सोशल मीडिया दुधारी तलवार है लेकिन ताकतवर लोग उसकी चुनौती से घबराए हुए हैं
लेकिन क्या देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव, अफवाहों और नफ़रत के लिए केवल सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या अगर सोशल मीडिया पर पाबन्दी लगा दी जाए तो देश और समाज से साम्प्रदायिकता खत्म हो जायेगी और सांप्रदायिक कुप्रचार, अफवाहें और नफ़रत फैलानेवाले सन्देश बंद हो जायेंगे?
सच पूछिए तो भारतीय सन्दर्भों में सोशल मीडिया और कुछ नहीं बल्कि देश के मुख्यतः शहरी और कुछ हद तक कस्बाई समाज का एक लघु रूप है. जैसे शहरी भारतीय समाज में विभिन्न तरह की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियां मौजूद हैं, उसी तरह सोशल मीडिया पर भी उनके प्रतिनिधि सक्रिय हैं और इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल अपने-अपने हितों- गलत या सही को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं.
लेकिन इसके विपरीत सोशल मीडिया में उसका हर सदस्य अपने साथियों/मित्रों/फालोवर के साथ तत्काल और निरंतर विचारों/सूचनाओं का साझा और अंतर्क्रिया कर सकता है. जाहिर है कि इसने लोगों को उनकी आवाज़ और उसे खुलकर अभिव्यक्त करने का मंच प्रदान किया है और इस तरह उनका सशक्तिकरण किया है.
सच पूछिए तो सोशल मीडिया से सरकारों के डर और उसे नियंत्रित करने की कोशिश की सबसे बड़ी वजह उसकी लोगों को जागरूक, गोलबंद और आंदोलित करने की उसकी ताकत है. असल में, सोशल मीडिया की यह आज़ादी, उसका खुलापन और साझेदारी का लोकतंत्र उसे पारंपरिक माध्यमों की तुलना में ज्यादा प्रभावी, आकर्षक और लोकप्रिय बनाता है.
इसी तरह फेसबुक पर कोई भी सदस्य किसी सन्देश के आपत्तिजनक/गाली-गलौज/भडकाऊ होने की शिकायत कर सकता है और उसे हटाने में फेसबुक की मदद कर सकता है. इस तरह सोशल मीडिया में स्व-नियमन की प्रक्रिया मौजूद है. एक लोकतान्त्रिक माध्यम के नियमन के लिए स्व-नियमन से ज्यादा बेहतर और प्रभावी तरीका नहीं हो सकता है.
लेकिन अगर उसे जिम्मेदार बनाने के नामपर सरकार या कोई दूसरी एजेंसी उसे नियंत्रित करने और उसपर सेंसरशिप थोपने की कोशिश करती है तो यह सरकारी और कारपोरेट नियंत्रण से मुक्त, लोकतान्त्रिक, विविधतापूर्ण और वैकल्पिक मीडिया प्लेटफार्म के बतौर उभरते सोशल मीडिया की अकाल मृत्यु का एलान होगा.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 1 सितम्बर को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित और पूर्ण अंश)
सोशल मीडिया एक बार फिर सुर्ख़ियों में है. हालांकि इस बार वह अच्छे
कारणों से सुर्ख़ियों में नहीं है. उसपर आरोप है कि कुछ सांप्रदायिक संगठनों और
समूहों के अलावा निहित स्वार्थी तत्व सांप्रदायिक नफ़रत और अफवाहें फैलाने, लोगों
को सांप्रदायिक आधार पर भड़काने और प्रवासी समुदायों को डराने के लिए उसका इस्तेमाल
कर रहे हैं.
इन आरोपों में कुछ हद तक सच्चाई भी है. पिछले कुछ सप्ताहों में खासकर
असम में साम्प्रदायिक और जातीय हिंसा भडकने के बाद से सोशल मीडिया सांप्रदायिक
नफरत अभियान का नया मंच बन गया है. असम और म्यांमार की हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर
दिखानेवाली कुछ वास्तविक और ज्यादातर फर्जी और गढ़ी हुई तस्वीरों, वीडियो और भडकाऊ
संदेशों ने सोशल मीडिया के जरिये देश में सांप्रदायिक तापमान बढ़ा दिया है.
यू.पी.ए सरकार को जैसे इसी का इंतज़ार था. उसने देश में बढ़ते
सांप्रदायिक तनाव और भय-पलायन के लिए सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे
कठघरे में खड़ा करने और उसपर पाबंदी लगाने की बातें दोहरानी शुरू कर दीं. सरकार को
मुख्यधारा के मीडिया के एक हिस्से के अलावा विश्लेषकों-बुद्धिजीवियों के एक छोटे
से हिस्से का भी समर्थन मिल रहा है. लेकिन क्या देश में बढ़ते सांप्रदायिक तनाव, अफवाहों और नफ़रत के लिए केवल सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या अगर सोशल मीडिया पर पाबन्दी लगा दी जाए तो देश और समाज से साम्प्रदायिकता खत्म हो जायेगी और सांप्रदायिक कुप्रचार, अफवाहें और नफ़रत फैलानेवाले सन्देश बंद हो जायेंगे?
सच यह है कि सोशल मीडिया सिर्फ एक प्लेटफार्म या माध्यम है जिसका
इस्तेमाल सांप्रदायिक और निहित स्वार्थी तत्व अपने संकीर्ण मकसद को पूरा करने के
लिए कर रहे हैं. सीधी बात यह है कि अगर देश और समाज में सांप्रदायिक और घृणा
फैलानेवाली शक्तियां हैं तो एक सामाजिक माध्यम या प्लेटफार्म होने के कारण वे
शक्तियां भी वहां होंगी और वे उसकी ताकत और पहुँच का दुरुपयोग भी करेंगी.
लेकिन
इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि सोशल मीडिया पर ऐसे धर्मनिरपेक्ष संगठनों,
समूहों और व्यक्तियों की संख्या भी अच्छी-खासी है जो साम्प्रदायिक अफवाहों और नफ़रत
फैलानेवाले अभियान का जवाब दे रही हैं और लोगों को जागरूक करने और उनमें भरोसा
पैदा करने की कोशिश कर रही हैं.
यही सोशल मीडिया की सबसे बड़ी ताकत और खूबी है. अगर उसपर सांप्रदायिक
और कठमुल्ले तत्व हैं जो लोगों के बीच नफ़रत फ़ैलाने में जुटे हैं तो दूसरी ओर, उसपर
ऐसे समूह और व्यक्ति भी सक्रिय हैं जो सांप्रदायिक तत्वों और कठमुल्लों की पोल
खोलने और लोगों को सावधान, सजग और एकजुट करने में लगे हैं. सच पूछिए तो भारतीय सन्दर्भों में सोशल मीडिया और कुछ नहीं बल्कि देश के मुख्यतः शहरी और कुछ हद तक कस्बाई समाज का एक लघु रूप है. जैसे शहरी भारतीय समाज में विभिन्न तरह की सामाजिक-राजनीतिक शक्तियां मौजूद हैं, उसी तरह सोशल मीडिया पर भी उनके प्रतिनिधि सक्रिय हैं और इस प्लेटफार्म का इस्तेमाल अपने-अपने हितों- गलत या सही को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं.
लेकिन इसके लिए मीडिया या प्लेटफार्म को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है.
असल में, सोशल मीडिया (फेसबुक, यू-ट्यूब, ट्विटर आदि) पारंपरिक मीडिया (अखबार,
टी.वी, रेडियो आदि) से बुनियादी तौर पर अलग है. असल में, सोशल मीडिया वास्तव में
सोशल यानी सामाजिक मीडिया है. इसका कोई भी सदस्य बन सकता है और इसके सदस्य एक
दूसरे के मित्र और अनुगामी (फालोवर) बन सकते हैं.
इस तरह एक दूसरे के संदेशों/विचारों
का आदान-प्रदान कर सकते हैं. इसमें संदेशों/विचारों का आदान-प्रदान काफी हद तक
बराबरी के स्तर पर होता है और संचालकों की ओर से किसी तरह की कोई बंदिश/पाबंदी या
सेंसरशिप नहीं होने के कारण इसके सदस्य खुलकर अपनी राय जाहिर और शेयर करते हैं.
इस मायने में सोशल मीडिया एक ऐसे खुले पार्क की तरह है जहाँ समाज के
सभी लोग घूमने-टहलने और अपने सरोकारों को साझा करने आते हैं. उसकी यह
लोकतांत्रिकता उसकी सबसे बड़ी ताकत है. इसके उलट पारंपरिक मीडिया में उसके
संचालक/गेटकीपर तय करते हैं कि उसमें क्या बताया//दिखाया/सुनाया जाएगा. यह एकतरफा
संचार है जिसमें अखबार/टी.वी चैनल/रेडियो के पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं के पास तुरंत
अपनी राय जाहिर करने और उसे अन्य पाठकों/दर्शकों/श्रोताओं से साझा करने की सुविधा
नहीं होती है. लेकिन इसके विपरीत सोशल मीडिया में उसका हर सदस्य अपने साथियों/मित्रों/फालोवर के साथ तत्काल और निरंतर विचारों/सूचनाओं का साझा और अंतर्क्रिया कर सकता है. जाहिर है कि इसने लोगों को उनकी आवाज़ और उसे खुलकर अभिव्यक्त करने का मंच प्रदान किया है और इस तरह उनका सशक्तिकरण किया है.
यही नहीं, सूचनाओं के आदान-प्रदान का उन्मुक्त और तुरंत प्रवाह उसे
वाइरल भी बनाता है जिसका मतलब यह है कि किसी सूचना या विचार को एक से दूसरे और फिर
तीसरे और चौथे और आगे तक पहुँचने में कुछ सेकेंडों/मिनटों का समय लगता है. हैरानी
की बात नहीं है कि सोशल मीडिया पर बहुतेरे सन्देश/वीडियो/फोटो/गाने आदि रातों-रात
लोकप्रिय हो जाते हैं.
यही नहीं, उसने पारंपरिक मीडिया को भी उसकी गलतियों को
उजागर करके ज्यादा जिम्मेदार बनाया है. इसके अलावा एक कम खर्चीले, सहज सुलभ, बाहरी
नियंत्रण से मुक्त और व्यापक प्रसार वाले माध्यम के बतौर सोशल का उपयोग
जन-आंदोलनकारी/सिविल सोसायटी संगठनों/समूहों ने भी लोगों को विभिन्न मुद्दों पर
जागरूक और गोलबंद करने में किया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अरब वसंत से लेकर भारत में अन्ना हजारे के
नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और अमेरिका समेत कई विकसित देशों में
आक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसे आन्दोलनों/विरोध प्रदर्शनों को संगठित करने में आयोजकों
ने सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया और सफल रहे. इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि
सोशल मीडिया उन देशों की सरकारों और कंपनियों और दूसरी ताकतवर शक्तियों के
नियंत्रण से अभी बाहर है. सच पूछिए तो सोशल मीडिया से सरकारों के डर और उसे नियंत्रित करने की कोशिश की सबसे बड़ी वजह उसकी लोगों को जागरूक, गोलबंद और आंदोलित करने की उसकी ताकत है. असल में, सोशल मीडिया की यह आज़ादी, उसका खुलापन और साझेदारी का लोकतंत्र उसे पारंपरिक माध्यमों की तुलना में ज्यादा प्रभावी, आकर्षक और लोकप्रिय बनाता है.
इसकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी है कि जिस दौर में पारंपरिक माध्यम
विभिन्न कारणों (खासकर बड़ी पूंजी और कारपोरेट नियंत्रण) से साख के संकट का सामना
कर रहे हैं, उसमें सोशल मीडिया पर कही गई बातों/विचारों की साख कहीं ज्यादा है
क्योंकि कहने-सुनने वाले एक-दूसरे के परिचित हैं और उनका एक-दुआसरे पर ज्यादा
भरोसा है.
दूसरे, अगर उसपर कोई गलत या आधी-अधूरी सूचना शेयर की जाएगी तो उसे
देखने/पढ़ने वाले सैकड़ों/हजारों/लाखों लोगों में से कोई न कोई पकड़ लेगा और सच सामने
आ जाएगा लेकिन पारंपरिक माध्यमों में उसके सुधरने में काफी समय लग जाता है. इस तरह
सोशल मीडिया में तत्काल फीडबैक के कारण गलतियों/भूलों के सुधार की सम्भावना काफी
ज्यादा रहती है.
यही नहीं, अधिकांश सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर सदस्यों को यह अधिकार
है कि वे ऐसे सदस्यों को अपनी मित्र सूची से बाहर और उन्हें अपने सन्देश/विचार
देखने/पढ़ने से रोक सकते हैं जो अनुचित व्यवहार कर रहे हैं या आपत्तिजनक विचार
प्रकट कर रहे हैं. इसी तरह फेसबुक पर कोई भी सदस्य किसी सन्देश के आपत्तिजनक/गाली-गलौज/भडकाऊ होने की शिकायत कर सकता है और उसे हटाने में फेसबुक की मदद कर सकता है. इस तरह सोशल मीडिया में स्व-नियमन की प्रक्रिया मौजूद है. एक लोकतान्त्रिक माध्यम के नियमन के लिए स्व-नियमन से ज्यादा बेहतर और प्रभावी तरीका नहीं हो सकता है.
यह ठीक है कि इस स्व-नियमन की प्रक्रिया से कम सदस्य परिचित हैं या वे
इसका सक्रियता से इस्तेमाल नहीं करते हैं या उसके प्रति एक उदासीन रवैया अपनाते
हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकार या
उनकी स्वामी कंपनियों को कंटेंट की सेंसरशिप करने की इजाजत दी जाए.
अगर ऐसा हुआ तो
पारंपरिक मीडिया की तुलना में ज्यादा स्वतंत्र, लोकतान्त्रिक और विश्वसनीय माध्यम
के बतौर सोशल मीडिया की साख खत्म हो जायेगी. याद रहे कि उसकी सबसे बड़ी ताकत
सूचनाओं/विचारों का खुला, स्वतंत्र और मुक्त प्रवाह है जिसमें पारंपरिक मीडिया की
तरह संदेशदाताओं के बीच स्तरीकरण नहीं बल्कि बराबरी का संबंध है.
दरअसल, आज जरूरत यह है कि लोगों को सोशल मीडिया के बारे में ज्यादा
जागरूक करने और शिक्षित करने की है. दूसरे, उसके इस्तेमाल करनेवालों की संख्या
जैसे-जैसे बढ़ेगी और संदेशों/विचारों का प्रवाह बढ़ेगा, उसके साथ उसके इस्तेमाल के
स्वतः विकसित तौर-तरीके और सामाजिक नियम भी विकसित होंगे. इससे सोशल मीडिया में
कंटेंट की साझेदारी में जिम्मेदारी का बोध भी विकसित होगा. लेकिन अगर उसे जिम्मेदार बनाने के नामपर सरकार या कोई दूसरी एजेंसी उसे नियंत्रित करने और उसपर सेंसरशिप थोपने की कोशिश करती है तो यह सरकारी और कारपोरेट नियंत्रण से मुक्त, लोकतान्त्रिक, विविधतापूर्ण और वैकल्पिक मीडिया प्लेटफार्म के बतौर उभरते सोशल मीडिया की अकाल मृत्यु का एलान होगा.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 1 सितम्बर को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित और पूर्ण अंश)
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