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शुक्रवार, अक्टूबर 26, 2012

सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने की तैयारी

क्या हम अमेरिकी और एशियाई टाइगरों के हश्र को भूल गए हैं?

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
 
लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि निजी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ सरकारी बीमा कंपनियों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए हर तरह की तिकड़म कर रही हैं. इसके लिए वे घाटा खाकर भी एल.आई.सी की तुलना में कम और कई मामलों में लगभग आधी प्रीमियम पर बीमा पालिसी बेच रही हैं और अपने एजेंटों को मनमाना कमीशन दे रही हैं.
यह और बात है कि दावों को निपटाने के मामले में वे उपभोक्ता का खून चूस लेती हैं. इसके बावजूद बीमा नियामक- इरडा उनके आगे लाचार दिख रहा है. यहाँ तक कि हाल में कई निजी बीमा कंपनियों पर ३०० करोड़ रूपये के सेवाकर की चोरी के आरोप में नोटिस भी मिला है.
याद रहे कि अपने विवादास्पद हथकंडों और तिकड़मों से २००८ की अमेरिकी वित्तीय सुनामी को न्यौता देने में कई बीमा कम्पनियाँ भी शामिल थीं और उनमें से सबसे बड़ी ए.आई.जी (भारत में टाटा-ए.आई.जी) को डूबने से बचाने के लिए अमरीकी सरकार को सबसे अधिक ८५ अरब डालर का पैकेज देना पड़ा था.            
चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इन्हीं बीमा और पेंशन कंपनियों को न सिर्फ इस देश के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा और जीवन भर की कमाई सौंपने की तैयारी कर रही है बल्कि पूरे वित्तीय तंत्र की स्थिरता को खतरे में डाल रही है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी की ललचाई हुई निगाहें भारत के तेजी से बढ़ती पेंशन निधियों और बीमा बाजार पर लगी हुई है.

बड़ी कंपनियों के लाबी संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में सरकारी/अर्द्ध सरकारी और नई पेंशन योजना की कुल पेंशन निधि लगभग १५.४ लाख करोड़ रूपये की है जिसके वर्ष २०१५ तक बढ़कर २० लाख करोड़ रूपये हो जाने की उम्मीद है. अगर इसका कम से कम २ फीसदी भी मुनाफे के रूप में आए तो यह करीब ४ खरब रूपये होता है.

इसी तरह अभी बीमा बाजार २.१२ लाख करोड़ रूपये का है क्योंकि देश में बीमा की पहुँच सिर्फ ५ फीसदी लोगों तक है. लेकिन इसमें तेजी से वृद्धि हो रही है. वित्तीय और बीमा बाजार के विशेषज्ञों का मानना है कि आनेवाले वर्षों में बीमा उद्योग में १० से १५ फीसदी की वार्षिक दर से वृद्धि होगी. इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि दांव कितने ऊँचे हैं.
आश्चर्य नहीं कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर बड़े वित्तीय संस्थान और कम्पनियाँ और उनके पैरोकार जोरशोर से पेंशन और बीमा समेत समूचे वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने की मांग कर रहे थे. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर घरेलू वित्तीय क्षेत्र को खोलने के लिए अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक की सरकारों, उनके मंत्रियों-अफसरों और विश्व बैंक-मुद्रा कोष के अलावा अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का भी जबरदस्त दबाव था.
आश्चर्य नहीं कि सरकार ने पिछले सप्ताह बीमा और पेंशन क्षेत्र में और अधिक एफ.डी.आई की इजाजत देने का फैसला किया और इस सप्ताह अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर भारत की यात्रा पर हैं. दूसरे, ताजा फैसले समेत आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले हालिया फैसलों के जरिये यू.पी.ए सरकार पस्त पड़े वित्तीय बाजार में एक फीलगुड का माहौल बनाकर तात्कालिक तौर पर शेयर बाजार को चढाने की कोशिश कर रही है.

सरकार को उम्मीद है कि इससे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सकती है. याद रहे, प्रधानमंत्री ने हाल में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों के जरिये देशी-विदेशी उद्यमियों में ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) पैदा करने करने की जरूरत बताई थी.

