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सोमवार, मई 19, 2014

हा-हा! वामपंथ दुर्दशा देखि न जाई

क्या सरकारी वामपंथ हाशिए से अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ रहा है?

लोकसभा चुनावों में वाम मोर्चे यानी सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई की ऐतिहासिक हार हुई है. वाम मोर्चे का यह प्रदर्शन पिछले तीन दशकों में अब तक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. सीटों और कुल वोटों दोनों के मामलों में आई गिरावट खतरे की घंटी है. सी.पी.आई-एम और सी.पी.आई दोनों की राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता खतरे में पड़ गई है. पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम और भाजपा के वोटों में सिर्फ कुछ फीसदी वोटों का ही फर्क रह गया है.
इस हार से पहले से ही हाशिए पर पहुँच चुके सरकारी वामपंथ के लिए राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने का खतरा पैदा हो गया है. लेकिन लगता नहीं है कि वाम मोर्चे के नेतृत्व खासकर सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी और उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है.

उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का व्यवहार हैरान करनेवाला है.

सी.पी.आई-एम नेताओं का कहना है कि चुनावों में त्रिपुरा और केरल में पार्टी का प्रदर्शन संतोषजनक है जबकि पश्चिम बंगाल में खराब प्रदर्शन के लिए तृणमूल सरकार की गुंडागर्दी, आतंकराज और बूथ कब्ज़ा जिम्मेदार है.
माकपा महासचिव प्रकाश करात का तर्क है कि पश्चिम बंगाल के नतीजे वामपंथी पार्टियों की वास्तविक ताकत को प्रदर्शित नहीं करते हैं. यह सही है कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल ने सरकारी मशीनरी और गुंडों की मदद से आतंकराज कायम कर दिया है जिसकी मार वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर पड़ रही है.
लेकिन क्या सिर्फ इस कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथ का प्रदर्शन इतना खराब और लगातार ढलान की ओर है? जाहिर है कि सी.पी.आई-एम का राष्ट्रीय और स्थानीय नेतृत्व सच्चाई से आँख चुरा रहा है.

क्या यह सच नहीं है कि तृणमूल के गुंडों में तीन चौथाई वही हैं जो कल तक सी.पी.आई-एम के साथ खड़े थे? हैरानी की बात नहीं है कि नंदीग्राम के लिए जिम्मेदार माने जानेवाले तत्कालीन माकपा सांसद लक्षमन सेठ आज पाला बदलकर तृणमूल की ओर खड़े हैं.

यह कड़वा सच है कि पश्चिम बंगाल में सी.पी.आई-एम ने जिस हिंसा-आतंक की राजनीतिक संस्कृति की नींव रखी और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ उसका बेहिचक इस्तेमाल किया है, वह पलटकर उसे निशाना बना रही है.
लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सी.पी.आई-एम पश्चिम बंगाल में न सिर्फ तृणमूल सरकार की खामियों और विफलताओं को उठाने में नाकाम रही है बल्कि राजनीतिक रूप से उसकी लोकलुभावन राजनीति का जवाब खोजने में कामयाब नहीं हुई है. उसके पास न तो राज्य की राजनीति में कोई नया आइडिया और मुद्दा है और न ही राष्ट्रीय राजनीति में वह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा राजनीति के लिए कोई चमकदार आइडिया पेश कर पा रही है.  
इसका नतीजा केरल में भी दिख रहा है. देश भर में कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद केरल में सी.पी.आई-एम उसकी धुरी नहीं बन पाई तो उसका कारण क्या है? लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे के बदतर प्रदर्शन और केरल में फीके प्रदर्शन को एक मिनट के लिए भूल भी जाएँ तो देश के अन्य राज्यों में वामपंथी पार्टियों की दुर्गति के लिए कौन जिम्मेदार है?

खासकर हिंदी प्रदेशों में सरकारी वामपंथ की ऐसी दुर्गति का क्या जवाब है? हालाँकि हिंदी प्रदेशों में वामपंथ की दुर्गति कोई नई बात नहीं है लेकिन इन चुनावों में वह लगभग अप्रासंगिक होने की ओर बढ़ चला है.

इसकी वजह यह है कि हिंदी प्रदेशों और पंजाब सहित महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में आम आदमी पार्टी सरकारी वामपंथ के लिए बड़ी चुनौती बनकर उभर आई है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी वामपंथ ने गैर कांग्रेस-गैर भाजपा वैकल्पिक राजनीति को जिस तरह से सपा-राजद-जे.डी-यू-जे.डी-एस,बी.जे.डी,द्रुमुक-अन्ना द्रुमुक-वाई.एस.आर.पी जैसी उन मध्यमार्गी पार्टियों के अवसरवादी गठबंधन की बंधक और जातियों के गठजोड़ तक सीमित कर दिया है जो खुद भ्रष्टाचार और कारपोरेट-परस्त नीतियों के आरोपों से घिरी हैं.
इस कारण आज वाम मोर्चे ने अपनी स्वतंत्र पहचान खो दी है और उसे भी सपा-बसपा-आर.जे.डी जैसी तमाम मध्यमार्गी, अवसरवादी, सत्तालोलुप और कारपोरेट-परस्त पार्टियों की भीड़ में शामिल पार्टियों में मान लिया गया है जो धर्मनिरपेक्षता के नामपर कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाती हैं.

कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के साथ यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निकटता और उनके दुमछल्ले की छवि सरकारी वामपंथ के लिए भारी पड़ी है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन अवसरवादी और सत्तालोलुप मध्यमार्गी पार्टियों के संग-साथ के लिए वामपंथ ने अपने रैडिकल मुद्दों को छोड़ने के साथ और विचारों को भी लचीला बना दिया है.   

हैरानी की बात नहीं है कि इन चुनावों में मुद्दों, विचारों और व्यक्तियों की लड़ाई और बहसों में वामपंथ कहीं नहीं था. ऐसा लग रहा था जैसे लड़ाई शुरू होने से पहले ही वामपंथ ने हथियार डाल दिए हों. वह राजनीतिक रूप से अलग-थलग और वैचारिक रूप से दुविधा में दिख रहा था. पूरे चुनाव के कथानक में वाम राजनीति की कहीं कोई चर्चा नहीं थी. इसके लिए कोई और नहीं बल्कि सरकारी वामपंथ और उसका वैचारिक-राजनीतिक दिवालियापन जिम्मेदार था.
यही नहीं, धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरह से भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सरकारी वामपंथ कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है.

कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है.

आशंका यह है कि इससे सीखने के बजाय भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद सरकारी वामपंथ एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है.
यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं.   
यह सरकारी वामपंथ के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं.

लेकिन क्या सरकारी वामपंथ इसके लिए तैयार है?         

गुरुवार, मई 30, 2013

कैसिनो अर्थतंत्र में क्रिकेट ही नहीं, सब कुछ है ‘फिक्स’

सट्टेबाजों के हवाले है शेयर बाजार और जिंस बाजार से लेकर क्रिकेट और आर्थिक नीतियाँ तक 

