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रविवार, मई 25, 2014

अखिलेश यादव के पास अब ज़्यादा समय नहीं बचा है

परिवार, बाहुबलियों और भ्रष्ट अफसरों-मंत्रियों-नेताओं से पीछा छुड़ाए बिना सरकार का इकबाल लौटना मुश्किल है

हालिया लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में उम्मीदों के विपरीत समाजवादी पार्टी के बहुत ख़राब प्रदर्शन के बाद अखिलेश यादव की सरकार के पास दो ही विकल्प बचे हैं: राज्य में बेहतर प्रशासन और क़ानून-व्यवस्था की बहाली और समावेशी विकास ख़ासकर सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर युद्धस्तर पर अभियान छेड़ने की पहल करना और राजनीतिक पहलकदमी की कमान संभाल लेना या फिर एक लचर और दिशाहीन सरकार चलाते हुए धीरे-धीरे इतिहास के गर्त की ओर बढ़ने को अभिशप्त हो जाना.

यह अखिलेश भी जानते हैं कि उनके पास समय बहुत कम है और राजनीतिक रूप से वे कमज़ोर विकेट पर हैं जहाँ से सिर्फ ढलान ही है. चुनावों में हार के बाद उनकी सरकार की चमक फीकी पड़ गई है और स्थिति को तुरंत नहीं संभाला तो सरकार का राजनीतिक इक़बाल भी ख़त्म हो जाएगा.

भाजपा के पक्ष में जिस तरह का ध्रुवीकरण हुआ है और वह सपा के सामाजिक आधार में घुसने में कामयाब हो गई है, उसमें वह अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखेगी. ख़ुद सपा में आंतरिक सत्ता संघर्ष तेज़ होने और नेताओं में सुरक्षित राजनीतिक ठिकाने की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति तेज़ होने की आशंका बढ़ रही है.

अखिलेश के पास इस गंभीर और अनप्रिसिडेंटेड संकट से निपटने के लिए मामूली उपायों और फ़ैसलों से काम नहीं चलनेवाला है. उन्हें सपा की मौजूदा बीमारियों से निपटने के लिए उपाय और फ़ैसले भी उतने ही अनप्रिसिडेंटेड करने पड़ेंगे. उन्हें सरकार से लेकर पार्टी तक की गंभीर बीमारी को दूर करने के लिए दवा के बजाय आपरेशन करने का साहस दिखाना होगा. इस मामले में उन्हें अपनी सरकार या परिवार या क़रीबियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने और उसे जोखिम में डालने से हिचकना नहीं चाहिए. 

कहने की ज़रूरत नहीं है कि सपा के पुनर्नवीनीकरण और सरकार को ऊर्जावान बनाने के लिए अखिलेश यादव को सबसे पहले अपने परिवार से ही शुरू करना होगा. सपा सिर्फ मुलायम परिवार की पार्टी है, इस धारणा को तोड़ने के लिए सबसे पहले परिवार की पार्टी और सरकार में भूमिका ख़त्म करनी होगी.
 

इसके लिए ज़रूरी है कि वे सबसे पहले शिवपाल यादव को मंत्रिमंडल से बाहर करें, ख़ुद प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष का पद छोड़ें और परिवार के बाक़ी सदस्यों की भूमिका सीमित करें. दूसरी ओर, मंत्रिमंडल से राजा भैया समेत तमाम दागियों और आज़म खान जैसे विवादास्पद मंत्रियों को बाहर करें. मंत्रिमंडल छोटा करें और नए-युवा लोगों को मौक़ा दें. 

इसके साथ तुरंत क़ानून-व्यवस्था के मामले में ज़ीरो टालरेंस के आधार पर पुलिस अधिकारियों को निष्पक्ष होकर और पूरी सख़्ती के साथ क़ानून-व्यवस्था पर नियंत्रण क़ायम करने का ज़िम्मा दें और सुनिश्चित करें कि कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं हो. पार्टी से अपराधियों और असामाजिक तत्वों की तुरंत छुट्टी होनी चाहिए क्योंकि सपा की सरकार को जितना नुकसान पार्टी से जुड़े असामाजिक तत्वों और अपराधियों ने पहुँचाया है, उतना नुकसान किसी और चीज से नहीं हुआ है. ऐसे तत्वों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए और यह स्पष्ट सन्देश जाना चाहिए कि सरकार ऐसे तत्वों और उनकी हरकतों को कतई बर्दाश्त नहीं करेगी।



दूसरी ओर, समयबद्ध आधार पर सड़क-बिजली-पानी-स्कूल-अस्पताल को दुरुस्त करने के लिए अभियान शुरू करें. इसके लिए मंत्रियों से लेकर ज़िला अधिकारियों को चार-चार महीने का निश्चित टास्क दिया जाए जिसकी मुख्यमंत्री ख़ुद और उनका कार्यालय सख़्त निगरानी करे. मुख्यमंत्री को ख़ुद बिजली और सड़क का ज़िम्मा लेना चाहिए. इसमें ख़ासकर शहरों के इंफ़्रास्ट्रक्चर का पुनर्नवीनीकरण प्राथमिकता पर होना चाहिए. 
 
 
यह आसान नहीं है. अखिलेश की राह में सबसे ज़्यादा रोड़े ख़ुद उनके पिता और परिवार के लोग या उनके नज़दीक़ी अटका रहे हैं. उनसे निपटने के लिए ज़बरदस्त साहस और इच्छाशक्ति की ज़रूरत है.
 
याद रहे जिस तरह से कभी चंद्रबाबू नायडू ने अपने ससुर एनटीआर के लक्ष्मी पार्वती प्रेम और उसमें पार्टी को डूबते देखने के बजाय बग़ावत का रास्ता चुना था, वैसे ही अखिलेश को अपने पिता, चाचाओं, भाइयों और संबंधियों के ख़िलाफ़ बग़ावत का झंडा उठाने से हिचकिचाना नहीं चाहिए. अगर वे संकोच करेंगे तो उन्हें अपने परिवार के साथ राजनीतिक हाराकिरी के लिए तैयार हो जाना चाहिए. 

