से लेकर भारी देनदारी की मार झेल चुके आम अमेरिकी भी कर्ज लेने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं.

इस कारण माना जा रहा है कि फेड के ताजा उपाय अँधेरे में तीर चलाने की तरह हैं. लेकिन उससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए फेड के तरकश में अब और कोई तीर नहीं बचा है.

असल में, मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट वर्ष २००७-०८ के वित्तीय संकट से कई मायनों में अलग और अधिक खतरनाक है. पहली बात यह है कि पिछली बार का संकट मूलतः अमेरिका और उसके निजी वित्तीय संस्थाओं/बैंकों के जोखिमपूर्ण उधारियों के कारण पैदा हुआ था. इससे पूरे वित्तीय ढांचे की स्थिरता पर खतरा मंडराने लगा था.

लेकिन इस बार संकट यूरोप के कई देशों खासकर ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल और कुछ हद तक स्पेन और इटली जैसे देशों के अपनी देनदारियों को चुकाने में नाकाम रहने के डर से पैदा हुआ है. इस आशंका मात्र से वित्तीय बाजार में खलबली मची हुई है.

खासकर यह डर बढ़ता जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में यूरोपीय संघ ने ग्रीस की अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने के लिए ठोस फैसला नहीं किया तो ग्रीस का अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट करना तय है. यही नहीं, ग्रीस के बाद अगले कुछ सप्ताहों और महीनों में आयरलैंड और पुर्तगाल समेत कुछ और यूरोपीय देशों के सामने भी डिफाल्ट करने का खतरा होगा.

लेकिन यूरोपीय देशों का राजनीतिक नेतृत्व संकट से निपटने के लिए वित्तीय घाटे को कम करने और सरकारी खर्चों में भारी कटौती करने की रणनीति पर चल रहा है जिससे समस्या और गंभीर होती जा रही है.

इस रणनीति का असर यह हुआ है कि इन अर्थव्यवस्थाओं की गति और धीमी हुई है और दूसरी ओर, लोगों का गुस्सा सड़कों पर निकल रहा है. आर्थिक अस्थिरता के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ रही है.

दूसरी ओर, विश्व अर्थव्यवस्था की इंजन माने जानेवाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से यह उम्मीद भी खत्म होने लगी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार का सकारात्मक असर यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. रही-सही कसर चीन और भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त पड़ती रफ़्तार के साथ पूरी हो गई है.

सन्देश साफ है कि संकट आ चुका है और उससे भारत भी अछूता नहीं रहेगा. इसके संकेत मिलने लगे हैं. आर्थिक वृद्धि की दर धीमी पड़ रही है. खासकर मैन्युफक्चरिंग और बुनियादी उद्योग क्षेत्र की वृद्धि की गति में काफी गिरावट दर्ज की गई है. शेयर बाज़ार में अस्थिरता बढ़ती जा रही है. रूपये की कीमत में तेज गिरावट के कारण आयात खासकर पेट्रोलियम का आयात मंहगा हो रहा है.

अभी तक निर्यात में भारी वृद्धि दिखाई दे रही थी लेकिन वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच उसका धीमा पड़ना तय मना जा रहा है. दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक के तमाम मौद्रिक उपायों के बावजूद अभी भी काफी ऊंचाई पर बनी हुई है.

इससे भारत के सामने दोहरी समस्या खड़ी हो गई है. चुनौती यह है कि किस तरह मुद्रास्फीति पर काबू पाते हुए विकास की रफ़्तार को बनाए रखा जाए? कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को दोनों मोर्चों पर एक साथ पहल करनी होगी.

पहला यह कि घरेलू मांग को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़ाना होगा ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, लोगों की आय बढ़े और घरेलू मांग बनी रहे. इस कारण उसे वित्तीय घाटे की चिंता फिलहाल भूल जानी चाहिए.