शुरू से ही पानी की तरह बहते पैसे, ग्लैमर, रंगीन पार्टियों, खिलाड़ियों की बोली और ‘हितों के टकराव’ के कारण विवादों में घिरी रही इंडियन प्रीमियर लीग (आई.पी.एल) एक बार फिर ‘मैच फिक्सिंग’ और ‘स्पाट फिक्सिंग’ के आरोपों के कारण सुर्ख़ियों में है. इस मामले में हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं और उसके साथ ही कुछ बड़ी मछलियाँ भी पकड़ में आ गईं हैं.
इससे आई.पी.एल की चमक-दमक के पीछे छिपे बड़ी पूंजी, मनोरंजन उद्योग, कालेधन, सट्टेबाजी और माफिया गिरोहों के असली खेल पर से थोड़ा सा पर्दा हटा है लेकिन इससे ज्यादा की उम्मीद मत कीजिए क्योंकि इससे आगे वह ‘ब्लैक होल’ है जिससे यह पूरी व्यवस्था निकली और बनी है.   
इसलिए आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग या स्पाट फिक्सिंग’ के खेल से बहुत हैरान होने की जरूरत नहीं है और न ही खिलाड़ियों से लेकर टीम प्रबंधकों/मालिकों के ‘फिक्सर’ में बदलने पर इतना चौंकने की जरूरत है. सच यह है कि राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था तक और खेलों से लेकर मीडिया तक हर जगह ‘फिक्सिंग’ और ‘फिक्सरों’ का बोलबाला है.

आश्चर्य नहीं कि आज बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के पक्ष में अर्थनीति ‘फिक्स’ की जा रही है, इस या उस कारपोरेट समूह के पक्ष में नीतियां ‘फिक्स’ की जा रही हैं, बड़े आर्थिक फैसले कंपनियों के हक में ‘फिक्स’ किये जा रहे हैं और यहाँ तक कि कोर्ट के फैसले भी ‘फिक्स’ करवाने के दावे किये जा रहे हैं.   

इन आरोपों को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि बड़ी पूंजी और कम्पनियाँ अपने अनुकूल नीतियों और फैसलों को प्रभावित करने के लिए बाकायदा लाबीइंग करके मंत्रिमंडल से लेकर नौकरशाही तक में अपने अनुकूल नेताओं और अफसरों को ‘फिक्स’ करवा रही हैं.
याद कीजिए, नीरा राडिया टेप्स को जिसमें नेता, उद्योगपति, अफसर और संपादक/पत्रकार किस तरह मंत्री से लेकर कोर्ट और नीतियों से लेकर फैसलों तक को अपने मुताबिक ‘फिक्स’ करने के लिए लाबीइंग करते सुनाई पड़ते हैं. उसके बाद पिछले कुछ सालों में स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला खदानों और हाईवे से लेकर एयरपोर्ट के ठेकों के आवंटन पर नजर डालिए, आपको ‘फिक्सिंग’ और लाबीइंग के बढ़ते दबदबे का अंदाज़ा हो जाएगा.      
हैरानी की बात नहीं है कि इनदिनों जब पूरा देश आई.पी.एल में ‘फिक्सिंग’ की सनसनी में डूबा हुआ है, उसी समय केन्द्रीय मंत्रिमंडल पेट्रोलियम मंत्रालय की सिफारिश पर प्राकृतिक गैस की कीमत ‘फिक्स’ करने पर विचार कर रहा है. प्रस्ताव यह है कि गैस की कीमतें ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से २.५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू यानी कोई ५९.५ फीसदी बढ़ाकर ६.७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दिया जाए.

वैसे सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता का आरोप है कि पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली का प्रस्ताव इसे ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दुगुना बढ़ाकर पहले साल ८ डालर, दूसरे साल १० डालर, तीसरे साल १२ डालर और अगले दो सालों तक १४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने की है ताकि मुकेश अम्बानी की रिलायंस को हजारों करोड़ रूपये का छप्परफाड मुनाफा हो सके.  