लेकिन अगर मौजूदा संकट से निपटने के नामपर अखिलेश को हटाकर मुलायम सिंह खुद मुख्यमंत्री बनने और अखिलेश को उप-मुख्यमंत्री बनाने  करते हैं तो इससे बड़ा मजाक और कोई नहीं होगा। उत्तर प्रदेश की जनता का सन्देश बिलकुल साफ़ है. उसने 2012 में सपा को बहुमत की सरकार देते हुए उम्मीद की थी कि वह एक साफ़-सुथरी, ईमानदार, कानून-व्यवस्था और राज्य के समावेशी विकास पर जोर देनेवाली सरकार होगी. खासकर युवा अखिलेश से ज्यादा उम्मीद थी क्योंकि वे डी पी यादव जैसे बाहुबली को नकार कर और विकास की बातें करके सत्ता में आये थे.

लेकिन अगर पारिवारिक तख्तापलट के जरिये मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश की जाती है तो यह जनादेश की भावना के खिलाफ होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि मुलायम सिंह समेत शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव और दूसरी ओर, आज़म खान तक राज्य में सभी सुपर चीफ मिनिस्टर हैं और इन सभी की मनमानियों और खब्तों ने ही राज्य में सपा की लुटिया डुबाई है और भाजपा को मौका दिया है.      

शुक्रवार, मई 16, 2014

जनतंत्र के हक़ में है कांग्रेस का जाना

धर्मनिरपेक्षता कुशासन और नाकामियों को छिपाने का हथियार नहीं है और लोकतंत्र में जवाबदेही तय होनी चाहिए

कांग्रेस का राजनीतिक रूप से लगभग सफ़ाया हो गया़ है. वह ऐतिहासिक हार की ओर बढ़ रही है. हालाँकि यह बहुत पहले ही तय हो चुका था. इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है. कांग्रेस नेता भी कमोबेश इस नियति को स्वीकार कर चुके थे. लेकिन कांग्रेस की ऐसी शर्मनाक हार होगी, यह आशंका कांग्रेस नेताओं और उससे सहानुभूति रखनेवाले धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को भी नहीं थी.

कांग्रेस की हार की वजह भी यही है. उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी लेकिन उसके नेताओं को या तो पता नहीं था या फिर अपने अहंकार और चापलूसी की संस्कृति के कारण वे उसे देखने को तैयार नहीं थे. कहने की ज़रूरत नहीं है कि अपनी इस ऐतिहासिक हार के लिए कांग्रेस ख़ुद ज़िम्मेदार है. उसके नेतृत्व की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अंधभक्ति का यही हश्र होना था.

दरअसल, कांग्रेस को यूपीए सरकार के राज में बढ़ते भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोज़गारी और ग़रीबों को राहत पहुँचाने में उसकी नाकामियों की सज़ा मिली है. यह जनतंत्र के हक़ में है. जनतंत्र में सरकार की नाकामियों और कुशासन की क़ीमत पार्टियों को चुकानी ही चाहिए. कल्पना कीजिए कि कांग्रेस की तमाम नाकामियों और कुशासन के बावजूद अगर कांग्रेस की जीत होती तो कांग्रेस के अहंकार पता नहीं किस आसमान पर पहुँच जाता? क्या वह कारपोरेट लूट और नव उदारवादी नीतियों के लिए जनादेश की तरह व्याख्या नहीं करती?

इस अर्थ में यह फ़ैसला जनतंत्र के हक़ में है. कांग्रेस और उसके शुभचिंतकों ने अपनी नाकामियों और कुशासन को 'धर्मनिरपेक्षता' की आड़ में छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन लोग इस झाँसे में नहीं आए. यह धर्मनिरपेक्षता की नहीं बल्कि साफ़ तौर पर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे को लोगों के रोज़ी-रोटी के मुद्दों से काटकर सिर्फ सत्ता के लिए भुनाने की राजनीति की नाकामी है.

यह उन सभी बुद्धिजीवियों के लिए एक सबक़ है जो कांग्रेस और सपा-राजद जैसी पार्टियों के सीमित, संकीर्ण और अवसरवादी राजनीति के भरोसे सांप्रदायिक राजनीति से लड़ने की वकालत करते हैं. साफ़ है कि सांप्रदायिक राजनीति का मुक़ाबला एक नई और बेहतर जनोन्मुखी राजनीति ही कर सकती है.


मंगलवार, जनवरी 14, 2014

किस राह जाएगी आम आदमी पार्टी?

राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी मुश्किल सवालों से बच नहीं सकती है
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
तथ्य यह है कि दिल्ली के चुनावों में जिस तरह से जातियों, धर्मों और क्षेत्रीय अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति के कमजोर पड़ने के संकेत मिले हैं और शहरी मध्यमवर्ग से लेकर गरीबों तक के बीच अस्मिता और सशक्तिकरण से आगे एक बेहतर नागरिक जीवन की आकांक्षाओं की राजनीति ने आकार लेना शुरू किया है, वह केवल शहरों तक सीमित नहीं रहनेवाली है.
इसका असर गांवों पर भी पड़ेगा. नव उदारवादी अर्थनीति के कारण ग्रामीण इलाकों में जिस तरह का कृषि संकट पैदा हुआ है, उसमें छोटे और मंझोले किसानों का जीना दूभर हो गया है, वैकल्पिक रोजगार के अवसर नहीं हैं और शिक्षा-स्वास्थ्य समेत तमाम बुनियादी सेवाओं के निजीकरण और बाजारीकरण ने उन्हें उनकी पहुँच से दूर कर दिया है, उसके खिलाफ ग्रामीण समुदाय खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों में जबरदस्त गुस्सा है.
यही नहीं, एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर पुलिस-थाने, कोर्ट-कचहरी, बैंक-ब्लाक समेत हर सरकारी दफ्तर में बिना घूस कोई सुनवाई नहीं होने के कारण हर आम आदमी परेशान है.   
कड़वी सच्चाई यह है कि राज्यों की राजधानियों से लेकर जिला और तहसील मुख्यालय तक राजनेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों का गिरोह विकास के नामपर आ रहे पैसे को खुलेआम निगलने में लगा हुआ है.

