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सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)    

सोमवार, अक्टूबर 22, 2012

क्या दिग्विजय सिंह राजनीतिक ब्लैकमेल नहीं कर रहे हैं?

‘ओमेर्ता कोड’ टूटने से राजनीतिक वर्ग की बिलबिलाहट बढ़ गई है  

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की उलटबांसियां का जवाब नहीं है. वे कई बार ऊपर से देखने में बहुत बेतुकी दिखती हैं लेकिन उनके निहितार्थ बहुत खतरनाक स्थापनाओं तक पहुँच जाते हैं. वे पिछले कई दिनों से कह रहे हैं कि उनके पास भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के परिवारजनों- पुत्र-पुत्रियों और दामाद के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत हैं लेकिन वे उन्हें उजागर नहीं करेंगे.
सी.एन.एन-आई.बी.एन पर एंकर करण थापर से बातचीत में उन्होंने दावा किया कि उनके पास बहुत दिनों से सबूत हैं लेकिन उन्होंने इसलिए उन्हें उजागर नहीं किया क्योंकि कांग्रेस की यह परंपरा नहीं है कि वह राजनेताओं के परिवारजनों के क्रियाकलापों के बारे में सवाल उठाये. यह रहा उस बातचीत का लिंक: http://ibnlive.in.com/news/have-evidence-of-corruption-against-vajpayee-advani-but-wont-make-it-public-digvijaya/301459-37-64.html

इसके लिए दिग्विजय सिंह का तर्क बहुत सीधा सा है. उनकी ‘राजनीतिक सुभाषितानि’ के मुताबिक, राजनेताओं के परिवारजन क्या करते हैं, उससे नेताओं का क्या लेना-देना? कांग्रेस महासचिव की राय में यही ‘राजनीतिक मर्यादा’ है और कांग्रेस ने हमेशा इसका पालन किया है.
उनकी पीड़ा यह है कि अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के बारे में खुलासे करके भारतीय राजनीति के इस ‘ओमेर्ता कोड’ (http://en.wikipedia.org/wiki/Omert%C3%A0) को तो तोड़ ही दिया, भाजपा भी अरविंद केजरीवाल के सुर में सुर मिलाने की कोशिश क्यों कर रही है?
वैसे तथ्य यह है कि केजरीवाल के खुलासे के बाद मुख्य विपक्षी दल होने के बावजूद भाजपा के बड़े नेताओं लाल कृष्ण आडवानी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने इस मुद्दे पर चुप्पी ओढ़ रखी है. हालाँकि भाजपा पर जबरदस्त दबाव था कि वह राबर्ट वाड्रा मुद्दे पर खुलकर सामने आए या इस मुद्दे को लपक ले.
लेकिन भाजपा ने अपने तईं ‘ओमेर्ता कोड’ का पालन करने की पूरी कोशिश की है. इसके बावजूद दिग्विजय सिंह ने यह बयान देकर एक तरह से भाजपा नेताओं को चेताने की कोशिश की है कि अगर वे चुप नहीं रहे तो कांग्रेस भी वाजपेयी और आडवानी के बेटियों-दामादों के भ्रष्टाचार के मामले उजागर कर सकती है.

क्या यह परोक्ष भयादोहन (ब्लैकमेल) नहीं है? क्या यह भ्रष्टाचार के बारे में सबूत होते हुए भी उसे दबाने की कोशिश का मामला नहीं बनता है? अगर दिग्विजय सिंह के पास वाजपेयी और आडवानी की बेटियों-दामाद के भ्रष्टाचार के सबूत हैं तो वे उसे सार्वजनिक क्यों नहीं करते हैं? खासकर इस सार्वजनिक घोषणा के बाद कि उनके पास सबूत हैं, वे उसे छुपा कैसे सकते हैं? क्या उसकी जांच नहीं होनी चाहिए?
गौरतलब है कि वाजपेयी के दामाद रंजन भट्टाचार्य और आडवाणी की बेटी प्रतिभा आडवाणी कोई मामूली रिश्तेदार भर नहीं हैं. भट्टाचार्य पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के साथ ७, रेस कोर्स में रहते थे जबकि प्रतिभा आडवानी भी अपने पिता की छाया की तरह रही हैं. अगर उनके बारे में दिग्विजय सिंह के पास सबूत हैं तो उन्हें ‘सार्वजनिक हित’ में सामने लाया जाना चाहिए.   

इस बयान से इस सच्चाई की पुष्टि होती है कि भ्रष्टाचार को लेकर मुख्य सत्ताधारी दलों में एक आम सहमति से बन गई है. वह यह कि आमतौर पर दोनों एक-दूसरे के भ्रष्टाचार के खिलाफ तब तक नहीं बोलेंगे, जब तक कि उसका भंडाफोड न हो जाए. इसके लिए वे एक-दूसरे के भ्रष्टाचार और घोटालों का भंडाफोड नहीं करेंगे और जहाँ तक संभव होगा, वे उसे दबाने की कोशिश भी करेंगे.
इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि हर बड़े घोटाले की मलाई में सरकार और विपक्ष सबकी हिस्सेदारी है. चाहे वह २-जी घोटाले हो कामनवेल्थ या कोयला आवंटन का मामला हो या महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाला- हर मामले में भ्रष्टाचार के छींटे कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा नेताओं पर भी पड़े हैं.

आश्चर्य नहीं कि महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाले के खुलासे में भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से मदद मांगने पहुंची आर.टी.आई कार्यकर्ता अंजलि दमानिया से गडकरी ने साफ़ कहा कि वे कोई मदद नहीं कर सकते क्योंकि उनके चार काम शरद पवार करते हैं और उनके चार काम वे करते हैं.

यही नहीं, पिछले कुछ सप्ताहों में कांग्रेस और भाजपा से लेकर राजद और सपा आदि ने अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम के खुलासों की खिल्ली उड़ाने से लेकर उनपर हमले तेज कर दिए हैं, उससे उनकी बिलबिलाहट साफ़ दिखने लगी है. दिग्विजय सिंह की उलटबांसी में भी वह बिलबिलाहट महसूस की जा सकती है.  

