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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

अर्थनीति वह जो कारपोरेट मन भाए

नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाने में जुटी है ‘आप’

आम आदमी पार्टी (आप) के आर्थिक दर्शन और नीतियों से धीरे-धीरे पर्दा हटने लगा है. हालाँकि पार्टी ने वायदे के बावजूद अब तक अपने आर्थिक दर्शन और अर्थनीति संबंधी दस्तावेज पेश नहीं किया है लेकिन उसके शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल और मुख्य विचारक-रणनीतिकार योगेन्द्र यादव के हालिया भाषणों और बयानों से पार्टी की अर्थनीति की दिशा साफ़ होने लगी है.
केजरीवाल ने उद्योगपतियों के लाबी संगठन- सी.आई.आई की सभा में यह कहकर पार्टी के आर्थिक दर्शन की दिशा स्पष्ट कर दी कि पार्टी पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है और वह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का विरोध करती है. उन्होंने यह भी कहा कि सरकार का काम बिजनेस नहीं है और बिजनेस पूरी तरह से निजी क्षेत्र और उद्यमियों का काम है. इसके लिए लाइसेंस और इंस्पेक्टर राज खत्म होना चाहिए.
दूसरी ओर, आप के मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र यादव ने मुंबई में निवेशकों की एक सभा में कहा कि खाद्य सब्सिडी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि सीधे खाद्यान्न देना गरीबों की मदद का सबसे निष्प्रभावी और महंगा तरीका है.

उनके मुताबिक, गरीबों की मदद का सबसे बेहतर तरीका उनके लिए अलग से उपाय नहीं बल्कि बिजनेस के अनुकूल माहौल बनाकर और भ्रष्टाचार पर काबू पाकर आर्थिक विकास को तेज करना है ताकि सभी को ऊपर उठाया जा सके. यादव ने यह भी कहा कि पार्टी निजी पूंजी के अनुकूल माहौल बनाने के लिए वि-नियमन (डी-रेगुलेशन), बिजनेस मामलों में राज्य के अहस्तक्षेप की नीति और स्वच्छ राजनीति को आगे बढ़ाना चाहती है.

चौंक गए? ये बातें पहले भी सुनी हुई लग रही हैं? आपका चौंकना स्वाभाविक है क्योंकि आम आदमी पार्टी के नेताओं के अर्थनीति संबंधी इन बयानों में नया कुछ नहीं है. न भाषा में और न लहजे में. कांग्रेस और भाजपा के आर्थिक दर्शन और अर्थनीति की दिशा यही है. केजरीवाल और योगेन्द्र यादव कमोबेश वही बोल रहे हैं जिसे देश पिछले दो दशकों से अहर्निश मनमोहन सिंह-पी. चिदंबरम-मोंटेक सिंह अहलुवालिया से सुनता रहा है और इन दिनों नरेन्द्र मोदी से सुन रहा है.
अगर आप की अर्थनीति की दिशा के बारे में केजरीवाल और यादव के ताजा बयानों और भाषणों को उसकी भविष्य में घोषित होनेवाली आर्थिक नीति की पूर्वपीठिका मानें तो सच यह है कि अर्थनीति के बुनियादी उसूलों और दिशा के बारे में मनमोहन सिंह, नरेन्द्र मोदी और केजरीवाल की सोच में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.        
संभव है कि योगेन्द्र यादव इसे स्वीकार न करें लेकिन संकेत यही है कि वे जिस अर्थनीति की वकालत कर रहे हैं, वह उसी नव उदारवादी अर्थनीति की बगलगीर दिखाई पड़ रही है जिसका समर्थन कांग्रेस और भाजपा करती रही हैं और जो पिछले दो दशकों से केन्द्र में सरकारों में बदलाव के बावजूद बिना किसी रुकावट के जारी हैं.

आम आदमी पार्टी की अर्थनीति- नव उदारवादी अर्थनीति के करीब जा रही है, इसका संकेत इस तथ्य से भी मिलता है कि पार्टी के आग्रह पर नव उदारवादी अर्थनीति के आलोचक और वैकल्पिक अर्थनीति की पैरवी करनेवाले प्रो. अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्रियों ने कुछ महीनों पहले अर्थनीति का जो मसौदा तैयार किया था, उसे एक तरह से ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी ने जनवरी के आखिरी सप्ताह में अर्थनीति तय करने के लिए सात सदस्यी नई समिति बनाई जिसके ज्यादातर सदस्य घोषित तौर पर नव उदारवादी आर्थिक नीति के समर्थक हैं.

निश्चय ही, आम आदमी पार्टी के नव उदारवादी अर्थनीति को गले लगाने के साफ़ संकेतों के कारण उनके बहुतेरे समर्थकों और शुभचिंतकों को निराशा हुई है जो उससे अर्थनीति के मामले में एक वैकल्पिक दृष्टिकोण और दर्शन की अपेक्षा कर रहे थे.
हालाँकि पार्टी के विचारक और मुख्य प्रवक्ता योगेन्द्र का कहना है कि आप २० सदी की विचारधाराओं और वैचारिक खेमों- वाम और दक्षिण में विश्वास नहीं करती है और उन्हें भारत के लिए प्रासंगिक नहीं मानती है.
यह भी कि आप किसी भी पूर्व निर्धारित आर्थिक नीति के पैकेज से सहमत नहीं है और देश की जरूरतों के मुताबिक हर आर्थिक समस्या का घरेलू समाधान ढूंढने की कोशिश करेगी.  केजरीवाल भी कह चुके हैं कि वे वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों में यकीन नहीं करते हैं और समस्याओं का जहाँ से भी समाधान मिलेगा, उसे लेने में उन्हें परहेज नहीं होगा.
इन दावों और बयानों से ऐसा भ्रम होता है कि आप वाम और दक्षिण से अलग एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक वैचारिकी की वकालत कर रहा है. लेकिन सच यह है कि वाम और दक्षिण के वैचारिक विभाजनों और नीतिगत पैकेजों को ख़ारिज करने का जुबानी दावा करते हुए भी आम आदमी पार्टी वास्तव में एक दक्षिणपंथी आर्थिक एजेंडे यानी मुक्त बाजार की नव उदारवादी अर्थनीति को ही नए पैकेज में पेश करने की कोशिश कर रही है.

लेकिन उसकी भाषा और मुहावरे इतने जाने-पहचाने हैं कि इसे छिपा पाना मुश्किल है. वैसे आप इसे छुपाना भी नहीं चाहती है. इसकी वजह यह है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा और समर्थन जीतने के लिए बेचैन है.

इस मायने में कांग्रेस, भाजपा और आप यानी तीनों पार्टियां नव उदारवादी अर्थनीति के साथ खड़ी हैं और फर्क सिर्फ कुछ मामलों में जोर और प्रस्तुति भर का है. उदाहरण के लिए, कांग्रेस नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को गरीबों को कुछ मामूली राहतों (जैसे मनरेगा, भोजन के अधिकार आदि) के साथ लागू करने के पक्ष में है जबकि भाजपा-नरेन्द्र मोदी उसे बिना किसी बाधा और गरीबों को राहत देने जैसे सब्सिडी बोझ के बगैर लागू करना चाहते हैं.
वहीँ आप का दावा है कि वह इसे बिना याराना (क्रोनी) पूंजीवाद के लागू करना चाहती है. यही नहीं, नव उदारवादी अर्थनीति को लागू करने के मामले में आप वास्तव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के ज्यादा करीब खड़ी है.     
असल में, आम आदमी पार्टी के नेताओं और रणनीतिकारों को लगता है कि शासन की पार्टी (पार्टी आफ गवर्नेंस) बनने के लिए बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स का भरोसा जीतना जरूरी है. इसके बिना सत्ता में पहुंचना और खासकर सरकार चला पाना मुश्किल है.

यही कारण है कि आप के नेता सी.आई.आई से लेकर मुम्बई के निवेशकों और गुलाबी अखबारों तक यह सफाई देते घूम रहे हैं कि वे उद्यमियों के खिलाफ नहीं हैं, उल्टे वे भ्रष्टाचार खत्म करके बिजनेस करने के लिए अनुकूल माहौल बनाना चाहते हैं.