एक मोटे अनुमान के मुताबिक, गैस की कीमतों में प्रति एक डालर की बढ़ोत्तरी से जहाँ उर्वरक कारखानों पर ३१५५ करोड़ रूपये और बिजलीघरों पर १००४० करोड़ रूपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा, वहीँ गैस कंपनियों को हजारों करोड़ का अतिरिक्त मुनाफा होगा.
सवाल यह है कि सरकार गैस की कीमतें ‘फिक्स’ करने के लिए इतनी बेचैन क्यों हैं? हालाँकि मोइली का दावा है कि इससे सरकारी टेक कंपनियों को सबसे ज्यादा फायदा होगा लेकिन तथ्य यह भी है कि इससे रिलायंस का मुनाफा कई गुना बढ़ जाएगा.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि रिलायंस पिछले एक-डेढ़ साल से गैस की कीमतें बढ़ाने के लिए जबरदस्त लाबीइंग कर रहा है. आरोप है कि रिलायंस के दबाव के आगे झुकने से इनकार करने के कारण पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को कुर्सी गंवानी पड़ी.
लेकिन गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए चल रही लाबीइंग कोई अपवाद नहीं है. यह सिर्फ एक उदाहरण है फैसलों और नीतियों की ‘फिक्सिंग’ का. असल में, जब पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था ही कैसिनो अर्थतंत्र में बदल दी गई है जहाँ पैसे से पैसा बनानेवाले सट्टेबाज ही नीतियां और फैसले तय कर रहे हों, वहां लाबीइंग और फिक्सिंग अपवाद नहीं रह गए हैं बल्कि नियम बन गए हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि आज अर्थतंत्र के सबसे बड़े सूचक- शेयर बाजार से लेकर जिंस बाजार तक सट्टेबाजों के कब्जे में हैं और आर्थिक नीतियों से लेकर बजट तक पर उनका दबाव साफ़ देखा जा सकता है.

लेकिन बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की अगुवाई में चल रही इस संगठित और कानूनी सट्टेबाजी को अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी माना जाता है और इन सट्टेबाजों को खुश करने के लिए वित्त मंत्री से लेकर पूरी सरकार तक क्या-क्या नहीं करते हैं?  

ऐसे में, आई.पी.एल में ४० हजार करोड़ रूपये की सट्टेबाजी पर इतना हाय-तौबा क्यों मचाया जा रहा है? जबकि यह सिर्फ कानूनी सट्टेबाजी बाजार का विस्तार और वास्तव में, उसका अंडरवर्ल्ड है. लेकिन ‘अंडरवर्ल्ड’ की गुंजाइश वहीँ पैदा होती है जहाँ उसका खुला बाजार भी हो. कंसल्टिंग फर्म- के.पी.एम.जी के मुताबिक, देश में कोई तीन लाख करोड़ रूपये का गैरकानूनी सट्टा बाजार है.
लेकिन यह शेयर बाजार से लेकर मुद्रा-जिंस बाजार और रीयल इस्टेट तक फैले लाखों करोड़ रूपये के कानूनी सट्टेबाजी बाजार का बहुत छोटा हिस्सा है. इस कानूनी सट्टेबाजी के बाजार का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले मुंबई शेयर बाजार में शेयरों के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर २८६५४ करोड़ रूपये का है. वर्ष २०१२-१३ में शेयरों के वायदा कारोबार का कुल टर्नओवर ७१६३५७६ करोड़ रूपये रहा.
यही नहीं, एन.एस.ई में करेंसी के वायदा कारोबार का दैनिक टर्नओवर लगभग २०१४० करोड़ रूपये रहा और वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक उसका कुल टर्नओवर ३७२५८४२ करोड़ रूपये तक पहुँच गया.

लेकिन जिंस बाजार ने सबको पीछे छोड़ दिया है जहाँ वर्ष ११-१२ में कुल १४०२६ सौदे हुए जिनकी कीमत १,८१,२६,१०४ करोड़ रूपये थी जबकि वर्ष १२-१३ (१ अप्रैल से ३० दिसंबर तक) में कुल १०११९ सौदे हुए जिनकी कीमत १,१६,२६,८४२ करोड़ रूपये थी.

इसमें वास्तविक सौदे कम और सट्टेबाजी के जरिये पैसे से पैसे बनानेवाले सौदे ज्यादा थे. इस सट्टेबाजी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष ११-१२ में एम.सी.एक्स में ७३ करोड़ टन (कुल कीमत २४,६३३ अरब रूपये) के कच्चे तेल के वायदा सौदे हुए लेकिन इसमें एक बैरल कच्चे तेल की भी डिलीवरी नहीं हुई.