रविवार, अक्टूबर 21, 2012

लोकतंत्र में सवालों से ऊपर कोई नहीं है, केजरीवाल भी नहीं

इन २७ सवालों में केजरीवाल के पास छुपाने के लिए क्या है? जवाब दीजिए और आगे बढिए    

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को नजरंदाज़ करना मुश्किल है. उन्हें हँस कर या चिढकर टालना और मुश्किल है. राजनीति में उतर चुके अरविंद केजरीवाल यह बात जितनी जल्दी समझ लें, उतना अच्छा है.
इसकी वजह यह है कि दिग्विजय सिंह न सिर्फ गले तक सत्ता की राजनीति में डूबे चतुर और घाघ राजनेता हैं बल्कि उन्होंने एक साथ सत्ता की राजनीति से लेकर सिविल सोसायटी की राजनीति के बीच अपनी एक कट्टर आर.एस.एस विरोधी और धर्मनिरपेक्ष, दलित और आदिवासी समर्थक नेता की छवि बनाई है जो कई मुद्दों पर यू.पी.ए सरकार और दूसरे कांग्रेसी नेताओं से विरोधी राय भी रखता है. जाहिर है कि सिविल सोसायटी में भी उनके कई प्रशंसक मिल जाएंगे.
यह और बात है कि दिग्विजय सिंह अपनी राय और विचारों को उनके तार्किक परिणति तक ले जाने का जोखिम कभी नहीं लेते. चाहे बाटला हॉउस एनकाउंटर हो या आजमगढ़ में निर्दोष मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियां, चाहे छत्तीसगढ़ में माओवादियों के बहाने आम आदिवासियों के खिलाफ जारी ग्रीन हंट हो या सांप्रदायिक हिंसा निरोधक कानून का मामला- वे सिर्फ बयान देकर चुप्पी साधने की कला के माहिर हैं.

यही नहीं, अपने बयानों के ‘साहस’ को वे बड़ी चतुराई से गाँधी परिवार के नेतृत्व के प्रति अगाध श्रद्धा और आर.एस.एस विरोध से संतुलित करने की कला भी जानते हैं. कांग्रेसी राजनीति की चाटुकारिता संस्कृति में भी उनकी प्रवीणता का कोई जवाब नहीं है. अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह की तरह उनके भी रसूख की सबसे बड़ी वजह गाँधी परिवार के प्रति उनकी अगाध निष्ठा और स्वामीभक्ति है. उनका वश चलता तो राहुल गाँधी अब तक प्रधानमंत्री बन चुके होते.

लेकिन इन सबके बावजूद दिग्विजय सिंह और खासकर उनके सवालों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. वजह यह कि उनके सवालों में दम होता है. दिग्विजय सिंह को तो इक पल के लिए खारिज भी किया जा सकता है लेकिन उनके सवालों से बचना मुश्किल है.    

इसका अंदाज़ा दिग्विजय सिंह के अरविंद केजरीवाल से पूछे २७ सवालों से लगाया जा सकता है. वैसे इन सवालों में नया कुछ नहीं है. इनमें से अधिकांश सवाल पहले भी उठते रहे हैं. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इन सवालों का जवाब देने के बजाय दिग्विजय सिंह पर असली मुद्दों और कांग्रेसी नेताओं के भ्रष्टाचार और घोटालों से ध्यान बंटाने की चाल बताते हुए जवाब देने से इनकार कर कर दिया है.
हालाँकि उसके एक दिन बाद अरविंद केजरीवाल ने अपने पहले के रूख में थोड़ा बदलाव करते हुए यह कहा है कि पहले दिग्विजय सिंह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी को खुली बहस के लिए तैयार कर लें तो वे उनके हर सवाल का जवाब देने के लिए तैयार हैं.
केजरीवाल ने पलटवार करते हुए कहा है कि पहले राबर्ट वाड्रा पर उठे सवालों का जवाब मिलना चाहिए. लेकिन यह कहते हुए वे दिग्विजय सिंह के बिछाए हुए जाल में फंस चुके हैं. असल में, दिग्विजय सिंह को इन सवालों के जवाब में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे तो केजरीवाल को फंसाना चाहते थे.

सवालों से कन्नी काटने और उन्हें मजाक में उड़ाने की कोशिश करके केजरीवाल खुद घिर गए हैं. ऐसे में यह सवाल जरूर उठेंगे और उठने चाहिए कि जब आप सभी पार्टियों और नेताओं को सवालों पूछने और उन्हें जवाबदेह बनाने की मांग कर रहे हैं तो खुद उससे कैसे बाहर हो सकते हैं?

निश्चय ही, लोकतंत्र में सार्वजनिक जीवन खासकर राजनीति में सक्रिय कोई भी नेता, कार्यकर्ता और पार्टी-संगठन सवालों से परे नहीं है. अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने इसी सिद्धांत को सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में स्थापित करने की कोशिश की है.
ऐसे में, वे खुद सवालों से बच नहीं सकते हैं. अगर वे इन २७ सवालों का सिलसिलेवार और तथ्यपूर्ण जवाब जल्दी नहीं देते हैं तो इससे न सिर्फ उनके आंदोलन की नैतिक आभा कम होगी बल्कि २७ सवालों के २७० सवाल होने में देर नहीं लगेगी. अच्छा होता कि वे दिग्विजय सिंह को हर सवाल का जवाब देते, अगर कोई कमियां-गलतियाँ हों तो उसे भी खुलकर स्वीकार करते, उसे सार्वजनिक करते और फिर दिग्विजय सिंह को चुनौती देते कि वे भ्रष्टाचार/घोटालों के मुद्दे पर जवाब दें.
कहने की जरूरत नहीं है कि अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने राजनीति और सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने की जो मुहिम शुरू की है, उसकी सबसे बड़ी ताकत उसकी अपनी नैतिक और पारदर्शी राजनीति और व्यवहार है. इसलिए उसपर सवाल उठे हैं, आगे भी उठेंगे और उठते रहने चाहिए और उनका जवाब देने से बचने की कोशिश नहीं होनी चाहिए क्योंकि जवाब न देने की कोई गुंजाइश इस वैकल्पिक राजनीति में नहीं है.

अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाये, उनकी राजनीति के लिए यह उतना ही अच्छा होगा. आखिर इन २७ सवालों में उनके पास छुपाने के लिए क्या है? जवाब दीजिए और आगे बढिए.              

बुधवार, जनवरी 11, 2012

विधानसभा चुनावों में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है...कोई शक?


कोई भी पार्टी नहीं चाहती है भ्रष्टाचार मुद्दा बने क्योंकि कहीं न कहीं सभी की पूंछ दबी है


पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां तेज होने लगी है. इन चुनावों खासकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश के नतीजों पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं. इन चुनावों से न सिर्फ इन राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारों और उन्हें चुनौती दे रही पार्टियों के भाग्य का फैसला होगा बल्कि इनसे केन्द्र की सत्ता और आगे की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होगी.

इन चुनावों को यूँ ही २०१४ के आम चुनावों के महासंग्राम से पहले का सेमीफाइनल नहीं माना जा रहा है. लेकिन ये चुनाव इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं कि पिछले साल अन्ना हजारे की अगुवाई में चले भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल समर्थक आंदोलन की छाया में हो रहे हैं.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पिछले साल जिस तरह से देश भर में आम जनमानस को झकझोरा और समूचे राजनीतिक तंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया, उसके राजनीतिक-सामाजिक और नैतिक प्रभाव की असली परीक्षा का समय आ गया है. सवाल यह है कि क्या इन चुनावों में भ्रष्टाचार मुद्दा है?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सभी राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश में बसपा की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा की प्रकाश सिंह बादल और उत्तराखंड में भाजपा की पहले रमेश पोखरियाल निशंक और अब भुवन चन्द्र खंडूरी की सरकार या फिर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत और इबोबी सिंह की सरकारें- भ्रष्टाचार के मामले में कोई किसी से पीछे नहीं है.

सभी ने पांच वर्षों तक जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया है और सार्वजनिक धन की लूट के नए रिकार्ड बना दिए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि इन सभी राज्यों में सत्ता चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन एक बात आम है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक छोटे से गिरोह के नेतृत्व में केंद्रीकृत और संगठित लूट की खुली व्यवस्था कायम कर दी गई है.

नतीजा, इन राज्यों में भ्रष्टाचार इस तरह संस्थाबद्ध हो चुका है कि आम नागरिकों खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों को हर छोटे-बड़े सरकारी काम के लिए कदम-कदम पर नेताओं, सत्ता के दलालों, छोटे-बड़े सरकारी अफसरों और अपराधियों की लूट-खसोट का शिकार होना पड़ता है.

यही नहीं, उनके वाजिब हकों और गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए बनी सरकारी योजनाओं के पैसे को ऊपर ही ऊपर लूट लिया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन राज्यों में आम लोगों के लिए यह भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है. लोग लूट-खसोट की व्यवस्था का अंत और इससे मुक्ति चाहते हैं.

यही कारण है कि इन सभी राज्यों में बदलाव का माहौल है. लेकिन आम वोटरों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वे किस पर भरोसा करें? सत्ता की दावेदार सभी पार्टियां, चाहे वे सरकार में हों या विपक्ष में, बिना किसी अपवाद के भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी हुई हैं.

यही कारण है कि आम वोटरों के बीच भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होते हुए भी पार्टियों के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है. असल में, सत्ता की दावेदार किसी भी पार्टी में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाने का नैतिक साहस नहीं है क्योंकि सभी के दामन पर भ्रष्टाचार के छींटें चमक रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से लेकर बसपा, सपा, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों तक सभी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगा रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर आम वोटरों को कोई भी दल उद्वेलित नहीं कर पा रहा है.

इससे सत्ता की होड़ में शामिल राजनीतिक पार्टियों को यह भ्रम हो गया है कि वोटरों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. इससे उनका हौसला इतना बढ़ गया है कि वे एक ओर धड़ल्ले से जातिवादी-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय कार्ड खेल रही हैं, वहीँ दूसरी ओर, वोटरों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है और अपराधियों-माफियाओं का सहारा लिया जा रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि हमेशा ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की दुहाई देनेवाली और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ मुक्त राजनीति के दावे करनेवाली भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा राज में घोटालों के प्रतीक बन गए बाबू सिंह कुशवाहा समेत बसपा सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए कई पूर्व मंत्रियों को न सिर्फ पार्टी में ससम्मान शामिल किया है बल्कि उनमें से अधिकांश को चुनाव मैदान में भी उतार दिया है.

साफ़ है कि भाजपा के लिए चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. उनके लिए यह सिर्फ प्रचार का मुद्दा है, व्यवहार का नहीं. उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा किसी भी तरह से चुनाव जीतना है. चुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि कुछ हद तक वामपंथी पार्टियों को छोडकर इस बीमारी से भाजपा ही नहीं, कोई भी पार्टी अछूती नहीं है. फर्क यह है कि इस बार भाजपा व्यावहारिक राजनीति के नाम पर उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही नंगी और बेशर्म हो गई है.

निश्चय ही, इस स्थिति को भांप कर ही अन्ना हजारे ने इन चुनावों से दूर रहने का फैसला किया है क्योंकि उनके कांग्रेस विरोधी प्रचार की धार भ्रष्टाचार के मामले में उसी तरह नंगे और बेशर्म विपक्ष ने कुंद कर दी है.

लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शुरू हुई लड़ाई मंजिल पर पहुँचने से पहले ही लड़खड़ाने लगी है? ऐसा सोचना थोड़ी जल्दबाजी होगा. सच यह है कि इस देश में वोटरों ने अपने फैसले से राजनीतिक तंत्र को हमेशा चौंकाया और छकाया है.

इसलिए इन चुनावों में बहुत संभव है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटरों के गुस्से का निशाना सत्तारूढ़ पार्टियां बनें और विपक्ष को इसका नकारात्मक फायदा मिल जाए. इस देश में सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का वोटरों का अपना ही तरीका है.

लेकिन इस आधार पर किसी पार्टी विशेष के जीतने से यह निष्कर्ष निकालने की भूल न की जाए कि आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. अलबत्ता, उसके लिए भ्रष्टाचार चुनाव से ज्यादा सड़क की लड़ाई बन गई है क्योंकि चुनावों में सभी पार्टियों ने एक नापाक गठजोड़ बनाकर एक मुद्दे के बतौर भ्रष्टाचार को बेमानी बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

रविवार, सितंबर 04, 2011

देखो, देखो ! कौन ले रहा है संसद और संविधान की आड़


जनांदोलनों ने लोकतंत्र को वास्तविक अर्थ और उसके दायरे को बढ़ाया है


चौथी किस्त


“....मैंने देखा कि

इस जनतांत्रिक जंगल में

हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है

हरे-हरे हाथ

और पेड़ों पर

पत्तों की जुबान बनकर

लटक जाते हैं

वे ऐसी भाषा बोलते हैं

जिसे सुनकर

नागरिकता की गोधूलि में

घर लौटते मुसाफिर

अपना रास्ता भटक जाते हैं।...“

-धूमिल


भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले जन लोकपाल आंदोलन पर हमले अभी भी जारी हैं. मजे की बात यह है कि ये हमले दायें-बाएं और ऊपर-नीचे सभी तरफ से हो रहे हैं. कुछ बुद्धिजीवी मित्रों के साथ-साथ अधिकांश राजनीतिक दलों का आरोप है कि गैर निर्वाचित और अनुत्तरदायी सिविल सोसायटी का एक हिस्सा इस आंदोलन के जरिये संविधान और निर्वाचित संसद की सर्वोच्चता को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है.

कुछ दलित-पिछड़े बुद्धिजीवियों के मुताबिक, “शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट” इस आंदोलन के जरिये बाबा साहब भीम राव आंबेडकर के बनाए उस संविधान को पलटने की कोशिश कर रहा है जिसने दलितों-पिछड़ों को “बराबरी के अधिकार से लेकर आरक्षण का हक” दिया है. उनका यह भी सवाल है कि इस सिविल सोसायटी ने उन्हें क्या दिया है?

दूसरी ओर, आमतौर पर संविधान और संसद के दायरे को न माननेवाली अरुंधती राय का मानना है कि माओवादी भारतीय राज्य को नीचे से पलटने की कोशिश कर रहे हैं जबकि यह आंदोलन भारतीय राज्य को ऊपर से पलटने की कोशिश कर रहा है और इसे विश्व बैंक से लेकर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी का खुला समर्थन मिला हुआ है. यह एक तरह का तख्तापलट है जिसका मकसद भारतीय राज्य की भूमिका को और सीमित करना और सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण को जोर-शोर से आगे बढ़ाना है.

लेकिन क्रांति से कुछ भी कम स्वीकार न करने और कांस्पिरेसी थियरी में विश्वास रखनेवाले कुछ बुद्धिजीवी मित्रों को ठीक इसके उलट यह आंदोलन शासक वर्गों का षड्यंत्र दिखता है जो जनता के गुस्से को भटकाने और भारतीय राज्य को और मजबूत बनाने के मकसद से शुरू किया गया है. सबूत के तौर पर इस आंदोलन को बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के तमाम औद्योगिक संगठनों, कारपोरेट मीडिया आदि के खुले समर्थन को पेश करते हैं. उनके मुताबिक, जन लोकपाल की छुद्र सी मांग अंततः पूंजीवादी व्यवस्था में सुधार और उसे मजबूत बनाने की मांग है.

यह और बात है कि इस समय नव उदारवादी सुधारों से लेकर अमेरिकापरस्ती का सबसे बड़ा पैरोकार और मुखपत्र ‘इंडियन एक्सप्रेस’ पिछले अप्रैल से ही इस आंदोलन के खुले विरोध में खड़ा है. उसे लगता है कि यह आंदोलन अलोकतांत्रिक है क्योंकि यह संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी करके अपनी बात थोपने की कोशिश कर रहा है.

इंडियन एक्सप्रेस ने इस आंदोलन के विरोध में न सिर्फ सम्पादकीय, लेखों की श्रृंखला छापी बल्कि इसके कर्ता-धर्ताओं की पोल खोलने वाली रिपोर्टें भी खूब छापी. इनमें ऐसी रिपोर्टें भी थीं कि इस आंदोलन में आरक्षण विरोही, दलित विरोधी और मुस्लिम विरोधी ताकतें सक्रिय हैं. मतलब यह कि एक्सप्रेस ने इसके विरोध बकायदा मुहिम सी चलाई.

लेकिन इसके बावजूद कुछ और बुद्धिजीवी मित्रों को लगता है कि यह आंदोलन यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस के इशारे पर चल रहा है जिसने भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों से ध्यान हटाने और लोकपाल कानून लाकर जनता के गुस्से को शांत करने के लिए इस आंदोलन को आगे बढ़ावा दिया है. दूसरी ओर, खुद कांग्रेस के प्रवक्ताओं और नेताओं ने इस आंदोलन को “खुले माओवादियों, कुर्सी तोड़नेवाले फासिस्टों और छुपे अराजकतावादियों” और “सी.आई.ए और अमेरिकी षड्यंत्र” के अलावा “आर.एस.एस और सांप्रदायिक शक्तियों” की साजिश करार दिया है.

एक आंदोलन और उसकी इतनी व्याख्याएं, इतने मकसद और चौतरफा हमले. दायें बाजू से लेकर बाएं बाजू तक सभी एक दूसरे से उलट बात कहते हुए भी एक बात पर सहमत हैं कि यह आंदोलन एक षड्यंत्र है. इन विद्वानों में मतभेद सिर्फ इस बात को लेकर है कि यह षड्यंत्र किसका है. मतलब ‘कन्फ्यूजन’ ही ‘कन्फ्यूजन’ है.

जानता हूँ कि आप भी ‘कन्फ्यूज’ हो रहे होंगे. आखिर माजरा क्या है? मजे की बात यह है कि फेसबुक पर इस आंदोलन के कुछ बाल उत्साही अंध विरोधियों ने इस ‘कन्फ्यूजन’ की काट खोज ली है और वे दायें-बाएं, उपर-नीचे और सीधे-तिरछे सभी तरह के हमलों पर तालियाँ बजाने में व्यस्त हैं. मित्रों, इन्हें माफ कीजिएगा, इन्हें खुद पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं?

आइये, इनमें से कुछ आरोपों की पड़ताल करते हैं.


संविधान और संसद : साफ छुपते भी नहीं और सामने आते भी नहीं...

सबसे पहले धूमिल की एक लंबी कविता ‘पटकथा’ से कुछ पंक्तियाँ:

“यह जनता…

उसकी श्रद्धा अटूट है

उसको समझा दिया गया है कि यहाँ

ऐसा जनतन्त्र है जिसमें

घोड़े और घास को

एक-जैसी छूट है

कैसी विडम्बना है

कैसा झूठ है

दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र

एक ऐसा तमाशा है

जिसकी जान

मदारी की भाषा है।...”

जुबान के मदारी फिर से सक्रिय हैं. वे अपनी भाषा से जनतंत्र में जान फूंकने में लगे हैं. वे संसद और संविधान की आड़ लेकर हमले कर रहे हैं. वे लच्छेदार कानूनी भाषा में यह साबित करने में जुटे हैं कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं के खिलाफ है और उन्हें चुनौती दे रहा है. वे याद दिलाने और लोगों को डराने में लगे हैं कि जैसे फासीवाद संसद का विरोध करते हुए आया था, वैसी ही कोशिश यह आंदोलन भी कर रहा है. उनकी शिकायत है कि इस आंदोलन की अगुवा कथित सिविल सोसायटी जो मुट्ठी भर ‘शहरी-हिंदू-सवर्ण-इलीट’ का प्रतिनिधित्व कर रही है, वह पूरे देश की आवाज़ होने का दावा कैसे कर सकती है?

सवाल यह है कि संविधान और संसद की चिंता किसे सता रही है? गौर से देखिए कि ये कौन लोग और शक्तियां हैं जो संसद और संविधान की आड़ लेकर अपने पापों को छुपाने की कोशिश कर रहे हैं? इसमें वह सरकार और वे छोटी-बड़ी पार्टियां हैं जो खुद भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई हैं और जिनका अपना खुद का इतिहास संविधान की धज्जियाँ उड़ाने और संसद को अपनी मनमानियों के लिए इस्तेमाल करने का रहा है. इसमें वे नेता और अफसर हैं जो खुद भ्रष्टाचार की गंगा में दिन-रात डुबकियां लगा रहे हैं और ऐसा करते हुए उन्हें संसद और संविधान का मजाक उड़ाने में कोई संकोच नहीं होता है.

इसमें बड़ी पूंजी यानि कारपोरेट जगत के वे प्रतिनिधि हैं जिन्होंने कानून बनाने से लेकर नीति निर्माण तक की प्रक्रियाओं में जबरदस्त रूप से घुसपैठ कर ली है और इस पूरी प्रक्रिया को संस्थाबद्ध करने में कामयाब हो गए हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे कानूनों और नीतियों की पूरी फेहरिश्त है जिनका खाका सबसे पहले सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम और विश्व बैंक-मुद्रा कोष के बंद कमरों में तैयार किया गया और बाद में संसद ने उसपर मुहर लगाने का काम किया. लेकिन ये सभी अब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल की मांग पर संसद की सर्वोच्चता और संविधान की पवित्रता की दुहाई देने में लगे हैं.

इनमें एक्सप्रेस ब्रांड वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकार बुद्धिजीवी भी हैं जो अकसर आर्थिक सुधारों की धीमी गति के लिए लोकतंत्र और संसदीय प्रक्रियाओं की सुस्ती पर खीजते पाए जाते हैं. जिन्हें भारतीय लोकतंत्र की तुलना में सिंगापुर, ताइवान, मलेशिया और कोरिया का लोकतंत्र ज्यादा आकर्षित करता है. इसमें वे अफसर बुद्धिजीवी भी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन संविधान, संसद, कानून और प्रक्रियाओं को धता बताने के लिए चोर दरवाजे खोजने में लगा दिया. उन्हें भी संविधान और कानूनी प्रक्रियाओं की चिंता सता रही है.

यही नहीं, संसद और संविधान की सर्वोच्चता और निर्वाचित बनाम गैर निर्वाचित की दुहाई भारत मुक्ति मोर्चा के वे मित्र भी दे रहे हैं जो जन लोकपाल के दायरे में निचले दर्जे के सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को रखने का इस आधार पर विरोध कर रहे हैं कि ‘निचले स्तर के अधिकारियों और कर्मचारियों में दलित-पिछड़े वर्ग के अधिकारी-कर्मचारी ज्यादा हैं जिन्हें भ्रष्टाचार से निपटने के नाम पर परेशान किया जा सकता है.’ ठीक ही है. आखिर भ्रष्टाचार में समता (इक्वालिटी इन करप्शन) का अधिकार का सवाल है?

यहाँ विस्तार से यह उल्लेख करके समय नहीं बर्बाद करना चाहता कि पिछले ६३ वर्षों में विभिन्न रंगों-झंडों की सरकारों और पार्टियों ने संविधान के साथ क्या किया है और संसद कहाँ से कहाँ पहुँच गई है? भारतीय संविधान, संसदीय प्रक्रियाओं और कानून के किसी भी विद्यार्थी से पूछ लीजिए, वह बता देगा कि पिछले छह दशकों में संविधान और संसदीय प्रक्रियाओं की अनदेखी, उल्लंघन और अवमानना की गई है?

यह भी कि संसद में क्या, कब, कैसे और क्यों होता है? इसके साथ यह भी कि हमारी संसद के माननीय सदस्यों की उपलब्धियां क्या है? आप खुद इलेक्शन वाच की यह साईट देख लीजिए जिसमें सदस्यों के खुद के दिए ब्यौरे शामिल हैं: http://www.nationalelectionwatch.org/  

यहाँ यह भी न भूलें कि संसद के बनाए कानूनों के साथ क्या होता है? वह गरीबों पर कितनी सख्ती से लागू होता है और अमीरों और ताकतवर लोगों के लिए कितना मुलायम बन जाता है? कैसे उन कानूनों में इतना छिद्र छोड़ा जाता है कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के लिए जगह बनी रहे? हैरानी की बात नहीं है कि भ्रष्टाचार मौजूदा व्यवस्था का अभिन्न हिस्सा बन गया है? इस हद तक कि कई बुद्धिजीवी इसे व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए जरूरी लुब्रिकेंट बताते हैं.

उनके मुताबिक, भ्रष्टाचार को एक हद तक स्वीकार कर लेना चाहिए बशर्ते व्यवस्था चलती रहे. अभी बहुत दिन नहीं हुए जब भ्रष्टाचार को स्वीकार्य बनाने के लिए भांति-भांति के तर्क दिए जाते थे कि भ्रष्टाचार कहाँ नहीं है, भ्रष्टाचार को खत्म करना संभव नहीं है, यह लोगों की मनोवृत्ति में शामिल है, भ्रष्टाचार नैतिक पतन के कारण बढ़ रहा है आदि-आदि.

संसद और संविधान : हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन....

इससे पहले की आगे और बात की जाए, संसद और संविधान के नए आशिकों के लिए धूमिल की कुछ और पंक्तियाँ :

“...लोहे का स्वाद

लोहार से मत पूछो

उस घोड़े से पूछो

जिसके मुंह में लगाम है...”

आश्चर्य नहीं कि इन दिनों संविधान और संसद का स्वाद वे मित्र बता रहे हैं जिनके मुंह में लगाम नहीं है. अलबत्ता उनका दावा यह है कि गरीब और हाशिए की जनता संविधान और संसद से मिले अधिकारों का खूब लुत्फ़ उठा रही है. लेकिन संविधान और संसद के बारे में देश के करोड़ों गरीबों, बेकारों, बीमारों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का क्या ख्याल है, उसके लिए किसी शोध की जरूरत नहीं है. कश्मीर घाटी से लेकर मणिपुर तक देश का एक अच्छा खासा हिस्सा आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर कानून (अफ्स्पा) से लेकर अन्य कई काले कानूनों के साये में जी और लड़ रहा है.

बहुत से मित्रों की यह सौ फीसदी जायज शिकायत है कि अन्ना हजारे पर इतनी चर्चा हो रही है लेकिन पिछले दस साल से अफस्पा के खिलाफ लड़ रही इरोम शर्मिला के अनशन की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है? धीरज रखिये, हमारी महान संसद इस पर विचार कर रही है. फिर खुद सरकार कहती है कि देश के नौ राज्यों में कोई ८३ जिले नक्सल उग्रवाद से प्रभावित हैं जो संविधान और संसद को उलटने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन नक्सली किसी दूसरे ग्रह से नहीं हैं और उनकी कतारों में वही गरीब दलित और आदिवासी हैं जो संविधान प्रदत्त अपने बुनियादी हकों के इंतज़ार में बैठे-बैठे थक गए.

निश्चित ही, संविधान और संसद की सर्वोच्चता का राग अलाप रहे मित्र देश के अलग-अलग इलाकों में जल-जंगल-जमीन-खनिजों की कारपोरेट लूट में इनका दोष नहीं मानते होंगे? आखिर संविधान में ऐसा कहाँ लिखा है? आखिर हमारी संसद ने अंग्रेजों के भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके देश विकास का रास्ता साफ किया है!

मित्रों को निश्चय ही, इससे भी कोई शिकायत नहीं होगी कि देश में ८ फीसदी की विकास दर के बावजूद ७८ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर करने को मजबूर हैं? आखिर संविधान में सबको बराबरी का अधिकार और दलितों और पिछड़ों के लिए विशेष अवसर की व्यवस्था की है. लेकिन अगर अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ रही है तो इसमें संविधान का क्या कसूर है?

सुना नहीं, अपने एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि दिल्ली से गांव के विकास के लिए चले हर एक रूपये में सिर्फ १५ पैसे ही नीचे जमीन पर पहुँचते हैं! बाकी बीच में ही लूट लिए जाते हैं लेकिन गरीबों के इस पैसे की लूट के खिलाफ बोलना संविधान और संसद का अपमान है, उनकी सर्वोच्चता को चुनौती है, गैर निर्वाचितों की तानाशाही है और फासीवाद को बढ़ावा है. यह किसकी आत्मा बोल रही है भाई? एक बार फिर धूमिल याद आ रहे हैं:

“...वे सब के सब तिजोरियों के

दुभाषिये हैं।

वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं।

अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक

हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं।

यानी कि-

कानून की भाषा बोलता हुआ

अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।...”

इस संयुक्त परिवार की ओर से जनता को यह भी सलाह दी जा रही है कि कोई शिकायत है तो पांच साल इंतज़ार कीजिये, चुनाव में वोट देकर अपनी पसंद की सरकार चुन लीजिए या खुद निर्वाचित हो जाइये. फिर पांच साल इंतज़ार करिए. फिर चुनाव का इंतज़ार कीजिये. नहीं-नहीं, जनतंत्र में यह शिकायत का कोई मतलब नहीं है कि ऐसा करते-करते १५ चुनाव बीत गए. यह मत पूछिए कि क्या मिला? एक बार फिर धूमिल की याद आ रही है:

“सब-कुछ अब धीरे-धीरे खुलने लगा है

मत-वर्षा के इस दादुर-शोर में

मैंने देखा हर तरफ

रंग-बिरंगे झण्डे फहरा रहे हैं

गिरगिट की तरह रंग बदलते हुये

गुट से गुट टकरा रहे हैं

वे एक- दूसरे से दाँता-किलकिल कर रहे हैं

एक दूसरे को दुर-दुर,बिल-बिल कर रहे हैं

हर तरफ तरह -तरह के जन्तु हैं

श्रीमान्‌ किन्तु हैं

मिस्टर परन्तु हैं

कुछ रोगी हैं

कुछ भोगी हैं

कुछ हिंजड़े हैं

कुछ रोगी हैं

तिजोरियों के प्रशिक्षित दलाल हैं

आँखों के अन्धे हैं

घर के कंगाल हैं

गूँगे हैं

बहरे हैं

उथले हैं,गहरे हैं।

गिरते हुये लोग हैं

अकड़ते हुये लोग हैं

भागते हुये लोग हैं

पकड़ते हुये लोग हैं

गरज़ यह कि हर तरह के लोग हैं

एक दूसरे से नफ़रत करते हुये वे

इस बात पर सहमत हैं कि इस देश में

असंख्य रोग हैं

और उनका एकमात्र इलाज-

चुनाव है।”

लेकिन मित्रों, जनता बावली हुई जा रही है. वह इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है. वह कहीं अफ्स्पा और दूसरे काले कानूनों को हटाने, कहीं जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट रोकने, कहीं भूमि सुधार-न्यूनतम मजदूरी-सामाजिक सम्मान, कहीं रोजगार-शिक्षा-स्वास्थ्य के अधिकार और कहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर उतर आई है. उसे संविधान और संसद की आड़ लेकर समझाना मुश्किल है. आखिर संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘हम भारत के लोग’ का जिक्र है, वह जनता संसद और संविधान की जन्नत के हकीकत को समझ गई है.

चलते-चलते यह याद दिलाना जरूरी है कि इस देश में अगर जनतंत्र जीवित है और उसके साथ-साथ संविधान और संसद की कुछ मर्यादा बची हुई है  तो इसलिए कि लोगों ने उसे बचाए रखने के लिए बहुत कुर्बानियां दी हैं. सच पूछिए तो इस देश में जनांदोलनों ने जनतंत्र की आत्मा को जिन्दा रखा है अन्यथा संसद और संविधान की आड़ लेकर जनतंत्र की हत्या करने की न जाने कितनी बार कोशिशें की गईं हैं. यही नहीं, गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को जो कुछ मिला है, वह किसी संविधान और संसद की नहीं बल्कि उनकी लड़ाइयों का नतीजा है. उन्हें समझाने वाले चाहे जो समझाएं लेकिन उन्हें पता है कि बिना लड़े यहाँ कुछ नहीं मिलता.   

सोमवार, अगस्त 29, 2011

कांग्रेस के सेक्युलर विकल्प के बारे में सोचिये

धर्मनिपेक्षता की लड़ाई को रोजी-रोटी और व्यापक बदलाव की लड़ाई से जोड़े बिना संघ परिवार को अलग-थलग करना मुश्किल है

तीसरी किस्त



भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन से मुस्लिम समुदाय की दूरी साफ दिखाई दी. रामलीला मैदान से लेकर फेसबुक पर इस दूरी को महसूस किया जा सकता है. मुझे कुछ निजी मित्रों और फेसबुक के मुस्लिम साथियों से भी इस आंदोलन को लेकर कई शिकायतें सुनने को मिलीं. कुछ अपवादों को छोडकर सबको लग रहा है कि इस आंदोलन के पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी है. कुछ मित्रों का यह भी कहना है कि इसके पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी न भी हों तो कांग्रेस के खिलाफ अन्ना हजारे की इस मुहिम का फायदा अंततः बी.जे.पी को ही मिलेगा.

भ्रष्टाचार के खिलाफ और व्यापक बदलाव के जनांदोलनों को मुस्लिम समुदाय में मौजूद इन आशंकाओं और चिंताओं को समझना पड़ेगा. इनमें से कई आशंकाएं और चिंताएं वास्तविक हैं, कुछ आंशिक रूप से सही हैं और गंभीर बहस और संवाद की मांग करती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आंदोलन की पहचान से बन गए कई प्रतीकों खासकर “वंदे मातरम और भारत माता की जय” जैसे नारे, पिछली बार मंच पर लगी भारत माता की तस्वीर, मंच पर भांति-भांति के साधुओं-धर्मगुरुओं और बाबाओं की मौजूदगी, रामधुन और फ़िल्मी देशभक्ति के गानों के बीच लहराते तिरंगों के अलावा खुद अन्ना हजारे के अतीत में दिए नरेंद्र मोदी और राज ठाकरे समर्थक बयानों से मुस्लिम समुदाय में शक, डर और आशंकाएं बढ़ी हैं.

