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मंगलवार, जुलाई 17, 2012

मानवाधिकारों के मामले में सत्तातंत्र के साथ क्यों खड़ा है मीडिया?

यह कारपोरेट मीडिया का ‘जनतंत्र’ है जिसमें आम नागरिकों के मानवाधिकार के साथ सौदा और समझौता संभव है

दूसरी और आखिरी किस्त
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आन्दोलनों को पुलिसिया ताकत से दबाने की कोशिश में भारतीय राज्य ने न सिर्फ पुलिस को मनमानी करने की छूट दे रखी है बल्कि उसकी मनमानी और गैर-कानूनी कार्रवाइयों को संरक्षण देने के लिए काले कानून बनाने में भी संकोच नहीं किया है.
नतीजा यह कि इन इलाकों में मानवाधिकार बेमानी होकर रह जाते हैं. पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल मानवाधिकारों की कोई परवाह नहीं करते हैं. यहाँ तक कि ‘युद्ध’ जैसी स्थिति का हवाला देकर मानवाधिकार हनन के मामलों का बचाव किया जाने लगता है. इस स्थिति में मानवाधिकार हनन के मामले उठानेवाले संगठन और कार्यकर्ता राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों को खटकने लगते हैं.
यही नहीं, मानवाधिकार हनन के मामले उठानेवाले संगठनों और कार्यकर्ताओं को राज्य अपने दुश्मन की तरह देखने लगता है. हैरानी की बात नहीं है कि इन मामलों को उठानेवाले पी.यू.सी.एल, पी.यू.डी.आर जैसे मानवाधिकार संगठन और उनके कार्यकर्ताओं पर एक ओर ‘आतंकवादियों के हमदर्द’, ‘माओवादियों के समर्थक’ और ‘विदेशी ताकतों की कठपुतली’ जैसे आरोप मढ़कर उनका खलनायकीकरण किया जाता है और दूसरी ओर, उनपर प्रत्यक्ष हमले भी बढे हैं.

अफसोस की बात यह है कि समाचार माध्यम मानवाधिकार संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं पर हो रहे परोक्ष और प्रत्यक्ष हमलों में उनके साथ खड़े होने के बजाय ज्यादातर मामलों में राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ खड़े नजर आ रहे हैं. इस मामले में वे सत्तातंत्र के भोपूं से बन गए हैं और राज्य और उसकी एजेंसियां उन्हें खुलकर मानवाधिकार संगठनों के खिलाफ प्रचार युद्ध में इस्तेमाल कर रही हैं.

सीमा आज़ाद के मामले में भी समाचार मीडिया के एक बड़े हिस्से का रवैया पुलिस के भोपूं की तरह ही था. जबकि समाचार मीडिया से अपेक्षा यह की जाती है कि वे मानवाधिकार संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं के साथ खड़े होंगे क्योंकि वे उनके सबसे स्वाभाविक मित्र हैं. असल में, न्यूज मीडिया जिस अभिव्यक्ति की आज़ादी की ताकत पर खड़ा है, उसकी गारंटी के लिए संघर्ष करनेवालों की कतार में सबसे आगे मानवाधिकार संगठन ही रहते हैं.
अभिव्यक्ति की आज़ादी को बनाये रखने में मानवाधिकार संगठनों और उन हजारों-लाखों राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी भूमिका है जो संविधान से हासिल विभिन्न मौलिक अधिकारों की किसी भी कीमत पर हिफाजत के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते रहते हैं. उनके लिए मामूली से मामूली नागरिक के मानवाधिकार सबसे पहले हैं और वे इस मुद्दे पर किसी भी समझौते या सौदे के लिए तैयार नहीं हैं.
उनके समझौताविहीन संघर्षों का ही नतीजा है कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी काफी हद तक बची हुई है. आखिर यह कैसे भुलाया जा सकता है कि देश में इमरजेंसी के दौरान सेंसरशिप और मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ लड़नेवालों में सबसे आगे राजनीतिक-सामाजिक-मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता और नेता खड़े थे. अन्यथा कौन नहीं जानता कि अखबारों के बड़े हिस्से ने ‘घुटने के बल चलने के लिए कहे जाने पर रेंगना’ शुरू कर दिया था.