ही नहीं, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की अनुमति देने के शीला दीक्षित सरकार के फैसले को पलटने, निजी बिजली वितरण कंपनियों का सी.ए.जी से आडिट कराने और के.जी. बेसिन गैस मामले में एफ.आई.आर दर्ज कराने जैसे फैसलों से बेचैन कारपोरेट जगत को आश्वस्त करने के लिए केजरीवाल और यादव लगातार कह रहे हैं कि ये उनकी नीति नहीं बल्कि चुनिंदा मामलों में लिए गए फैसले भर हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या नव उदारवादी अर्थनीति से याराना पूंजीवाद या भ्रष्टाचार को अलग किया जा सकता है? बिलकुल नहीं, भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म का सीधा सम्बन्ध नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से है.
सच यह है कि इन सुधारों के साथ भ्रष्टाचार का भी पूरी तरह से उदारीकरण हो गया है. इसका सुबूत यह है कि आज़ादी के बाद से भारत से जो कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर गया, उसका ६८ प्रतिशत अकेले १९९१ के आर्थिक सुधारों के बाद से गया है. ग्लोबल फिनान्सियल इंटीग्रिटी (जी.एफ.आई) रिपोर्ट’२०१३ के मुताबिक, १९४८ से २००८ के बीच अवैध तरीके से भारत से लगभग २१३ अरब डालर की रकम विदेशों में खासकर आफशोर बैंकों में चली गई.
अगर इस रकम को मुद्रास्फीति के साथ एडजस्ट करें तो भ्रष्ट और घोटालेबाज मंत्रियों, नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों और माफियाओं ने इन साठ वर्षों में कोई ४६२ अरब डालर की रकम लूटकर विदेशों में भेज दिया. लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका ६८ प्रतिशत यानी ३१४ अरब डालर आर्थिक सुधारों के शुरू होने के बाद गए हैं.

इस रिपोर्ट के मुताबिक, १९९१ के आर्थिक सुधारों के पहले जहां प्रति वर्ष औसतन ९.१ प्रतिशत की दर से अवैध कालाधन विदेशी बैंकों में जा रहा था, वह सुधारों की शुरुआत के बाद उछलकर सीधे १६.४ प्रतिशत सालाना की दर से जाने लगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट के अनुसार, २००२ से २००८ के बीच औसतन हर साल १६ अरब डालर यानी ७३६ अरब रूपये का कालाधन अवैध तरीके से देश से बाहर चला गया.          

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के साथ भ्रष्टाचार में वृद्धि कई कारणों से हुई है. पहली बात तो यह है कि यह धारणा अपने आप में एक मिथ है कि लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म हो जाने से भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा.
सच यह है कि भ्रष्टाचार पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा है. लाइसेंस-कोटा-परमिट राज भी एक तरह का नियंत्रित पूंजीवाद था, जिसमें हर लाइसेंस-कोटे-परमिट की कीमत थी. लेकिन नियंत्रित और बंद अर्थव्यवस्था होने के कारण दांव इतने उंचे नहीं थे, जितने आज हो गए हैं. नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में भी लाइसेंस-कोटा-परमिट राज खत्म नहीं हुआ बल्कि कुछ मामलों में उसका रूप थोड़ा बदल गया है जबकि कुछ में वह अब भी वही पुराना लाइसेंस-कोटा-परमिट है. अलबत्ता, अब उनका आकार बहुत बढ़ गया है.
दूसरे, उदारीकरण के इस दौर में कंपनियों की ताकत बहुत ज्यादा बढ़ गई है. खासकर बड़ी विदेशी पूंजी के आने के बाद उनकी मोलतोल की क्षमता बेतहाशा बढ़ गई है. यह इसलिए हुआ है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत राज्य को बड़ी पूंजी के हितों का सबसे बड़ा संरक्षक, हितैषी, उसके हितों को आगे बढ़ानेवाला और उसके निवेश और मुनाफे की राह से रोड़े हटानेवाला बना दिया गया.

नव उदारवादी पूंजीवादी सुधारों के तहत राजनीति और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के बीच ऐसा गठबंधन तैयार हुआ है जिसने राज्य को कार्पोरेट्स की सेवा में लगा दिया है. राज्य की भूमिका अब देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के लिए सार्वजनिक संसाधनों खासकर दुर्लभ प्राकृतिक और अन्य संसाधनों को मनमाने तरीके से औने-पौने दामों में मुहैया कराना रह गया है.