इस तरह शेयर बाजार से लेकर करेंसी बाजार और फिर जिंस बाजार तक हर जगह वायदा कारोबार में लाखों करोड़ रूपये की सट्टेबाजी हो रही है. इसमें बड़े देशी-विदेशी निवेशक सभी शामिल हैं और यह पूरी तरह से कानूनी है.
सच पूछिए तो शेयर बाजार आज मुट्ठी भर बड़े देशी और खासकर विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) की धुन पर ही नाचता है. वे उसे जब चाहते हैं, चढाते हैं, जब चाहते हैं, गिराते हैं और इस तरह वह एक कैसिनो में बदल चुका है.
इसका अनुमान इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि वास्तविक निवेश के लिए वित्तीय वर्ष १२-१३ में दिसंबर तक आई.पी.ओ के जरिये शेयर बाजार से सिर्फ ६०४३ करोड़ रूपये ही जुटाया जा सका.         
लेकिन मामला सिर्फ शेयर बाजार या जिंस बाजार और उसमें जारी सट्टेबाजी तक सीमित नहीं है बल्कि उसकी बढ़ती ताकत और आर्थिक नीतियों को प्रभावित करने की लगातार बढ़ती क्षमता का है. आज स्थिति यह हो गई है कि अर्थनीति शेयर बाजार को देखकर और उसके मुताबिक बनती है. बाजार के बड़े खिलाड़ियों के प्रतिनिधि के बतौर रेटिंग एजेंसियां सरकार पर बड़ी पूंजी के हितों के अनुकूल सुधारों को आगे बढ़ाने का दबाव बनाए रखती हैं.

सरकारों का तर्क है कि उनकी बात स्वीकार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. वे उनको नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले साल यू.पी.ए सरकार ने इसी बहाने खुदरा कारोबार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर बीमा और पेंशन कारोबार में विदेशी पूंजी का हिस्सा बढ़ाने और उसकी इजाजत देने जैसे कई फैसले किये थे.

क्या ये फैसले ‘फिक्स’ नहीं थे? बड़ी पूंजी समर्थित आर्थिक सुधारों को आगे न बढ़ाने पर रेटिंग एजेंसी देश की निवेश की रेटिंग गिराने की धमकी दे, कारपोरेट मीडिया उसे लेकर देश में घबराहट का माहौल पैदा करे और सरकार ‘कोई विकल्प नहीं है’ का तर्क देते हुए ‘राष्ट्रहित’ में उसे मान ले, इससे ज्यादा ‘फिक्स’ और क्या हो सकता है?
लेकिन ऐसे ‘फिक्सरों’ की कमी नहीं है. यह एक संगठित उद्योग बन चुका है. इन्हें राजनीतिक पार्टियों से लेकर लाबीइंग कंपनियों तक में देखा जा सकता है. सत्ता के गलियारों में उनकी पैठ बहुत ऊपर तक है.
यहाँ तक कि वे सरकार के थिंक टैंक तक में बैठे हुए हैं. लेकिन मूल बात यह है कि ये सभी बिना किसी अपवाद के इस या उस कारपोरेट समूह के हितों को आगे बढ़ाने में जुटे रहते हैं. उनमें से कई विश्व बैंक और मुद्रा कोष की सेवा कर चुके हैं और कई का बड़े कारपोरेट समूहों से परोक्ष या सीधा संबंध है.
जाहिर है कि आई.पी.एल आसमान से नहीं टपका है और न ही धरती फाड़कर पैदा हुआ है. यह इसी राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था की पैदाइश है जिसमें अर्थतंत्र एक बड़े कैसिनो में बदल चुका है और जिससे हर साल लाखों करोड़ रूपये का काला धन निकल रहा है. आखिर वह काला धन कहाँ जाएगा?

