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शुक्रवार, जून 28, 2013

फेंकने की हद है भाई!!

'रैंबो' यानी कई जगह लीपने की कहानी के सबक   

हमारी तरफ भोजपुरी में एक कहावत है जिसका अर्थ है, ज्यादा तेज या सयाने लोग कई जगह लीपते हैं. भाजपा की ओर से घोषित/अघोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के समर्थकों भी लगता है कि मोदी से तेज या सयाना कोई नहीं है. नतीजा यह कि वे भी कई जगह लीपते दिखाई दे रहे हैं.
ताजा मामला उत्तराखंड में उनकी प्रचार मशीनरी के इस दावे का है जिसके मुताबिक उन्होंने और उनके अफसरों ने चमत्कारिक बचाव आपरेशन के जरिये सिर्फ दो दिनों के अंदर 15000 गुजरातियों को सुरक्षित निकालकर वापस गुजरात भेज दिया.

मोदी के इस रेम्बो जैसी कार्रवाई को देश (और दुनिया के भी) के सबसे बड़े अंग्रेजी  अखबार ‘टाइम्स आफ इंडिया’ ने देश को बताना जरूरी समझा. अखबार ने अपनी एक फ्रंट पेज स्टोरी में मोदी की शानदार क्षमताओं, प्रबंधन कौशल और कार्यकुशलता का उल्लेख करती हुई रिपोर्ट छापी. आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं:

और यहाँ भी अखबार में देख सकते हैं:


जाहिर है कि मोदी की प्रोपेगंडा टीम ने सोचा होगा कि उत्तराखंड की व्यापक तबाही और राहत-बचाव में ढिलाई और अराजकता की खबरों के बीच मोदी की यह कार्रवाई उन्हें ‘हीरो’ बना देगी. लेकिन कहते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते हैं. मोदी की प्रोपेगंडा टीम और उनके इर्द-गिर्द बनाई गई हाईप की पोल खुलने में ज्यादा देर नहीं लगी.
जल्दी ही यह साफ़ हो गया कि यह सस्ते प्रोपेगंडा के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि दो दिनों में १५००० गुजरातियों को उत्तराखंड की भयानक आपदा के बीच से निकाले जाने का गणित किसी भी तर्क और तथ्य पर फिट नहीं बैठ रहा था. यही नहीं, इस दावे पर कई तरह के सवाल भी उठने लगे. सोशल मीडिया पर चुटकी ली जाने लगी.

यह मुद्दा बनने लगा कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को सिर्फ गुजरातियों की चिंता है. यहाँ तक कि भाजपा की जन्म-जन्मान्तर की साथी शिव सेना भी मोदी के गुजरात प्रेम पर ताना मारने से नहीं चूकी. आज भाजपा नेता यशवंत सिन्हा भी कटाक्ष करने से नहीं चूके. जाहिर है कि जल्दी ही भाजपा नेतृत्व को अहसास होने लगा कि यह प्रचार उसपर भारी पड़ने लगा है क्योंकि गुजरात के चुनाव हो चुके हैं और अब पहले पांच राज्यों में और फिर आम चुनाव होने हैं.
नतीजा, हड़बड़ी में लेकिन खबर छपने और शुरुआत में इसका बचाव करने के चार दिन बाद कल राजनाथ सिंह ने इस खबर का खंडन किया और दावा किया कि न मोदी ने और न ही भाजपा ने ऐसा कोई दावा नहीं किया है. उन्होंने खुद इस ‘खबर’ पर हैरानी जताई कि यह खबर कहाँ से आई है?

आज ‘द हिंदू’ के प्रशांत झा ने अपनी एक फ्रंट पेज स्टोरी में इसका खुलासा किया है कि इस खबर का स्रोत क्या है और साथ ही, इस खबर को लिखते हुए कैसी पत्रकारीय लापरवाही बरती गई? आप भी यह खबर पढ़िए:


इस प्रकरण ने मोदी की प्रचार मशीनरी की पोल एक बार फिर खोल दी है. लेकिन यह न्यूज मीडिया और पत्रकारों के लिए भी एक बड़ा सबक है. उन्हें तय करना है कि क्या वे इस या उस प्रोपेगंडा मशीन के भोंपू बनना चाहते हैं या वे ऐसे हर दावे की कड़ी जांच-पड़ताल और छानबीन करके लोगों के सामने तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट करना चाहते हैं? कहने की जरूरत नहीं है कि अगले आम चुनावों तक ऐसे दावे सरकार की ओर से भी होंगे और विपक्ष खासकर मोदी की प्रचार मशीनरी की ओर से भी.
सवाल यह है कि क्या न्यूज मीडिया की जिम्मेदारी उन दावों को एक पोस्टमैन की तरह लोगों तक पहुंचाने भर की है या उससे प्रोपेगंडा/प्रचार/पी.आर के चमक-दमक, धूम-धड़ाके और धुंधलके से पार सच को सामने लाने की है? सच जानना हर पाठक और दर्शक का अधिकार है क्योंकि उसने अखबार और चैनल के सब्सक्रिप्शन के लिए पैसे चुकाए हैं. यही नहीं, लोकतंत्र में लोगों तक सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रिपोर्ट पहुँचाना न्यूज मीडिया की जिम्मेदारी है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि लोगों को ‘खबर’ के नामपर ‘पेड न्यूज’ का झूठ बेचा जा रहा है. वायदों और दावों के नामपर देश को झूठे सपने बेचे जा रहे हैं. जीरो को हीरो बनाया जा रहा है. अवतार पैदा करने की कोशिश हो रही है. इस समय गोरख पांडे के सहारे यही कहा जा सकता है:
जागते रहो सोनेवालों!!!!        