इसके लिए नव उदारवादी सुधारों के तहत ऐसी नीतियां तैयार की गईं हैं जो कीमती और दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों को कार्पोरेट्स के हवाले करने का रास्ता साफ करती हैं. कहने का अर्थ यह कि भ्रष्टाचार और घोटालों से इतर कार्पोरेट्स के पक्ष में ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे कानूनी अर्थों में भ्रष्टाचार नहीं माना जाता है क्योंकि वह सब कानून और नियमों के अनुकूल है.
सच पूछिए तो पिछले दो दशकों में उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक हितों की कीमत पर जिस तरह से देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के हितों को आगे बढ़ाया गया है, उससे बड़ा घोटाला और कोई नहीं है.
इस नए निजाम में सबसे ज्यादा जोर कंपनियों के मनमाने मुनाफे को बढ़ाने पर है और इसके लिए उन्हें जो रियायतें और छूट दी जा सकती हैं, बिना किसी शर्म-संकोच के दी जा रही हैं. उदाहरण के लिए, हर साल बजट में कंपनियों और कारोबारियों को विभिन्न तरह के टैक्सों में अरबों रूपये की छूट दी जा रही है जो एक तरह की सब्सिडी ही है.

असल में, पिछले डेढ़-दो दशकों में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को ‘तेज विकास दर और भारत को आर्थिक महाशक्ति’ बनाने की आड़ में आगे बढ़ाया गया है, उसने वास्तव में गरीबों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और आम आदमी के हितों की कीमत पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा बेशकीमती सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिजों की बेशर्म लूट का रास्ता साफ़ किया है.

सच पूछिए तो यह सिर्फ याराना पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) नहीं बल्कि मूलतः यह लुटेरा पूंजीवाद (रोबर कैपिटलिज्म) है. लेकिन इसमें हैरान होने की जरूरत नहीं है. यह पूंजीवाद का कोई विपथगमन (एबेरेशन) नहीं बल्कि अन्तर्निहित चरित्र है. इसका इलाज मुक्त बाजार और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) नहीं है बल्कि ये इसके ही स्वाभाविक सहोदर हैं.
केजरीवाल और आम आदमी पार्टी नीतिगत रूप से इसका विकल्प पेश किये बिना सिर्फ ईमानदार राजनीति के प्रस्ताव से समाधान का दावा कर रही है लेकिन वे भूल रहे हैं कि ईमानदार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी हैं लेकिन वे कहाँ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा पाए?
याद रहे, मार्क्स ने कहा था कि राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है. साफ़ है कि केजरीवाल जिस नव उदारवादी अर्थनीति की बीन बजाकर कार्पोरेट्स को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं, वह राजनीतिक रूप से भी उन्हें उसी याराना पूंजीवाद की गोद में बैठा देगी.

उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि आप अर्थनीति के मामले में जो मध्य-दक्षिण (सेंटर-राईट) पोजिशनिंग की कोशिश कर रही है, वह उन्हें बहुत दूर नहीं ले जा पाएगी. इसकी वजह यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में मध्य-दक्षिण जगह खाली नहीं है. क्या उन्हें पता है कि वह जगह भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने पहले से ही भर दी है? वहां मोदी से प्रतियोगिता करके उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा. 

केजरीवाल चाहे या न चाहें लेकिन उनके सामने बाएं मुड़ने या मोदी की 'हवा' में उड़ जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.  
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 22 फ़रवरी को प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख   

रविवार, फ़रवरी 16, 2014

मोदीनोमिक्स की सच्चाई

गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं मोदी  

हालिया चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में लोकसभा चुनावों में एन.डी.ए के सत्ता के करीब पहुँचने और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की बढ़ती संभावनाओं से भाजपा नेताओं और समर्थकों के बाद सबसे ज्यादा खुशी कारपोरेट जगत और मुंबई शेयर बाजार को हुई है.
आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजार तुरंत उछलने लगा, कारपोरेट जगत ने अर्थव्यवस्था के लिए स्थिर सरकार की जरूरत बताते हुए संतोष जाहिर किया और गुलाबी अखबारों ने राहत की सांस ली. निश्चय ही, भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी- मूडी की रेटिंग गिराने (डाउनग्रेड) की चेतावनी के बावजूद मोदी के सत्ता में आने की ‘खबर’ से उछलते शेयर बाजार की खुशी बहुत कुछ कहती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और उसके कारपोरेट प्रतिनिधियों ने इस बार लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया है और वे हर हाल में उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं. इसकी वजह भी किसी से छुपी नहीं है.