दोहराने की जरूरत नहीं है कि आई.पी.एल इसी कालेधन को खपाने और सट्टेबाजी के एक संगठित अंडरवर्ल्ड को एक लोकप्रिय प्लेटफार्म उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया गया है. सट्टेबाजी उसकी मूल संरचना में निहित है. वह खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों से ज्यादा फिक्सरों का टूर्नामेंट है.

उसमें वही हो रहा है जिसके लिए उसे शुरू किया गया था. उसपर अब हैरानी और चिंता क्यों? अगर चिंता ही करनी है तो गैस की कीमतें जिस तरह से ‘फिक्स’ हो रही हैं, उसपर कीजिए.

('शुक्रवार' के नए अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                 

बुधवार, मई 22, 2013

भ्रष्टाचार के तमाशे में दर्शकों को ‘बकरा’ बनाते चैनल

भ्रष्टाचार की रिपोर्टिंग को तमाशा बनाने के खतरे

गंभीर से गंभीर मसले को भी चुटकी बजाते तमाशा बनाने में न्यूज चैनलों की ‘प्रतिभा’ असंदिग्ध है. चैनल इसे साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं. उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार और नियम-कानूनों के उल्लंघन के आरोपों में घिरे यू.पी.ए सरकार के दो केन्द्रीय मंत्रियों- पवन बंसल और अश्विनी कुमार के इस्तीफे के प्रसंग को ही लीजिए.
 
जब कांग्रेस नेतृत्व और सरकार पर इन दोनों मंत्रियों के इस्तीफे का दबाव चरम पर था, नेतृत्व के अंदर निर्णायक चर्चा जारी थी, उसी समय चैनलों ने रेल मंत्री पवन बंसल के एक बकरे को चारा खिलाने की घटना के बहाने इस मामले को तमाशा बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा.
उस शाम तीन-चार घंटों के लिए चैनलों पर भ्रष्टाचार, शुचिता, नैतिकता, संवैधानिक-कानूनी प्रावधानों आदि पर चर्चा के बजाय बकरे को चारा खिलाते पवन बंसल के बहाने भांति-भांति के ज्योतिषी मंत्रीजी का भाग्य बांचने लगे.

वे अमावस्या को सफ़ेद बकरे को चारा खिलाने से लेकर बकरे की बलि चढ़ाने जैसे टोटकों के फायदे-नुकसान बताने लगे. हमेशा की तरह इस मौके पर भी ज्योतिषियों में इस टोटके के बावजूद बंसल के भविष्य को एकराय नहीं थी. कुछ का मानना था कि बंसल इस पूजा के बाद इस संकट बच निकलेंगे जबकि कुछ को यह लग रहा था कि उन्होंने यह पूजा करने में देर कर दी.

लेकिन ज्योतिषियों और तांत्रिकों के साथ चैनल जिस तरह से बंसल के भविष्य को बकरा पूजा से जोड़ कर पेश कर रहे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि बंसल भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मामले के बजाय किसी निजी संकट में फंसे हों.
हालाँकि चैनल बकरा पूजा के बहाने अपनी कुर्सी बचाने की कोशिश कर रहे बंसल का मजाक भी उड़ा रहे थे लेकिन यह भी इस मुद्दे को तमाशा बनाने के खेल का ही हिस्सा था. इस तरह चैनलों ने शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर और संवेदनशील मसले को हल्का और छिछला बना दिया.
यह सही है कि विपक्ष और कोर्ट के साथ-साथ चैनलों और अखबारों ने भी नए खुलासों, कड़ी टिप्पणियों और चर्चा/बहस के जरिये कांग्रेस नेतृत्व पर लगातार दबाव बनाए रखा जिसके कारण उसे मंत्रियों को हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वे भ्रष्टाचार खासकर शीर्ष पदों पर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दे को जिस तरह एक सनसनीखेज तमाशे में बदल देते हैं और उसे किसी एक मंत्री या अफसर तक सीमित कर देते हैं, उससे भ्रष्टाचार के नीतिगत, प्रक्रियागत और सांस्थानिक पहलू दर्शकों की नजरों से ओझल हो जाते हैं.             