हैरानी की बात नहीं है कि राजधानियों से लेकर जिले की सड़कों पर दौड़ती लाल बत्ती लगी लाखों की फार्चुनर, प्राडो, स्कार्पियो, बोलेरो गाड़ियों में सबसे अधिक नेता-ठेकेदार-अपराधी और अफसर मिलेंगे. सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश जिलों में नेता-ठेकेदार-अपराधी के बीच की विभाजन रेखा कब की खत्म हो चुकी है. राजनीतिक कार्यकर्ता का मतलब थाने और अफसरों की दलाली हो गया है.

इसके अलावा जैसे कांग्रेस-सपा-राजद-अकाली दल-शिव सेना सहित सभी बड़ी मध्यमार्गी शासक पार्टियों के नेतृत्व पर परिवारों का कब्ज़ा हो गया है, वैसे ही सभी बड़ी शासक पार्टियों में अधिकांश जिलों में धीरे-धीरे एक या दो परिवारों का कब्ज़ा हो गया है जिसमें एक या दो नेताओं के परिवार से ही विधायक, सांसद, जिला परिषद, नगर परिषद और मुखिया तक हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि गांव से लेकर तहसील/जिले तक में सफल नेता के ग्राम प्रधान/विधायक/सांसद/मंत्री बनते ही उसकी संपत्ति में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि होने लग रही है. यही नहीं, वह जिस तरह से विकास के पैसे से लेकर सार्वजनिक संपत्ति को दोनों हाथों से लूटने लग रहा है और लोगों की जमीन से लेकर मकान-दूकान कब्जाने में जुट जा रहा है, वह आमलोगों की नज़रों से छुपा नहीं है. उन्हें आमलोगों से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
मुश्किल यह है कि अधिकांश राज्यों में आमलोगों के पास अभी कोई विकल्प नहीं है या कमजोर विकल्प है और इस कारण जाति-धर्म और क्षेत्र की आड़ में एक भ्रष्ट-अपराधी-अवसरवादी राजनीति फलती-फूलती रही है. ऐसा नहीं है कि लोगों ने बदलाव और बेहतर राजनीति के लिए वोट नहीं किया. लोगों ने उपलब्ध विकल्पों में फेरबदल करके या नई शक्तियों को मौका देकर बदलाव की कोशिश की.
लेकिन ९० के बाद के पिछले दो दशकों में कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरे जनता दल और उसके विभिन्न विभाजित हिस्सों-सपा, राजद और जे.डी.-यू आदि को लोगों ने कई बार मौका दिया. इसके अलावा दलित उभार के प्रतीक के रूप में उभरी बसपा को भी कई मौके मिले.

यही नहीं, भाजपा को भी केन्द्र के अलावा कई राज्यों में मौका मिला लेकिन भ्रष्ट कांग्रेसी राजनीतिक संस्कृति के कीचड़ को साफ़ करने के बजाय सभी उसमें और लिथड़ते चले गए. राजनीतिक सडन बढ़ती गई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस बीच देश की अर्थव्यवस्था और उसके साथ समाज में हुए परिवर्तनों के कारण पेशेवर लोगों, छात्रों, युवाओं की एक बड़ी तादाद आई है जो अस्मिताओं की राजनीति से आगे जाकर मौजूदा दमघोंटू भ्रष्ट राजनीति और असंवेदनशील शासन तंत्र में बदलाव चाहती है.

आखिर यह कैसे हो सकता है कि अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव हो और राजनीति उससे अछूती रह जाए?

नतीजा, भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी और सुरक्षा की मांग को लेकर हुए आन्दोलनों में उत्तर नव उदारीकरण अर्थनीति के लाभार्थियों और उसके सताए लोगों के एक ढीले-ढाले लेकिन व्यापक गठबंधन ने मौजूदा भ्रष्ट और जनविरोधी राजनीति-अर्थनीति को चुनौती देने और बदलने की मुहिम को खुला और सक्रिय समर्थन दिया है.
इसमें याराना पूंजीवाद और निजीकरण-बाजारीकरण के गठजोड़ की लूट और आमलोगों पर पड़ रही उसकी मार से नाराज और बेचैन मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग से लेकर गरीब तक सभी शामिल हैं. यह एक इन्द्रधनुषी गठबंधन है जिसमें स्वाभाविक अंतर्विरोध और हितों के टकराव भी हैं लेकिन कई मामलों में एका भी है. इसमें ग्रामीण आप्रवासी श्रमिकों का भी एक अच्छा-खासा हिस्सा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ९० के बाद के दो दशकों में शहरों में व्यापक बदलाव हुए हैं और अस्मिताओं के संकीर्ण दायरों से इतर एक नए और व्यापक नागरिक पहचान की राजनीति के लिए जगह बनी है, उसी तरह पिछले दो दशकों में गांवों में भी बहुत कुछ बदला है. वहां भी लोगों की बेहतर जीवन और उसके लिए जरूरी नागरिक सुविधाओं और अधिकारों की आकांक्षाएं अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति से बाहर निकलने के लिए छटपटा रही हैं. जमीन तैयार है और वहां भी चमत्कार हो सकता है.

लेकिन शहरों से बाहर बदलाव की इस राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए न सिर्फ पर्याप्त सांगठनिक-राजनीतिक तैयारी जरूरी है बल्कि आप पार्टी को अपनी वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति भी ज्यादा साफ़ और धारदार बनानी होगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी की मौजूदा वैचारिक-राजनीतिक दिशा और अवस्थिति न सिर्फ अस्पष्ट और धुंधली सी है बल्कि कई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दों पर उनकी चुप्पी या उससे बचने की कोशिश साफ़ दिखती है.

लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की तैयारी करते हुए आप पार्टी इन सवालों से बच नहीं सकती है और देर-सबेर उसे इन सवालों के जवाब देने पड़ेंगे और अपनी राजनीतिक-वैचारिक स्थिति स्पष्ट करनी पड़ेगी. हालाँकि आप पार्टी क्रमश: सामाजिक-जनवादी दिशा में बढ़ती दिख रही है लेकिन यहाँ यह जोर देकर कहना जरूरी है कि उसके पास वैचारिक-राजनीतिक तौर पर वाम-लोकतांत्रिक राजनीतिक स्पेस में खड़ा होने या उसके करीब जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
इसकी वजह यह है कि बदलाव की राजनीति का बेहतर मुहावरा वाम-लोकतांत्रिक वैचारिकी और उसके वैश्विक खासकर लातिनी अमेरिकी प्रयोगों से ही मिल सकता है.
यह और बात है कि खुद सरकारी वामपंथी पार्टियां लोगों का भरोसा गँवा चुकी शासकवर्गीय मध्यमार्गी राजनीतिक पार्टियों के साथ अवसरवादी संश्रय बनाते-बनाते उनकी ऐसी पिछलग्गू बन चुकी हैं कि अपनी चमक के साथ-साथ पहलकदमी भी गवां चुकी हैं.

दूसरी ओर, रैडिकल वाम की पार्टियां नए प्रयोग करने, नए मुहावरे गढ़ने और नई जमीन तोड़ने के साथ-साथ ग्रामीण गरीबों के रैडिकल जनांदोलनों को नई ऊँचाई और स्तर पर ले जाने में नाकामी के बीच एक गंभीर गतिरोध में फंसी हुई दिखाई दे रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी को कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी मध्यमार्गी शासक पार्टियों की भ्रष्ट और कारपोरेटपरस्त राजनीति के मुकाबले एक मुकम्मल विकल्प दे पाने में सरकारी वाम मोर्चे और रैडिकल वाम की नाकामी का भी लाभ मिला है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वाम राजनीति का एजेंडा अप्रासंगिक हो गया है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आप पार्टी इस वाम एजेंडे से बहुत कुछ ले और दिल्ली से पैदा हुई बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ा सकती है.

('सबलोग' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

शनिवार, नवंबर 02, 2013

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को आमलोगों की हक-हुकूक की लड़ाई से जोड़ना होगा

९० के दशक की छात्र राजनीति के सबक: साम्प्रदायिकता का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति ही सकती है 

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है. चुनावी आंच पर एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता की खिचड़ी पकाने की तैयारी होने लगी है. पिछले चार-साढ़े चार साल से जो बढ़ती साम्प्रदायिकता को अनदेखा करते रहे या उससे कभी खुले-कभी छिपे प्रेम की पींगें बढ़ाते रहे या भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगते रहे या फिर केन्द्र या प्रदेश में राज करते हुए जनता से किये गए वायदों को भुलाकर सत्ता की मलाई का लुत्फ़ उठाते रहे, उन सभी को साम्प्रदायिकता की चिंता सताने लगी है.
खुद को सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ शुरू हो गई है और एक बार फिर से साम्प्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और लड़ाई की दुहाई दी जाने लगी है.
ऐसा लगता है जैसे हर चुनाव से पहले होनेवाला कोई पांच साला कर्मकांड शुरू हो गया है. हमेशा की तरह एक बार फिर इस कर्मकांड की मुख्य पंडित- वामपंथी पार्टियां हैं जो केन्द्र की अगली सरकार में अपनी जगह पक्की करने और सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए बेचैन यजमानों को चुनावी युद्ध में उतरने से पहले धर्मनिरपेक्षता का मन्त्र पढ़ाने में जुट गई हैं. वे एक बार फिर यजमानों को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांट रही हैं, भले ही यजमान चार महीने पहले तक सांप्रदायिक खेमे का बड़ा सिपहसालार था.

यही नहीं, वामपंथी पार्टियां भी अच्छी तरह से जानती हैं कि अगले चुनावों से पहले कोई गैर कांग्रेस-गैर भाजपा धर्मनिरपेक्ष तीसरा मोर्चा नहीं बनने जा रहा है, सबने चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं और इनमें से कई चुनावों के बाद फिर भाजपा के साथ गलबहियां करते हुए दिख जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि ठीक चुनावों से पहले साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने और चुनावों के बाद नतीजों के मुताबिक कभी धर्मनिरपेक्षता के झंडे के नीचे सत्ता की मलाई काटने और कभी उस झंडे को लपेट कर कुर्सी के नीचे रख देने और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सत्ता सुख भोगने की अवसरवादी राजनीति की कलई खुल चुकी है.
सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा वास्तव में बढ़ता जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लगातार कमजोर होती जा रही है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी अलमबरदारों ने इस लड़ाई को चुनावी रणनीति और गणित तक सीमित करके निहायत अविश्वसनीय और मजाक का विषय बना दिया है.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई आमजन के बुनियादी सवालों- रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, बिजली-सड़क-पानी, सुरक्षा, अमन-चैन आदि और हक-हुकूक से कटकर नहीं हो सकती है.

मुझे याद है कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों में जब देश खासकर उत्तर भारत साम्प्रदायिकता के बुखार में तप रहा था, भगवा ब्रिगेड के नेतृत्व में एक अत्यंत जहरीले साम्प्रदयिक अभियान के बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, देश के कई हिस्सों में भड़के दंगों में हजारों लोग मारे गए थे और सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें परवान चढती दिख रही थीं, उस समय हमने पूरे उत्तर प्रदेश के परिसरों में छात्रों-युवाओं के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) की अगुवाई में साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी.

मुझे वे दिन आज भी याद है जब हमने साम्प्रदायिकता के खिलाफ छात्रों-नौजवानों को गोलबंद करने के लिए परिसरों में नारा दिया था- ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए/ जीने का अधिकार चाहिए.’
नतीजा यह हुआ कि १९९२-९३ में इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमाऊं, लखनऊ, गोरखपुर आदि कई विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनावों में आइसा ने भगवा हिंदुत्व की चैम्पियन ए.बी.वी.पी, नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा रही कांग्रेस के छात्र संगठन- एन.एस.यू.आई और सामाजिक न्याय के नामपर जातिवादी गोलबंदी करने में जुटी छात्र जनता और छात्र सभा जैसे संगठनों को हारने में कामयाबी हासिल की. उसी दौर में दशकों बाद बी.एच.यू में छात्रसंघ में मैं भी एक वामपंथी छात्र कार्यकर्ता के बतौर छात्रसंघ चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बना था.
लेकिन मुझे इसका कोई मुगालता नहीं है कि वह मेरी या आइसा की जीत थी बल्कि वह सांप्रदायिक फासीवाद और नव उदारवादी अर्थनीति की राजनीति का पूर्ण नकार और सामाजिक न्याय की सीमित-संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक नकार था. यह एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी के पक्ष में आम छात्रों का जनादेश था.

इस जीत ने साफ़ कर दिया था कि साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी से ही किया जा सकता है. इस जीत का सबक यह था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई आमलोगों के रोजी-रोटी और हक-हुकूक से जुड़े बिना कामयाब नहीं हो सकती है.

असल में, आमलोगों के दुःख-दर्दों से जुड़े बिना और उनके दैनिक जीवन के संघर्षों और हक-हुकूक की लड़ाई से जुड़े बिना साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की गोलबंदी एक अवसरवादी सत्तालोलुप राजनीति का पर्याय बन जाती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सांप्रदायिक राजनीति की चैम्पियन के बतौर भाजपा के उभार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मध्यमार्गी और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्होंने अपनी सुविधा और अवसर के मुताबिक कभी भाजपा के साथ सत्ता की मलाई काटी और कभी उसका विरोध करके सत्ता सुख भोगा.
यही नहीं, इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी जनविरोधी अर्थनीति और राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन, परिवारवाद और तमाम गडबडियों पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है.
चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की यह अवसरवादी राजनीति सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता को ही पहुंचा रही है. इससे आमलोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति ‘सिनिकल’ होते जा रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए के राज में बढ़े भ्रष्टाचार, आसमान छूती महंगाई और रोजगार के घटते अवसरों के खिलाफ लोगों के गुस्से को दिशा देने में प्रगतिशील-लोकतांत्रिक राजनीति की नाकामी का सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक राजनीति उठा रही है. यह देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समता के बुनियादी मूल्यों के लिए खतरे की घंटी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के २ नवम्बर के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित)


बुधवार, जून 12, 2013

आडवाणी का ‘ब्रह्मास्त्र’ और भाजपा का संकट

भारतीय झगड़ा पार्टी बनती बीजेपी के इस संकट के लिए खुद पार्टी और आर.एस.एस नेतृत्व जिम्मेदार हैं

कहते हैं कि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है. खासकर २४ घंटे के चैनलों और मोबाइल युग में तो घंटे और मिनट भी गिने जाने लगे हैं. देश के मुख्य विपक्षी दल- भारतीय जनता पार्टी में भी मिनटों में राजनीति बदल रही है.

गोवा कार्यकारिणी की बैठक के दौरान रविवार को उनके प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने इंतज़ार कर रिपोर्टरों से कहा कि घंटों में नहीं, मिनटों में बड़ा एलान होने जा रहा है. फिर खूब धूम-धड़ाके के साथ एलान हुआ कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष होंगे.

इससे पहले से ही हर ओर मोदी की जय-जयकार हो रही थी लेकिन पार्टी अध्यक्ष की इस घोषणा के साथ ही पार्टी के सभी नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार मोदी के आगे नतमस्तक दिख रहे थे और मीडिया में अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर दी गई थी.

लेकिन २४ घंटे भी नहीं बीते कि भाजपा की राजनीति में काफी उलटफेर हो गया दिखता है. ‘प्रथम ग्रासे, मक्षिका पाते’ (पहले ही कौर में मक्खी का गिरना) की तर्ज पर पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देकर ऐसा ब्रह्मास्त्र चला कि भाजपा नेताओं को सिर छुपाने की जगह नहीं मिल रही थी.
इस्तीफा देते हुए उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर यह कहते हुए करारा हमला बोला कि यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाया था. आडवाणी के इस आरोप ने भाजपा खासकर उसके नए नेता नरेन्द्र मोदी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा कि पार्टी में अब निजी हितों और एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है.
साफ़ है कि आडवाणी ने एक ही झटके में न सिर्फ चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी कर दी बल्कि पार्टी के अंदर जारी सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई को सड़क पर ला दिया है. आडवाणी के इस फैसले से पार्टी के अंदर घमासान और तेज होना तय है.

हालाँकि उन्होंने आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन आडवाणी ने एक बार इस्तीफा देकर और उससे अधिक इस्तीफे के कारण बताकर दांव बहुत ऊँचा कर दिया.