घोषित तौर पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को नरेन्द्र मोदी में एक “सख्त, निर्णायक और परिणामोन्मुखी” प्रशासक दिखाई पड़ रहा है जो अर्थव्यवस्था को मौजूदा “संकट” और “नीतिगत लकवे” की स्थिति से बाहर निकालकर पटरी पर ला सकता है. कार्पोरेट्स की मोदी में इस भरोसे की बड़ी वजह यह है कि गुजरात में मोदी ने यह करके दिखाया है.

असल में, कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी पूंजी को नरेन्द्र मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे लगता है कि मौजूदा परिस्थितियों में मोदी में ही वह राजनीतिक कौशल और क्षमता है कि वे कारपोरेट-परस्त नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों के हलक में उतार और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को और अधिक रियायतें और छूट दे सकते हैं.
कार्पोरेट्स को अच्छी तरह से पता है कि अगले दौर के आर्थिक सुधार आसान नहीं हैं और उन्हें लागू करने में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार की नाकामी के बाद मोदी से ही उम्मीदें बची हैं. हैरानी की बात नहीं है कि नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर शेयर बाजार के सटोरियों तक और बड़ी पूंजी के मुखपत्र गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी खुलकर मोदी की वकालत कर रहे हैं.
दूसरी ओर, मोदी भी कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने में पीछे नहीं हैं. उदाहरण के लिए, पिछले महीने गांधीनगर में उद्योगपतियों के बड़े संगठन- फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने कार्पोरेट्स की हर मांग पर मोहर लगाई.

कार्पोरेट्स ने मोदी के सामने श्रम सुधारों यानी श्रम कानूनों को ढीला करने, स्थाई नौकरियों की जगह कांट्रेक्ट व्यवस्था, हायर एंड फायर यानी जब चाहें भर्ती और जब चाहें छंटनी और यूनियनों को काबू में करने के अलावा रक्षा उत्पादन के निजीकरण की मांगें उठाईं. मोदी ने वायदा किया कि वे श्रम को राज्य विषय बना देंगे और निजी पूंजी निवेश को बढ़ाने के लिए सभी अनुकूल उपाय करेंगे.

लेकिन मोदी यहीं नहीं रुके. उन्होंने कहा कि वे सत्ता में आयेंगे तो ‘टैक्स आतंकवाद’ खत्म करेंगे. आखिर यह ‘टैक्स आतंकवाद’ क्या है? असल में, देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले कई महीनों से वोडाफोन, आई.बी.एम से लेकर नोकिया और दूसरी कई कंपनियों के मामले में आयकर विभाग द्वारा टैक्स नोटिस जारी करने को टैक्स आतंकवादबता रहे हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियाँ टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का चतुराई से फायदा उठाकर टैक्स देने से बचने से लेकर वास्तविक टैक्स से कम टैक्स देती रही हैं. मजे की बात यह है कि हर साल केन्द्र सरकार कार्पोरेट्स और अमीरों को साढ़े चार लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें देती रही हैं.
इसके बावजूद कार्पोरेट्स वास्तविक टैक्स देने से बचने के लिए तीन-तिकडम करते रहे हैं. इससे हर साल सरकारी खजाने को हजारों करोड़ रूपये का चूना लगता है. उल्लेखनीय है कि वोडाफोन को ११ हजार करोड़ रूपये से ज्यादा का टैक्स भरने की नोटिस दी गई थी. ऐसे और कई मामले हैं लेकिन ये कम्पनियाँ इसे ज्यादती बताते हुए टैक्स भरने के लिए तैयार नहीं हैं.

तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इन कंपनियों से टैक्स वसूलने के लिए टैक्स कानून में संशोधन करके पीछे से टैक्स वसूलने (रेट्रोस्पेक्टिव) का प्रावधान शामिल किया था. इसके अलावा टैक्स देने से बचने की तिकड़मों पर अंकुश लगाने के लिए गार नियम लाये गए थे लेकिन कार्पोरेट्स ने इन प्रावधानों पर खूब हंगामा किया, इसे निवेश विरोधी बताया और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम को इन्हें ठंडे बस्ते में डालने के लिए मजबूर कर दिया.