दूसरे, सरकार को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए केवल मौद्रिक नीतियों पर निर्भर रहने के बजाय आपूर्ति पक्ष खासकर खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति पर अधिक जोर देना चाहिए. अच्छी खबर यह है कि इस साल मानसून अच्छा रहा है और रबी की फसल अच्छी रहने की उम्मीद है.

लेकिन मुश्किल यह है कि घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार नीतिगत पक्षाघात की शिकार हो गई है और कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सरकार का पूरा जोर अपने राजनीतिक बचाव और मंत्रियों के झगडे में जाया हो रहा है. उसके मौजूदा रवैये से लगता नहीं है कि वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट का मुद्दा उसकी प्राथमिकताओं में कहीं है.

अगर यही हाल जारी रहा तो भारतीय अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचाना संभव नहीं होगा. चिंता की बात यह है कि इसके संकेत मिलने लगे हैं.


('सरिता' में १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित आलेख)


गुरुवार, अगस्त 25, 2011

कर्ज लेकर घी पी रहा है अमेरिका

अमेरिकी अर्थव्यवस्था का बढ़ते संकट में आवारा पूंजी की भूमिका  



 
अमेरिकी अर्थव्यवस्था दो साल के भीतर एक बार फिर गहरे संकट में फंसती हुई दिख रही है. अधिकांश विशेषज्ञों को आशंका है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था दोबारा मंदी की चपेट में आ सकती है. आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार मंद पड़ रही है, घरेलू मांग सुस्त बनी हुई है, उपभोग में गिरावट दर्ज की गई है, बेरोजगारी दर अभी भी बहुत ऊँची है और वित्तीय बाजारों में घबराहट का माहौल है.

ऐसे में, एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा की तर्ज पर वैश्विक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने अमेरिकी सरकार की साख को झटका देते हुए उसके ऋणपत्रों की रेटिंग को अपनी सर्वोच्च रेटिंग – ए.ए.ए से एक दर्जा नीचे घटाते हुए ए.ए प्लस करने का एलान करके इस घबराहट को और बढ़ा दिया है.

हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति सहित अर्थव्यवस्था के मैनेजर इस फैसले से सहमत नहीं है और बाजार को आश्वस्त करने में जुटे हुए हैं. लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है. उसकी लडखडाहट साफ दिख रही है. अर्थव्यवस्था से आ रहे विभिन्न आर्थिक और वित्तीय संकेतों से इसकी पुष्टि होती है.

बीते पखवाड़े अमेरिकी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) से संबंधित पिछले कुछ वर्षों के संशोधित आंकड़े जारी किये जिनसे कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. इनसे यह पता चला कि दो साल पहले आई मंदी पूर्व के अनुमानों से कहीं ज्यादा गहरी और गंभीर थी और उसके बाद दिखी आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार अनुमानों से कहीं धीमी थी.

इससे मंदी की दोबारा वापसी की आशंकाओं ने जोर पकड़ा है. स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दूसरी तिमाही में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र १.३ फीसदी रही है जबकि पहली तिमाही में यह सिर्फ ०.३ फीसदी थी. इसी तरह मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले छह महीने में मात्र ०.८ फीसदी रह गई है.

इसके अलावा जून में उपभोक्ता व्यय नकारात्मक हो गया और जुलाई में भी उसमें गिरावट दर्ज की गई है. हालांकि जुलाई महीने में रोजगार में मामूली वृद्धि दर्ज की गई है लेकिन बेरोजगारी दर अभी भी ९.१ प्रतिशत की असहनीय ऊँचाई पर बनी हुई है. आर्थिक वृद्धि की इतनी धीमी रफ़्तार को आमतौर पर मंदी के आगमन का संकेत माना जाता है.

साफ है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी पिछली मंदी के प्रभावों से उबर नहीं पाई है. दूसरी ओर, अमेरिकी सरकार पर तेजी से बढ़ते घरेलू और विदेशी कर्जों के कारण वैश्विक वित्तीय पूंजी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के स्थायित्व और टिकाउपन को लेकर भी आशंकित है.