इसकी वजह यह है कि इनमें से कई प्रतीक संघ परिवार की पहचान से बहुत गहराई से जुड़े रहे हैं. यह ठीक है कि इन प्रतीकों खासकर नारों का एक लंबा इतिहास है और वे आज़ादी की लड़ाई के अभिन्न हिस्से रहे हैं. इस कारण गांधीवादी अन्ना हजारे में उन नारों, तस्वीरों और गीतों के प्रति अतिरिक्त आकर्षण हो सकता है. इसके साथ ही, यह भी सच है कि आंदोलन के दौरान मंच से और लोगों के बीच ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ जैसा नारा भी खूब लगा. पिछली बार मंच पर भगत सिंह की तस्वीर भी थी. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौर में भी कुछ नारों, प्रतीकों को लेकर विवाद और बहस रहा है.

यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आज़ादी के बाद पिछले कुछ दशकों में ये नारे संघ परिवारी संगठनों के ट्रेड मार्क से बन गए हैं. हालांकि सिर्फ इस कारण कुछ नारों-प्रतीकों को सांप्रदायिक मान लेना और उन्हें संघ परिवार के हवाले कर देना उचित नहीं है लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसा हो गया है. अच्छा होता कि इनसे बचा जाता. इससे न सिर्फ आंदोलन का दायरा बढ़ता बल्कि ऐसे आरोप लगानेवालों खासकर लोगों को बांटकर अपना उल्लू सीधा करनेवाली कांग्रेस जैसी कथित सेक्युलर पार्टियों को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिलता.


प्रतीकों की राजनीति की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं


अगर इस आंदोलन को आगे जाना है और बड़ी लड़ाईयां लड़नी हैं तो उसे नए नारे और प्रतीक गढ़ने होंगे और संकीर्ण नारों-प्रतीकों के बजाय आज़ादी के आंदोलन के उन नारों-प्रतीकों को पकडना होगा जिनकी व्यापक अपील रही है. लेकिन यह कहने के बाद यह कहना भी उतना ही जरूरी है कि प्रतीकों की राजनीति की अपनी सीमाएं होती हैं और कई बार प्रतीकों की राजनीति को साधने के चक्कर में समझौते भी करने पड़ते हैं. जैसे इस आंदोलन में भी शुरू में बाबा रामदेव, श्री-श्री रविशंकर से लेकर मौलाना महमूद मदनी और फादर विन्सेंट तक का मजमा जुटाने की कोशिश की गई थी. लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ, यह किसी से छुपा नहीं है.

लेकिन यहाँ स्पष्ट करना भी जरूरी है कि सिर्फ कुछ नारों-प्रतीकों और व्यक्तियों के आधार पर पूरे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को ख़ारिज कर देना और उसे संघ परिवार की साजिश मान लेना भी एक राजनीतिक भूल है. असल मुद्दा यह है कि ये नारे लगानेवाले क्या किसी सांप्रदायिक मुहिम के हिस्सा हैं? क्या वे किसी संप्रदाय या वर्ग के खिलाफ सडकों पर उतरे हैं? क्या अन्ना हजारे और उनके साथी प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी सांप्रदायिक जमात से जुड़े या संबंधित रहे हैं? क्या उनके मांगपत्र में कोई सांप्रदायिक मांग भी थी या है?

अगर इन सवालों के जवाब नहीं में हैं तो किस आधार पर इस आंदोलन को सांप्रदायिक आंदोलन बताया जा रहा है? इसके उलट सच यह भी है कि अगर इस आंदोलन के दौरान वंदे मातरम और भारत माता की जय के नारे लग रहे थे तो इंकलाब जिंदाबाद भी उतनी ही शिद्दत से गूंज रहा था. इसी तरह, इस बार मंच पर भारतमाता की तस्वीर नहीं थी. इसके अलावा इस आंदोलन के नेतृत्व में प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और अखिल गोगोई जैसे जनपक्षधर, धर्मनिरपेक्ष और जुझारू मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और किसान नेता शामिल थे. क्या इनकी धर्मनिरपेक्षता पर कोई सवाल उठाया जा सकता है?

इस सबके साथ यह भी याद रखना जरूरी है कि यह किसी वाम और रैडिकल संगठन का आंदोलन नहीं था. इसमें लिबरल, लोकतान्त्रिक और अराजनीतिक यानि हर तरह के लोग थे और जैसाकि बड़े जनांदोलनों के साथ होता है, इसमें भी समाज के विभिन्न वर्गों और उनके सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लोग शामिल होते गए. यह बहुत संगठित आंदोलन नहीं था और इसमें स्वतः स्फूर्तता का योगदान बहुत था. इसके कारण स्वाभाविक तौर कई कमजोरियां दिखीं.

कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और आर.एस.एस का हव्वा

यह देखना भी जरूरी है कि इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश कौन बता रहा है और उसके पीछे उसका क्या मकसद है? वाम और रैडिकल बुद्धिजीवियों की वाजिब शिकायतों को छोड़ दिया जाए तो यह आरोप मुख्यतः कांग्रेस की ओर से आ रहा है. उसका मकसद किसी से छुपा नहीं है. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी कांग्रेस इस आंदोलन के निशाने पर है और उसकी बौखलाहट स्वाभाविक है. वह इस आंदोलन को तोड़ने और कमजोर करने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सभी हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है. इन्हीं हथकंडों में से एक हथकंडा इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश बताना है.

लेकिन अगर यह आंदोलन आर.एस.एस की साजिश होता और उसके इशारे पर चल रहा होता तो बी.जे.पी शुरू से खुलकर इसके साथ होती. लेकिन सच यह है कि जन लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस और बी.जे.पी के स्टैंड में कोई खास फर्क नहीं था. खुद लाल कृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली कई बार इस आंदोलन की मुख्य मांग से असहमति जता चुके थे. इसी तरह, इस आंदोलन के एक प्रमुख नेता जस्टिस संतोष हेगड़े की अवैध खनन पर रिपोर्ट के कारण कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को जाना पड़ा और भाजपा की खूब किरकिरी हुई. यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तेज होने से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के लिए भी मुंह दिखाना मुश्किल हो रहा था.

आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के गिरते राजनीतिक ग्राफ के बावजूद भाजपा अभी भी चढ़ नहीं पा रही है क्योंकि लोग उसकी भी असलियत समझ चुके हैं. इस आंदोलन को लेकर उसके बदलते रुख के और लगातार दायें-बाएं करने के कारण न सिर्फ उसकी भी फजीहत हुई बल्कि लोगों के गुस्से का निशाना बनना पड़ा. इसके बावजूद कांग्रेस भाजपा की पुनर्वापसी का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को इस आंदोलन से दूर और अपने पीछे खड़ा रखने का खेल, खेल रही है. ऐसा करते हुए कांग्रेस खुद को धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम समाज के सबसे बड़े खैरख्वाह के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. इस आंदोलन की अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण वह कुछ हद तक कामयाब होती भी दिख रही है.

लेकिन कांग्रेस की ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बारे में क्या कहा जाए? उसके पिछले इतिहास को एक मिनट के लिए भूल भी जाएं तो धर्मनिरपेक्षता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का आलम यह है कि मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक पिछडेपन को दूर करने के बारे में जस्टिस राजेंदर सच्चर और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट पिछले कई सालों से ठन्डे बस्ते में पड़ी है लेकिन यू.पी.ए सरकार एक कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है. इसी तरह, एन.ए.सी के आगे बढाने के बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक संसद में पेश करने में सरकार के हाथ-पाँव काँप रहे हैं.

यही नहीं, इन दिनों कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते ऐसी दांतकाटी दोस्ती चल रही है कि न सिर्फ दोनों एक-दूसरे के संकट में मदद के लिए खड़े हो जा रहे हैं जैसे जन लोकपाल के मुद्दे पर संसद में पेश प्रस्ताव कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने मिलकर तैयार किया. भाजपा की इस मदद के बदले में सरकार ने हिंदू आतंकवादी समूहों की जांच धीमी कर दी है.

एक और नमूना देखिए, सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार द्वारा गठित-पोषित सलवा जुडूम को अवैध घोषित कर दिया लेकिन उसकी मदद में यू.पी.ए सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने जा रही है. सच पूछिए तो कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता का सवाल सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का नहीं बल्कि भाजपा का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का रहा है.

इसके बावजूद ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिससे पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते अच्छी समझदारी और लेन-देन का खेल चल रहा है. असल में, इन दोनों की राजनीति यह है कि राष्ट्रीय राजनीतिक स्पेस को मिलजुलकर कब्जे में रखा जाए. इसके लिए दोनों एक-दूसरे की राजनीतिक मदद करने में भी पीछे नहीं रहते हैं. इस मामले में निस्संदेह, भाजपा की सबसे अच्छी दोस्त कांग्रेस है जो अपनी कारगुजारियों से उसकी वापसी की राजनीतिक जमीन तैयार करने में लगी है.

धर्मनिरपेक्षता को कांग्रेस के भरोसे छोड़ने के खतरे


सच पूछिए तो भाजपा के राजनीतिक पुनरुज्जीवन के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नहीं बल्कि खुद कांग्रेस सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. भाजपा अगर आएगी तो इसलिए कि कांग्रेस उसे यह मौका दे रही है. अगर कांग्रेस भ्रष्टाचार से दूर रहती, महंगाई पर लगाम लगाती और गरीबों के हित में कदम उठा रही होती तो भाजपा के लिए मौका कहाँ आता? पिछले आम चुनावों के बाद भाजपा जिस मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई थी, उसे फिर से खाद-पानी किसने दिया है? मुख्य विपक्षी दल होने और तीसरे मोर्चे की दुर्गति के कारण कांग्रेस की राजनीतिक गलतियों और अपराधों का फायदा स्वाभाविक तौर पर भाजपा को मिलेगा. मौजूदा राजनीतिक और चुनावी ढांचे में इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.

तथ्य यह है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के शुरू होने तक भाजपा ने ही कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक मोर्चा खोल रखा था. वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से राजनीतिक कमाई करने के लिए खूब जोर लगाये हुए थी लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में खुद उसकी गन्दी कमीज किसी से छुपी नहीं थी. इसलिए उसकी मुहिम को कोई खास सफलता नहीं मिल रही थी.

अलबत्ता, तमिलनाडु चुनावों में जयललिता बाजी मार गईं जबकि केरल में वाम मोर्चे के हाथ बाजी आते-आते रह गई. इससे साफ था कि कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ नीचे गिर रहा है. कांग्रेस की राजनीतिक ढलान की अन्य वजहों में आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और जगन मोहन रेड्डी के मुद्दे पर आगे कुआं, पीछे खाई में फंस जाना और महाराष्ट्र जैसे राज्य में शासन पर पकड़ ढीली पड़ते जाना भी है.

साफ है कि कांग्रेस अपने ही भूलों, कमजोरियों और गलतियों के कारण लड़खड़ा रही है. लेकिन लगता नहीं कि कांग्रेस ने इनसे कुछ सीखा है. उलटे भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस के टालमटोल के रवैये से लोगों का गुस्सा फूट कर सड़कों पर आ गया. भाजपा इसका फायदा जरूर उठाने की कोशिश करेगी लेकिन यह उतना आसान नहीं होगा.

जन लोकपाल के मुद्दे पर हुए आंदोलन ने भाजपा को भी एक्सपोज कर दिया है. इस आंदोलन का सबसे बड़ा राजनीतिक योगदान यह है कि इसने कांग्रेस के विकल्प के रूप में खुद को पेश कर रही भाजपा के दावे पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. इससे कांग्रेस और भाजपा से इतर एक नए विकल्प की सम्भावना बनी है.

असल में, साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई का सबसे बड़ा सबक यह है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने और राजनीति में अलग-थलग करने के लिए कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज जरूरी है. इसके बिना भाजपा को रोकना मुश्किल है. यही नहीं, जो लोग भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस पर दाँव लगा रहे हैं, वे बड़ी भूल कर रहे हैं. इस अर्थ में , कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज किसी पिटे-पिटाए और अविश्वसनीय तीसरे मोर्चे पर दाँव लगाने के बजाय किसी व्यापक जन आंदोलन से निकलनेवाले विकल्प की ओर ले जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ये सम्भावना है. इस आंदोलन के दायरे के बढ़ने और उसमें देश भर में चल रहे जनांदोलनों के जुड़ने से इस सम्भावना के हकीकत बनने की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अगर मुस्लिम समुदाय इस जनतांत्रिक आंदोलन से दूर रहता है तो वह जाने-अनजाने भाजपा की मदद करेगा.

जाहिर है कि इससे बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो सकती है. इस सिलसिले में अंतिम बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई भी लड़ाई जनविरोधी नीतियों को लागू कर रही कांग्रेस के साथ नहीं बल्कि उसके खिलाफ खड़े होकर और उसे रोजी-रोटी और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों से जोड़कर ही आगे बढ़ाई जा सकती है.



जारी...आगे बात करेंगे संसद और संविधान के साथ आन्दोलनों के संबंधों की...अपनी प्रतिक्रियाएं भेजते रहिये...