कहने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स इसी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स प्रावधान और गार नियमों को ‘टैक्स आतंकवाद’ कहते हैं जिससे मोदी निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. भला ऐसे प्रधानमंत्री को कार्पोरेट्स क्यों नहीं पसंद करेंगे?
असल में, एन.डी.ए और उनके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की अर्थनीति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी यह कारपोरेट-परस्ती है जिसे वह छुपाने की कोशिश नहीं करते हैं. यहाँ तक कि कार्पोरेट्स को खुश करने के चक्कर में मोदी अपनी मातृ संस्था- आर.एस.एस की प्रिय अर्थनीति- स्वदेशी का भूल से भी जिक्र नहीं करते हैं.
याद रहे कि मोदी राजनीतिक तौर पर उस दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और निजी पूंजी और उद्यमशीलता को खुली छूट देनेवाली नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी की वकालत करती रही है.             

सच पूछिए तो इस मामले में भाजपा-नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के आर्थिक दर्शन में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.

उल्लेखनीय है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है.

यही नहीं, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने यानी सब्सिडी आदि खत्म करने की पैरवी करती है.
लेकिन बुनियादी तौर पर मुक्त बाजारपर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार होने के बावजूद जहाँ मोदी उसे सख्ती से लागू करने और उसके विरोध की हर आवाज़ को दबा देने के पक्षधर हैं वहीँ कांग्रेस थोड़ी नरमी बरतने और लोगों को उसकी मार से राहत देने और बदले में उनका समर्थन जीतने के लिए मनरेगा जैसी योजनाओं की वकालत करती है.
लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की कांग्रेसी रणनीति अब अप्रभावी हो गई है. उसे इन सुधारों को सख्ती से आगे बढ़ाने वाले नेता की जरूरत है. मोदी के रूप में उसे मुंहमांगा नेता मिल गया है जो बिना किसी शर्म या हिचक के कार्पोरेट्स के एजेंडे को देश के ‘विकास और खुशहाली’ का एजेंडा बताने और उसे आमलोगों खासकर गरीबों-निम्न मध्यवर्ग में स्वीकार्य बनाने में कामयाब होता दिख रहा है.   

यह और बात है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.
इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है. उल्टे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है. इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है.

कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.

('सबलोग' के फ़रवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी आप पत्रिका खरीद कर पढ़िए) 

सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)    

सोमवार, जून 04, 2012

आर्थिक सुधार अंधी गली के आखिरी मुहाने पर पहुँच गए हैं

इस आर्थिक संकट की जड़ें नव उदारवादी अर्थनीति में हैं

भारतीय अर्थव्यवस्था संकट में है. अर्थव्यवस्था के लगभग सभी संकेतक उसकी पतली होती हालत की ओर इशारा कर रहे हैं. ऐसा नहीं है कि यह संकट अचानक आया है. इस संकट के संकेत लंबे अरसे से दिख रहे हैं.
लेकिन यू.पी.ए-2 सरकार इन संकेतों को न सिर्फ नजरंदाज करती रही बल्कि अपने अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण उससे निपटने के लिए जरूरी स्पष्ट और ठोस फैसला करने में नाकाम रही है.
यू.पी.ए के आर्थिक मैनेजर मानें या न मानें लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि सत्ता में तीन साल पूरे कर चुकी यू.पी.ए-2 सरकार की सबसे बड़ी नाकामी अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के रूप में सामने आई है.