इसी तरह जगन्नाथ मिश्र के बिहार प्रेस विधेयक और राजीव गाँधी के मानहानि विधेयक के खिलाफ भी आवाज़ बुलंद करनेवालों में पत्रकारों के साथ मानवाधिकार कार्यकर्ता ही खड़े थे. सच पूछिए तो देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी उसमें कटौती करने या उसे सीमित करने के तमाम दबावों और परोक्ष-अपरोक्ष कोशिशों के बावजूद बनी हुई है तो इसकी वजह ये संघर्ष ही हैं.

सबक यह कि देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी इसलिए नहीं बची हुई है कि सत्तातंत्र उदार और जनवाद पसंद है बल्कि उसकी हिफाजत के लिए निरंतर सतर्क, सजग और मुखर नागरिक समूहों और राजनीतिक-सामाजिक संगठनों का दबाव और संघर्ष है. न्यूज मीडिया भी इन्हीं समूहों का हिस्सा है. वह उनसे अलग-थलग होकर अपनी आज़ादी की हिफाजत नहीं कर सकता है.
दूसरे, अभिव्यक्ति की आज़ादी को अन्य मानवाधिकारों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. अन्य मानवाधिकार सुरक्षित हैं तो अभिव्यक्ति की आज़ादी सुरक्षित है और अभिव्यक्ति की आज़ादी बची हुई है तो अन्य मानवाधिकार भी बचे रहेंगे. उनकी परस्पर गारंटी ही उनका भविष्य है.
इसलिए याद रहे कि अगर आप दूसरे की आज़ादी की हिफाजत के लिए नहीं बोलेंगे या उसके साथ नहीं खड़े होंगे तो आप अपनी आज़ादी को भी बहुत दिनों तक सुरक्षित नहीं रख सकते हैं. मीडिया को यह सच जितनी जल्दी समझ में आ जाये, उतना अच्छा होगा. लेकिन मुश्किल यह है कि कारपोरेट न्यूज मीडिया के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी का मसला उतना बड़ा और महत्वपूर्ण मसला नहीं रह गया है.

कारपोरेट मीडिया और सत्तातंत्र के मजबूत गठजोड़ और गहरे होते रिश्तों के बीच मुख्यधारा के न्यूज मीडिया को मुनाफे के लिए अपनी आज़ादी भी गिरवी रखने में कोई संकोच नहीं रह गया है. मुनाफे के लोभ ने उनकी जुबान बिना किसी सेंसरशिप के ही बंद कर दी है. उन्हें चुप करने के लिए सत्तातंत्र को किसी इमरजेंसी या बाहरी सेंसरशिप की जरूरत नहीं रह गई है.

अलबत्ता, जब भी उनके मुनाफे, आर्थिक हितों या अन्य धंधों पर कोई चोट होती है या उसकी आशंका दिखती है तो कारपोरेट मीडिया समूहों को अभिव्यक्ति की आज़ादी याद आने लगती है. इस अर्थ में वे अभिव्यक्ति की आज़ादी को सत्ता प्रतिष्ठान से एक मोलतोल के औजार की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं.
अन्यथा उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी की कोई खास परवाह नहीं है. सच यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान के साथ उनके आर्थिक-राजनीतिक हित इस हद तक एकाकार हो गए हैं कि वे बिना किसी बाहरी दबाव के खुद व्यवस्था के सबसे बड़े पैरोकार और प्रवक्ता हो गए हैं.
ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर कारपोरेट मीडिया समूहों के अख़बारों/चैनलों के लिए भी माओवादी ‘आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ दिखने लगे हैं. इस अर्थ में वे माओवाद के खिलाफ राज्य की ओर से छेड़े युद्ध यानी ग्रीन हंट में राज्य के साथ खड़े हैं. सच यह है कि मीडिया का बड़ा हिस्सा इस ग्रीन हंट में पुलिस/अर्द्ध सैनिक बलों/ख़ुफ़िया एजेंसियों के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) हो चुका है और उनके प्रचार युद्ध का हथियार बन चुका है.

यही कारण है कि सीमा आज़ाद या सोनी सोरी या ऐसे ही दूसरे मामलों में वह सच्चाई सामने लाने के बजाय राज्य और पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों की ओर से छेड़े उस कुप्रचार अभियान का हिस्सा बन जाता है जो सीमा आज़ाद जैसों को माओवादी और देश का दुश्मन साबित करने में कोई कसर नहीं उठा रखते हैं.