यहाँ से वे किन शर्तों और समझौते के साथ वापस लौटे हैं, इसका खुलासा होना बाकी है. इससे यह तय है कि पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष खत्म नहीं हुआ है और अभी नाटक के पहले अंक का पर्दा गिरा है.  

असल में, आडवाणी के लिए अब खोने को कुछ नहीं है. इसलिए वे पार्टी और आर.एस.एस से आसानी से और बिना बड़ी कीमत वसूले इस्तीफे को वापस करने के लिए राजी हुए होंगे, इसकी सम्भावना कम है.
जाहिर है कि आडवाणी के मोदी के खिलाफ इस तरह खड़ा हो जाने के बाद भाजपा और खासकर आर.एस.एस के सामने अब दो ही विकल्प हैं. एक, वह आडवाणी को जनसंघ के जमाने के नेता बलराज मधोक की तरह किनारे कर दे. दूसरे, उनके साथ समझौते में जाए और उनकी कुछ शर्तों को स्वीकार करे. ये दोनों ही विकल्प आसान नहीं हैं.
दोनों ही विकल्पों के साथ पार्टी के अंदर गुटबाजी और सत्ता संघर्ष के और तेज होने की आशंका है. नाराज आडवाणी पार्टी के अंदर रहें या बाहर, दोनों ही स्थितियों में वे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करते रह सकते हैं और मोदी के विजय अभियान के रथ को पंक्चर करने के लिए काफी हैं.
जाहिर है कि जो विश्लेषक अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर रहे थे, उन्हें थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा. यही नहीं, जो विश्लेषक गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अंदर और उससे बाहर काफी उठापटक, खींचतान और लाबीइंग के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा को पार्टी में मोदी के राज्यारोहण की तरह देख रहे थे, उन्हें भी मिनटों-घंटों-दिनों नहीं बल्कि सप्ताहों इंतज़ार करना पड़ सकता है.

यह सच है कि आडवाणी और उनका गुट मोदी को बहुत लंबे समय तक नहीं रोक पायेगा. लेकिन इतना तय है कि पार्टी में आनेवाले दिनों में काफी उठापटक और नतीजे में, सड़कों पर तमाशा और छीछालेदर दिखाई देगा.

इसकी वजह यह है कि मोदी भाजपा में प्रधानमंत्री पद के आधे दर्जन से ज्यादा उम्मीदवारों के बीच जारी महत्वाकांक्षाओं की तीखी होड़ में एक कदम भले आगे निकल गए हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री और सत्ता की संभावित मलाई में हिस्से के लिए जारी खींचतान और उठापटक खत्म हो गई है.
इसके उलट आशंका यह है कि गोवा में निजी महत्वाकांक्षाओं की यह लड़ाई जिस तरह से खुलकर सामने आ गई है, वह आनेवाले दिनों में और अप्रिय शक्ल ले सकती है. खासकर नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक जितने बेसब्र होंगे, खुद को प्रधानमंत्री और एकछत्र नेता के रूप में पेश करने के लिए जितना दबाव बढ़ाएंगे, यह लड़ाई में पार्टी की उतनी ही सार्वजनिक छीछालेदर होगी.
वैसे भी गुटबंदी और आपसी झगडों के कारण बीजेपी को भारतीय झगडा पार्टी कहा जाने लगा है. हालाँकि यह छवि कोई एक दिन में नहीं बनी है. भाजपा चाहे खुद को कितनी भी सबसे अलग पार्टी बताए (पार्टी विथ डिफरेन्स) या अनुशासन और अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात करे लेकिन सच यह है कि निजी महत्वाकांक्षाओं पर आधारित गुटबाजी, खेमेबंदी, उठापटक, साजिशों और दुरभिसंधियों का इतिहास बहुत पुराना है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. ८० और ९० के दशक में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी और बाद में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच कभी दबे और कभी खुले में यह खींचतान और उठापटक चलती रही है.

यह गुटबाजी, उठापटक, साजिशें और एक-दूसरे को निपटाने की कोशिशें बाद में बिना किसी अपवाद के पार्टी की हर राज्य इकाई और अनुषांगिक संगठनों तक पहुँच गई. यहाँ तक कि खुद पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस गुटबंदी और उठापटक के बड़े खिलाड़ी हैं. उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह बनाम कल्याण सिंह बनाम कलराज मिश्र की लड़ाई ने भाजपा को आसमान से पाताल में पहुंचा दिया.
सच पूछिए तो गुटबंदी और आपसी उठापटक के मामले में भाजपा पूरी तरह से कांग्रेस संस्कृति में रंग चुकी है. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी इस गुटबंदी और विरोधियों को एन-केन-प्रकारेण निपटाने के माहिर हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसी कारण भाजपा के बड़े नेताओं में मोदी के हाथ में पार्टी की कमान सौंपे जाने से घबराहट है. उन्हें पार्टी नेतृत्व में हो रहे इस पीढ़ीगत और वैचारिक-राजनीतिक बदलाव में अपनी जगह को लेकर बेचैनी है. आडवाणी के खुले विद्रोह में ऐसे कई वरिष्ठ नेताओं की आवाज़ को सुना जा सकता है.

यही कारण है कि भाजपा और आर.एस.एस नेतृत्व इसे अनदेखा करने का जोखिम नहीं ले सकता है. सच पूछिए तो वह अपने ही बनाए जाल में फंस गया है. इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद भाजपा और आर.एस.एस का अलोकतांत्रिक सांगठनिक ढांचा जिम्मेदार है जहाँ बड़े राजनीतिक फैसले पार्टी के अंदर नहीं बल्कि आर.एस.एस के मुख्यालय नागपुर में लिए जाते हैं.

यही नहीं, पार्टी में गुटबंदी-खेमेबाजी का मुख्य स्रोत भी आर.एस.एस और नागपुर ही है जो गुटबंदी और नेताओं के झगड़ों को अपनी पंच की भूमिका और पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करता है.
          