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था पर से पकड़ बिलकुल छूट चुकी है. नतीजा सबके सामने है- राजनीतिक रूप से ज्वलनशील महंगाई पिछले तीन साल बेकाबू है, जी.डी.पी की वृद्धि दर गिर रही है, औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक हो चुकी है, शेयर बाजार और उससे अधिक रूपया लुढ़कने के नए रिकार्ड बना रहा है, व्यापार घाटे के साथ चालू खाते का घाटा खतरे की सीमा को लांघ चुका है, निवेश गिर रहा है और नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं.
साफ़ है कि आर्थिक हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक का दावा है कि अर्थव्यवस्था के मूल तत्व मजबूत हैं और मौजूदा आर्थिक मुश्किलें वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट के कारण हैं.
लेकिन यह सच्चाई से आँख चुराना और अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने की तरह है. यह एक हद तक ठीक है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था खासकर यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के गहरे संकट में फंसे होने का असर भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जो न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में पिट रही हैं.
आश्चर्य नहीं कि इन दिनों पूरी दुनिया में कारपोरेट और वित्तीय पूंजीवाद को आगे बढ़ानेवाली नव उदारवादी अर्थनीति को लेकर न सिर्फ गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं बल्कि संकट को बढ़ाने और स्थिति को और बदतर बनाने में उसकी भूमिका को भी रेखांकित किया जा रहा है.
लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए-2 सरकार और खासकर उसके आर्थिक मैनेजर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से इस कदर सम्मोहित हैं कि वे उससे इतर देखने और उसके विकल्पों पर विचार करने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि वे यह भी मानने को तैयार नहीं हैं कि मौजूदा वैश्विक और घरेलू आर्थिक संकट के लिए नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी जिम्मेदार है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि वे अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट का ठीकरा वैश्विक आर्थिक संकट पर फोड़ने के बावजूद उसका समाधान उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उनपर आधारित आर्थिक सुधारों में ढूंढा जा रहा है जिनके कारण यह संकट आया है.
सच पूछिए तो भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट अर्थनीति के स्तर पर नए और वैकल्पिक विचारों की कमी का नतीजा है. उदाहरण के लिए, महंगाई और खादयान्न प्रबंधन के मुद्दे को हो लीजिए जिसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था और राजनीति डगमगाई हुई है.
पिछले तीन सालों से मुद्रास्फीति की लगातार ऊँची दर के कारण न सिर्फ अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती हुई दिखाई दे रही है बल्कि यू.पी.ए सरकार को उसकी भारी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी है. यह महंगाई मुख्यतः खाद्यान्नों और दूध-सब्जियों की ऊँची कीमतों के कारण है जो धीरे-धीरे फैलकर व्यापक हो गई है.
कहने की जरूरत नहीं है कि खाद्य वस्तुओं की इस महंगाई का सबसे प्रमुख कारण कृषि क्षेत्र की भारी उपेक्षा है जिसे ९० के आर्थिक सुधारों के दशक में अपने हाल पर छोड़ दिया गया. इस दौरान यह मान लिया गया कि कृषि क्षेत्र के बिना भी सिर्फ सेवा और उद्योग क्षेत्र की बदौलत अर्थव्यवस्था ८-१० फीसदी की तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है.
यह तथ्य है कि ८-९ फीसदी की तेज आर्थिक वृद्धि के दौर में भी कृषि की विकास दर सिर्फ २ से ३ फीसदी के बीच झूलती रही. इससे अर्थव्यवस्था के मैनेजरों को यह भ्रम हो गया कि नई भारतीय अर्थव्यवस्था कृषि क्षेत्र को बाईपास करके सेवा और उद्योग क्षेत्र के हाईवे पर तेज रफ़्तार से दौड़ सकती है.
लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि भारत जैसे देश में कृषि की उपेक्षा करके अर्थव्यवस्था लंबे समय तक हाईवे पर तेज नहीं दौड़ सकती है. उसे ब्रेक लगना ही है. खाद्य वस्तुओं की महंगाई वही ब्रेक है जिसने अर्थव्यवस्था को जबरदस्त झटका दिया है.
असल में, हुआ यह कि सरकार ने इस मुद्रास्फीति को काबू में करने का जिम्मा रिजर्व बैंक को दे दिया जिसने ब्याज दरों में डेढ़ सालों में १३ बार से ज्यादा बार वृद्धि करके उसे काबू में करने की कोशिश की लेकिन ताजा आंकड़ों से साफ़ है कि महंगाई अभी भी काबू में नहीं आई है क्योंकि उसकी वजहें कहीं और हैं. अलबत्ता, ऊँची ब्याज दरों के कारण अर्थव्यवस्था की रफ़्तार जरूर धीमी पड़ती जा रही है क्योंकि इससे निवेश पर बुरा असर पड़ा है.