इसी का तार्किक विस्तार यह है कि कारपोरेट मीडिया के अखबार/चैनल माओवाद के खिलाफ युद्ध में सुरक्षा बलों/पुलिस की ओर से हो रहे मानवाधिकार हनन के गंभीर मामलों को भी न सिर्फ अनदेखा करते हैं बल्कि उसे यह कहकर जायज ठहराने लगते हैं कि युद्ध जैसी स्थिति में यह स्वाभाविक है, गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है या खुद माओवादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, इसलिए उनसे निपटने में मानवाधिकारों का ध्यान रख पाना संभव नहीं है.
यह कारपोरेट मीडिया का ‘जनतंत्र’ है जिसमें आम नागरिकों के मानवाधिकार के साथ भी सौदा और समझौता संभव है. इस तरह देखा जाए तो सीमा आज़ाद के मामले में कारपोरेट मीडिया और उसके अखबारों/चैनलों की चुप्पी किसी नादानी, जानकारी/समझ के अभाव या अन्य खबरों में उलझे रहने के कारण नहीं है बल्कि बहुत सोची-समझी और रणनीतिक है.  
साफ़ है कि कारपोरेट मीडिया और उसके अख़बारों/चैनलों ने अपना पक्ष तय कर लिया है. वे भारतीय राज्य की माओवाद के खिलाफ लड़ाई में निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ प्रेक्षक नहीं हैं और न ही वे इस लड़ाई में पिस रहे निर्दोष नागरिकों के मानवाधिकारों के पैरोकार बनने को तैयार हैं. इस प्रक्रिया में उन्होंने सच को दांव पर लगा दिया है. पत्रकारिता के बुनियादी उद्देश्यों और मूल्यों से किनारा कर लिया है.

वे भूल गए हैं कि समाचार माध्यमों और पत्रकारिता से पहली अपेक्षा सच के साथ खड़े होने की जाती है. उनकी पहली और आखिरी प्रतिबद्धता सच के साथ खड़ा होना है. यह इसलिए भी जरूरी है कि जनतंत्र में न्यूज मीडिया और पत्रकारिता की पहली वफ़ादारी नागरिकों के प्रति है और नागरिकों के लिए सच जानना इसलिए जरूरी है ताकि वे खुद मुख्तार बन सकें और अपने फैसले ले सकें.

कहने की जरूरत नहीं है कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे आदर्श और मूल्य बेमानी हैं, अगर न्यूज मीडिया लोगों को सच बताने के लिए तैयार नहीं है. मानवाधिकार संगठन यही सवाल तो उठा रहे हैं कि लोगों को सीमा आज़ाद या सोनी सोरी या प्रशांत राही के मामलों में पूरी सच्चाई बताने के लिए अखबारों/चैनलों को आगे आना चाहिए?
सवाल यह है कि क्या आम लोगों को यह जानने का हक नहीं है कि सीमा आज़ाद का ‘अपराध’ क्या है कि उन्हें आजीवन कारावास जैसी उच्चतम सजा दी गई है? याद रहे कि पत्रकारिता की आत्मा या सत्व स्वतंत्र छानबीन, जांच-पड़ताल और खोजबीन के जरिये सच तक पहुँचना है.
अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट मीडिया की पत्रकारिता ने छानबीन, जांच-पड़ताल और खोजबीन का जिम्मा पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों को सौंप दिया है और वे सिर्फ उसके प्रवक्ता भर बनकर रह गए हैं.
ऐसे में, कारपोरेट मीडिया और उसकी पत्रकारिता को यह याद दिलाना बेमानी है कि पत्रकारिता के उच्च आदर्शों और मूल्यों में एक महत्वपूर्ण मूल्य कमजोर और बेजुबान लोगों की आवाज़ बनना भी है. भारत जैसे देश में पत्रकारिता की यह भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यहाँ गरीबों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ बहुत मुश्किल से सुनाई देती है.

भारत जैसे अत्यधिक असमान और गैर बराबरी से भरे समाज में जहाँ गरीब और कमजोर लोगों को भांति-भांति के भेदभाव, उत्पीडन और जुल्म झेलने पड़ते हैं, वहाँ पत्रकारिता से स्वाभाविक तौर पर यह अपेक्षा की जाती है कि वह उनकी आवाज़ बने और उनके खिलाफ हो रहे भेदभाव, उत्पीडन और जुल्मों को सामने लाये.

