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रविवार, मई 11, 2014

बनारस की लड़ाई में बहुलतावादी भारत का विचार दांव पर लगा हुआ है

उत्तर प्रदेश में 90 के दशक की जहरीली सांप्रदायिक और सामंती दबदबे की राजनीति पैर जमाने की कोशिश कर रही है

बनारस की लड़ाई अपने आखिरी दौर में पहुँच गई है. बनारस में बहुत कुछ दाँव पर लगा हुआ है. पूरे देश की निगाहें इस ऐतिहासिक शहर पर लगी हुई हैं. कारण साफ़ है. यह सिर्फ एक और वी.आई.पी सीट की लड़ाई नहीं है और न ही कोई स्थानीय मुद्दों पर हो रहा मुकाबला है. यह न तो गंगा को साफ़ करने और बचाने की जद्दोजहद है और न ही शहर को आध्यात्मिक नगर के रूप में पहचान दिलाने का चुनाव है. यह न तो चिकनी सड़क और २४ घंटे बिजली के लिए संघर्ष है और न ही बनारस को पेरिस या लन्दन बनाने की चाह का मुकाबला है. अगर ये मुद्दे कहीं थे भी तो अब पृष्ठभूमि में जा चुके हैं.     

यह बनारस में गंगा से ज्यादा गंगा-जमुनी संस्कृति और इस शहर की वह आत्मा को बचाने की लड़ाई हो रही है. यह इस शहर की सांस्कृतिक, वैचारिक और राजनीतिक विविधता, अनेकता और बहुलता को बनाए रखने की लड़ाई है. लेकिन यह सिर्फ इस ऐतिहासिक शहर की आत्मा की लड़ाई नहीं है. दरअसल, बनारस की विविधता और बहुलता के बहाने यह ‘भारत’ के उस विचार के झंडे को बुलंद रखने की लड़ाई है जो अपनी सांस्कृतिक, वैचारिक, राजनीतिक विविधता और बहुलता पर गर्व करता है और जो हर तरह की और खासकर हिंदुत्व की संकीर्ण-पुनरुत्थानवादी से लेकर सामंती-फासीवादी धार्मिक पहचान से लड़ता आया है.
बनारस की इस लड़ाई में सामाजिक-आर्थिक समता और बराबरी पर आधारित एक आधुनिक, प्रगतिशील, समतामूलक, बहुलतावादी और भविष्योन्मुखी भारत का सपना दाँव पर लगा हुआ है. यह वह सपना है जिसे आज़ादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों ने देखा था. कहने की जरूरत नहीं है कि आज़ादी के पिछले ६७ सालों में इस सपने को मारने और खत्म करने की अनेकों कोशिशें की गईं हैं. लेकिन यह सपना जिन्दा है उन हजारों जनांदोलनों में जहाँ इस देश के गरीब आज भी अपने हक-हुकूक और एक बेहतर समाज और देश बनाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.

आज अगर देश में लोकतंत्र जिन्दा है तो इन्हीं छोटी-बड़ी लड़ाइयों के कारण जिन्दा है. लोकतंत्र सिर्फ़ पांच साला चुनावों से नहीं, जनांदोलनों और आमलोगों की सक्रिय राजनीतिक-सामाजिक भागीदारी से चलता है. लेकिन बनारस में यह लड़ाई दाँव पर है. बनारस में एक ओर हिंदुत्व की झंडाबरदार वे सांप्रदायिक ताकतें हैं जो देश को ‘विकास और सुशासन’ का सपना दिखाकर मध्ययुग में वापस ले जाना चाहती हैं. हैरानी की बात नहीं है कि बनारस और पूरे उत्तर प्रदेश में एक बार फिर ८० और ९० के दशक की जहरीली और आक्रामक सांप्रदायिक भाषा वापस लौट आई है. उसी तरह के जहरीले नारे, तेवर और तनाव के बीच नफरत का बुखार सिर चढ़कर बोल रहा है. यह राजनीति उत्तर प्रदेश को दो दशक पीछे खींच ले जाना चाहती है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के उभार के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार यू.पी.ए गठबंधन खासकर कांग्रेस है जिसकी केन्द्र सरकार भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी रोकने में नाकाम रही है. हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति उसकी इन्हीं नाकामियों का फायदा उठाकर एक नई राजनीतिक वैधता और जन-समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है.

उसकी इन कोशिशों को उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार की नाकामियों, जनता की बढ़ी हुई उम्मीदों पर खरा न उतरने और जातिवादी-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संकीर्ण राजनीति से लाभ उठाने की हताश कोशिशों से बहुत मदद मिली है. यही नहीं, बहुजन समाज पार्टी की वह अवसरवादी और सिनिकल जातिवादी राजनीति भी उतार पर है जिसकी सीमाएं और अंतर्विरोध साफ़ दिखने लगी हैं और जिसके पास सामाजिक-आर्थिक बराबरी पर आधारित समाज का कोई सपना नहीं है.  

सच पूछिए तो ऐसा लगता है कि कांग्रेस और सपा-बसपा ने मिलकर अपनी तरफ़ से उत्तर प्रदेश को भाजपा को सौंप दिया है. सच यह है कि उनके पास न तो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वैचारिक तैयारी है और न कोई प्रतिबद्धता. बिना किसी प्रगतिशील और जनोन्मुखी कार्यक्रम के जाति-संप्रदाय की गोलबंदी की संकीर्ण और सिनिकल राजनीति भी अंधे कुएं में फंस गई है. इसलिए कांग्रेस-सपा से हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति को चुनौती की कोई उम्मीद नहीं है. सबसे बड़ा खतरा यह है कि इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की अवसरवादी, सिनिकल और आमलोगों खासकर गरीबों के मुद्दों, आकांक्षाओं और अपेक्षाओं से कटी हुई 'धर्मनिरपेक्ष राजनीति' के कारण 'धर्मनिरपेक्षता' का विचार और राजनीति दोनों गहरे संकट में फंस गई है.
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश और बनारस में अगर कोई उम्मीद बची है तो वह उन गरीबों, कमजोर वर्गों, दलितों, अल्पसंख्यकों और आम लोगों के कारण बची है जो हिंदुत्व की सांप्रदायिक राजनीति के पीछे छिपे खतरों को समझ रहे हैं. वे हिंदुत्व के उभार के पीछे खड़ी उन सामंती और बड़ी पूंजी की कारपोरेट ताकतों को देख रहे हैं जो पिछले दशकों की लड़ाइयों से मिले राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हकों को पलटने के लिए जोर मार रहे हैं.