सोमवार, जून 24, 2013

एक वर्चुअल मौत का सुसाइड नोट

फेसबुक उर्फ़ सोशल मीडिया के स्वर्ग से विदाई   

जहाँ तक याद आता है, ८० के दशक में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी- ‘मि. नटवरलाल’! उन दिनों अपनी उम्र के बाकी दोस्तों की तरह मैं भी अमिताभ का दीवाना था और मुझे अमिताभ-रेखा की जोड़ी पसंद थी.
इस फिल्म में शायद पहली बार अमिताभ ने बच्चों के लिए एक गाना गया था-‘मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों! एक किस्सा सुनाऊं...’
इस गाने के आखिर में अमिताभ थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में कहते हैं-“...खुदा की कसम मजा आ गया...मुझे मारकर बेशरम खा गया...” इसपर तपाक से एक बच्चा पूछता है, ‘लेकिन आप तो जिन्दा हैं?’ अमिताभ थोड़े खुन्नस में कहते हैं, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’

कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.

वह आपकी नई पहचान और मित्रों का नया अड्डा बनने लगा है. इस अड्डे पर क्या चल रहा है, यह उत्सुकता बार-बार इसके अंजुमन तक खींच ले जाती है. उससे ज्यादा यहाँ कुछ कहने और बहस छेड़ने की बेचैनी के कारण लगता था कि फेसबुक से जाना मुमकिन नहीं होगा.
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. शुरूआती बेचैनी के बाद अब एक निश्चिन्तता सी है. इससे पहले कि फेसबुक मुझे मारकर खा जाता. उसे विदा कहने में ही भलाई दिखी. नहीं जानता कि इस निश्चय पर कब तक टिकना होगा.

उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.

असल में, पिछले कई हप्तों से फेसबुक के साथ आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में जीने पर अपन को भी यह अहसास हो रहा था कि एक लत सी लगती जा रही है. अपना एक्टिविस्ट भी जाग उठता था. सच कहूँ तो सोया एक्टिविस्ट जग गया था.
चाहे यू.पी.ए सरकार का भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियां हों या भगवा गणवेशधारियों की सांप्रदायिक राजनीति- उनकी कारगुजारियों, सबकी पोल खोलने की बेचैनी सुबह-दोपहर-शाम फेसबुक पर खींच ही लाती थी. खासकर भगवा राजनीति के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के खतरों को बताने के उत्साह ने एक मिशनरी जिद सी हासिल कर ली थी.

हालाँकि इंटरनेट के धर्मान्ध हिंदुओं से गालियाँ भी खूब मिलती थीं लेकिन एक आश्वस्ति भी रहती थी कि चोट निशाने पर लगी है. फेसबुक पर लिखने और अपनी बात कहने का उत्साह का आलम यह था कि जिस वर्ड फ़ाइल में लिखकर टिप्पणियां करता था, उसमें से एक फ़ाइल में ४८५१२ शब्द और एक फ़ाइल में ३३१४ शब्द हैं. मतलब दो-तीन सालों में फेसबुक एक्टिविज्म में कोई ५२ हजार शब्द लिख डाले यानी एक छोटी किताब पूरी हो गई.   
कई बार लगता था कि देखें तो वहां क्या बहस या चर्चा चल रही है? क्या मुद्दे उठ रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’ वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म है. यह भी कि यहाँ आपको विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-वैचारिक धाराओं के दोस्तों की आवाजें सुनने को मिल जाती हैं.

यह भी कि बहसें भी कई बार ज्यादा तीखी और आक्रामक होती हैं. कई बार निपटाने का भाव ज्यादा होता है और बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है.
इस मायने में फेसबुक एक ऐसे खुले और भीड़ भरे पब्लिक मैदान की तरह है जहाँ सबको एक हैंड माइक मिला हुआ है. आप इस मैदान बोलते-ललकारते-कटाक्ष और लाइक करते रहिये. बदले में इस सबके लिए तैयार रहिये. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ सब बोल रहे हैं और कोई किसी की सुन नहीं रहा है.

कई बार यह भी लगता है कि कुछ मित्र इन झगडों में छुपे-चुपके ‘परपीड़ा सुख’ और कुछ ‘पर-रति सुख’ का मजा भी ले रहे होते हैं. झूठ नहीं बोलूँगा, कई बार खुद भी आभासी/वास्तविक दोस्तों के ऐसे झगडों और बहसों में दूर से ताक-झाँक करके मजा लेता रहा हूँ.
लेकिन इधर काफी दिनों से लगने लगा था कि इसके कारण वास्तविक दुनिया का पढ़ना-लिखना कम हो रहा है. यह अहसास इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा था. इसलिए तय किया कि फेसबुक की आभासी दुनिया से फिलहाल, विदाई ली जाए.

संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
 
सोचा है कि जब भी मन कुछ टिप्पणी करने का करेगा तो यहाँ ब्लॉग पर ही लिखूंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.       

सोमवार, सितंबर 03, 2012

क्यों डरती हैं सरकारें सोशल मीडिया से

सोशल मीडिया दुधारी तलवार है लेकिन ताकतवर लोग उसकी चुनौती से घबराए हुए हैं  
 

सोशल मीडिया एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. हालांकि इस बार वह अच्छे कारणों से सुर्ख़ियों में नहीं है. उसपर आरोप है कि कुछ सांप्रदायिक संगठनों और समूहों के अलावा निहित स्वार्थी तत्व सांप्रदायिक नफ़रत और अफवाहें फैलाने, लोगों को सांप्रदायिक आधार पर भड़काने और प्रवासी समुदायों को डराने के लिए उसका इस्तेमाल कर रहे हैं.
इन आरोपों में कुछ हद तक सच्चाई भी है. पिछले कुछ सप्ताहों में खासकर असम में साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा भडकने के बाद से सोशल मीडिया सांप्रदायिक नफरत अभियान का नया मंच बन गया है. असम और म्यांमार की हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर दिखानेवाली कुछ वास्तविक और ज्यादातर फर्जी और गढ़ी हुई तस्वीरों, वीडियो और भडकाऊ संदेशों ने सोशल मीडिया के जरिये देश में सांप्रदायिक तापमान बढ़ा दिया है.
यू.पी.ए सरकार को जैसे इसी का इंतज़ार था. उसने देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव और भय-पलायन के लिए सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे कठघरे में खड़ा करने और उसपर पाबंदी लगाने की बातें दोहरानी शुरू कर दीं. सरकार को मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से के अलावा विश्लेषकों-बुद्धिजीवियों के एक छोटे से हिस्से का भी समर्थन मिल रहा है.

लेकिन क्या देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव, अफवाहों और नफ़रत के लिए केवल सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या अगर सोशल मीडिया पर पाबन्दी लगा दी जाए तो देश और समाज से साम्प्रदायिकता खत्म हो जायेगी और सांप्रदायिक कुप्रचार, अफवाहें और नफ़रत फैलानेवाले सन्देश बंद हो जायेंगे?

सच यह है कि सोशल मीडिया सिर्फ एक प्लेटफार्म या माध्यम है जिसका इस्तेमाल सांप्रदायिक और निहित स्वार्थी तत्व अपने संकीर्ण मकसद को पूरा करने के लिए कर रहे हैं. सीधी बात यह है कि अगर देश और समाज में सांप्रदायिक और घृणा फैलानेवाली शक्तियां हैं तो एक सामाजिक माध्यम या प्लेटफार्म होने के कारण वे शक्तियां भी वहां होंगी और वे उसकी ताकत और पहुँच का दुरुपयोग भी करेंगी.
लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि सोशल मीडिया पर ऐसे धर्मनिरपेक्ष संगठनों, समूहों और व्यक्तियों की संख्या भी अच्छी-खासी है जो साम्प्रदायिक अफवाहों और नफ़रत फैलानेवाले अभियान का जवाब दे रही हैं और लोगों को जागरूक करने और उनमें भरोसा पैदा करने की कोशिश कर रही हैं.
यही सोशल मीडिया की सबसे बड़ी ताकत और खूबी है. अगर उसपर सांप्रदायिक और कठमुल्ले तत्व हैं जो लोगों के बीच नफ़रत फ़ैलाने में जुटे हैं तो दूसरी ओर, उसपर ऐसे समूह और व्यक्ति भी सक्रिय हैं जो सांप्रदायिक तत्वों और कठमुल्लों की पोल खोलने और लोगों को सावधान, सजग और एकजुट करने में लगे हैं.

सच पूछिए तो भारतीय सन्दर्भों में सोशल मीडिया और कुछ नहीं बल्कि देश के मुख्यतः शहरी और कुछ हद तक कस्बाई समाज का एक लघु रूप है. जैसे शहरी भारतीय समाज में विभिन्न तरह की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियां मौजूद हैं, उसी तरह सोशल मीडिया पर भी उनके प्रतिनिधि सक्रिय हैं और इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल अपने-अपने हितों- गलत या सही को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं.

लेकिन इसके लिए मीडिया या प्लेटफार्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. असल में, सोशल मीडिया (फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर आदि) पारंपरिक मीडिया (अखबार, टी.वी, रेडियो आदि) से बुनियादी तौर पर अलग है. असल में, सोशल मीडिया वास्तव में सोशल यानी सामाजिक मीडिया है. इसका कोई भी सदस्य बन सकता है और इसके सदस्य एक दूसरे के मित्र और अनुगामी (फालोवर) बन सकते हैं.
इस तरह एक दूसरे के संदेशों/विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं. इसमें संदेशों/विचारों का आदान-प्रदान काफी हद तक बराबरी के स्तर पर होता है और संचालकों की ओर से किसी तरह की कोई बंदिश/पाबंदी या सेंसरशिप नहीं होने के कारण इसके सदस्य खुलकर अपनी राय जाहिर और शेयर करते हैं.
इस मायने में सोशल मीडिया एक ऐसे खुले पार्क की तरह है जहाँ समाज के सभी लोग घूमने-टहलने और अपने सरोकारों को साझा करने आते हैं. उसकी यह लोकतांत्रिकता उसकी सबसे बड़ी ताकत है. इसके उलट पारंपरिक मीडिया में उसके संचालक/गेटकीपर तय करते हैं कि उसमें क्या बताया//दिखाया/सुनाया जाएगा. यह एकतरफा संचार है जिसमें अखबार/टी.वी चैनल/रेडियो के पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं के पास तुरंत अपनी राय जाहिर करने और उसे अन्य पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं से साझा करने की सुविधा नहीं होती है.

लेकिन इसके विपरीत सोशल मीडिया में उसका हर सदस्य अपने साथियों/मित्रों/फालोवर के साथ तत्काल और निरंतर विचारों/सूचनाओं का साझा और अंतर्क्रिया कर सकता है. जाहिर है कि इसने लोगों को उनकी आवाज़ और उसे खुलकर अभिव्यक्त करने का मंच प्रदान किया है और इस तरह उनका सशक्तिकरण किया है.

यही नहीं, सूचनाओं के आदान-प्रदान का उन्मुक्त और तुरंत प्रवाह उसे वाइरल भी बनाता है जिसका मतलब यह है कि किसी सूचना या विचार को एक से दूसरे और फिर तीसरे और चौथे और आगे तक पहुँचने में कुछ सेकेंडों/मिनटों का समय लगता है. हैरानी की बात नहीं है कि सोशल मीडिया पर बहुतेरे सन्देश/वीडियो/फोटो/गाने आदि रातों-रात लोकप्रिय हो जाते हैं.
यही नहीं, उसने पारंपरिक मीडिया को भी उसकी गलतियों को उजागर करके ज्यादा जिम्मेदार बनाया है. इसके अलावा एक कम खर्चीले, सहज सुलभ, बाहरी नियंत्रण से मुक्त और व्यापक प्रसार वाले माध्यम के बतौर सोशल का उपयोग जन-आंदोलनकारी/सिविल सोसायटी संगठनों/समूहों ने भी लोगों को विभिन्न मुद्दों पर जागरूक और गोलबंद करने में किया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अरब वसंत से लेकर भारत में अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और अमेरिका समेत कई विकसित देशों में आक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसे आन्दोलनों/विरोध प्रदर्शनों को संगठित करने में आयोजकों ने सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया और सफल रहे. इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि सोशल मीडिया उन देशों की सरकारों और कंपनियों और दूसरी ताकतवर शक्तियों के नियंत्रण से अभी बाहर है.

सच पूछिए तो सोशल मीडिया से सरकारों के डर और उसे नियंत्रित करने की कोशिश की सबसे बड़ी वजह उसकी लोगों को जागरूक, गोलबंद और आंदोलित करने की उसकी ताकत है. असल में, सोशल मीडिया की यह आज़ादी, उसका खुलापन और साझेदारी का लोकतंत्र उसे पारंपरिक माध्यमों की तुलना में ज्यादा प्रभावी, आकर्षक और लोकप्रिय बनाता है.

इसकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जिस दौर में पारंपरिक माध्यम विभिन्न कारणों (खासकर बड़ी पूंजी और कारपोरेट नियंत्रण) से साख के संकट का सामना कर रहे हैं, उसमें सोशल मीडिया पर कही गई बातों/विचारों की साख कहीं ज्यादा है क्योंकि कहने-सुनने वाले एक-दूसरे के परिचित हैं और उनका एक-दुआसरे पर ज्यादा भरोसा है.
दूसरे, अगर उसपर कोई गलत या आधी-अधूरी सूचना शेयर की जाएगी तो उसे देखने/पढ़ने वाले सैकड़ों/हजारों/लाखों लोगों में से कोई न कोई पकड़ लेगा और सच सामने आ जाएगा लेकिन पारंपरिक माध्यमों में उसके सुधरने में काफी समय लग जाता है. इस तरह सोशल मीडिया में तत्काल फीडबैक के कारण गलतियों/भूलों के सुधार की सम्भावना काफी ज्यादा रहती है.
यही नहीं, अधिकांश सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर सदस्यों को यह अधिकार है कि वे ऐसे सदस्यों को अपनी मित्र सूची से बाहर और उन्हें अपने सन्देश/विचार देखने/पढ़ने से रोक सकते हैं जो अनुचित व्यवहार कर रहे हैं या आपत्तिजनक विचार प्रकट कर रहे हैं.

इसी तरह फेसबुक पर कोई भी सदस्य किसी सन्देश के आपत्तिजनक/गाली-गलौज/भडकाऊ होने की शिकायत कर सकता है और उसे हटाने में फेसबुक की मदद कर सकता है. इस तरह सोशल मीडिया में स्व-नियमन की प्रक्रिया मौजूद है. एक लोकतान्त्रिक माध्यम के नियमन के लिए स्व-नियमन से ज्यादा बेहतर और प्रभावी तरीका नहीं हो सकता है.   

यह ठीक है कि इस स्व-नियमन की प्रक्रिया से कम सदस्य परिचित हैं या वे इसका सक्रियता से इस्तेमाल नहीं करते हैं या उसके प्रति एक उदासीन रवैया अपनाते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकार या उनकी स्वामी कंपनियों को कंटेंट की सेंसरशिप करने की इजाजत दी जाए.
अगर ऐसा हुआ तो पारंपरिक मीडिया की तुलना में ज्यादा स्वतंत्र, लोकतान्त्रिक और विश्वसनीय माध्यम के बतौर सोशल मीडिया की साख खत्म हो जायेगी. याद रहे कि उसकी सबसे बड़ी ताकत सूचनाओं/विचारों का खुला, स्वतंत्र और मुक्त प्रवाह है जिसमें पारंपरिक मीडिया की तरह संदेशदाताओं के बीच स्तरीकरण नहीं बल्कि बराबरी का संबंध है.
दरअसल, आज जरूरत यह है कि लोगों को सोशल मीडिया के बारे में ज्यादा जागरूक करने और शिक्षित करने की है. दूसरे, उसके इस्तेमाल करनेवालों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ेगी और संदेशों/विचारों का प्रवाह बढ़ेगा, उसके साथ उसके इस्तेमाल के स्वतः विकसित तौर-तरीके और सामाजिक नियम भी विकसित होंगे. इससे सोशल मीडिया में कंटेंट की साझेदारी में जिम्मेदारी का बोध भी विकसित होगा.

लेकिन अगर उसे जिम्मेदार बनाने के नामपर सरकार या कोई दूसरी एजेंसी उसे नियंत्रित करने और उसपर सेंसरशिप थोपने की कोशिश करती है तो यह सरकारी और कारपोरेट नियंत्रण से मुक्त, लोकतान्त्रिक, विविधतापूर्ण और वैकल्पिक मीडिया प्लेटफार्म के बतौर उभरते सोशल मीडिया की अकाल मृत्यु का एलान होगा.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 1 सितम्बर को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित और पूर्ण अंश)               

शुक्रवार, अगस्त 31, 2012

असम की हिंसा की न्यूज मीडिया में अनदेखी के नतीजे

असम की हिंसा इसलिए भी फैली कि  न्यूज मीडिया ने इसकी व्यापक कवरेज नहीं की और राष्ट्रीय एजेंडा नहीं बनाया    
दूसरी किस्त  
नोम चोमस्की जैसे बहुतेरे मीडिया विश्लेषक इसी कारण अमेरिकी कारपोरेट मीडिया पर यह आरोप भी लगाते रहे हैं कि वह सत्ता प्रतिष्ठान के साथ मिलकर जनमत को तोड़ने-मरोड़ने और उसके व्यापक राजनीतिक हितों के मुताबिक ‘सहमति का निर्माण’ करने में मदद करता रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह काफी हद तक सही है कि राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और यहाँ तक कि पूरे भारतीय न्यूज मीडिया ने भी असम और म्यामार की घटनाओं के बारे में बारीकी, विस्तार और गहराई से रिपोर्टिंग नहीं की.
असम की हिंसा की शुरुआत में बहुत कम कवरेज हुई, उसकी फील्ड रिपोर्टिंग में रूचि नहीं ली गई, हिंसा के कारणों की छानबीन और उसकी तह में जाने की कोशिश नहीं हुई और जब मामला बहुत आगे बढ़ गया तो चैनलों/अखबारों ने अपने रिपोर्टर भेजे लेकिन वे भी गुवाहाटी और कोकराझार के कुछ इलाकों तक सीमित रहे.
सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि फील्ड और शोधपूर्ण रिपोर्टिंग और चर्चा-बहस की कमी को सनसनीखेज रिपोर्टिंग और उत्तेजक चर्चाओं/बहसों से भरने की कोशिश हुई. कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज चैनलों पर असम की सीमित, सतही और सनसनीखेज कवरेज के बहुत घातक नतीजे हुए.

पहला, असम में हिंसा की आग फैलती रही और राज्य और केन्द्र सरकार सोती रहीं. अगर न्यूज मीडिया ने शुरू से ही इसे व्यापक कवरेज दिया होता तो राज्य-केन्द्र सरकार के लिए हाथ पर हाथ धरे बैठना संभव नहीं होता.

याद कीजिए, मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की वह स्थापना जिसके मुताबिक लोकतान्त्रिक समाजों में एक सतर्क और सजग न्यूज मीडिया किसी आपदा/संकट के समय उस मुद्दे को जोरशोर से उठाकर सरकार और सिविल सोसायटी को उसपर तत्काल उपयुक्त कार्रवाई के लिए बाध्य कर देता है और बड़ी त्रासदी को टालने में मदद करता है. साफ़ है कि अगर न्यूज मीडिया और चैनलों ने असम की हिंसा को शुरू में ही उठाया होता तो उस हिंसा और आग को रोकने में मदद मिल सकती थी.
दूसरा, असम की सीमित और सतही कवरेज के कारण समाजविरोधी और साम्प्रदायिक तत्वों को अफवाहें फैलाने का मौका मिला. आखिर अफवाहें वहीं फैलती हैं जहाँ वास्तविक जानकारी उपलब्ध न हो या बहुत सीमित मात्रा में हो. क्या यह कहना सही नहीं होगा कि न्यूज मीडिया की सीमित और सतही कवरेज और असम की सच्चाई को तथ्यों/पृष्ठभूमि के साथ पेश करने में उसकी नाकामी ने अफवाहों को मौका दिया.

तीसरे, अफवाहों को कुछ हद स्वीकार्यता वहीं मिलती है जहाँ सूचना के दूसरे माध्यमों की साख और विश्वसनीयता कमजोर हो. सवाल यह है कि असम के मामले में अफवाहों को मुस्लिम समाज के बीच जो स्वीकार्यता मिली और जिसके कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए, क्या उसके पीछे एक बड़ा कारण मुस्लिम समाज में भारतीय न्यूज मीडिया की घटती साख और विश्वसनीयता तो नहीं है?