इसके बिना न तो एक बेहतर और बराबरी पर आधारित समाज संभव है और न ही वास्तविक जनतंत्र मुमकिन है. कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा दौर में जब गरीबों और कमजोर लोगों के मानवाधिकार सबसे ज्यादा संकट में हैं और उनपर हमले बढ़ रहे हैं तो एक जनपक्षधर न्यूज मीडिया और पत्रकारिता से यह अपेक्षा और उम्मीद और बढ़ जाती है कि वह कमजोर लोगों की आवाज़ बने, उनके मानवाधिकारों की रक्षा करे और सत्तातंत्र को निरंकुश होने से रोके.
लेकिन सवाल यह है कि क्या कारपोरेट मीडिया और उसके अखबार/चैनल जनपक्षधर रह गए हैं? सीमा आज़ाद का मामला एक और टेस्ट केस है और अफसोस और चिंता की बात है कि कारपोरेट मीडिया इसमें बुरी तरह से फेल होता दिख रहा है.
('कथादेश' के जुलाई'12 के अंक में इलेक्ट्रानिक मीडिया स्तम्भ में प्रकाशित टिप्पणी की आखिरी किस्त...आपकी बेबाक प्रतिक्रियाओं का इन्जार है...)

सोमवार, जुलाई 16, 2012

मानवाधिकारों के प्रति मीडिया की उदासी के मायने

मानवाधिकार हनन के बढते मामलों में मीडिया और चैनलों की चुप्पी का राज क्या है? 
पहली किस्त 

"पहले वे यहूदियों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं यहूदी नहीं था.

फिर वे मानवाधिकारवादियों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं मानवाधिकारवादी नहीं था.

फिर वे ट्रेड यूनियनवालों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन वाला नहीं था.

फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए

मैं कुछ नहीं बोला

क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था.

फिर वे मेरे लिए आए

और मेरे लिए बोलनेवाला कोई नहीं था.”

-    मार्टिन नीमोलर (हिटलर के दौर का जर्मन कवि)

इस चर्चित कविता को आप सबने कई बार पढ़ा-सुना होगा. कई कारणों से आज के भारत में यह छोटी सी कविता इतनी महत्वपूर्ण और जरूरी बन गई है कि उसे बार-बार पढ़ा और सुनाया जाना चाहिए. लेकिन लगता है कि समाचार माध्यमों खासकर न्यूज चैनलों के ज्यादातर संपादकों/पत्रकारों ने इसे नहीं पढ़ा/सुना है या भूल गए हैं.
अगर ऐसा नहीं होता तो वे देश में मानवाधिकार हनन के बढते मामलों पर ऐसे चुप नहीं होते. यह भी कि मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता सीमा आज़ाद और उनके पति विश्वविजय कमल को आजीवन कारावास की सजा पर खामोश नहीं रहते. सबसे बढ़कर इस फैसले के खिलाफ रोष जाहिर करने के लिए राजधानी दिल्ली में मानवाधिकार संगठनों और जाने-माने बुद्धिजीवियों की ओर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में सिर्फ तीन संवाददाता नहीं पहुँचते.
यही नहीं, जहाँ तक मेरी जानकारी है कि उस प्रेस कांफ्रेंस की रिपोर्ट ‘द हिंदू’ को छोडकर किसी अखबार में नहीं छपी और न ही किसी चैनल पर चली. छिछले से छिछले विषयों और मुद्दों पर घंटों महाबहस और चर्चा करनेवाले चैनलों पर इस मुद्दे का चलते-चलते भी कहीं जिक्र नहीं हुआ. गोया यह कोई मुद्दा ही नहीं हो. यह और बात है कि इस मुद्दे पर न्यू और सोशल मीडिया (ब्लॉग और फेसबुक आदि) पर खूब चर्चा हो रही थी और लोगों की प्रतिक्रियाएं आ रही थीं.

यही नहीं, मानवाधिकार संगठनों के अलावा बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से में इस फैसले पर खासी बेचैनी दिखी. कोई ३०० से ज्यादा बुद्धिजीवियों/लेखकों/पत्रकारों/संस्कृतिकर्मियों ने इस फैसले पर हैरानी, चिंता और नाराजगी जाहिर करते जारी करते हुए बयान जारी किया लेकिन उसे भी किसी अखबार या चैनल ने नोटिस लेने लायक नहीं समझा.