वे अपने निजी अनुभवों से जानते हैं कि हिंदुत्व के इस उभार में जो सामाजिक वर्ग सबसे अधिक उछल और आक्रामक हो रहा है, वह उसके हितों के लिए लड़नेवाला नहीं बल्कि उन्हें छीनने और दबानेवाला वर्ग है. बनारस में भी हिंदुत्व की आक्रामक राजनीति के पीछे खड़े चेहरों को पहचानना मुश्किल नहीं है. खासकर भगवा टोपी में दनदना रहे और विरोध और विवेक की हर आवाज़ को दबाने के लिए धमकाने से लेकर हिंसा तक का सहारा ले रहे हिंदुत्व के पैदल सैनिकों (फुट सोल्जर्स) में अच्छी-खासी तादाद उन सामंती दबंगों की है जिनकी गाली और लाठी की मार इन गरीबों और कमजोर वर्गों पर पड़ती रही है.      
क्या इससे कांग्रेस और उसके प्रत्याशी अजय राय लड़ सकते हैं? गौर करने की बात यह है कि अजय राय के साथ उसी सामंती दबंगों से बने सामाजिक आधार का तलछठ बचा हुआ है जो इस समय भाजपा का अगुवा दस्ता बना हुआ है. इसलिए उससे यह उम्मीद करना खुद को धोखे में रखना है कि वह साम्प्रदायिकता से मुकाबला करेगा और बनारस की आत्मा की हिफाजत करेगा. मजे की बात यह है कि भाजपा के नेता भी बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत कांग्रेस और अजय राय को मुकाबले में बता रहे हैं. यह भ्रम पैदा करने और विपक्ष के वोटों का बंटवारा सुनिश्चित कराने की कोशिश है. दूसरी ओर, बनारस में सपा और बसपा के प्रत्याशी पहले ही लड़ाई में हथियार डाल चुके हैं.

अच्छी बात यह है कि बनारस में लोगों के सामने आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल के रूप में एक मुकम्मल न सही लेकिन फौरी विकल्प है. इस लड़ाई का नतीजा चाहे जो हो लेकिन केजरीवाल ने भाजपा के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को राजनीतिक-वैचारिक तौर पर चुनौती दी है. हालाँकि इस चुनौती की सीमाएं हैं. लेकिन खुद केजरीवाल के मैदान में उतरने से बनारस की लड़ाई एकतरफा नहीं रह गई है. उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि बनारस की वैचारिक-राजनीतिक विविधता और बहुलता को पूरी तरह कुचलने की कोशिशें कामयाब नहीं हुईं.    
असल में, बनारस की इस लड़ाई में केजरीवाल के साथ और स्वतंत्र तौर पर भी दर्जनों सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों, जनांदोलनों, वाम-लोकतान्त्रिक छात्र-युवा संगठनों और बुद्धिजीवियों ने जो मुद्दे उठाए हैं, लोगों के बीच जाकर बात कही है और हिंदुत्व की राजनीति के खतरों पर एक राजनीतिक-वैचारिक बहस खड़ी की है, उससे बनारस में राजनीतिक माहौल बदला है. एक उम्मीद पैदा हुई है. नतीजा चाहे जो हो लेकिन बनारस में ‘भारत के विचार’ की भविष्य की लड़ाई की चुनौतियाँ और संभावनाएं एक साथ दिख रही हैं.

यह लड़ाई यहीं खत्म नहीं होनेवाली है. बनारस इस लड़ाई का एक महत्वपूर्ण मोर्चा है. लेकिन इस लड़ाई में अभी और भी कई मोर्चे आनेवाले हैं.             

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

पत्रकारिता के नीरा राडिया काल में ‘निष्पक्षता’

नत्थी पत्रकारिता के खतरे   

न्यूज चैनल- ‘आज तक’ के एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल के बीच ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज मीडिया और चैनलों पर सुर्ख़ियों में है.
अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ भाजपा नेताओं से लेकर कुछ न्यूज चैनल तक एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी पर पत्रकारिता की नैतिकता (एथिक्स) और मर्यादा लांघने का आरोप लगा रहे हैं. इस ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में वाजपेयी की केजरीवाल से अति-निकटता और सलाहकार जैसी भूमिका को निशाना बनाते हुए उनकी निष्पक्षता पर ऊँगली उठाई जा रही है.
आरोप लगाया जा रहा है कि वाजपेयी आम आदमी पार्टी की ओर झुके हुए हैं और चैनल के अंदर आप के प्रतिनिधि/प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वाजपेयी भी आशुतोष जैसे कई पत्रकार-संपादकों की तरह हैं जो चैनल/अखबार में आम आदमी पार्टी के पक्ष में काम कर रहे हैं, खबरों के साथ तोडमरोड कर रहे हैं और पार्टी के अनुकूल जनमत बनाने के अभियान में शामिल हैं.

इस कारण केजरीवाल के साथ उनका इंटरव्यू ‘फिक्सड’ और पी-आर किस्म का है जिसका मकसद केजरीवाल की सकारात्मक छवि गढना है और जिसमें शहीद भगत सिंह तक को इस्तेमाल किया जा रहा है.

सवाल यह है कि क्या वाजपेयी और केजरीवाल की ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत सिर्फ एक स्वाभाविक
सौजन्यता/औपचारिकता या हद से हद तक एक तरह का बडबोलापन है या फिर इसे पत्रकारीय निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता माना जाए?
हालाँकि पत्रकारिता के नीरा राडिया और पेड न्यूज काल में पुण्य प्रसून और केजरीवाल की बातचीत काफी शाकाहारी लगती है लेकिन इसमें पत्रकारिता की नैतिकता, मानदंडों और प्रोफेशनलिज्म के लिहाज से असहज और बेचैन करनेवाले कई पहलू हैं. इस बातचीत में वाजपेयी किसी स्वतंत्र पत्रकार और नेता के बीच बरती जानेवाली अनिवार्य दूरी को लांघते हुए दिखाई पड़ते हैं.
दूसरे, पत्रकारिता और पी-आर में फर्क है और पत्रकार का काम किसी भी नेता (चाहे वह कितना भी लोकप्रिय और सर्वगुणसंपन्न हो) की अनुकूल ‘छवि’ गढना नहीं बल्कि उसकी सच्चाई को सामने लाना है.

असल में, किसी भी पत्रकारीय साक्षात्कार में पत्रकार-एंकर अपने दर्शकों का प्रतिनिधि होता है और इस नाते उससे अपेक्षा होती है कि वह साक्षात्कारदाता से वे सभी सवाल पूछेगा जो उसके दर्शकों को मौका मिलता तो उससे पूछते. याद रहे कि कोई भी पत्रकारीय इंटरव्यू पत्रकार और साक्षात्कारदाता खासकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय या पद पर बैठे नेता के बीच की निजी बातचीत नहीं है.

सच यह है कि जब कोई नेता अपने को इंटरव्यू के लिए पेश करता है तो इसके जरिये वह लोगों के बीच यह सन्देश देने की कोशिश करता है कि वह अपने विचारों/क्रियाकलापों में पूरी तरह पारदर्शी है, कुछ भी छुपाना नहीं चाहता है और हर तरह के सार्वजनिक सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल के लिए तैयार है.
ऐसे में, पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस नेता से कड़े से कड़े और मुश्किल सवाल पूछे ताकि उसके विचारों/क्रियाकलापों से लेकर उसकी कथनी-करनी के बीच के फर्क और अंतर्विरोधों को उजागर किया जा सके. क्या पुण्य प्रसून वाजपेयी, केजरीवाल से इंटरव्यू करते हुए इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हुए भी जो बात खलती है, वह यह है कि ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में केजरीवाल कार्पोरेट्स और प्राइवेट सेक्टर के बारे में बात करने से बचने की दुहाई देते नजर आते हैं क्योंकि इससे मध्यवर्ग नाराज हो जाएगा.

लेकिन क्या यह वही अंतर्विरोध नहीं है जिसे इंटरव्यू में उजागर किया जाना चाहिए? यही नहीं, यह और भी ज्यादा चिंता की बात है कि वाजपेयी जैसा जनपक्षधर पत्रकार केजरीवाल को अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि गढ़ने के लिए भगत सिंह के इस्तेमाल का मौका दे.

कहने की जरूरत नहीं है कि यहीं से फिसलन की शुरुआत होती है जब कोई पत्रकार किसी नेता-पार्टी के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) दिखने लगता है. 
('तहलका' के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)                                       

शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

अर्थनीति वह जो कारपोरेट मन भाए

नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाने में जुटी है ‘आप’

आम आदमी पार्टी (आप) के आर्थिक दर्शन और नीतियों से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा है. हालाँकि पार्टी ने वायदे के बावजूद अब तक अपने आर्थिक दर्शन और अर्थनीति संबंधी दस्तावेज पेश नहीं किया है लेकिन उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल और मुख्य विचारक-रणनीतिकार योगेन्द्र यादव के हालिया भाषणों और बयानों से पार्टी की अर्थनीति की दिशा साफ़ होने लगी है.
केजरीवाल ने उद्योगपतियों के लाबी संगठन- सी.आई.आई की सभा में यह कहकर पार्टी के आर्थिक दर्शन की दिशा स्पष्ट कर दी कि पार्टी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है और वह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का विरोध करती है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और बिजनेस पूरी तरह से निजी क्षेत्र और उद्यमियों का काम है. इसके लिए लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज खत्म होना चाहिए.
दूसरी ओर, आप के मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने मुंबई में निवेशकों की एक सभा में कहा कि खाद्य सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि सीधे खाद्यान्न देना गरीबों की मदद का सबसे निष्प्रभावी और महंगा तरीका है.

उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बनाकर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके. यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए वि-नियमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है.

चौंक गए? ये बातें पहले भी सुनी हुई लग रही हैं? आपका चौंकना स्वाभाविक है क्योंकि आम आदमी पार्टी के नेताओं के अर्थनीति संबंधी इन बयानों में नया कुछ नहीं है. न भाषा में और न लहजे में. कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक दर्शन और अर्थनीति की दिशा यही है. केजरीवाल और योगेन्द्र यादव कमोबेश वही बोल रहे हैं जिसे देश पिछले दो दशकों से अहर्निश मनमोहन सिंह-पी. चिदंबरम-मोंटेक सिंह अहलुवालिया से सुनता रहा है और इन दिनों नरेन्द्र मोदी से सुन रहा है.
अगर आप की अर्थनीति की दिशा के बारे में केजरीवाल और यादव के ताजा बयानों और भाषणों को उसकी भविष्य में घोषित होनेवाली आर्थिक नीति की पूर्वपीठिका मानें तो सच यह है कि अर्थनीति के बुनियादी उसूलों और दिशा के बारे में मनमोहन सिंह, नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल की सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.        
संभव है कि योगेन्द्र यादव इसे स्वीकार न करें लेकिन संकेत यही है कि वे जिस अर्थनीति की वकालत कर रहे हैं, वह उसी नव उदारवादी अर्थनीति की बगलगीर दिखाई पड़ रही है जिसका समर्थन कांग्रेस और भाजपा करती रही हैं और जो पिछले दो दशकों से केन्द्र में सरकारों में बदलाव के बावजूद बिना किसी रुकावट के जारी हैं.

आम आदमी पार्टी की अर्थनीति- नव उदारवादी अर्थनीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थनीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थनीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थनीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थनीति तय करने के लिए सात सदस्यी नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं.

निश्चय ही, आम आदमी पार्टी के नव उदारवादी अर्थनीति को गले लगाने के साफ़ संकेतों के कारण उनके बहुतेरे समर्थकों और शुभचिंतकों को निराशा हुई है जो उससे अर्थनीति के मामले में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और दर्शन की अपेक्षा कर रहे थे.
हालाँकि पार्टी के विचारक और मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र का कहना है कि आप २० सदी की विचारधाराओं और वैचारिक खेमों- वाम और दक्षिण में विश्वास नहीं करती है और उन्हें भारत के लिए प्रासंगिक नहीं मानती है.
यह भी कि आप किसी भी पूर्व निर्धारित आर्थिक नीति के पैकेज से सहमत नहीं है और देश की जरूरतों के मुताबिक हर आर्थिक समस्या का घरेलू समाधान ढूंढने की कोशिश करेगी.  केजरीवाल भी कह चुके हैं कि वे वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों में यकीन नहीं करते हैं और समस्याओं का जहाँ से भी समाधान मिलेगा, उसे लेने में उन्हें परहेज नहीं होगा.
इन दावों और बयानों से ऐसा भ्रम होता है कि आप वाम और दक्षिण से अलग एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक वैचारिकी की वकालत कर रहा है. लेकिन सच यह है कि वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों और नीतिगत पैकेजों को ख़ारिज करने का जुबानी दावा करते हुए भी आम आदमी पार्टी वास्तव में एक दक्षिणपंथी आर्थिक एजेंडे यानी मुक्त बाजार की नव उदारवादी अर्थनीति को ही नए पैकेज में पेश करने की कोशिश कर रही है.

लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने-पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है. वैसे आप इसे छुपाना भी नहीं चाहती है. इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है.

इस मायने में कांग्रेस, भाजपा और आप यानी तीनों पार्टियां नव उदारवादी अर्थनीति के साथ खड़ी हैं और फर्क सिर्फ कुछ मामलों में जोर और प्रस्तुति भर का है. उदाहरण के लिए, कांग्रेस नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को गरीबों को कुछ मामूली राहतों (जैसे मनरेगा, भोजन के अधिकार आदि) के साथ लागू करने के पक्ष में है जबकि भाजपा-नरेन्द्र मोदी उसे बिना किसी बाधा और गरीबों को राहत देने जैसे सब्सिडी बोझ के बगैर लागू करना चाहते हैं.
वहीँ आप का दावा है कि वह इसे बिना याराना (क्रोनी) पूंजीवाद के लागू करना चाहती है. यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति को लागू करने के मामले में आप वास्तव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के ज्यादा करीब खड़ी है.     
असल में, आम आदमी पार्टी के नेताओं और रणनीतिकारों को लगता है कि शासन की पार्टी (पार्टी आफ गवर्नेंस) बनने के लिए बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना जरूरी है. इसके बिना सत्ता में पहुंचना और खासकर सरकार चला पाना मुश्किल है.

यही कारण है कि आप के नेता सी.आई.आई से लेकर मुम्बई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं.

ही नहीं, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सी.ए.जी से आडिट कराने और के.जी. बेसिन गैस मामले में एफ.आई.आर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कारपोरेट जगत को आश्वस्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं बल्कि चुनिंदा मामलों में लिए गए फैसले भर हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी अर्थनीति से याराना पूंजीवाद या भ्रष्टाचार को अलग किया जा सकता है? बिलकुल नहीं, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म का सीधा सम्बन्ध नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से है.
सच यह है कि इन सुधारों के साथ भ्रष्टाचार का भी पूरी तरह से उदारीकरण हो गया है. इसका सुबूत यह है कि आज़ादी के बाद से भारत से जो कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर गया, उसका ६८ प्रतिशत अकेले १९९१ के आर्थिक सुधारों के बाद से गया है. ग्लोबल फिनान्सियल इंटीग्रिटी (जी.एफ.आई) रिपोर्ट’२०१३ के मुताबिक, १९४८ से २००८ के बीच अवैध तरीके से भारत से लगभग २१३ अरब डालर की रकम विदेशों में खासकर आफशोर बैंकों में चली गई.
अगर इस रकम को मुद्रास्फीति के साथ एडजस्ट करें तो भ्रष्ट और घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों और माफियाओं ने इन साठ वर्षों में कोई ४६२ अरब डालर की रकम लूटकर विदेशों में भेज दिया. लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका ६८ प्रतिशत यानी ३१४ अरब डालर आर्थिक सुधारों के शुरू होने के बाद गए हैं.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, १९९१ के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन ९.१ प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरुआत के बाद उछलकर सीधे १६.४ प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट के अनुसार, २००२ से २००८ के बीच औसतन हर साल १६ अरब डालर यानी ७३६ अरब रूपये का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया.          

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा.
सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.
दूसरे, उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया.

नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.

इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.
सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं है.
इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक तरह की सब्सिडी ही है.

असल में, पिछले डेढ़-दो दशकों में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ‘तेज विकास दर और भारत को आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की आड़ में आगे बढ़ाया गया है, उसने वास्तव में गरीबों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और आम आदमी के हितों की कीमत पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा बेशकीमती सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिजों की बेशर्म लूट का रास्ता साफ़ किया है.