नतीजा यह कि इस तमाशे से भले ही किसी मंत्री/मंत्रियों की कुर्सी चली जाए लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. उल्टे भ्रष्टाचार खत्म होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. इसके कारण धीरे-धीरे लोगों में भ्रष्टाचार को लेकर एक तरह की निराशा और ‘इम्युनिटी’ पैदा हो रही है.
इसकी वजह यह है कि भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया और राजनीतिक दलों के संयुक्त तमाशे ने सनसनी चाहे जितनी पैदा की हो लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर उनकी समझ का विस्तार नहीं किया है.
ऐसे में, जब लोग राजनीतिक दलों और सरकार में भ्रष्टाचार को फलते-फूलते देखते हैं और यहाँ तक कि खुद न्यायपालिका और मीडिया को भी उस भ्रष्टाचार में शामिल पाते हैं तो उनकी निराशा और हताशा बढ़ने लगती है.

उन्हें यह समझने में भी देर नहीं लगती है कि इस तमाशे में बकरा तो उन्हें बनाया जा रहा है.
('तहलका' के 31 मई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)    

शनिवार, नवंबर 17, 2012

सी ए जी की रिपोर्ट दोबारा पढ़िए सिब्बल साहब!

बकौल वित्त मंत्री 2 जी घोटाला एक 'मिथ' है उर्फ़ मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं
ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ गंभीर स्मृति दोष की शिकार है बल्कि वह मानती है कि आम आदमी की याददाश्त भी बहुत कमजोर है. यही कारण है कि २ जी स्पेक्ट्रम की ताजा नीलामी के ‘फेल’ हो जाने के तुरंत बाद संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने तंज और तुर्शी के साथ पूछा कि ‘कहाँ हैं कम्पट्रोलर एंड आडिटर जनरल (सी.ए.जी)?’
बताने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी और वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने भी कुछ इसी अंदाज़ में सी.ए.जी से सवाल पूछे हैं कि कहाँ गए २ जी के १,७६००० करोड़ रूपये?
वित्त मंत्री ने २ जी स्पेक्ट्रम की ताजा नीलामी में उम्मीद से कम कमाई का हवाला देते हुए २ जी घोटाले को एक मिथ घोषित कर दिया तो कपिल सिब्बल ने मीडिया से लेकर सिविल सोसायटी सब पर हल्ला बोलते हुए कहा कि सनसनी के चक्कर में टेलीकाम की सफलता की कहानी को चौपट कर दिया गया.

ऐसा लगा जैसे यू.पी.ए सरकार २ जी नीलामी की नाकामी का ही बेसब्री इंतज़ार कर रही थी. आश्चर्य नहीं कि सरकार में इसे लेकर चिंता कम और जश्न का माहौल ज्यादा दिख रहा है. कारण साफ़ है. कांग्रेस और यू.पी.ए को सी.ए.जी के खिलाफ हमला बोलने का एक और बहाना मिल गया है.

लेकिन सी.ए.जी पर यू.पी.ए सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस नेताओं के हमले का पहला शिकार तथ्य हो रहे हैं. वे २ जी घोटाले पर सी.ए.जी की रिपोर्ट से न सिर्फ आधे-अधूरे तथ्य पेश कर रहे हैं बल्कि उन्हें मनमाने तरीके से तोड़-मरोड़ कर भी पेश कर रहे हैं. इन तथ्यों पर गौर कीजिए:
·       पहली बात यह है कि सी.ए.जी ने २ जी स्पेक्ट्रम के मनमाने तरीके से आवंटन के कारण विभिन्न स्थितियों में सरकारी खजाने को नुकसान के चार अनुमान पेश किये थे. (विस्तार से यहाँ पढ़िए : http://cag.gov.in/html/reports/civil/2010-11_19PA/chap5.pdf ) सी.ए.जी की रिपोर्ट के मुताबिक, २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन में अलग-अलग आधारों पर आकलन के अनुसार क्रमश: ६७३६४ करोड़ रूपये या ६९६२६ करोड़ रूपये या  ५७६६६ करोड़ रूपये या १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान का अनुमान लगाया था. इसलिए सी.ए.जी पर केवल १,७६,६४५ करोड़ रूपये के अनुमान को लेकर सवाल पूछने के पीछे क्या मकसद है?