यही नहीं, नव उदारवादी नीतियों के असर में सरकार ने खाद्य कुप्रबंधन का नया रिकार्ड बना दिया है. यह किसी पहेली से कम नहीं है कि इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन और सरकार के गोदामों में रिकार्ड खाद्यान्न भण्डार के बावजूद खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है.
यू.पी.ए सरकार इस साल रिकार्ड कृषि उत्पादन को अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रही है लेकिन वही रिकार्ड उत्पादन उसके लिए सबसे बड़ा सिरदर्द और अभिशाप बनता दिख रहा है. वजह यह कि इस साल जून के आखिर में सरकारी गोदामों में कोई ७.५ करोड़ टन अनाज का रिकार्ड भण्डार होगा लेकिन उसमें से कोई १.५ करोड़ टन अनाज बाहर खुले में पड़ा होगा.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह खाद्यान्न प्रबंधन के स्तर पर नीतियों का दिवालियापन है कि एक ओर सरकार के भंडारों में न्यूनतम बफर नार्म के तीन गुने से ज्यादा अनाज होगा और इस तरह सरकार सबसे बड़ा जमाखोर बन जाएगी और दूसरी ओर, खुले बाजार में अनाजों की किल्लत होगी, ऊँची महंगाई होगी, मुनाफाखोर पैसे बनायेंगे, करोड़ों लोग भूखे पेट सोयेंगे लेकिन सरकारी भंडारों में अनाज सड़ेगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजर इस अनाज को गरीबों में बांटने या उसे एक सार्वभौम खाद्य सुरक्षा कानून के तहत सभी नागरिकों के लिए सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने के लिए तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि एक सीमित और आधे-अधूरे खाद्य सुरक्षा विधेयक को भी जान-बूझकर लटकाए रखा गया है.
इसकी वजह यह है कि सरकार को लगता है कि मुफ्त में या सस्ती दरों पर लोगों को अनाज उपलब्ध कराने से खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ जाएगा. नव उदारवादी अर्थनीति में राजकोषीय घाटा को जी.डी.पी के तीन फीसदी के दायरे में रखना सबसे बड़ी और पहली प्राथमिकता होती है, इसलिए सरकार अनाज इकठ्ठा करने का रिकार्ड बनाती जा रही है लेकिन उसे जरूरतमंदों और भूखे लोगों तक पहुंचाने के लिए तैयार नहीं है.
लेकिन इसका नतीजा यह हुआ है कि एक ओर खुले बाजार में कृत्रिम किल्लत पैदा हो गई है जिसका फायदा अनाजों के बड़े व्यापारी और कम्पनियाँ उठा रही हैं, महंगाई आसमान छू रही है और दूसरी ओर, गोदामों में अनाजों को रखने और उनकी देखभाल में होनेवाला खर्च बढ़ता जा रहा है जिसके कारण साल-दर-साल खाद्य सब्सिडी और राजकोषीय घाटा दोनों बढते जा रहे हैं.
यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति अति व्यामोह का नतीजा है. इसके कारण माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो गई है. लेकिन इसके बावजूद इन नीतियों का मोह नहीं छूट रहा है. आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट की दवा उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नए डोज में खोज रही है जिनके कारण यह संकट पैदा हुआ है.
लेकिन सच यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधार खुद एक गंभीर संकट में फंस गए हैं. इन नीतियों के कारण बढे भ्रष्टाचार और सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. इसका सबसे बड़ा सुबूत यह है कि पूरे देश में इन नीतियों के खिलाफ एक विद्रोह जैसा माहौल है खासकर गरीब किसान और आदिवासी उद्योगों और खनन के लिए जमीन देने को तैयार नहीं हैं.
यहाँ तक कि इन नीतियों का सबसे बड़ा समर्थक माना जानेवाला मध्यवर्ग भी बेचैन और गुस्से में है. साफ़ है कि आर्थिक सुधार अंधी गली के आखिरी मुहाने पर पहुँच गए हैं. आगे रास्ता बंद है. यू.पी.ए सरकार इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझ लेगी, अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही अच्छा होगा. अन्यथा यह संकट और बढ़ेगा और नए-नए रूपों में सामने आएगा.
सबसे बड़ा खतरा यह है कि इस आर्थिक संकट के राजनीतिक संकट में तब्दील होने के आसार बढते जा रहे हैं. लेकिन अगर यू.पी.ए सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर यह सोच रहे हैं कि आर्थिक-राजनीतिक संकट बढ़ने से उन्हें यह कहकर आर्थिक सुधारों का नया डोज देने में आसानी हो जाएगी कि अब इन कठोर फैसलों के अलावा और कोई उपाय नहीं है तो वे भूल कर रहे हैं.
उन्हें यह जोखिम बहुत भारी पड़ सकता है. उन्हें यूरोप में ध्वस्त हो रही सरकारों के हश्र से सबक लेना चाहिए.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में पिछली 23 मई को प्रकाशित टिप्पणी)