उल्लेखनीय है कि अमेरिकी सरकार पर कुल १४.५ खरब डालर का कर्ज है और जिस तरह से यह कर्ज बढ़ रहा है, उसके कारण आवारा पूंजी के प्रवक्ता और कई विशेषज्ञ यह कहने लगे हैं कि अमेरिका कर्ज लेकर घी पीने यानी अपने साधनों से बाहर जाकर खर्च करने के चरम पर पहुँच चुका है और यह स्थिति अब बहुत दिनों तक नहीं चल सकती है. आवारा पूंजी की हितरक्षक स्टैण्डर्ड और पुअर ने भी अमेरिकी साखपत्रों की रेटिंग को कम करते हुए यही कारण बताया है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर कर्ज का बोझ खतरे की सीमा को पार कर रहा है. रिपोर्टों के मुताबिक, बीते दिसंबर से इस जुलाई तक अमेरिकी सरकार पर हर दिन औसतन लगभग ५.४८ अरब डालर का कर्ज चढ़ता जा रहा है. हालत यह हो गई है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार सरकारी कर्ज कुल जी.डी.पी के लगभग १०० फीसदी तक पहुँच गया है.

इस तरह अमेरिका उन देशों की सूची में शामिल हो गया है जहाँ सरकारी कर्ज उनके जी.डी.पी के बराबर या उससे अधिक हो गया है. यही नहीं, अगर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के सभी कर्जों को जोड़ दिया जाए तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर कोई ५०.२ खरब डालर का कर्ज है जोकि उसके जी.डी.पी का लगभग साढ़े तीन गुना है.

निश्चय ही, यह स्थिति चिंताजनक है. इससे न सिर्फ अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की स्थिति पैदा हो गई है बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी अनिश्चितता और अस्थिरता के बदल मंडराने लगे हैं. यह स्वाभाविक भी है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था अकेले आज भी वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगभग एक चौथाई है और उसके इंजन की तरह काम करती है.

ऐसे में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का मतलब यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था भी झटके खाने लगेगी. अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लेकर यह चिंता इसलिए और भी बढ़ गई है क्योंकि अधिकांश यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं पिछली वैश्विक मंदी की मार और वित्तीय/कर्ज संकट से अब तक नहीं उबर पाईं हैं.

जाहिर है कि इस कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं में चिंता और घबराहट का माहौल है. लेकिन दूसरों को उपदेश देने में सबसे आगे रहनेवाला अमेरिका खुद अपने अंदर झांकने और अपनी आर्थिक रणनीति पर किसी पुनर्विचार के लिए तैयार नहीं दिख रहा है.

यह वही अमेरिका है जिसकी अगुवाई में ७० और ८० के दशक में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने आर्थिक संकट में फंसे विकासशील देशों को कर्ज देने के लिए कड़ी शर्तें तय की थीं जिन्हें वाशिंगटन सहमति के नाम से जाना जाता है. उस दौर में वैश्विक आवारा पूंजी के प्रतिनिधि के बतौर मुद्रा कोष-विश्व बैंक ने भारत समेत अधिकांश विकासशील देशों पर कर्जों के लिए जिस तरह की शर्तें थोपीं और उसकी कीमत वसूली, उसे आसानी से भुलाना मुश्किल है.

अब वही वैश्विक आवारा पूंजी अमेरिका से भी कीमत वसूलने और इसके लिए उसे भी शर्तों में बांधने की कोशिश कर रही है. स्टैण्डर्ड और पुअर ने उसकी क्रेडिट रेटिंग में कटौती करके दबाव बनाने की कोशिश की है. दूसरी ओर, घरेलू राजनीति में रिपब्लिकन यही काम थोड़े अलग तरीके से कर रहे हैं. दोनों अमेरिकी वित्तीय घाटे में कटौती और इसके लिए सरकारी खर्चों में भारी कटौती के लिए अभियान चला रहे हैं.

मजे की बात यह है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान और कमोबेश दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां और उनके राजनेता भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाहट के लिए चादर से बाहर पैर पसारने को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

लेकिन वे यह नहीं बता रहे हैं कि चादर से बाहर पैर किसने और किसके लिए फैलाया? सिर्फ बढ़ते सरकारी घाटे और कर्ज का शोर है. पिछले दिनों अमेरिकी कांग्रेस में राष्ट्रपति और रिपब्लिकन सांसदों के बीच कर्जों की सीमा बढ़ाने को लेकर छिडे राजनीतिक महाभारत में भी तथ्य कम और शोर ज्यादा था. रणनीति यह थी कि घाटे और बढ़ते कर्ज को लेकर अमेरिकी जनता में डर और घबराहट का ऐसा माहौल बनाया जाए ताकि कर्ज और घाटे की सीमा तय करने के साथ-साथ खर्चों में कटौती के लिए लोगों को तैयार किया जाए.

खासकर रिपब्लिकन पार्टी के अंदर एक मजबूत ताकत के रूप में उभरी कट्टर नव उदारवादी टी पार्टी समूह ने कर्ज का बोझ घटाने के लिए कर्ज की सीमा को बांधने और इसके लिए सरकारी खर्चों में भारी कटौती के पक्ष में पिछले कई महीनों से जबरदस्त अभियान छेड रखा था.

दिलचस्प तथ्य यह है कि कटौती की सीमा और तरीकों पर कुछ दिखावटी असहमतियों को छोड़ दिया जाए तो इस मुद्दे पर डेमोक्रटिक पार्टी और राष्ट्रपति ओबामा भी सैद्धांतिक तौर पर रिपब्लिकनों के साथ खड़े हैं. इसी सहमति का नतीजा है अमेरिकी संसद में हुआ कर्ज समझौता जिसमें यह तय किया गया है कि अगले दस वर्षों में वित्तीय घाटे में २.१ खरब डालर की कटौती की जायेगी.

इसके तहत यह भी तय हुआ है कि कर्ज की सीमा में एक खरब डालर की बढोत्तरी के बदले में अगले दस वर्षों में सरकारी खर्चों में ९१७ अरब डालर की कटौती की जायेगी. असली खेल यहीं हो रहा है. इस कटौती की गाज इन्फ्रास्ट्रक्चर, गृह निर्माण, सामुदायिक सेवाओं, शिक्षा के अलावा लोगों की सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी हकदारियों पर गिरेगी.

मतलब यह कि चादर से बाहर पैर पसारने की कीमत आम अमेरिकी जनता को चुकानी पड़ेगी. लेकिन इस कटौती का अमेरिकी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा बजट के अलावा पूरी दुनिया में आतंकवाद से युद्ध के नाम लड़े जा रहे युद्धों पर हो रहे बेतहाशा खर्च पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा. वर्ष २०१० में अमेरिका का कुल रक्षा बजट ६८० अरब डालर था.

इसके अलावा इराक और अफगानिस्तान में युद्ध के लिए अलग से ३७ अरब डालर का प्रावधान है. यही नहीं, अनुमानों के मुताबिक, आतंकवाद से युद्ध के नामपर पिछले दस वर्षों में अफगानिस्तान से लेकर इराक तक अमेरिका का युद्ध बजट ३.७ खरब डालर तक पहुँच गया है और आशंका है कि अंतिम आकलन में यह ४.४ खरब डालर तक जा सकता है.

लेकिन इसमें कोई कटौती नहीं होगी क्योंकि रक्षा बजट और युद्धों में अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के निहित स्वार्थ जुड़े हुए हैं. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक तंत्र इसी सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के इशारे पर चलता है. यही नहीं, इस कटौती की मार से एक बार फिर वह अमेरिकी कारपोरेट जगत और सुपर अमीर वर्ग बच निकला जिसको हासिल टैक्स छूट और रियायतों के कारण भी वित्तीय घाटा और सरकारी कर्ज इस हद तक बढ़ा है.

हालत यह है कि बड़ी-बड़ी अमेरिकी कम्पनियाँ भी आज एक डालर टैक्स नहीं दे रही हैं. उदाहरण के लिए, जेनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने २०१० में १४.२ अरब डालर के व्यवसाय के बावजूद एक पैसा टैक्स नहीं दिया, उलटे ३.२ अरब डालर का टैक्स लाभ बटोर लिया.

असल में, ७० के दशक के आखिरी वर्षों में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के नेतृत्व में मुक्त बाजार की जिस नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी ने जोर पकड़ा, उसके केन्द्र में बड़ी पूंजी खासकर आवारा पूंजी और अमीरों को अधिक से अधिक टैक्स छूट और आम लोगों पर बोझ बढ़ाना शामिल था.

इस प्रक्रिया ने पिछले तीन दशकों में अमेरिका में यह स्थिति पैदा कर दी है कि अमेरिकी समाज में सबसे अमीर एक फीसदी लोग कुल राष्ट्रीय आय का एक चौथाई और कुल संपत्ति का ४० फीसदी गड़प कर जा रहे हैं. कोई २५ साल पहले यह आंकड़ा १२ और ३३ फीसदी का था. साफ है कि इस बीच सुपर अमीरों की आय तेजी से बढ़ी है. इसके उलट इन २५ वर्षों में आम अमेरिकी नागरिकों की वास्तविक आय में कमी आई है.

याद रहे, इस पूरी प्रक्रिया को राष्ट्रपति जार्ज बुश के कार्यकाल में और तेजी मिली. बड़ी पूंजी और सुपर अमीरों को जमकर टैक्स छूट और रियायतें दी गईं. नतीजा, वर्ष २००० के बाद से कर्ज और वित्तीय घाटा दोनों तेजी से बढ़े हैं. रही सही कसर पिछली वैश्विक मंदी के दौरान बड़े बैंकों, बीमा और वित्तीय कंपनियों और आटोमोबाइल जैसे औद्योगिक क्षेत्र को सैकड़ों अरब डालर के राहत और उत्प्रेरक पैकेजों ने पूरी कर दी. लेकिन इन सबपर कोई चर्चा नहीं हो रही है. ऐसे में, अमीरों और कारपोरेट जगत पर टैक्स बढ़ाने की बात करना भी पाप की तरह हो गया है.

लेकिन क्या इससे अमेरिकी संकट टल जाएगा? अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि मौजूदा कर्ज डील से संकट और गहराएगा क्योंकि खर्चों में भारी कटौती के कारण पहले से मंदी से लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था फिर से मंदी की चपेट में फंस सकती है. यूरोप में यही हो रहा है जहाँ अर्थव्यवस्थाएं इसी तरह के कड़े मितव्ययिता उपायों और कटौतियों के कारण एक के बाद एक संकट में फंसती जा रही हैं.

यह अमेरिका के साथ भी हो सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर ऐसा हुआ तो वित्तीय घाटे में कटौती और कर्ज में कमी की योजना धरी की धरी रह जायेगी. इस तरह अमेरिका अपने साथ-साथ पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को भी संकट में फंसा देगा जिसकी कीमत हम-आप सबको चुकानी पड़ेगी.

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर २५ अगस्त को प्रकाशित आलेख)

सोमवार, अगस्त 08, 2011

युद्ध और कर्ज के बोझ से कराहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था


अमेरिकी अर्थव्यवस्था अपने ही जाल में फंस गई है



वैश्विक अर्थव्यवस्था एक बार फिर लड़खड़ाती हुई दिख रही है. दुनिया भर के बाजारों में घबराहट और उथल-पुथल का माहौल है. अकेले बीते शुक्रवार को मुंबई शेयर बाजार सहित दुनिया भर के बाजारों में शेयरों के कत्लेआम में निवेशकों का लाखों करोड़ रूपया स्वाहा हो गया. कोई नहीं जानता कि आज जब दो दिनों की बंदी के बाद बाजार खुलेंगे तो हालात क्या होंगे?

सरकारों से लेकर निजी क्षेत्र के मैनेजरों तक सभी सदमे की स्थिति में हैं. नतीजा, वाशिंगटन से लेकर बीजिंग तक और यूरोप से लेकर भारत तक किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि इस नए संकट से कैसे निपटा जाए?

खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि स्थिति गंभीर है. हालांकि इस ताजा आर्थिक संकट के आसार बहुत पहले ही दिखने शुरू हो गए थे लेकिन बहुत कम लोगों को अंदाज़ा था कि यह संकट इतनी जल्दी और इतनी तेजी से एक बार फिर दुनिया को झकझोरने लगेगा. वैसे इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. भूमंडलीकरण के दौर में यह बहुत स्वाभाविक है.

असल में, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया भर की वित्तीय व्यवस्था और बाजारों के साथ-साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं भी एक-दूसरे से इतनी गहराई से जुड़ गई हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जुकाम होता है और भारत से लेकर ब्राजील की अर्थव्यवस्थाओं को छींक आने लगती है.

यह स्वाभाविक भी है क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगभग एक चौथाई है. ऐसे में, अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भूकंप के झटके आते हैं तो दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक सुनामी के झटके झेलने पड़ते हैं. २००७-०८ में यह हो चुका है जब अमेरिकी मंदी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को अपने चपेटे में ले लिया था.

ताजा मामले में भी यही हो रहा है. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने अमेरिका सरकार की साख में कटौती करने का एलान करते हुए उसके कर्ज पत्रों की साख की उच्च स्तरीय रेटिंग ए.ए.ए को एक श्रेणी घटाकर ए.ए प्लस कर दिया है.

हालांकि यह घोषणा शुक्रवार को बाजारों के बंद होने के बाद की गई लेकिन इसकी आशंका बहुत दिनों से जाहिर की जा रही थी. अमेरिकी बाजारों सहित दुनिया भर के बाजारों में घबराहट और बेचैनी का माहौल भी इस फैसले के अंदेशे के कारण भी था. खुद स्टैंडर्ड एंड पुअर इसकी चेतावनी बहुत दिनों से दे रहा था.

इसकी वजह यह थी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पिछली मंदी से पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पा रही थी. उलटे पिछले कुछ महीनों में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेतों से यह साफ़ होने लगा था कि मंदी से उबरने की रफ़्तार न सिर्फ धीमी है बल्कि उसमें फिर से गिरावट का रुझान है.

ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर स्टैण्डर्ड एंड पुअर के फैसले से अधिकांश विश्लेषकों को बहुत हैरानी नहीं हुई है. असल में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिस तरह कर्ज पर जीने की आदी होती जा रही थी, उसके कारण यह दिन एक दिन आना ही था. यह किसी से छुपा नहीं है कि आज अमेरिका न सिर्फ दुनिया का सबसे कर्जदार देश है बल्कि वह वैश्विक कर्ज का ब्लैक होल बन गया है.

ऐसा कर्ज ब्लैक होल जो पिछले कई दशकों से दुनिया भर के अधिकांश देशों की बचत को अपने अंदर खींचता जा रहा है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आज अमेरिका पर कुल संघीय कर्ज लगभग १४.३४ खरब डालर (७१७ खरब रूपये) का है जिसमें लगभग ९.७८ खरब डालर सार्वजनिक कर्ज है. इसमें कोई ४.४५ खरब डालर का विदेशी कर्ज है.

यही नहीं, आज कुल अमेरिकी कर्ज में विदेशी कर्ज का हिस्सा लगभग ३२ फीसदी और कुल सार्वजनिक कर्ज में ४७ फीसदी तक पहुँच चुका है. विदेशी कर्ज में अकेले चीन का हिस्सा लगभग २६ फीसदी का है और इस तरह वह सबसे बड़ा कर्जदाता बन गया है. रिपोर्टों के मुताबिक, अमेरिका के कुल कर्ज में चीन का हिस्सा लगभग १.१६ खरब डालर का है जबकि जापान का ९१२.४ अरब डालर और हांगकांग का १२१ अरब डालर है.

यही नहीं, अमेरिकी कर्ज में ब्रिटेन, ब्राजील समेत भारत जैसे देशों का भी अच्छा-खासा पैसा लगा हुआ. स्वाभाविक तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सभी देशों के दांव लगे हुए हैं.

आश्चर्य नहीं कि चीन ने अमेरिका को चेताया है कि कर्ज लेकर घी पीने के दिन गए और वह अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले. साफ है कि हर चीज की एक सीमा होती है. सच पूछिए तो कर्ज लेकर ऐश करने के मामले में अमेरिका ने हर सीमा तोड़ दी है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि अमेरिका सत्ता प्रतिष्ठान ने कर्ज का सबसे अधिक दुरुपयोग युद्धों के लिए किया है.

अनुमानों के मुताबिक, आतंकवाद से युद्ध के नामपर पिछले दस वर्षों में अफगानिस्तान से लेकर इराक तक अमेरिका का युद्ध बजट ३.७ खरब डालर तक पहुँच गया है और आशंका है कि अंतिम आकलन में यह ४.४ खरब डालर तक जा सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था युद्धों के बोझ से दबी जा रही है. इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखने लगा है. यह सच है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ कई बुनियादी ढांचागत समस्याएं भी हैं लेकिन वास्तव में, उसकी युद्ध मशीनरी उसे अंदर से खोखला किये जा रही है.

इसके बावजूद संघीय कर्ज की सीमा को लेकर राष्ट्रपति बराक ओबामा और रिपब्लिकन पार्टी के बीच छिड़े राजनीतिक महाभारत और उसके बाद हुए समझौते में ज्यादा जोर रक्षा और युद्ध बजट में नहीं बल्कि सामाजिक सुरक्षा बजट में कटौती पर है. साफ है कि अमेरिकी नीति नियंता बजट कटौती का सारा बोझ आम अमरीकियों पर डालना चाहते हैं जबकि अमीरों और बड़ी कंपनियों को टैक्स छूट और अन्य रियायतें मिलती रहेंगी.

कर्ज संकट पर हुई डील के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह उस समय सरकारी खर्चों खासकर जरूरी सामाजिक और आर्थिक व्यय में कटौती की पेशकश कर रहा है जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था ठहराव और गतिरुद्धता की शिकार है. इस समय अर्थव्यवस्था को कीन्सवादी सहारे यानी आर्थिक-वित्तीय उत्प्रेरकों की जरूरत थी.

लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के इस फैसले से अर्थव्यवस्था के एक बार फिर से मंदी में फंसने की आशंका जोर पकड़ने लगी है. नीम और उसपर करेला चढ़ा यह कि यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं खासकर ग्रीस, आयरलैंड, स्पेन, इटली और पुर्तगाल की हालत पहले से ही खराब है. इनमें से कई के कर्ज देनदारी में डिफाल्ट की आशंका जाहिर की जा रही है.

निश्चय ही, वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहराते संकट के इन बादलों से भारत का भी बचना मुश्किल है. लेकिन संकट का इंतज़ार करने और अनावश्यक आत्मविश्वास दिखाने के बजाय यू.पी.ए सरकार को तुरंत एहतियाती कदम उठाने चाहिए. इसके लिए बाहर और बड़ी विदेशी पूंजी का मुंह जोहने के बजाय घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के उपाय सोचने चाहिए. क्या सरकार अपनी नीतिगत लकवे की स्थिति से बाहर निकलेगी?

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर ८ अगस्त को प्रकाशित लेख)