कहने की जरूरत नहीं है कि हिंदी के चैनलों और अधिकांश अखबारों के लिए हिंदी के लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी और उनकी राय कोई मायने नहीं रखती है. वे किसी भी मसले पर बोलें या राय रखें लेकिन चैनल और अखबार उसे टिकर पर चलाने या कोने-अंतरे में छापने लायक भी नहीं समझते हैं. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वे अपनी ही भाषा के बुद्धिजीवियों/लेखकों की कितनी कद्र करते हैं?
सच पूछिए तो समाचार माध्यमों खासकर हिंदी के समाचार माध्यम हिंदी के बुद्धिजीवियों/लेखकों से इतनी दूरी बरतते हैं कि उन्हें देखकर कहना मुश्किल है कि हिंदी क्षेत्र में बुद्धिजीवी/लेखक भी हैं. किसी बड़े और चर्चित लेखक की मौत के बाद ही पता चलता है कि हिंदी में ऐसा कोई लेखक भी था.
ऐसे में स्वाभाविक ही था कि लेखकों/संस्कृतिकर्मियों/बुद्धिजीवियों के हस्ताक्षरित बयान को चैनलों/अखबारों ने नोटिस लेने लायक नहीं माना. लेकिन असल सवाल यह नहीं है. मुद्दा यह है कि मुख्यधारा के अखबारों और चैनलों के लिए दो नौजवान मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं को ‘माओवादी’ बताकर फंसाने और फिर उन्हें आजीवन कारावास की सजा एक बड़ी खबर क्यों नहीं लगती है?

उन्हें क्यों नहीं लगता है कि इस मामले की गहराई से जांच-पड़ताल करने और मानवाधिकार संगठनों के आरोपों की छानबीन करके सच्चाई को सामने लाने के लिहाज से यह एक बड़ी ‘स्टोरी’ है? उन्हें सीमा आज़ाद का मामला भी विनायक सेन के मामले की तरह क्यों नहीं दिखता है जिसमें उन्होंने कुछ हद तक सक्रिय दिलचस्पी ली थी? उन्हें इस मामले में भी जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे मामलों की तरह ‘न्याय’ की हत्या क्यों नहीं दिखती है?

कहने की जरूरत नहीं है कि यह अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसे लेकर मुख्यधारा के न्यूज मीडिया में एक ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ दिखाई पड़ रही है. सीमा आज़ाद से पहले उत्तराखंड में पत्रकार प्रशांत राही को ‘माओवादी’ बताकर कई साल जेल में बंद रखा गया लेकिन चैनलों/अखबारों ने शायद ही इस मामले की कभी सुध ली हो.
वही नहीं, ऐसे दर्जनों स्थानीय पत्रकार/लेखक/संस्कृतिकर्मी/बुद्धिजीवी हैं जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में देश के अलग-अलग हिस्सों में ‘माओवादी साहित्य’ रखने के आरोप में या माओवादियों से संपर्क रखने या दूसरे फर्जी मामलों में गिरफ्तार करके लंबे समय तक जेल में रखा गया है.
आमतौर पर ९० फीसदी मामलों में उन पत्रकारों/लेखकों/बुद्धिजीवियों का गुनाह यह रहा है कि उन्होंने अपने इलाकों में माओवाद से लड़ने के नामपर पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा निर्दोषों को सताए जाने और फर्जी मुठभेड़ों का पर्दाफाश करने और सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार हनन के मामलों का खुलासा और विरोध किया है.   
इस कारण वे स्थानीय पुलिस की आँख में चुभते रहे हैं. पुलिस खुन्नस में उन्हें सबक सिखाने के लिए फर्जी मामलों में फंसाती रही है. उनमें से कई को अपने इलाकों में विकास के नामपर अंधाधुंध विस्थापन और जल-जंगल-जमीन और खनिजों की लूट के विरोध की सजा के तौर पर फर्जी मामलों में फंसाया गया है. सीमा आज़ाद का मामला इस प्रवृत्ति का ही एक और प्रमाण है.