·       दूसरे, सी.ए.जी ने ये सभी चार अनुमान किसी कल्पना के आधार पर नहीं बल्कि ठोस और वास्तविक आधारों पर निकाले थे. उदाहरण के लिए, सी.ए.जी ने ६७३६४ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन टेलीकाम कंपनी- एस. टेल की ओर से तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा को अखिल भारतीय लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के लिए की गई पेशकश के आधार पर किया था.

·       इसी तरह ६९६२६ करोड़ और ५७६६६ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन २ जी स्पेक्ट्रम लेने में कामयाब रही कंपनी- यूनिटेक और स्वान टेलीकाम द्वारा अपने शेयर क्रमशः यूनिनार और एतिसलात को बेचने के लिए तय किये गए मूल्य के आधार किया गया था.

·       इसी तरह १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान का आकलन ३ जी स्पेक्ट्रम की नीलामी के आधार किया गया था. यही नहीं, सी.ए.जी ने ये चारों आकलन पेश करते हुए किसी खास एक अनुमान को ज्यादा प्राथमिकता नहीं दी थी. अलबत्ता, मीडिया में स्वाभाविक तौर पर १,७६,६४५ करोड़ रूपये के नुकसान की चर्चा खूब हुई थी.

·       इसलिए संचार मंत्री का पहले का ‘जीरो नुकसान’ का दावा हो या अब १,७६,६४५ करोड़ रूपये के आकलन के भ्रामक होने का दावा- यह घोटाले की लीपापोती से ज्यादा कुछ नहीं है. आखिर वे ‘जीरो नुकसान’ की ‘थियरी’ को छोड़कर बताएँगे कि इस तरह के मामलों में नुकसान के आकलन का सही तरीका क्या है? सी.ए.जी ने कहाँ और कैसे गलत आकलन किया?

यही नहीं, वित्त मंत्री का यह दावा भी तथ्यों और सच्चाई के आगे कहीं नहीं ठहरता है कि २ जी घोटाला एक मिथ है. अच्छा होता कि खुद वित्त मंत्री एक बार फिर से सी ए जी की रिपोर्ट खासकर उसका निष्कर्ष पढ़ लेते तो उन्हें पता चल जाता कि यह क्यों मिथ नहीं बल्कि भारी घोटाला है. उनका सुविधा के लिए उस रिपोर्ट के निष्कर्ष के तीन पृष्ठ का लिंक यह रहा: http://cag.gov.in/html/reports/civil/2010-11_19PA/chap6.pdf    

वैसे तुलसीदास कह गए हैं, ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं !’ वित्त मंत्री जी, अगर २ जी घोटाला नहीं तो क्या था कि तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा जेल चले गए? वे ही क्यों, संसद कनिमोजी से लेकर कारपोरेट समूहों के मालिक, अफसर और सरकारी अफसर जेल क्यों गए? क्या सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गलत फैसला किया? क्या सी.बी.आई की चार्जशीट गलत है?

ऐसे एक नहीं दर्जनों सवाल और तथ्य हैं जो साबित करते हैं कि २ जी के आवंटन की न सिर्फ नीति गलत थी बल्कि उसमें खूब मनमानी और धांधली हुई. सच पूछिए तो इस मामले को यू.पी.ए सरकार जितना ही दबाने, तोड़ने-मरोड़ने और छुपाने की कोशिश कर रही है, वह उतनी ही बेपर्दा होती जा रही है.