सच पूछिए तो यह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) नहीं बल्कि मूलतः यह लुटेरा पूंजीवाद (रोबर कैपिटलिज्म) है. लेकिन इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है. यह पूंजीवाद का कोई विपथगमन (एबेरेशन) नहीं बल्कि अन्तर्निहित चरित्र है. इसका इलाज मुक्त बाजार और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) नहीं है बल्कि ये इसके ही स्वाभाविक सहोदर हैं.
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी नीतिगत रूप से इसका विकल्प पेश किये बिना सिर्फ ईमानदार राजनीति के प्रस्ताव से समाधान का दावा कर रही है लेकिन वे भूल रहे हैं कि ईमानदार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं लेकिन वे कहाँ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाए?
याद रहे, मार्क्स ने कहा था कि राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है. साफ़ है कि केजरीवाल जिस नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाकर कार्पोरेट्स को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वह राजनीतिक रूप से भी उन्हें उसी याराना पूंजीवाद की गोद में बैठा देगी.

उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आप अर्थनीति के मामले में जो मध्य-दक्षिण (सेंटर-राईट) पोजिशनिंग की कोशिश कर रही है, वह उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा पाएगी. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण जगह खाली नहीं है. क्या उन्हें पता है कि वह जगह भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने पहले से ही भर दी है? वहां मोदी से प्रतियोगिता करके उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा. 

केजरीवाल चाहे या न चाहें लेकिन उनके सामने बाएं मुड़ने या मोदी की 'हवा' में उड़ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.  
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 22 फ़रवरी को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख   

शनिवार, जनवरी 18, 2014

जरूरी है आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार

इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि आज़ादी के ६६ साल बाद भी एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर है 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
क्या अगर कोई फैक्ट्री का मालिक या मैनेजर व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है लेकिन अपने श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम देता है और श्रम कानूनों की अनदेखी करता है तो उसे आम आदमी माना जाएगा? मालिक की ईमानदारी शेयरहोल्डरों के प्रति होनी चाहिए कि श्रमिकों के प्रति? मैनेजर, नियोक्ता यानी मालिक के प्रति ईमानदार रहे या श्रमिकों और ग्राहकों के प्रति?
यही नहीं, स्थाई नौकरी के बजाय ठेके पर नियुक्ति या जब चाहे हायर-फायर की नीति ईमानदारी में गिनी जाएगी या भ्रष्टाचार में? मारुति या ऐसी ही किसी और कंपनी में श्रमिकों की यूनियन बनाने की मांग और अपनी मांगों के लिए हड़ताल और उसे तोड़ने के लिए सरकार के आदेश पर पुलिस के लाठीचार्ज और दमन में कौन ईमानदार है और कौन भ्रष्ट? इनमें किसे आम आदमी माना जाएगा? 
यही नहीं, इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि देश में आज़ादी के ६६ साल बाद भी अगर एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर हो, लगभग ५० से ७७ फीसदी आबादी गरीबी रेखा (योजना आयोग के मुताबिक २२ फीसदी) के नीचे गुजर-बसर करती हो, लगभग ८८ लाख परिवार झुग्गियों में कीड़े-मकोडों की तरह रहते हों, हर साल लाखों बच्चे कुपोषण के कारण असमय मौत के मुंह में समा जाते हों, लाखों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हों, करोड़ों शिक्षित युवा बेरोजगार हों और यह सूची अंतहीन है.

लेकिन दूसरी ओर, देश में डालर अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो और मुकेश अम्बानी पांच हजार करोड़ रूपये की २७ मंजिला अट्टालिका में रहते हों? इसमें आम आदमी कौन है? इनमें कौन ईमानदार और कौन बेईमान है?                                   

साफ़ है कि ईमानदारी बनाम बेईमानी के आधार पर आम आदमी की पहचान अंतर्विरोधों और विसंगतियों से भरी हुई है. बेहतर यह होगा कि आम आदमी की पहचान सामाजिक-आर्थिक आधार पर हो. निश्चय ही, इस देश के गरीब, श्रमिक, छोटे-मंझोले किसान, पिछड़े, दलित, आदिवासी के साथ-साथ अल्पसंख्यकों का बड़ा हिस्सा, विस्थापित असली आम आदमी है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार होना चाहिए. सिर्फ सरकारी गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों को ही आम आदमी मानना आम आदमी के साथ सबसे बड़ा मजाक है क्योंकि सरकारी गरीबी रेखा खुद एक मजाक है.
सच यह है कि शहरों और कस्बों में निम्न मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी आम आदमी है क्योंकि वह भी बुनियादी सुविधाओं जैसे घर, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य और बेहतर जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा है.
ध्यान रहे कि ९० के दशक के बाद के आर्थिक सुधारों के बाद अर्थव्यवस्था यानी जी.डी.पी में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़कर ५५ फीसदी से ऊपर पहुँच गया है. लेकिन इस क्षेत्र जैसे होटल-रेस्तरां से लेकर बी.पी.ओ तक और शापिंग माल्स से लेकर कुरियर सेवा तक और टेलीकाम से लेकर सेक्युरिटी सर्विस तक में काम कर रहे लाखों युवाओं को जिन बदतर स्थितियों और असुरक्षा के बीच काम करना पड़ रहा है, वह किसी से छुपा नहीं है.

यह ठीक है कि वे सरकारी परिभाषा के मुताबिक गरीब नहीं हैं और उनमें से एक हिस्से का वेतन भी अपेक्षाकृत बेहतर है लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि उन्हें जितने घंटे और जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है और उसके बावजूद नौकरी से लेकर कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, उसके कारण उन्हें आम आदमी ही माना जाना चाहिए. इसी तरह असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे करोड़ों श्रमिक आम आदमी हैं और कई मामलों में आम आदमी से बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं.
  
लेकिन कैप्टन गोपीनाथ से लेकर मीरा सान्याल तक को किस तरह से आम आदमी माना जाए? इसमें कोई बुराई नहीं है कि वे और उनके जैसे और लोग आम आदमी पार्टी में आएं और राजनीति को आम आदमी की सेवा में लगाने में मदद करें लेकिन इसका सीधा अर्थ यह है कि आम आदमी पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम असली आम आदमी के हितों को आगे बढानेवाले होंगे न कि बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों के.

गरज यह कि केजरीवाल चाहे जैसे आम आदमी को पारिभाषित करें लेकिन असल मुद्दा यह है कि आप पार्टी किस आम आदमी के पक्ष में खड़ी है और उसकी प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाला या ग्रेटर कैलाश?

याद रहे, असली आम आदमी इसी कसौटी पर आम आदमी पार्टी को कसने जा रहा है.

('शुक्रवार' के 22 जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी क़िस्त) 

शुक्रवार, जनवरी 17, 2014

तय करो किस ओर हो 'आप'?

'आप’ की प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी या ग्रेटर कैलाश के वाशिंदे?
 
पहली क़िस्त

आम आदमी पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनाव में चमत्कारिक प्रदर्शन के बाद यह बहस एक बार फिर शुरू हो गई है कि आम आदमी कौन है? आप पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद भाषण में आम आदमी की परिभाषा देते हुए कहा कि जो ईमानदारी के साथ रहना चाहता है वह सब आम आदमी है, चाहे वह झुग्गी में रहता हो या ग्रेटर कैलाश में.

हालाँकि उन्होंने बहुत साफ़-साफ़ नहीं कहा लेकिन केजरीवाल का आशय साफ है कि उनके लिए सभी आम आदमी हैं- चाहे वह अमीर हों या गरीब, पूंजीपति हों या मजदूर, भूस्वामी हों या भूमिहीन खेत मजदूर, सामंत हों या गरीब या फिर विस्थापक कार्पोरेट्स हों या विस्थापित आदिवासी/किसान. यह सूची लंबी हो सकती है लेकिन शर्त सिर्फ यह है कि वह ईमानदार हो और ईमानदारी के साथ खड़ा हो.
कहने की जरूरत नहीं है कि आम आदमी की इस व्यापक लेकिन अंतर्विरोधी परिभाषा के जरिये अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के सामाजिक जनाधार को अधिकतम संभव व्यापक और समावेशी बनाना चाहते हैं जिसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों/तबकों/समुदायों इकठ्ठा किया जा सके.

लेकिन वे भूल रहे हैं कि इन सामाजिक वर्गों के बीच बुनियादी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर गहरे अंतर्विरोध हैं. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी की समझ को लेकर भी अंतर्विरोध हैं. दरअसल, केजरीवाल आम आदमी की पहचान को सामाजिक-आर्थिक आधार के बजाय नैतिक आधार- ईमानदारी के आधार पर परिभाषित करना चाहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि ईमानदारी की परिभाषा क्या है? आखिर ईमानदार कौन है? बताया जाता है कि खुद मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं लेकिन आरोप है कि वे आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है कि उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या महत्व है?
खुद केजरीवाल के मुताबिक, ईमानदार वह है जो भ्रष्टाचार यानी घूस लेने-देने का विरोध करता है. लेकिन मुश्किल यह है कि घोषित तौर पर कोई भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करता है और चाहे वह प्रधानमंत्री हों या छोटे-बड़े कार्पोरेट्स या नौकरशाह या फिर एन.जी.ओ- सभी भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात करते हैं.
लेकिन इनमें से कई व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार होते हुए भी भ्रष्टाचार और घूस लेने-देने वालों का विरोध नहीं करते हैं. उससे आँखें मूंदे रहते हैं. क्या उन्हें आम आदमी माना जाना चाहिए?

यही नहीं, व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा नीतियों के स्तर पर होनेवाले भ्रष्टाचार यानी नीतियों को बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों के अनुकूल और आम आदमी के हितों के खिलाफ बदलने का है. निजीकरण से लेकर उदारीकरण की अर्थनीति में ऊपर से देखिए तो कोई भ्रष्टाचार नहीं है लेकिन गरीबों और आम आदमी पर इसके नकारात्मक प्रभाव को बेईमानी क्यों नहीं माना जाना चाहिए?

जैसे बिजली और पानी के निजीकरण की नीति को लीजिए. दिल्ली सहित देश के अधिकांश राज्यों में बिजली और कुछ में पानी के निजीकरण के तहत बड़ी कंपनियों को उनके उत्पादन और वितरण का जिम्मा सौंप दिया गया जिसकी कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
क्या यह सिर्फ दिल्ली तक और कुछ कंपनियों तक सीमित भ्रष्टाचार है या इसके लिए निजीकरण की नीति भी जिम्मेदार है? इसी तरह देश में पिछले डेढ़-दो दशकों में उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को जिस तरह से देश के बेशकीमती प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई है, वह किसी से छुपा नहीं है.
यह अनदेखा करना भी मुश्किल है कि चाहे कोयला खदानों के आवंटन का मामला हो या २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन का मामला हो या फिर इस जैसे दूसरे मामले हों, इनमें भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत उदारीकरण और निजीकरण की वह नीति है जिसे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के अनुकूल बनाया गया है.

यह ठीक है कि ये कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें उदारीकरण और निजीकरण के तहत घोषित प्रक्रियाओं का उल्लंघन करके प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट हुई लेकिन इनके अलावा जहाँ नियमों और प्रक्रियाओं के तहत प्राकृतिक संसाधन कार्पोरेट्स को दिए गए, वहां क्या सब ठीक चल रहा है?

उदाहरण के लिए, के.जी बेसिन गैस आवंटन के मुद्दे को लीजिए, जहाँ रिलायंस के दबाव के तहत यू.पी.ए सरकार नियमों का पालन करते हुए जिस तरह से गैस की कीमतें दुगुनी करने का फैसला कर चुकी है, क्या वह भ्रष्टाचार नहीं है?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को ले लीजिए, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के तहत जैसे बड़ी कंपनियों को अपनी मर्जी के मुताबिक वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें तय करने का अधिकार दे दिया गया, उसकी असली कीमत आम आदमी चुका रहा है. चाहे वह दवाओं की कीमतें तय करने का मसला हो या अस्पताल या स्कूल फीस या फिर बिजली की. यहाँ तक कि नियामक संस्थाएं बड़े कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने का माध्यम बन गई हैं.
इसी तरह केन्द्र सरकार हर साल बजट में बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों को पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन के नामपर देती हैं लेकिन आम आदमी को छोटी सी राहत को भी सब्सिडी बताकर उसमें कटौती की कैंची चलाने में जुटी रहती है. सवाल यह है कि क्या यह बेईमानी या भ्रष्टाचार नहीं है?

लेकिन मजे की बात यह है कि भ्रष्टाचार के इलाज के नाम पर आगे बढ़ाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार विश्व बैंक-मुद्रा कोष भी भ्रष्टाचार के खिलाफ है और भारत सरकार भी, सी.आई.आई/फिक्की/एसोचैम भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और आई.ए.एस एसोशियेशन भी और एन.जी.ओ भी भ्रष्टाचार रोकने के लिए लड़ रहे हैं और राजनीतिक दल भी.

लेकिन क्या ये सभी आम आदमी के प्रतिनिधि हैं? फिर भ्रष्टाचार बढ़ता क्यों जा रहा है? क्या यह सिर्फ कुछ व्यक्तियों का नैतिक विचलन भर है या एक संस्थागत चुनौती है? लेकिन केजरीवाल की आम आदमी की परिभाषा में अन्तर्निहित अंतर्विरोध सिर्फ यही नहीं है.
सवाल यह है कि सिर्फ भ्रष्टाचार का विरोध और ईमानदारी की कसमें खाकर झुग्गी-झोपड़ी से लेकर ग्रेटर कैलाश तक में रहनेवाले सभी लोग आम आदमी कैसे हो सकते हैं? पांच करोड़ के फ़्लैट में रहनेवाले और हर महीने लाखों-करोड़ों कमानेवाले अमीर के घर में घरेलू काम करनेवाली या उसकी कार के ड्राइवर या घर के चौकीदार या माली- सभी आम आदमी कैसे हो सकते हैं?
क्या लाखों-करोड़ों कमानेवालों के यहाँ काम के बदले सिर्फ कुछ हजार में किसी तरह गुजारा करनेवालों के लिए ईमानदारी के मायने एक ही हैं?
('शुक्रवार' के २६ जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त) 
 

मंगलवार, जनवरी 14, 2014

किस राह जाएगी आम आदमी पार्टी?

राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी मुश्किल सवालों से बच नहीं सकती है
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
तथ्य यह है कि दिल्ली के चुनावों में जिस तरह से जातियों, धर्मों और क्षेत्रीय अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति के कमजोर पड़ने के संकेत मिले हैं और शहरी मध्यमवर्ग से लेकर गरीबों तक के बीच अस्मिता और सशक्तिकरण से आगे एक बेहतर नागरिक जीवन की आकांक्षाओं की राजनीति ने आकार लेना शुरू किया है, वह केवल शहरों तक सीमित नहीं रहनेवाली है.
इसका असर गांवों पर भी पड़ेगा. नव उदारवादी अर्थनीति के कारण ग्रामीण इलाकों में जिस तरह का कृषि संकट पैदा हुआ है, उसमें छोटे और मंझोले किसानों का जीना दूभर हो गया है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर नहीं हैं और शिक्षा-स्वास्थ्य समेत तमाम बुनियादी सेवाओं के निजीकरण और बाजारीकरण ने उन्हें उनकी पहुँच से दूर कर दिया है, उसके खिलाफ ग्रामीण समुदाय खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों में जबरदस्त गुस्सा है.
यही नहीं, एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर पुलिस-थाने, कोर्ट-कचहरी, बैंक-ब्लाक समेत हर सरकारी दफ्तर में बिना घूस कोई सुनवाई नहीं होने के कारण हर आम आदमी परेशान है.   
कड़वी सच्चाई यह है कि राज्यों की राजधानियों से लेकर जिला और तहसील मुख्यालय तक राजनेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों का गिरोह विकास के नामपर आ रहे पैसे को खुलेआम निगलने में लगा हुआ है.

हैरानी की बात नहीं है कि राजधानियों से लेकर जिले की सड़कों पर दौड़ती लाल बत्ती लगी लाखों की फार्चुनर, प्राडो, स्कार्पियो, बोलेरो गाड़ियों में सबसे अधिक नेता-ठेकेदार-अपराधी और अफसर मिलेंगे. सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश जिलों में नेता-ठेकेदार-अपराधी के बीच की विभाजन रेखा कब की खत्म हो चुकी है. राजनीतिक कार्यकर्ता का मतलब थाने और अफसरों की दलाली हो गया है.

इसके अलावा जैसे कांग्रेस-सपा-राजद-अकाली दल-शिव सेना सहित सभी बड़ी मध्यमार्गी शासक पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का कब्ज़ा हो गया है, वैसे ही सभी बड़ी शासक पार्टियों में अधिकांश जिलों में धीरे-धीरे एक या दो परिवारों का कब्ज़ा हो गया है जिसमें एक या दो नेताओं के परिवार से ही विधायक, सांसद, जिला परिषद, नगर परिषद और मुखिया तक हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि गांव से लेकर तहसील/जिले तक में सफल नेता के ग्राम प्रधान/विधायक/सांसद/मंत्री बनते ही उसकी संपत्ति में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि होने लग रही है. यही नहीं, वह जिस तरह से विकास के पैसे से लेकर सार्वजनिक संपत्ति को दोनों हाथों से लूटने लग रहा है और लोगों की जमीन से लेकर मकान-दूकान कब्जाने में जुट जा रहा है, वह आमलोगों की नज़रों से छुपा नहीं है. उन्हें आमलोगों से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
मुश्किल यह है कि अधिकांश राज्यों में आमलोगों के पास अभी कोई विकल्प नहीं है या कमजोर विकल्प है और इस कारण जाति-धर्म और क्षेत्र की आड़ में एक भ्रष्ट-अपराधी-अवसरवादी राजनीति फलती-फूलती रही है. ऐसा नहीं है कि लोगों ने बदलाव और बेहतर राजनीति के लिए वोट नहीं किया. लोगों ने उपलब्ध विकल्पों में फेरबदल करके या नई शक्तियों को मौका देकर बदलाव की कोशिश की.
लेकिन ९० के बाद के पिछले दो दशकों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरे जनता दल और उसके विभिन्न विभाजित हिस्सों-सपा, राजद और जे.डी.-यू आदि को लोगों ने कई बार मौका दिया. इसके अलावा दलित उभार के प्रतीक के रूप में उभरी बसपा को भी कई मौके मिले.

यही नहीं, भाजपा को भी केन्द्र के अलावा कई राज्यों में मौका मिला लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति के कीचड़ को साफ़ करने के बजाय सभी उसमें और लिथड़ते चले गए. राजनीतिक सडन बढ़ती गई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच देश की अर्थव्यवस्था और उसके साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण पेशेवर लोगों, छात्रों, युवाओं की एक बड़ी तादाद आई है जो अस्मिताओं की राजनीति से आगे जाकर मौजूदा दमघोंटू भ्रष्ट राजनीति और असंवेदनशील शासन तंत्र में बदलाव चाहती है.

आखिर यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हो और राजनीति उससे अछूती रह जाए?

नतीजा, भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी और सुरक्षा की मांग को लेकर हुए आन्दोलनों में उत्तर नव उदारीकरण अर्थनीति के लाभार्थियों और उसके सताए लोगों के एक ढीले-ढाले लेकिन व्यापक गठबंधन ने मौजूदा भ्रष्ट और जनविरोधी राजनीति-अर्थनीति को चुनौती देने और बदलने की मुहिम को खुला और सक्रिय समर्थन दिया है.
इसमें याराना पूंजीवाद और निजीकरण-बाजारीकरण के गठजोड़ की लूट और आमलोगों पर पड़ रही उसकी मार से नाराज और बेचैन मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग से लेकर गरीब तक सभी शामिल हैं. यह एक इन्द्रधनुषी गठबंधन है जिसमें स्वाभाविक अंतर्विरोध और हितों के टकराव भी हैं लेकिन कई मामलों में एका भी है. इसमें ग्रामीण आप्रवासी श्रमिकों का भी एक अच्छा-खासा हिस्सा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ९० के बाद के दो दशकों में शहरों में व्यापक बदलाव हुए हैं और अस्मिताओं के संकीर्ण दायरों से इतर एक नए और व्यापक नागरिक पहचान की राजनीति के लिए जगह बनी है, उसी तरह पिछले दो दशकों में गांवों में भी बहुत कुछ बदला है. वहां भी लोगों की बेहतर जीवन और उसके लिए जरूरी नागरिक सुविधाओं और अधिकारों की आकांक्षाएं अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हैं. जमीन तैयार है और वहां भी चमत्कार हो सकता है.

लेकिन शहरों से बाहर बदलाव की इस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए न सिर्फ पर्याप्त सांगठनिक-राजनीतिक तैयारी जरूरी है बल्कि आप पार्टी को अपनी वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति भी ज्यादा साफ़ और धारदार बनानी होगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी की मौजूदा वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति न सिर्फ अस्पष्ट और धुंधली सी है बल्कि कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी चुप्पी या उससे बचने की कोशिश साफ़ दिखती है.

लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी इन सवालों से बच नहीं सकती है और देर-सबेर उसे इन सवालों के जवाब देने पड़ेंगे और अपनी राजनीतिक-वैचारिक स्थिति स्पष्ट करनी पड़ेगी. हालाँकि आप पार्टी क्रमश: सामाजिक-जनवादी दिशा में बढ़ती दिख रही है लेकिन यहाँ यह जोर देकर कहना जरूरी है कि उसके पास वैचारिक-राजनीतिक तौर पर वाम-लोकतांत्रिक राजनीतिक स्पेस में खड़ा होने या उसके करीब जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
इसकी वजह यह है कि बदलाव की राजनीति का बेहतर मुहावरा वाम-लोकतांत्रिक वैचारिकी और उसके वैश्विक खासकर लातिनी अमेरिकी प्रयोगों से ही मिल सकता है.
यह और बात है कि खुद सरकारी वामपंथी पार्टियां लोगों का भरोसा गँवा चुकी शासकवर्गीय मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टियों के साथ अवसरवादी संश्रय बनाते-बनाते उनकी ऐसी पिछलग्गू बन चुकी हैं कि अपनी चमक के साथ-साथ पहलकदमी भी गवां चुकी हैं.

दूसरी ओर, रैडिकल वाम की पार्टियां नए प्रयोग करने, नए मुहावरे गढ़ने और नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों के रैडिकल जनांदोलनों को नई ऊँचाई और स्तर पर ले जाने में नाकामी के बीच एक गंभीर गतिरोध में फंसी हुई दिखाई दे रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी को कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी मध्यमार्गी शासक पार्टियों की भ्रष्ट और कारपोरेटपरस्त राजनीति के मुकाबले एक मुकम्मल विकल्प दे पाने में सरकारी वाम मोर्चे और रैडिकल वाम की नाकामी का भी लाभ मिला है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वाम राजनीति का एजेंडा अप्रासंगिक हो गया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी इस वाम एजेंडे से बहुत कुछ ले और दिल्ली से पैदा हुई बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ा सकती है.

('सबलोग' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)