चौथे, न्यूज मीडिया और चैनलों की एक बड़ी नाकामी यह भी है कि वह इन अफवाहों और झूठी सूचनाओं को रोकने में समय रहते पहल नहीं कर सका. असल में, ये अफवाहें वेबसाइट्स, सोशल मीडिया और मोबाइल के जरिये झूठी खबरों और फोटोग्राफ के रूप में लोगों तक पहुँच रही थीं, सर्कुलेट हो रही थी और लोग उत्तेजित हो रहे थे लेकिन न्यूज मीडिया समय रहते इनकी पोल खोलने और पर्दाफाश करने में नाकाम रहा.
हैरानी की बात यह है कि सभी प्रमुख चैनलों/अखबारों/न्यूज एजेंसियों के संपादकों से लेकर रिपोर्टर तक सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय हैं, उनके अखबार/चैनलों का सोशल मीडिया साइटों पर पेज है और वे जब तब सोशल मीडिया पर चल रही बहसों/गतिविधियों को खबर का विषय भी बनाते हैं. लेकिन क्या कारण है कि वे समय रहते इन झूठी रिपोर्टों और फर्जी फोटोग्राफ की पोल नहीं खोल पाए?                  
क्या कारण है कि खुद न्यूज मीडिया ने इस घृणा अभियान की बारीकी से जांच-पड़ताल और छानबीन नहीं की? इसी तरह बंगलूर सहित दक्षिण भारत के कई शहरों से उत्तर पूर्व के लोगों का पलायन की खबर भी हैरान करती हुई आई. आखिर ऐसा क्या हुआ कि अचानक उत्तर पूर्व के हजारों लोग बंगलूर जैसे बड़े महानगरों से पलायन करने लगे और सरकार के साथ-साथ मीडिया भी सोता हुआ पाया गया?

जाहिर है कि इसके पीछे भी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़े महानगरों में पढ़ और काम कर रहे उत्तर पूर्व के लाखों लोगों के बीच चैनलों और न्यूज मीडिया की पहुँच नहीं के बराबर है. उनसे उसका संवाद लगभग नहीं है. न्यूज मीडिया के लिए देश के अधिकांश शहरों में काम कर रहे आप्रवासी गुमनाम लोग हैं और अगर वे उत्तर पूर्व के हैं तो उन्हें विदेशी मान लिया जाता है.

यही नहीं, इस संवादहीनता और गैर-जानकारी का एक और कारण न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की बहुत कम मौजूदगी भी है. हिंदी न्यूज चैनलों/अखबारों में तो उत्तर पूर्व का शायद ही कोई मिले. यही हाल मुस्लिम समुदाय का भी है जिसकी न्यूज मीडिया के अंदर मौजूदगी कम है.
नतीजा यह है कि चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम में जहाँ खबरों का चयन और प्रस्तुति का निर्णय होता है, उत्तर पूर्व और मुस्लिम समाज के सरोकारों, चिंताओं और मुद्दों को अनदेखा किया जाता है. यही नहीं, इन समुदायों से जुडी हुई खबरों में भी उनका परिप्रेक्ष्य नहीं आ पाता है. सच पूछिए तो यह भारतीय न्यूज मीडिया का ‘लोकतान्त्रिक घाटा’ है जो उसके न्यूजरूम और गेटकीपरों में भारतीय समाज के कई वर्गों का प्रतिनिधित्व बहुत कम या न के बराबर है.
भारतीय न्यूज मीडिया के इस ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ का साफ़ असर उसकी कवरेज और प्रस्तुति के टोन में भी दिखाई पड़ता है. इसी का दूसरा पक्ष है कि भारतीय न्यूज मीडिया देश के सभी हिस्सों में अपने रिपोर्टर और न्यूज ब्यूरो नहीं रखता है. उत्तर पूर्व इसका सबसे बदतर उदाहरण है जहाँ अधिकांश राष्ट्रीय कहे जानेवाले चैनलों/अखबारों के संवाददाता नहीं हैं.

कुछ ने रिपोर्टर रखे भी हैं तो आठ राज्यों को कवर करने के लिए एक संवाददाता गुवाहाटी में रख दिया है जबकि उत्तर पूर्व के समाज-संस्कृति-भूगोल की मामूली समझ रखनेवाले जानते हैं कि उत्तर पूर्व के सभी आठ राज्यों को एक रिपोर्टर कवर नहीं कर सकता और न ही वह इस विविधतापूर्ण क्षेत्र की रिपोर्टिंग के साथ न्याय कर सकता है.

हैरानी की बात नहीं है कि उत्तर पूर्व के राज्यों की खबरें हमारे राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में बहुत कम दिखती हैं या जो दिखती भी हैं, उनमें गहराई नहीं होती है और ज्यादातर मामलों में उत्तर पूर्व के बारे में बने पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप को ही मजबूत करती हैं.
असम की ताजा हिंसा भी इस प्रवृत्ति की अपवाद नहीं है. इस हिंसा की जैसी व्यापक लेकिन संवेदनशील रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. वरिष्ठ टी.वी पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने इस कमी को खुद स्वीकार किया है लेकिन उनका यह तर्क समझ से परे है कि असम की हिंसा को पर्याप्त और इन-डेप्थ कवरेज न मिलने के पीछे बड़ी वजह उसका दिल्ली और हिंसाग्रस्त इलाकों का राजधानी गुवाहाटी से दूर होना है.
इक्का-दुक्का अपवादों और मौकों को छोड़ दिया जाए तो सच यह है कि असम और पूरा पूर्वोत्तर भारत कथित राष्ट्रीय न्यूज मीडिया के राडार पर कहीं नहीं दिखता है. जैसे वह भारत का हिस्सा ही नहीं हो. अलबत्ता वहां देश से अलग होने का कोई आंदोलन शुरू हो जाए या चीन अरुणाचल प्रदेश पर दावा करने लगे तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया का ‘तीसरा नेत्र’ खुल जाता है और राष्ट्रवाद मचलने लगता है.

लेकिन बाकी समय में पूर्वोत्तर भारत के लोग किस तरह से रह रहे हैं, वहां क्या हो और चल रहा है, उनकी समस्याएं क्या हैं, वे किस बात पर नाराज हैं और उनके सवाल और मुद्दे क्या हैं आदि को रिपोर्ट या चर्चा के लायक नहीं समझा जाता है.

हैरानी की बात नहीं है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों या अखबारों के पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में रिपोर्टर नहीं हैं. खुद राजदीप सरदेसाई के मुताबिक, किसी भी राष्ट्रीय चैनल के पास पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में तो छोडिये, असम की राजधानी गुवाहाटी में भी ओ.बी नहीं है.
लेकिन क्या इसकी वजह सिर्फ पूर्वोत्तर भारत का दिल्ली से दूर होना या उसका दुर्गम होना है? या इसकी वजह पूर्वोत्तर भारत के प्रति न्यूजरूम में गहरे बैठे सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का होना है? कहीं इसका एक बड़ा कारण यह तो नहीं है कि पूर्वोत्तर भारत में टी.आर.पी का एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है और बाकी देश में भी पूर्वोत्तर के दर्शकों की संख्या नाममात्र की है?
 
जारी.......
(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित)

सोमवार, अगस्त 27, 2012

सोशल मीडिया पर निशाना : बदरंग चेहरों का गुस्सा आईने पर

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे ऊपर है लेकिन साम्प्रदायिक घृणा अभियान को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है

असम में हिंसा और उसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक-कट्टरपंथी संगठनों द्वारा शुरू किये गए साम्प्रदायिक घृणा और विद्वेष भरे अभियान को रोकने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने खिसियाहट में न्यू मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर गुस्सा उतारना शुरू कर दिया है. उसने इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों को आनन-फानन में ३०० से ज्यादा साइट्स और सोशल मीडिया वेब पेज को ब्लाक करने का निर्देश दिया जिसमें उसके मुताबिक, सांप्रदायिक घृणा फैलाने वाली सामग्री मौजूद थी.
लेकिन मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सरकार की ओर से ब्लाक की गई सूची में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा ऐसे ब्लागर भी हैं जो साम्प्रदायिक घृणा अभियान चलानेवालों की पोल खोलने में लगे हुए थे. इससे यह सन्देश गया कि सरकार सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रोपेगंडा को रोकने के नाम पर अपने विरोधियों का मुंह बंद करने की कोशिश कर रही है.
साफ़ है कि सरकार ने जल्दबाजी में जरूरी होमवर्क नहीं किया और इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर वह मजाक का विषय बन गई है और दूसरी ओर, सोशल मीडिया और इंटरनेट पर उसे यूजर्स के गुस्से का सामना करना पड़ रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी समाज में सांप्रदायिक घृणा फैलाने और लोगों को भड़काने का लाइसेंस नहीं है और कोई भी सभी समाज इसकी इजाजत नहीं दे सकता है.
खासकर भारत बहुधर्मी, बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में जहाँ सांप्रदायिक, जातीय और क्षेत्रीय तनावों, दंगों और संघर्षों का इतिहास रहा है, जहाँ सांप्रदायिक, एथनिक और क्षेत्रीय फाल्टलाइन अभी भी मौजूद हैं, वहाँ इस मामले में अतिरिक्त सतर्कता और सजगता बरतने की जरूरत है.

यही नहीं, अधिकांश लोगों का मानना है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी स्वछंद या पूरी तरह निर्बंध नहीं है. यह भी सच है कि कई भगवा सांप्रदायिक संगठन और मुस्लिम समूह/व्यक्ति न्यू और सोशल मीडिया का इस्तेमाल झूठे, जहरीले और भडकाऊ सांप्रदायिक अभियान के लिए कर रहे हैं. उससे देश के कई हिस्सों में तनाव फैलने, लोगों के भडकने और डर के कारण शहर छोड़कर भागने जैसी घटनाओं की भी रिपोर्टें हैं.

लेकिन इसके बावजूद यू.पी.ए सरकार जिस तरह से सांप्रदायिक घृणा और भडकाऊ प्रचार को रोकने के नाम पर न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की कोशिश कर रही है, उसे अधिकांश लोगों के लिए पचा पाना मुश्किल हो रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी सबसे बड़ी वजह खुद सरकार की कमजोर साख और विश्वसनीयता है जिसके कारण लोगों को उसकी मंशा पर शक हो रहा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सरकार न्यू और सोशल मीडिया से नाराज और चिढ़ी हुई है और पिछले कई महीनों से सोशल मीडिया को काबू में करने की कोशिश कर रही है. यह भी कि सोशल मीडिया से उसकी नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को संगठित करने में उसकी बड़ी भूमिका रही है.
हालाँकि सरकार शुरू से यह दावा करती रही है कि वह सोशल मीडिया पर नियंत्रण नहीं लगाना चाहती है और चाहती है कि नेटवर्किंग खुद ही सांप्रदायिक, भडकाऊ, अश्लील और मानहानिपूर्ण कंटेंट को जांच-परखकर अपलोड करें. लेकिन सरकार की मंशा शुरू से संदेह के घेरे में थी.

हैरानी की बात नहीं है कि गूगल की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट यह खुलासा करती है कि उसे भारत सरकार और दूसरी सरकारी एजेंसियों से पिछले साल जून से दिसंबर के बीच कुल १०१ निर्देश मिले जो उससे पहले की अवधि में मिले निर्देशों की तुलना में ४९ फीसदी ज्यादा थे. इनमें कुल २५५ कंटेंट को हटाने की मांग की गई थी और गूगल ने कोई २९ फीसदी निर्देशों को मानकर उस कंटेंट को हटा भी दिया.

सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि इनमें सांप्रदायिक, भडकाऊ और घृणा फैलानेवाले संदेशों की तुलना में मानहानि से संबंधित कंटेंट को हटाने की मांग दोगुनी से ज्यादा थी. सरकार के आलोचकों का आरोप है कि मानहानि के नामपर वह उसकी पोल खोलनेवाले कंटेंट को हटाने की कोशिश करती रही है.
यही कारण है कि सोशल मीडिया का सांप्रदायिक घृणा के लिए इस्तेमाल किये जाने के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले एक्टिविस्ट्स और विश्लेषक भी सरकार के ताजा फैसले के सख्त खिलाफ हैं. इसके लिए न सिर्फ सरकार की आधे-अधूरे, जल्दबाजी और मनमाने तरीके से लिया गया ताजा फैसला जिम्मेदार है बल्कि उसकी मंशा को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं.
असल में, आशंका यह है कि सोशल मीडिया पर सांप्रदायिक घृणा फैलानेवाले संदेशों को रोकने के नामपर अगर मनमाने तरीके से कंटेंट को ब्लाक करने या सोशल नेटवर्किंग या सर्च कंपनियों पर उसे हटाने का दबाव डालने की छूट दी गई तो वह इसका इस्तेमाल अपने आलोचकों और विरोधी विचारों को दबाने के लिए करेगी.

यही नहीं, आशंका यह भी है कि अगर एक बार सरकार को यह मौका मिल गया तो वह कल नए-नए बहानों जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रद्रोह, देश की एकता और अखंडता, कानून-व्यवस्था आदि से न्यू और सोशल मीडिया को नियंत्रित और निर्देशित करने लगेगी. कहने की जरूरत नहीं है कि ये ऐसे बहाने हैं जिनका दायरा बहुत व्यापक और मनमाना है क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर राष्ट्रद्रोह तक की परिभाषा सरकारें मनमाने तरीके से गढ़ने लगती है.

यही नहीं, इसके बाद एक ऐसा रास्ता खुल जाएगा कि केन्द्र और राज्य सरकारें इस या उस बहाने न सिर्फ न्यू और सोशल मीडिया पर नियंत्रण लगाने की होड़ करने लगेंगी बल्कि उसपर सक्रिय आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई भी करने से बाज नहीं आएगी.
ऐसे कई उदाहरण है जब सरकार को अपने आलोचकों को दण्डित करने में कोई शर्म महसूस नहीं हुई है. बिहार में फेसबुक पर सरकार की आलोचना के आरोप में मुसाफिर बैठा और जीतेन्द्र नारायण को निलंबित करने के मामले बहुत पुराने नहीं पड़े हैं.
बुनियादी बात यह है कि न्यू और सोशल मीडिया सिर्फ माध्यम भर हैं. उनकी असली ताकत यह है कि वे लाखों-करोड़ों लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने, अपनी भावनाएं-मुद्दे-विचार शेयर करने, गोलबंद करने और सबसे बढ़कर खुलकर अपनी राय जाहिर करने की आज़ादी दे रहे हैं. लोग इसका जमकर इस्तेमाल भी कर रहे हैं.

अरब वसंत से लेकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन और भारत में भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन तक में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के पारंपरिक कारपोरेट मीडिया को मैनेज करने में कामयाब सरकारें इसे मैनेज करने में नाकाम रही हैं और उनका डर बढ़ता जा रहा है. इसीलिए वे सोशल मीडिया को नियंत्रित करने और उसपर पाबंदी लगाने के लिए रोज-रोज नए-नए बहाने ढूंढने में लगी हुई हैं.

जाहिर है कि कोई भी लोकतान्त्रिक और स्वतंत्रचेता समाज और देश इसे स्वीकार नहीं कर सकता है. अक्सर बदरंग चेहरों को सारा दोष आईने में दिखता है लेकिन क्या इस आधार पर आईने को तोड़ने की इजाजत कैसे दी जा सकती है? अफसोस और चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार भी आईने को तोड़ने की कोशिश करती दिखाई दे रही है.





('दैनिक जागरण' के मुद्दा परिशिष्ट में 26 अगस्त को प्रकाशित सम्पादित टिप्पणी का सम्पूर्ण आलेख)