लगता है कि प्रधानमंत्री और सरकार को वित्तीय क्षेत्र और उसकी कंपनियों की इस ‘पशु प्रवृत्ति’ के नतीजों की परवाह नहीं है. लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि वित्तीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे संवेदनशील क्षेत्र है और उसकी अस्थिरता पूरी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है. अमेरिकी वित्तीय सुनामी अपवाद नहीं थी.
उससे पहले ९७-९८ में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी ऐसे ही ध्वस्त हुई थीं. उनसे पहले मेक्सिको और कई लातिन अमेरिकी अमेरिकी देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी वित्तीय तंत्र के उदारीकरण के नतीजे भुगत चुकी हैं. यही नहीं, वित्तीय तंत्र के ध्वस्त होने के कारण उनमें से कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं दशकों पीछे चलीं गईं थीं.
सवाल है कि इन अनुभवों के मद्देनजर क्या सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए समूची अर्थव्यवस्था और करोड़ों लोगों के जीवन भर की कमाई और सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने की इजाजत दी जा सकती है?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 15 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

गुरुवार, अक्टूबर 25, 2012

वित्तीय सुनामी को न्यौता

पेंशन और बीमा सुधारों के नामपर विदेशी पूंजी को न्यौते के निहितार्थ

पहली क़िस्त
कहते हैं कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने यह कथन नहीं सुना है. अगर सुना होता तो वह अर्थव्यवस्था के सबसे संवेदनशील वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने से जुड़े जोखिमों को देखते हुए बीमा और पेंशन क्षेत्र में ४९ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की इजाजत देने का फैसला इस तरह से आनन-फानन में नहीं करती.
खासकर यह जानते-समझते हुए कि अमेरिका में २००७-०८ में जो वित्तीय सुनामी आई और जिसके कारण अमेरिका सहित पूरी दुनिया आर्थिक-वित्तीय संकट में फंस गई, उसे लाने में बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों खासकर निजी बैंकों, बीमा और पेंशन कंपनियों की सीधी भूमिका थी.
इन बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों ने अधिक से अधिक मुनाफे के लालच में वित्तीय बाजार में जिस तरह की सट्टेबाजी की, मनमाने तौर-तरीके अपनाये और जोखिम लेने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए, उसका स्वाभाविक नतीजा वित्तीय सुनामी के रूप में सामने आया. यही नहीं, उस वित्तीय सुनामी में न सिर्फ उन कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और कई उसमें डूब गईं बल्कि वे आज तक उससे उबर नहीं पाईं हैं.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के ३४ विकसित और अमीर देशों के संगठन- ओ.ई.सी.डी के सदस्य देशों की कुल पेंशन निधि को २००८ के वित्तीय संकट में ३.५ खरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा था. आज भी उन पेंशन निधियों की स्थिति यह है कि वर्ष २०११ में उनकी कुल निधि रिकार्ड २०.१ खरब डालर तक पहुँच गई लेकिन उनका औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) १.७ फीसदी दर्ज किया गया.

इन पेंशन निधियों में सार्वजनिक और निजी पेंशन निधियां शामिल हैं. उनकी बदतर स्थिति का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वित्तीय सुनामी के चपेटे में आए अमेरिका, जापान, इटली, स्पेन, ग्रीस जैसे देशों की पेंशन निधियों का बीते साल औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) २.२ से लेकर ३.६ प्रतिशत रहा.
अकेले जापान के सार्वजनिक पेंशन निधि को इस साल अप्रैल-जून के तीन महीनों में कुल २६.३१ अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा है. इन पेंशन निधियों को हो रहे नुकसान की सबसे बड़ी वजह यह है कि इन अमीर और विकसित देशों खासकर अमेरिका और यूरोप के देशों में वह वित्तीय बाजार खासकर शेयर बाजार अभी भी हांफ रहा है जिसमें इन निधियों ने निवेश कर रखा है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि इन पेंशन निधियों के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मुश्किल हो रही है. उसपर तुर्रा यह कि इस स्थिति से निपटने के नामपर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार पेंशन सुधारों का नुस्खा लेकर आ गए हैं जिसके तहत पेंशन लाभ की उम्र सीमा बढ़ाने जैसे कई प्रस्ताव किये जा रहे हैं.

यूरोप सहित ओ.ई.सी.डी के कई देशों में पेंशन पाने की उम्र सीमा यह कहकर बढ़ाई जा रही है कि लोगों की औसत आयु बढ़ रही है. अभी वहां सेवानिवृत्ति की औसत आयु ६५ वर्ष है जिसे बढ़ाकर ६७ साल या उससे अधिक किया जा रहा है ताकि पेंशन देनदारियों को टाला जा सके. यही नहीं, खुद ओ.ई.सी.डी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन सुधारों के कारण आनेवाले वर्षों में सेवानिवृत्त होनेवालों को औसतन २० से २५ फीसदी पेंशन लाभ कम मिलेंगे.

लेकिन इन कथित पेंशन सुधारों के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. फ़्रांस समेत कई देशों में पिछले साल जबरदस्त हड़तालें हुईं और खूब प्रदर्शन हुए. पूरा यूरोप राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में है. लेकिन विकसित देशों की पेंशन निधियों के मौजूदा संकट से सबक लेने के बजाय यू.पी.ए सरकार देश में सार्वजनिक पेंशन निधि के प्रबंधन और नई पेंशन योजनाएं शुरू करने के लिए उन्हीं कंपनियों को बुलाने जा रही है जिनकी उनके अपने देशों में भारी आलोचना हो रही है.
आखिर ४९ फीसदी विदेशी पूंजी लेकर आ रही इन कंपनियों में ऐसी क्या खूबी है जिसे देखकर यू.पी.ए सरकार भारत के करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई और वृद्धावस्था की एकमात्र सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने को तैयार हो गई है?
याद रहे कि २००८ में जब अमरीका में वित्तीय सुनामी आई और उसकी पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई और अपने साथ उसने दुनिया को भी आर्थिक संकट और मंदी में फंसा दिया तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय तंत्र उसके झटके को झेल गई क्योंकि वह वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ पूरी तरह नत्थी नहीं थी.

उस समय मनमोहन सिंह सरकार और खासकर कांग्रेस पार्टी ने इसका श्रेय लेते हुए दावा किया था कि यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की दूरदृष्टि है कि उन्होंने बैंकों, बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था और बाद की कांग्रेसी सरकारों ने घरेलू वित्तीय व्यवस्था के उदारीकरण और उसके वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ एकीकरण के मामले में बहुत सतर्कता बरती.

लेकिन सवाल यह है कि बीते चार सालों में ऐसा क्या बदल गया कि यू.पी.ए सरकार वित्तीय तंत्र के और उदारीकरण और उसे और ज्यादा विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन हो उठी है?

सवाल यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने जिन भारतीय कंपनियों को पेंशन निधि के प्रबंधन के लिए नामांकित किया है, उनका प्रदर्शन कैसा रहा है? उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने तीन साल पहले सभी लोगों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए नई पेंशन योजना शुरू की थी जिसके प्रबंधन के लिए देश की छह कंपनियों को नामांकित किया गया है.
इसके साथ ही सरकार ने पेंशन निधि के एक हिस्से को शेयर बाजार और बांड आदि में भी लगाने की अनुमति दी है. लेकिन इन तीन सालों में इन कंपनियों के प्रदर्शन पर गौर करें तो यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आता है कि पेंशन निधि से आ रहे प्रतिलाभ (रिटर्न) में काफी उतार-चढाव है. यह प्रतिलाभ २३.५१ फीसदी से लेकर नकारात्मक (-) ३.१५ फीसदी तक है.
इससे साफ़ है कि सेवानिवृत्त होते समय अपनी मेहनत की कमाई से एक निश्चित पेंशन पाने की अपेक्षा रखनेवाले असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों की उम्मीदें हमेशा वित्तीय खासकर शेयर बाजार की मोहताज बनी रहेंगी. इसकी बड़ी वजह यह है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भारत के पेंशन बाजार में करोड़ों कामगारों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने नहीं बल्कि मुनाफा कमाने आ रहे हैं.

इस मामले में उन निजी बीमा कंपनियों का प्रदर्शन और भी खराब है जिनमें एन.डी.ए सरकार ने २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत दी थी. पिछले एक दशक से अधिक समय से देश में जीवन और सामान्य बीमा के क्षेत्र में दो दर्जन से ज्यादा निजी देशी बीमा कम्पनियाँ विदेशी भागीदारों के साथ सक्रिय हैं. लेकिन तमाम दावों के विपरीत आम बीमा उपभोक्ताओं के जीवन में कोई ‘क्रांति’ नहीं आई है और न ही उनकी मुश्किलें कम हुई हैं.

बीमा नियामक इरडा के मुताबिक, वर्ष २००९-१० में जहाँ सरकारी बीमा कंपनी-एल.आई.सी ने ९६.५४ फीसदी दावों का निपटारा किया और केवल २ फीसदी दावों को नकारा, वहीं निजी बीमा कंपनियों ने उससे ११ फीसदी कम सिर्फ ८४.८८ फीसदी दावों का निपटारा किया जबकि तीन गुने से अधिक ७.६४ फीसदी दावों को खारिज कर दिया.
इसमें सबसे चौंकानेवाला तथ्य यह है कि करीब आधा दर्जन से अधिक निजी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत सिर्फ ५० से लेकर ६४ फीसदी के बीच है. यही नहीं, वर्ष २०१०-११ में एक बार फिर एल.आई.सी ने जहाँ ९७ फीसदी दावों को निपटाया, वहीँ निजी बीमा कंपनियों के प्रदर्शन में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
कई निजी-विदेशी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत ५० से ६५ फीसदी के बीच बना रहा. आश्चर्य नहीं कि देशभर में विभिन्न उपभोक्ता अदालतों और फोरमों में सबसे अधिक शिकायतें जिन कंपनियों के बारे में आती हैं, उनमें निजी बीमा कम्पनियाँ अगली पंक्ति में हैं....
जारी...दूसरी क़िस्त कल.. 
('जनसत्ता' के 15 अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख) 

सोमवार, अक्टूबर 15, 2012

खतरे में वित्तीय व्यवस्था

करोड़ों भारतीयों की सामाजिक सुरक्षा और जीवन भर की कमाई दांव पर है

ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार आर्थिक आत्मघात के मूड में आ गई है. यही कारण है कि वह सिर्फ आर्थिक सुधारों के नामपर आर्थिक सुधार करने और इस तरह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करने में जोरशोर से जुट गई है.

इसके पीछे सरकार के आर्थिक नीति निर्माताओं और मैनेजरों की यह नव उदारवादी समझ है कि सरकार का काम बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के लिए अधिक से अधिक अनुकूल स्थितियां बनाना है और बाकी काम निजी पूंजी और कार्पोरेट्स की “पशु प्रवृत्ति” (एनिमल इंस्टिंक्ट) कर लेगी.

याद रहे कि कुछ सप्ताहों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उद्यमियों की “पशु प्रवृत्ति” को जगाने की जरूरत बताई थी.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की इसी “पशु प्रवृत्ति” को जगाने के लिए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का नगाड़ा बजाने में लग गई है. इस कोशिश में उसे इसकी भी परवाह नहीं है कि इन फैसलों का अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन पर कितना घातक असर हो सकता है.
इसी कोशिश का ताजा उदाहरण है- बीमा और पेंशन क्षेत्र में ४९ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफ.डी.आई) की इजाजत सहित नए कंपनी विधेयक और वायदा कारोबार रेगुलेशन विधेयक में संशोधनों को मंजूरी का फैसला. हालाँकि सरकार ने इसके अलावा भी करीब आधा दर्जन फैसले किये हैं लेकिन इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण और दूरगामी फैसला वित्तीय क्षेत्र खासकर बीमा क्षेत्र में एफ.डी.आई की सीमा २६ फीसदी से ४९ फीसदी करने और पेंशन क्षेत्र में सीधे ४९ फीसदी एफ.डी.आई की अनुमति का है.
यू.पी.ए सरकार का दावा है कि इन फैसलों से बीमा और पेंशन क्षेत्र में निवेश खासकर विदेशी निवेश बढ़ेगा. इससे देश के उन करोड़ों लोगों खासकर गरीबों, निम्न मध्यवर्ग, असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों और वृद्धों को बीमा और पेंशन जैसी बुनियादी सामाजिक सुरक्षा मिल सकेगी जिन्हें अभी तक किसी भी किस्म की कोई सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है.

सरकार की इस उम्मीद के पीछे तर्क यह है कि एफ.डी.आई की सीमा बढ़ाने से नई बीमा और पेंशन कम्पनियाँ आएँगी, उससे प्रतियोगिता बढ़ेगी, लोगों को बीमा और पेंशन की नई स्कीम मिलेंगी, उनका प्रीमियम कम होगा और सबसे बढ़कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कवच मिलेगा.

लेकिन यू.पी.ए सरकार के इन दावों में कितनी सच्चाई है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में सरकारी बीमा कंपनियों के अलावा पिछले एक दशक से कोई दो दर्जन निजी देशी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ भी सक्रिय हैं लेकिन इसके बावजूद देश में बीमा सुरक्षा का लाभ मुश्किल से ५ फीसदी लोगों को मिल पा रहा है.
यही नहीं, देश में कुल २६ देशी-विदेशी और सरकारी बीमा कंपनियों के कारण प्रीमियम तो घटा है खासकर निजी बीमा कम्पनियाँ ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रीमियम घटाने की रणनीति पर काम कर रही हैं लेकिन जब बारी बीमा दावों को निपटाने की आती है तो वे लोगों को आसानी से बीमा दावे नहीं देती हैं. तथ्य यह है कि देश भर में उपभोक्ता फोरम और बीमा रेगुलेटर- इरडा के पास निजी बीमा कंपनियों के खिलाफ उपभोक्ताओं की शिकायतों का अम्बार लगा हुआ है.
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. निजी देशी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ भारत में लोगों को सस्ता-सुविधाजनक बीमा और इसके जरिये सामाजिक सुरक्षा देने नहीं आ रही हैं. उनका असली मकसद अधिक से अधिक मुनाफा बनाना है. उनकी निगाहें भारत के तेजी से बढ़ते बीमा और पेंशन कारोबार पर लगी हुई हैं.

असल में, विकसित पश्चिमी देशों में बीमा और पेंशन कारोबार में वृद्धि लगभग ठहर गई है. लेकिन भारत में बढ़ते मध्यवर्ग और उसकी आय में बढ़ोत्तरी लेकिन घटती सामाजिक सुरक्षा के कारण बीमा और पेंशन का बाजार यह तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, अभी भारत में कुल बीमा बाजार लगभग २.१२ लाख करोड़ रूपये का है जबकि औद्योगिक संगठन- एसोचैम के मुताबिक, पेंशन कारोबार अगले तीन सालों में लगभग २० लाख करोड़ रूपये का हो जाएगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बीमा और पेंशन फंड कंपनियों की निगाह इसी लुभावने बीमा और पेंशन कारोबार पर लगी हुई हैं. इस कारोबार पर कब्जे के लिए वे हर तिकड़म कर रही हैं खासकर सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनियों को खत्म और सरकारी पेंशन व्यवस्था को ध्वस्त करने में.
इसकी वजह यह है कि वे इस बाजार और कारोबार पर तब तक कब्ज़ा नहीं कर सकती हैं जब तक सरकारी क्षेत्र की कंपनियों को खत्म नहीं किया जाए. इसके लिए वे बीमा कारोबार में सरकारी कंपनियों की तुलना में काफी कम प्रीमियम पर पालिसी बेच रही हैं, एजेंटों को आकर्षक कमीशन दे रही हैं और आकर्षक विज्ञापन अभियानों से उपभोक्ताओं को लुभा रही हैं. यह और बात है कि जब दावों को निपटाने की बारी आती है तो वे टरकाने और दावों को ख़ारिज करने में सार्वजनिक बीमा कंपनियों से बहुत आगे हैं.
यही नहीं, उनके तिकड़मों के आगे बीमा क्षेत्र का रेगुलेटर- इरडा भी लाचार है. यह सही है कि अभी ज्यादातर निजी बीमा कंपनियों को घाटा हो रहा है. लेकिन वे घाटा उठाकर भी टिकी हुई हैं तो इसकी वजह यह है कि उन्हें भरोसा है कि वे अपने तिकड़मों से सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियों को खत्म कर देगीं क्योंकि सरकारी बीमा कम्पनियाँ ये हथकंडे नहीं अपना सकती हैं.

ऐसे में, आशंका यह है कि निजी देशी-विदेशी कंपनियों के इस आक्रामक रणनीति और तिकडमों के आगे सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियाँ बहुत सालों तक टिक नहीं पाएंगी. दूसरे, निजी क्षेत्र की देशी-विदेशी बीमा कंपनियां प्रतियोगिता और मुनाफा बढ़ाने के नामपर जो तौर-तरीके अपना रही हैं, उसका शिकार न सिर्फ आम उपभोक्ता बन रहा है बल्कि उसके कारण अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता भी खतरे में पड़ सकती है.

इसी तरह पेंशन फंड के मामले में आशंका यह है कि अगर देशी-विदेशी निजी कंपनियों को पेंशन फंड के प्रबंध का जिम्मा दिया गया तो वे उसका इस्तेमाल शेयर बाजार में सट्टेबाजी के लिए करेंगी ताकि मोटा मुनाफा कमाया जा सके. लेकिन इस कोशिश में वे करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई को खतरे में डाल देंगी.
इसके कारण शेयर बाजार समेत पूरा वित्तीय क्षेत्र भी अत्यधिक अस्थिरता का शिकार हो सकता है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका और यूरोप में २००७-०८ में शुरू हुए वित्तीय संकट और आर्थिक मंदी के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार निजी क्षेत्र की बड़ी वित्तीय संस्थाएं और कम्पनियाँ ही रही हैं जिनमें बीमा और पेंशन फंड भी शामिल थे.
यही नहीं, इन कंपनियों ने मुनाफे की हवस में जिस तरह के तौर-तरीके इस्तेमाल किये, उसके कारण कई बैंकों के अलावा ए.आई.जी जैसी बीमा कम्पनियाँ भी दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गईं. इससे करोड़ों लोगों के जीवन भर की कमाई और उनकी सामाजिक सुरक्षा के अलावा देश की वित्तीय व्यवस्था भी खतरे में पड़ गई.

उन्हें इस संकट से उबारने के लिए अमेरिकी और यूरोपीय सरकारों को खरबों डालर का बचाव पैकेज देना पड़ा जिसके कारण सरकार पर कर्ज इतना बढ़ गया कि अब राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में आम लोगों पर उसका बोझ डाला जा रहा है.

यहाँ यह भी याद रखना बहुत जरूरी है कि आज के दौर में वास्तविक अर्थव्यवस्था की तुलना में वित्तीय अर्थव्यवस्था की भूमिका अर्थव्यवस्था में बहुत ज्यादा बढ़ गई है. लेकिन वित्तीय अर्थव्यवस्था इतनी संवेदनशील हो गई है कि किसी मामूली बात पर भी झटका खा सकती है और अपने साथ पूरी अर्थव्यवस्था को डूबा सकती है.
बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. १९९७-९८ में दक्षिण पूर्व एशियाई टाइगरों- कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया आदि की अर्थव्यवस्थाएं वित्तीय संकट के झटके में दशकों पीछे चली गईं थीं. उसके पहले भी लातिन अमेरिका और मेक्सिको और बाद में रूस के अलावा हल में अमेरिका-यूरोप के उदाहरण सामने हैं.
लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार इन वित्तीय दुर्घटनाओं से कोई सबक लेने को तैयार नहीं है. साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है. लगता है कि वह इतिहास को दोहरा कर ही मानेगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 8 अक्तूबर अंक में प्रकाशित टिप्पणी)