लेकिन इससे सत्ता की दावेदारी कर रहे देश के प्रमुख विपक्षी दल की दयनीय स्थिति का पता चलता है. माना जाता है कि किसी देश में लोकतंत्र और उसकी मुख्य एजेंसी- पार्टी राजनीति की सेहत का अंदाज़ा लगाना हो तो उसकी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी से ज्यादा बेहतर है, उसके मुख्य विपक्षी दल की सेहत को टटोलना.

देश में मुख्य संसदीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा स्थिति को देखकर भारतीय लोकतंत्र की सेहत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इससे पता चलता है कि मुख्यधारा की पार्टी राजनीति सत्ता-लिप्सा और व्यक्तिगत स्वार्थों का साध्य बन गई है और वह देश और लोकतंत्र को कुछ देने की स्थिति में नहीं रह गई है.
 
(दैनिक 'कल्पतरु एक्सप्रेस', आगरा में 11 जून को छपी टिप्पणी)    

सोमवार, जून 03, 2013

राजनीति या बंदूक: किसके हाथ में है कमान?

अराजक सैन्य दुस्साहसवाद भारी पड़ सकता है माओवादी राजनीति पर 

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अगर देश और समाज में रैडिकल बदलाव लाने के उद्देश्य से बनी एक राजनीतिक पार्टी है तो उसे इस सवाल का जवाब देना होगा कि छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमले और २७ कांग्रेस नेताओं, कार्यकर्ताओं और सुरक्षाकर्मियों की हत्या से उसे राजनीतिक रूप से क्या हासिल हुआ है?
खुद पार्टी ने एक प्रेस विज्ञप्ति में इस हमले की जिम्मेदारी लेते हुए दावा है कि उसने बस्तर के ‘हजारों निर्दोष आदिवासियों पर सलवा जुडूम के जरिये जुल्म ढानेवाले कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा और राज्य में जनविरोधी नीतियों को लागू करनेवाले कांग्रेस नेताओं का सफाया करके बदला लिया है.’
सवाल यह है कि क्या यह ‘बदला लेनेवाली’ भाषा एक रैडिकल बदलाव के लिए आम जनता को गोलबंद करके राजनीतिक-वैचारिक लड़ाई लड़नेवाली कम्युनिस्ट पार्टी की भाषा है या किसी अराजक-कठमुल्ला आतंकवादी संगठन की भाषा?

उससे ज्यादा बड़ा और महत्वपूर्ण सवाल यह है कि व्यापक जनतांत्रिक आन्दोलनों और राजनीतिक पहलकदमियों से अलग-थलग इस तरह की सैन्य कार्रवाइयों की ‘राजनीति’ क्या है?

यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसी कोई भी सैन्य कार्रवाई चाहे जितनी धमाकेदार हो और उसका तात्कालिक प्रभाव चाहे जितना नाटकीय हो लेकिन अगर उसके पीछे की राजनीति सिर्फ ‘वर्ग-शत्रुओं से बदला लेने’ यानी ‘सफाया लाइन’ तक सीमित है तो उसकी परिणति एक तरह के अराजक राबिनहुडवाद में ही होनी तय है.

मुश्किल यह है कि बहुतेरे मध्यवर्गीय क्रांतिकारियों के लिए ‘रोमांटिक’ लेकिन अपने मूल चरित्र में अराजक राबिनहुडवाद से सबसे ज्यादा नुकसान रैडिकल बदलाव की राजनीति को ही होता है.

इसकी वजह यह है कि यह सैन्यवादी राबिनहुडवाद गरीब जनता को लोकतांत्रिक जनसंघर्षों में उतरने और कारपोरेट लूट और सरकारों की जनविरोधी नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ जन प्रतिरोध खड़ा करने से रोकता है.

वे न सिर्फ बंदूक और सैन्य दलम पर निर्भर होते चले जाते हैं बल्कि अन्याय और जुल्म के खिलाफ लड़ाई में मूकदर्शक बनकर रह जाते हैं. यही नहीं, ‘बदला लेने और सफाया’ करने की राजनीति से हिंसा-प्रतिहिंसा का जो दौर शुरू होता है, उसमें आम गरीबों के जनसंघर्षों और लोकतांत्रिक पहलकदमियों के लिए भी जगह और सम्भावना और भी खत्म होती चली जाती है.

छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड और पश्चिम बंगाल तक माओवादी राजनीति की समस्या यह है कि वह आम गरीब जनता खासकर आदिवासियों को प्रतिरोध आंदोलन में उतारने और बड़े जनसंघर्ष खड़ा करने में नाकाम रही है. वह ऐसा करने में इसलिए नाकाम रही है क्योंकि उसकी वैचारिकी में बंदूक उसकी राजनीति पर हावी हो गई है.
इसके कारण जहाँ भी गरीब लोगों ने जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट और अन्याय के खिलाफ लड़ने की पहल की और जनसंघर्षों में उतरे, वहां भी माओवादी पार्टी की सैन्य कार्रवाइयों ने उन जनतांत्रिक आन्दोलनों को बहुत नुकसान पहुँचाया है. उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में लालगढ़ और जंगलमहल के आंदोलन को लीजिए, जहाँ भाकपा (माओवादी) की सैन्य कार्रवाइयों ने एक बड़े जन-उभार की संभावनाओं को खत्म कर दिया.
यह सच है कि रैडिकल बदलाव की नक्सल राजनीति खासकर माओवादी पार्टियों में ‘वर्ग-शत्रुओं के सफाए’ की यह लाइन नई नहीं है लेकिन नक्सलबाड़ी उभार के बाद पिछले पैंतालीस वर्षों में गंगा से गोदावरी तक में बहुत पानी बह चुका है.

इस बीच, वैश्विक स्तर पर भी और देश में भी वाम-क्रांतिकारी राजनीति में बहुत कुछ बदल गया है. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक परिस्थितियों में बहुत बदलाव आया है. इस बीच, दुनिया भर में खासकर लातिन अमेरिका और दक्षिण पूर्वी एशिया में शासक वर्गों के तीखे हमलों के कारण माओवादी पार्टियों और आन्दोलनों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और वे ढलान पर हैं.

दूसरी ओर, नेपाल में नेकपा (माओवादी) ने न सिर्फ हथियार डालकर खुली लोकतांत्रिक राजनीति में दखल देने का ऐतिहासिक फैसला किया बल्कि चुनाव लड़कर सत्ता में भागीदारी भी की है. लेकिन भारत में लगता है कि भाकपा (माओवादी) ने दुनिया भर और खुद देश के अनुभवों से कोई खास सबक नहीं सीखा है.
उसकी सशस्त्र क्रान्ति की लाइन पर अत्यधिक जोर और उसके कारण बंदूक पर अति निर्भरता ने उसकी राजनीति को न सिर्फ पीछे ढकेल दिया है बल्कि राजनीतिक रूप से भी वह अलग-थलग पड़ गई है. यही नहीं, इसके कारण वह पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के साथ एक ऐसे घिसाव-थकाव की लड़ाई में फंस गई है जहाँ उसे रणनीतिक और सैन्य रूप से भी ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है.
क्या यह सच नहीं है कि भाकपा (माओवादी) की केन्द्रीय समिति के आधे से अधिक सदस्य या तो गिरफ्तार कर लिए गए हैं या मारे गए हैं? यही नहीं, भारतीय राज्य ने माओवाद के खिलाफ जिस तरह से युद्ध छेड दिया है, उसका मुकाबला सिर्फ सैन्य प्रतिकार या गुरिल्ला युद्ध से नहीं किया जा सकता है. ऐसा कोई भी मुकाबला आत्मघाती होगा.

इस युद्ध का जवाब सिर्फ आम जनता की एकजुटता और जन-प्रतिरोध से ही दिया जा सकता है.

लेकिन छत्तीसगढ़ के ताजा सैन्य हमले को देखकर लगता है कि भाकपा (माओवादी) अपनी सैन्य ताकत को लेकर अति-आत्मविश्वास का शिकार हो गई है.

ऐसे ही, अति-आत्मविश्वास के कारण श्रीलंका में एल.टी.टी.ई (लिट्टे) का सफाया हो गया जबकि लिट्टे की सैन्य ताकत और लड़ने की तैयारी भाकपा (माओवादी) से कई गुना ज्यादा थी.

दूर जाने की जरूरत नहीं है. इसी सैन्य दुस्साहसवाद के कारण खुद भाकपा (माओवादी) को जिस तरह से आंध्र प्रदेश में बड़े धक्के लगे और वहां से पीछे हटना पड़ा, वह किसी से छुपा नहीं है. यही नहीं, पश्चिम बंगाल में लालगढ़ में कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के अर्द्धसैनिक बलों के हाथों मारे जाने और पूरे आंदोलन को धक्के की घटना भी बहुत पुरानी नहीं है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राज्य न तो सैन्य रूप से और न ही राजनीतिक रूप से इतना कमजोर है कि उसे देश के एक छोटे से इलाके में गुरिल्ला टुकडियों और ‘मुक्त क्षेत्र’ की ताकत के बल पर परास्त किया जा सके.

सच पूछिए तो कांग्रेस नेताओं पर इस तरह से हमला और उनकी हत्या करके भाकपा (माओवादी) खुद ही शासक वर्गों के ट्रैप में फंस गई है जो माओवादी आंदोलन को कुचलने के लिए और अधिक सैन्य ताकत के इस्तेमाल का बहाना तलाश रहा था.
इस तरह उसने खुद ही सैन्य दमन को आमंत्रित किया है और शासक वर्ग की पार्टियों को एकजुट कर दिया है. यह अराजक सैन्य दुस्साहसवाद उसे बहुत भारी पड़ सकता है. साफ़ है कि माओवादी राजनीति हिंसा-प्रतिहिंसा की एक अंधी गली में फंस गई है. उसकी राजनीति पर बंदूक के हावी होने और राजनीति के पीछे चले जाने के कारण पार्टी कोई भी राजनीतिक पहल नहीं कर पा रही है.
यहाँ तक कि कई क्षेत्रों और इलाकों में भाकपा (माओवादी) के राजनीतिक नेतृत्व का अपनी सशस्त्र गुरिल्ला टुकडियों पर नियंत्रण नहीं रह गया है. इस तरह के कई हथियारबंद दस्ते न सिर्फ वसूली दस्ते में पतित हो गए हैं बल्कि कुछ एक-दूसरे का ही खून बहाने पर उतर आए हैं. झारखण्ड में कुछ दस्ते तो पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के एजेंट बन गए हैं.

लेकिन इसमें हैरानी की बात नहीं है. बंदूक पर अति निर्भरता के कारण ऐसा कई और आन्दोलनों के साथ पहले भी हो चुका है. पिछले कुछ महीनों में खुद भाकपा (माओवादी) के अंदर से जिस तरह की बहसें (जैसे उडीसा में राज्य सचिव सब्यसाची पांडा के विद्रोह) सामने आईं हैं, उससे साफ़ है कि माओवादी राजनीति के अंतर्विरोध बढ़ते जा रहे हैं.
 
अफसोस यह है कि इसपर पुनर्विचार करने के बजाय इसे सुकमा हमले जैसी धमाकेदार सैन्य कार्रवाइयों से ढंकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इससे अंतत: रैडिकल बदलाव की राजनीति का ही नुकसान हो रहा है.                      

('राष्ट्रीय सहारा' के 1 जून के अंक में 'हस्तक्षेप' में प्रकाशित टिप्पणी)