लेकिन एक मायने में यह पिछले मामलों से अलग और चिंतित करनेवाला भी है. इस बार पुलिस की कार्रवाई पर स्थानीय अदालत ने भी न सिर्फ मोहर लगा दी है बल्कि यू.ए.पी.ए कानून के तहत आजीवन कारावास की सजा सुना दी है. इससे पहले के मामलों में आमतौर पर अदालतों में फर्जी पुलिसिया कार्रवाइयां ठहर नहीं पाई हैं. लेकिन यह एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति है जब अदालतें भी सच देखने से इनकार कर रही हैं.

उल्लेखनीय है कि पत्रकार और ‘दस्तक’ पत्रिका की संपादक, सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता (पी.यू.सी.एल की सचिव) सीमा आज़ाद और उनके पति और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता विश्वविजय कमल को इलाहाबाद की निचली अदालत ने बीते ८ जून को प्रतिबंधित सी.पी.आई (माओवादी) का सदस्य होने, अपने पास माओवादी साहित्य रखने, राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसे आरोपों में दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास और २० हजार रूपये के जुर्माने की सजा सुनाई है. उन्हें आई.पी.सी की धारा १२० बी, १२१, १२१ ए के अलावा आतंकवाद विरोधी क़ानून यू.ए.पी.ए के तहत सजा सुनाई गई है. दोनों पिछले ढाई सालों से अधिक समय से जेल में बंद हैं.
मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि दोनों को ६ फरवरी’२०१० को दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले में हिस्सा लेकर इलाहाबाद लौटने पर रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार किया गया. पी.यू.सी.एल के मुताबिक, दोनों को केन्द्र-राज्य की सरकारों की जनविरोधी नीतियों, पुलिसिया जुल्मों और मायावती सरकार की गंगा एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाओं के विरोध के कारण साजिशन फर्जी मामलों में फंसाया गया है.

मानवाधिकार संगठनों को लगता है कि यह पूरा मामला सीमा आज़ाद और विश्वविजय कमल जैसे मानवाधिकार और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं और पुलिसिया जुल्मों और जनविरोधी विकास योजनाओं के खिलाफ बोलने और लड़ने वाले लेखकों, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं-नेताओं को डराने और चुप कराने के लिए गढा गया है.

निश्चय ही, सीमा आज़ाद का मामला अकेला ऐसा मामला नहीं है. मानवाधिकार हनन के मामलों को उठानेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ता पहले भी सरकार और पुलिस के निशाने पर रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे मामलों की संख्या तेजी से बढ़ी है. ऐसे अनगिनत मामले हैं जिनमें मानवाधिकार और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को केन्द्र-राज्य सरकारों की शह पर पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने उत्पीडित किया है, उन्हें फर्जी मामलों में फंसाकर जेल में बंद रखा है, उनपर थर्ड डिग्री पुलिसिया जुल्म-यातना का इस्तेमाल किया है और कुछेक मामलों में तो उनकी हत्या तक करवा दी है.
इसी कारण बहुतों को लगता है कि अघोषित इमरजेंसी से जैसे हालात बनते जा हैं जिसमें अपने हक और बुनियादी बदलाव के लिए लड़नेवालों के साथ-साथ उनके प्रति सहानुभूति रखनेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को सत्तातंत्र द्वारा निशाना बनाया जा रहा है.
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस/ख़ुफ़िया एजेंसियों की यह शत्रुता उन इलाकों में सबसे ज्यादा दिखी है जहाँ भारतीय राज्य को क्रांतिकारी वामपंथी आन्दोलनों (नक्सली/माओवादी धारा) या अलगाववादी आन्दोलनों (कश्मीर/उत्तर पूर्व/पंजाब) या नव उदारवादी आर्थिक नीतियों पर आधारित विकास योजनाओं के खिलाफ चल रहे जनतांत्रिक आन्दोलनों (जल-जंगल-जमीन और खनिजों की कारपोरेट लूट विरोधी आंदोलन) से कड़ी चुनौती मिली या मिल रही है और राज्य द्वारा उसे सैन्य ताकत से कुचलने की कोशिश के कारण युद्ध से हालात बन गए या बने हुए हैं.

('कथादेश' पत्रिका के जुलाई'12 अंक में प्रकाशित स्तम्भ...यह पहली किस्त है..कल दूसरी किस्त लेकिन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा)