शनिवार, नवंबर 02, 2013

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को आमलोगों की हक-हुकूक की लड़ाई से जोड़ना होगा

९० के दशक की छात्र राजनीति के सबक: साम्प्रदायिकता का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति ही सकती है 

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है. चुनावी आंच पर एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता की खिचड़ी पकाने की तैयारी होने लगी है. पिछले चार-साढ़े चार साल से जो बढ़ती साम्प्रदायिकता को अनदेखा करते रहे या उससे कभी खुले-कभी छिपे प्रेम की पींगें बढ़ाते रहे या भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगते रहे या फिर केन्द्र या प्रदेश में राज करते हुए जनता से किये गए वायदों को भुलाकर सत्ता की मलाई का लुत्फ़ उठाते रहे, उन सभी को साम्प्रदायिकता की चिंता सताने लगी है.
खुद को सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ शुरू हो गई है और एक बार फिर से साम्प्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और लड़ाई की दुहाई दी जाने लगी है.
ऐसा लगता है जैसे हर चुनाव से पहले होनेवाला कोई पांच साला कर्मकांड शुरू हो गया है. हमेशा की तरह एक बार फिर इस कर्मकांड की मुख्य पंडित- वामपंथी पार्टियां हैं जो केन्द्र की अगली सरकार में अपनी जगह पक्की करने और सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए बेचैन यजमानों को चुनावी युद्ध में उतरने से पहले धर्मनिरपेक्षता का मन्त्र पढ़ाने में जुट गई हैं. वे एक बार फिर यजमानों को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांट रही हैं, भले ही यजमान चार महीने पहले तक सांप्रदायिक खेमे का बड़ा सिपहसालार था.

यही नहीं, वामपंथी पार्टियां भी अच्छी तरह से जानती हैं कि अगले चुनावों से पहले कोई गैर कांग्रेस-गैर भाजपा धर्मनिरपेक्ष तीसरा मोर्चा नहीं बनने जा रहा है, सबने चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं और इनमें से कई चुनावों के बाद फिर भाजपा के साथ गलबहियां करते हुए दिख जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि ठीक चुनावों से पहले साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने और चुनावों के बाद नतीजों के मुताबिक कभी धर्मनिरपेक्षता के झंडे के नीचे सत्ता की मलाई काटने और कभी उस झंडे को लपेट कर कुर्सी के नीचे रख देने और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सत्ता सुख भोगने की अवसरवादी राजनीति की कलई खुल चुकी है.
सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा वास्तव में बढ़ता जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लगातार कमजोर होती जा रही है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी अलमबरदारों ने इस लड़ाई को चुनावी रणनीति और गणित तक सीमित करके निहायत अविश्वसनीय और मजाक का विषय बना दिया है.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई आमजन के बुनियादी सवालों- रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, बिजली-सड़क-पानी, सुरक्षा, अमन-चैन आदि और हक-हुकूक से कटकर नहीं हो सकती है.

मुझे याद है कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों में जब देश खासकर उत्तर भारत साम्प्रदायिकता के बुखार में तप रहा था, भगवा ब्रिगेड के नेतृत्व में एक अत्यंत जहरीले साम्प्रदयिक अभियान के बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, देश के कई हिस्सों में भड़के दंगों में हजारों लोग मारे गए थे और सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें परवान चढती दिख रही थीं, उस समय हमने पूरे उत्तर प्रदेश के परिसरों में छात्रों-युवाओं के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) की अगुवाई में साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी.

मुझे वे दिन आज भी याद है जब हमने साम्प्रदायिकता के खिलाफ छात्रों-नौजवानों को गोलबंद करने के लिए परिसरों में नारा दिया था- ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए/ जीने का अधिकार चाहिए.’
नतीजा यह हुआ कि १९९२-९३ में इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमाऊं, लखनऊ, गोरखपुर आदि कई विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनावों में आइसा ने भगवा हिंदुत्व की चैम्पियन ए.बी.वी.पी, नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा रही कांग्रेस के छात्र संगठन- एन.एस.यू.आई और सामाजिक न्याय के नामपर जातिवादी गोलबंदी करने में जुटी छात्र जनता और छात्र सभा जैसे संगठनों को हारने में कामयाबी हासिल की. उसी दौर में दशकों बाद बी.एच.यू में छात्रसंघ में मैं भी एक वामपंथी छात्र कार्यकर्ता के बतौर छात्रसंघ चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बना था.
लेकिन मुझे इसका कोई मुगालता नहीं है कि वह मेरी या आइसा की जीत थी बल्कि वह सांप्रदायिक फासीवाद और नव उदारवादी अर्थनीति की राजनीति का पूर्ण नकार और सामाजिक न्याय की सीमित-संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक नकार था. यह एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी के पक्ष में आम छात्रों का जनादेश था.

इस जीत ने साफ़ कर दिया था कि साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी से ही किया जा सकता है. इस जीत का सबक यह था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई आमलोगों के रोजी-रोटी और हक-हुकूक से जुड़े बिना कामयाब नहीं हो सकती है.

असल में, आमलोगों के दुःख-दर्दों से जुड़े बिना और उनके दैनिक जीवन के संघर्षों और हक-हुकूक की लड़ाई से जुड़े बिना साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की गोलबंदी एक अवसरवादी सत्तालोलुप राजनीति का पर्याय बन जाती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सांप्रदायिक राजनीति की चैम्पियन के बतौर भाजपा के उभार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मध्यमार्गी और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्होंने अपनी सुविधा और अवसर के मुताबिक कभी भाजपा के साथ सत्ता की मलाई काटी और कभी उसका विरोध करके सत्ता सुख भोगा.
यही नहीं, इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी जनविरोधी अर्थनीति और राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन, परिवारवाद और तमाम गडबडियों पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है.
चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की यह अवसरवादी राजनीति सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता को ही पहुंचा रही है. इससे आमलोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति ‘सिनिकल’ होते जा रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए के राज में बढ़े भ्रष्टाचार, आसमान छूती महंगाई और रोजगार के घटते अवसरों के खिलाफ लोगों के गुस्से को दिशा देने में प्रगतिशील-लोकतांत्रिक राजनीति की नाकामी का सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक राजनीति उठा रही है. यह देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समता के बुनियादी मूल्यों के लिए खतरे की घंटी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के २ नवम्बर के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित)


कोई टिप्पणी नहीं: