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मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

बी एच यू की यह गहन है अंध कारा

लेकिन छात्राओं की एकजुटता और विरोध ने बी.एच.यू परिसर को जकड़े सामंती-पितृसत्तात्मक वर्चस्व को खुली चुनौती दी है 

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) एक बार फिर गलत कारणों से सुर्ख़ियों में है. ऐसे समय में जब दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ देश भर में खासकर जे.एन.यू और दिल्ली विश्वविदयालय जैसे परिसरों में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी, बराबरी और अधिकारों के मुद्दों पर युवा और छात्र-छात्राएं सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन कर रहे हैं, उस समय बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उसका विरोध करने पर उन्हें खुलेआम डराने-धमकाने की शर्मसार करनेवाली खबर का आना इस विश्वविद्यालय के मेरे जैसे लाखों पूर्व और मौजूदा छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के लिए गहरे क्षोभ और चिंता की बात है.
लेकिन उससे अधिक निराश और परेशान करनेवाली खबर यह है कि छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उन्हें डराने-धमकाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन उनके आगे लाचार दिखाई दे रहे हैं.

आरोप है कि आरोपी छात्रों का संबंध समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन- समाजवादी छात्र सभा से है और उन्हें अखिलेश यादव सरकार के एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री का आशीर्वाद हासिल है. आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन अपराधियों को संरक्षण और इस मामले की लीपापोती करने में जुटे हैं.

लेकिन अच्छी खबर यह है कि लंबे समय बाद पहली बार विश्वविद्यालय की छात्राएं परिसर के अंदर छेड़खानी और दुर्व्यवहार के खिलाफ न सिर्फ एकजुट होकर सड़कों पर उतरीं बल्कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्राओं और महिला शिक्षकों-कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए महिला सेल और २४ घंटे की हेल्पलाइन गठित करने पर मजबूर किया है.
ताजा घटना में सबसे अधिक उत्साहित और आश्वस्त करनेवाली बात यही है. असल में, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के छेड़खानी और दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं है लेकिन छात्राओं ने इसबार इसे चुपचाप बर्दाश्त करने के बजाय जिस तरह से एकजुट होकर इसका विरोध किया है और सड़कों पर उतरकर अपना गुस्सा जाहिर किया है, वह नई परिघटना है.
निश्चय ही, छात्राओं के इस साहस और उनकी एकजुटता के पीछे देश भर में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है. इससे इस ऐतिहासिक परिसर में स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित एक लोकतांत्रिक संस्कृति के विकास में रोड़ा बनी सामंती-पितृसत्तात्मक जकड़नों के टूटने की उम्मीद बढ़ी है.

दरअसल, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ हुई दुर्व्यवहार की घटना का गहरा संबंध इस और उत्तर और पूर्वी भारत के अधिकांश परिसरों में जड़ जमाये सामंती-पितृसत्तात्मक ढाँचे और संस्कृति से है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति में स्त्रियों की जगह हमेशा से दोयम दर्जे की और घर की चाहरदीवारी के अंदर रही है.

आश्चर्य नहीं कि ज्ञान के इन ‘आधुनिक’ परिसरों में भी छात्राओं को सुरक्षा के नामपर न सिर्फ महिला महाविद्यालयों और छात्रावासों की चाहरदीवारी (घेट्टो) में बंद रखा जाता रहा है बल्कि उन्हें अनेकों घोषित-अघोषित पाबंदियों का सामना करना पड़ता रहा है. यही नहीं, इन परिसरों में प्रभावशाली उच्च जातियों के जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंगों-अपराधियों का बोलबाला रहा है.
इन जातिवादी गिरोहों को न सिर्फ अध्यापकों के एक हिस्से का बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन का भी समर्थन और संरक्षण मिलता रहा है. नतीजा यह कि इन जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंग-अपराधियों ने न सिर्फ छात्र राजनीति और छात्रसंघों पर कब्ज़ा कर रखा है बल्कि अध्यापक और कर्मचारी संघों पर भी उनका दबदबा रहा है.
यहाँ तक कि इन परिसरों में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश कुलपतियों की नियुक्ति में भी इन जातिवादी-सामंती लाबियों की सक्रिय और सीधी भूमिका होती है. बी.एच.यू परिसर भी इसका अपवाद नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद पिछले एक दशक से ज्यादा समय से परिसर में पूर्वांचल की एक प्रभावशाली जाति के कुलपति ही नियुक्त हो रहे हैं. इस तरह परिसर में इन सामंती-जातिवादी गिरोहों का दबदबा बना हुआ है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार करनेवाले लम्पटों का संबंध भी इन गिरोहों से है.

असल में, ये सामंती-जातिवादी गिरोह परिसर में अपना दबदबा और आतंक बनाए रखने के लिए न सिर्फ छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार करते हैं बल्कि आम छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ भी आए दिन मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करते रहते हैं. इनके निशाने पर खासकर छात्राएं, दलित-पिछड़े और दूसरे प्रान्तों से आए छात्र रहते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ महीने पहले परिसर में अध्यापकों के साथ मारपीट और आगजनी करनेवालों में भी यही लम्पट-अपराधी शामिल थे. लेकिन परिसर में छात्र राजनीति खासकर वाम छात्र संगठनों की गतिविधियों को सख्ती से कुचलनेवाला विश्वविद्यालय प्रशासन इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई से बचता रहा है.
इसके कारण यह परिसर आतंक और डर का एक ‘गहन अंध कारा’ बनकर रह गया है. स्वाभाविक तौर पर परिसर में हाल के वर्षों में छात्राओं की संख्या बढ़ने के बावजूद उन्हें वह आज़ादी हासिल नहीं है कि वे परिसर में अकेले बेख़ौफ़ घूम सकें, लाइब्रेरी या क्लास या कैफेटेरिया या खेल के मैदान या पार्क में आ-जा सकें और परिसर की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा ले सकें.

यही कारण है कि आमतौर पर छात्राएं समूह में निकलती हैं, हमेशा डरी-सहमी रहती हैं, शाम ढलने से पहले छात्रावासों में बंद हो जाती हैं और विश्वविद्यालय की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा नहीं ले पाती हैं. 

लेकिन इस परिसर में छात्राओं की एकजुटता और विरोध से एक नई उम्मीद पैदा हुई है. इससे सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति का किला दरकने लगा है. अच्छी खबर यह भी है कि इसे अध्यापकों, शहर के बुद्धिजीवियों-लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का समर्थन भी मिलने लगा है.
मुझे उम्मीद है कि मेरे इस प्रिय विश्वविद्यालय को आक्टोपस की तरह जकड़े सामंती-अपराधी गिरोहों से वहां के आम विद्यार्थी खासकर बहादुर छात्राएं मुक्त कराएंगी.
आमीन.
('इंडिया टुडे' के 13 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण)                                

शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

छात्र-युवा आंदोलन की पुनर्वापसी के मायने

छात्रसंघ और छात्र-युवा आन्दोलन लोकतान्त्रिक राजनीति के प्राण-वायु हैं

दिल्ली गैंग रेप और महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के खिलाफ देश भर खासकर दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन में छात्रों-युवाओं की सक्रिय, सचेत और नेतृत्वकारी भूमिका को सबने नोटिस किया है. इस बर्बर और शर्मनाक घटना के विरोध में जिस तरह से दिल्ली की सड़कों खासकर मुख्यमंत्री निवास-रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट और फिर जंतर-मंतर पर छात्रों-युवाओं का गुस्सा फूटा और पुलिस की ओर से हुए लाठीचार्ज, आंसूगैस और ठन्डे पानी की बौछारों के बावजूद वे डटे रहे, उसने सत्ता प्रतिष्ठान और समूचे राजनीतिक वर्ग को हिला कर रख दिया है.  
हालाँकि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में छात्र-युवाओं के इस तरह से सड़क पर उतरने और विरोध करने की तुलना ‘फ्लैश मॉब’ से करके उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है लेकिन सच यह है कि इसने ६० से लेकर ८० के दशक तक के छात्र-युवा आंदोलनों के तूफानी दौर और जज्बे की याद दिला दी है.

यह एक मायने में राष्ट्रीय जीवन और परिदृश्य से गायब से हो गए छात्र-युवा आंदोलन के पुनर्रूज्जीवन और वापसी का संकेत भी हो सकता है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मंडल-मंदिर से विभाजित और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के तड़क-भड़क से प्रभावित छात्र-युवा आंदोलन काफी कमजोर हो गया था और उसकी धमक क्षीण सी हो गई थी.

यही नहीं, शासक वर्गों ने छात्र-युवा आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर में खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों/कालेजों में पहले छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया और फिर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के जरिये छात्रसंघों को कमजोर, अराजनीतिक और पालतू बनाने की कोशिश की.
इसकी वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर कांग्रेस पार्टियों की केन्द्र सरकार रही हो या राज्य सरकारें सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आन्दोलनों से डरती रही हैं क्योंकि ६० से ८० के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देनेवाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.
इसके अलावा छात्र-युवा आन्दोलनों को कमजोर करने में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और उनके जेबी छात्र-युवा संगठनों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है. इन सत्तारुढ़ पार्टियों ने अपने छात्र-युवा संगठनों को केवल राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ और गुंडागर्दी करने के लिए इस्तेमाल किया है.

नतीजा सामने है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण और उसे धर्मों, जातियों, क्षेत्रों और भाषाओँ के आधार पर बांटने में इन शासक पार्टियों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण ने उसे आम छात्र-युवाओं और उनके वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया और इसके कारण छात्र-युवाओं का बड़े पैमाने पर अराजनीतिकरण हुआ.  

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों से देश में इक्का-दुक्का और क्षेत्र विशेष तक सीमित छात्र-युवा आन्दोलनों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर छात्र-युवा आंदोलन की धमक नहीं सुनाई दी है. ऐसा लगने लगा था, जैसे छात्र-युवा आंदोलन इतिहास की बात हो गए हों. लेकिन २०१० में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्र-युवाओं की बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी ने छात्र-युवा आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की नई उम्मीदें पैदा कर दीं.
इसी दौरान आइसा जैसे रैडिकल-वाम और कुछ दूसरे वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों के संघर्षों के दबाव में जे.एन.यू से लेकर इलाहाबाद और पटना तक कई विश्वविद्यालयों में इस साल छात्रसंघों के चुनाव हुए और उसमें आइसा और अन्य वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों की जीत हुई.
इसका असर हमारे सामने है. दिल्ली के बर्बर गैंग रेप के बाद विरोध में सबसे पहले वाम छात्र संगठनों की अगुवाई वाला जे.एन.यू छात्रसंघ उतरा. उसने मुनीरका और वसंत विहार में बाहरी रिंग रोड को घंटों जाम रखा.

उसके अगले दिन आइसा-आर.वाई.ए-एपवा की अगुवाई में जे.एन.यू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर पर जोरदार प्रदर्शन किया जिसपर पुलिस ने वाटर कैनन से ठंडे पानी की बौछारें छोडीं और लाठीचार्ज किया. लेकिन नाराज छात्र-युवा पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं हुए.

मुख्यमंत्री निवास पर छात्र-युवाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई को पूरे देश ने न्यूज चैनलों पर देखा. इसके बाद तो जैसे लोगों खासकर छात्र-युवाओं के सब्र का बाँध टूट पड़ा. रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई.
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे छात्र-युवाओं खासकर छात्राओं ने एक तरह से राजधानी में सत्ता के केन्द्रों को घेर लिया. पुलिस के लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन के बावजूद वे पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इंडिया गेट पर तो पुलिस ने हद कर दी जहाँ शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों खासकर छात्राओं-महिलाओं तक पर लाठियां चलाने में उसे कोई संकोच और शर्म महसूस नहीं हुई.
लेकिन इस दमन से यह आंदोलन कमजोर नहीं हुआ बल्कि पूरे देश में फ़ैल चुका है. इस आंदोलन में छात्रों-युवाओं खासकर महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी और उसके कारण बने जन-दबाव का ही नतीजा है कि इसने एक झटके में महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे पर ला खड़ा किया है.

केन्द्र और राज्य सरकारों से लेकर सभी राजनीतिक दलों की नींद टूट गई है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाले यौन हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से लेकर पुलिस को चुस्त और संवेदनशील बनाने, हेल्पलाइन शुरू करने जैसे फैसले-वायदे लिए जा रहे हैं.

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस मुद्दे पर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा-एपवा जैसे संगठनों ने विरोध की पहल नहीं की होती और दिल्ली सहित पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में छात्र-युवा सड़कों पर नहीं निकले होते तो क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों की नींद खुलती?
दिल्ली गैंग रेप अपनी सारी बर्बरता के बावजूद क्या बलात्कार का एक और मामला बनकर पुलिस-कोर्ट तक सीमित नहीं रह जाता? क्या महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा का सवाल हाशिए से राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ पाता? क्या महिलाओं के विभिन्न मुद्दों पर देश भर में शुरू हुई बहस और उससे पैदा हो रही सामाजिक जागरूकता संभव हो पाती?
कहने का गरज यह कि छात्र-युवा आंदोलन और छात्रसंघ किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के प्राणवायु हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उनपर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आन्दोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के तबके मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि देश के अधिकांश राज्यों में विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यहाँ तक कि बी.एच.यू., जामिया और ए.एम.यू जैसे कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में न सिर्फ छात्रसंघों के चुनाव प्रतिबंधित हैं बल्कि वहां छात्र संगठनों की गतिविधियों और सभा-चर्चाओं तक पर भी रोक है. इस कारण पिछले वर्षों में छात्र-युवाओं की कई पीढ़ियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ और छात्र-युवा आंदोलन ठंडे से पड़ते गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को भारी नुकसान हुआ है. छात्र-युवा राजनीति का गला घोंट देने के कारण न सिर्फ नया नेतृत्व नहीं आ रहा है बल्कि उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद मजबूत हुआ है.

समय आ गया है जब छात्र-युवा आन्दोलनों के महत्व और उनकी भूमिका को देखते हुए न सिर्फ सभी विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव अनिवार्य किये जाएँ बल्कि छात्र-युवा राजनीति को भी प्रोत्साहित किया जाए.

छात्रों-युवाओं को भी सत्तारुढ़ पार्टियों के जेबी छात्र-युवा संगठनों और अपराधी छात्र-युवा नेताओं के बजाय रैडिकल बदलाव की राजनीति करनेवाले वैचारिक-राजनीतिक छात्र-युवा संगठनों को आगे बढ़ाना होगा. अन्यथा उनके छात्रसंघ की भी वही मूकदर्शक की भूमिका होगी जो मौजूदा आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की रही?

('दैनिक भास्कर' के 4 जनवरी के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण) 

रविवार, अक्टूबर 14, 2012

बी एच यू में ये क्या हो रहा है?

परिसर के लोकतंत्रीकरण के लिए छात्रसंघ है जरूरी


बी.एच.यू मेरे लिए देश के अन्य कई विश्वविद्यालयों की तरह एक और विश्वविद्यालय भर नहीं है. वह मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. जहाँ जाता हूँ, वह मेरे साथ चलता है. मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन नौ साल उस परिसर में ही गुजरे हैं, जहाँ मेरे कवि मित्र राजेन्द्र राजन के मुताबिक,
यही है वह जगह/
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव/
हमउमर की तरह आता है/
आंखों में आंखे मिलाते हुए..”
 
उस वसंत एक टुकड़ा अभी मन के किसी कोने में जवान है.
लेकिन पिछले कुछ महीनों से बी.एच.यू से आ रही खबरों ने बेचैन कर दिया है. सुना है कि परिसर में आपातकाल के से हालत हैं. छात्रों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच संवादहीनता की दीवार सी बन गई है. प्राक्टोरियल बोर्ड के रूप में परिसर का सैन्यीकरण चरम पर पहुँच गया है.

छात्रसंघ के सीधे चुनाव वर्षों से बंद हैं और उसकी जगह एक जेबी छात्र परिषद खड़ी करने की कोशिश जारी है. परिसर में राजनीतिक चर्चा, बहस और संवाद प्रतिबंधित सा है. हर विरोध को डंडे और निष्कासन/निलंबन की नोटिस से दबाने का नियम सा बन गया है. विश्वविद्यालय की अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी है जो छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों की जासूसी करती है.  

मेरे लिए यह जानना तो अकल्पनीय सा है कि स्वतंत्रता आंदोलन के उस परिसर में छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों को बोलने, सवाल उठाने और विरोध करने की मौलिक आज़ादी नहीं है, जहाँ मैंने अपनी आवाज़ पाई, विरोध और सवाल करने का सलीका और जनतंत्र को जीना सीखा?

मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि विश्वविद्यालय परिसर है या जेल? हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे दमघोंटू और अविश्वास से भरे माहौल में परिसर से हिंसा, आगजनी, मारपीट और उपद्रव की निराश करनेवाली खबरें आ रही हैं. खासकर अध्यापकों के साथ मारपीट, गालीगलौज और उनके घरों में आगजनी की तो जितनी निंदा की जाए, कम है.
छात्र राजनीति गुंडागर्दी का लाइसेंस नहीं है. विरोध का मतलब हिंसा और आगजनी नहीं है. इससे छात्र आंदोलन की नैतिक सत्ता कमजोर होती है. छात्रों को ऐसे अपराधी, जातिवादी, अराजक तत्वों को पहचानना होगा और उन्हें छात्र आंदोलन से बाहर करना होगा.

इन तत्वों के कारण ही छात्रसंघ और छात्र आंदोलन बदनाम हुए और प्रशासन को उन्हें खत्म करने का मौका मिला. लेकिन बी.एच.यू प्रशासन को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है. परिसर की हिंसा और अशांति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी उसी की बनती है.

आखिर छात्रसंघ के गठन से कौन डर रहा है? क्या यह सच नहीं है कि छात्रसंघ-शिक्षक संघ का सबसे अधिक विरोध विश्वविद्यालय प्रशासन के भ्रष्ट अफसर करते हैं? उन्हें हमेशा अपने भ्रष्ट कारनामों के खुलासे और मनमानी पर ऊँगली उठने का डर सताता रहता है.
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद छात्रसंघ के गठन और उसके सीधे चुनाव से परहेज क्यों है? मेरी राय में, छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि छात्रसंघ छात्रों का मौलिक अधिकार है. वह जनतंत्र की पाठशाला है. यह परिसर के लोकतंत्रीकरण की अनिवार्य शर्त है. विश्वविद्यालय पर पहला हक छात्रों और अध्यापकों का है. विश्वविद्यालय के संचालन में अध्यापकों के साथ-साथ छात्रों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.

क्या यह जनतांत्रिक तरीके से चुने गए छात्र और शिक्षक प्रतिनिधियों के बिना संभव है? सच पूछिए तो आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है.

आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.
इसके बजाय जो लोग छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताते नहीं थकते है, वे सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?
तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी तैयार करने में मदद मिलती है.

क्या वह समय नहीं आ गया है जब बी.एच.यू एक बार फिर से देश के सामने एक बेहतरीन छात्रसंघ के साथ परिसर के लोकतंत्रीकरण का नया आदर्श पेश करे?
आखिर मेरी स्मृतियों में विश्वविद्यालय का आज़ाद वसंत गुनगुनाता रहता है, कविगुरु रबीन्द्रनाथ के मुताबिक, “जहाँ उड़ता फिरे मन बेख़ौफ़/
और सिर हो शान से उठा हुआ/
जहाँ इल्म हो सबके लिए बे रोक टोक/
बिना शर्त रखा हुआ...जहाँ दिलो दिमाग तलाशे नए नए ख्याल और उन्हें अंजाम दे/ ऐसी आजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन (या विश्वविद्यालय) की हो नयी सुबह.”
आमीन.

('दैनिक हिन्दुस्तान', वाराणसी में 14 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी) 

गुरुवार, अगस्त 16, 2012

संघर्ष का नया मुहावरा गढ़ती युवा पीढ़ी की बेचैनी को समझिए

युवाओं के सपनों से खिलवाड़ करती शिक्षा व्यवस्था 

आज के युवा की तस्वीर इकहरी नहीं है. वह एक तरह का कोलाज है जिसमें धूसर, सीपिया और श्वेत-श्याम तस्वीरों के बीच कुछ रंगीन तस्वीरें भी हैं. इसमें गांव का युवा भी है और शहर का युवा भी है. इसमें खेती-किसानी से बाहर हर छोटे-बड़े मौके के लिए हाथ-पैर मारता गवईं युवा भी है तो भारत से बाहर ग्रीन कार्ड और सिलिकान वैली के सपने देखता यूथ भी है. इन दोनों छोरों के बीच छोटे शहरों और कस्बों का वह युवा भी है जो आसमान छूते सपनों और कमतर होते मौकों के बीच पैर टिकाने की जद्दोजहद में जुटा है.
इन सबमें कई बातें एक जैसी हैं. वे सभी सपनों और उम्मीदों से भरपूर हैं. महत्वाकांक्षी हैं. बेचैन हैं. आत्मविश्वास से भरे हैं. कुछ नया और अलग करना चाहते हैं. लेकिन कुछ फर्क भी हैं. इनमें से एक बहुत छोटे हिस्से को वह उच्च शिक्षा मिल पा रही है जो बड़े मौकों के रास्ते खोलती है.

लेकिन युवाओं के बहुत बड़े हिस्से को मिल रही शिक्षा उन्हें कहीं नहीं ले जा रही है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में ६० फीसदी विश्वविद्यालयों और ८० फीसदी कालेजों से पास ग्रेजुएट ‘अन-इम्प्लायबल’ हैं यानी उनके पास कोई कौशल और दक्षता नहीं है. वे आफिस के मामूली कामों- नोटिंग, ड्राफ्टिंग, चिट्ठी-पत्री आदि करने में भी सक्षम नहीं है.

यह हाल तब है जब देश में कालेज और यूनिवर्सिटी जानेवाली उम्र के युवाओं में सिर्फ १५ फीसदी को ही कालेज या यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल पाता है. यह सचमुच एक त्रासदी है जो आज के युवा भारत को युवा सपनों की भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार है.
याद रहे, भारत आज दुनिया के सबसे युवा देशों में है जहाँ की आबादी में २५ साल से कम की उम्र वाले युवाओं की संख्या ५० फीसदी और ३५ वर्ष से कम की उम्र वाले युवाओं की आबादी ७० फीसदी के आसपास है.
आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, जिस देश की भी आबादी में युवाओं की संख्या आधी से ज्यादा पहुँच जाती है, वे देश तेजी से आर्थिक तरक्की करते हैं. शर्त सिर्फ यह है कि देश उन युवाओं की उर्जा को रचनात्मक कामों में लगाने के लिए उपयुक्त नीतियों के साथ तैयार हो.

लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश की यह युवा शक्ति सामाजिक उथल-पुथल और अराजकता का बायस भी बन सकती है. मध्य पूर्व के देशों से लेकर पड़ोस में जारी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल का उदाहरण सबके सामने है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय युवा में बहुत धैर्य है, उसमें आत्मविश्वास भी बहुत है और विपरीत परिस्थितियों में खड़ा रहने का हौसला भी है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि वह बहुत बेचैन है, वह और इंतज़ार करने के लिए तैयार नहीं है और वह एक बेहतर कल की मांग कर रहा है.

अन्ना हजारे के आंदोलन में बड़ी संख्या में निकले युवाओं में यह बेचैनी और गुस्सा साफ़ देखा जा सकता है. इस आंदोलन ने यह भ्रम भी दूर कर दिया कि आज के भारतीय युवा को ‘आई-मी-माईसेल्फ’ से आगे कुछ नहीं दिखता है, वह ‘आई हेट पोलिटिक्स’ जनरेशन का है, वह अपने ही में सिमटा और सीमित है और उसमें कोई आदर्श आदि नहीं बचा है.

हकीकत यह है कि आज की युवा पीढ़ी ‘सामाजिक-राजनीतिक एक्टिविज्म’ और संघर्ष का अपना नया मुहावरा गढ़ रही है. वह रुढियों को तोड़ रही है, बन्धनों से बाहर निकल रही है और आज़ाद ख्याल है. उसकी आज़ादी और नए ख्याल बहुतों को डरा रहे हैं.

लेकिन आज जरूरत उससे डरने की नहीं बल्कि उसके साथ संवाद की है. उसे मौके देने की जरूरत है. उसे भरोसा देने की जरूरत है. उसके साथ खड़ा होने और चलने की जरूरत है. वही हमारी-आपकी-सबकी आज़ादी को मुक्कमल बनायेंगे.

('दैनिक भाष्कर' के मधुरिमा परिशिष्ट में 15 अगस्त को प्रकाशित आलेख)

सोमवार, मार्च 05, 2012

जे.एन.यू छात्रसंघ में आइसा की जीत के मायने

छात्र-युवा एक नई संघर्षशील वाम राजनीति में उम्मीदें देख रहे हैं

उत्तर प्रदेश समेत पांच विधानसभाओं के नतीजों के बाबत एक्जिट पोल के अनुमानों से तेज हो गए कयासों और चर्चाओं के बीच देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू) में हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों को अनदेखा करना मुश्किल है.
चार साल के अंतराल के बाद हुए इन चुनावों में सी.पी.आई-एम.एल (लिबरेशन) से संबद्ध आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) ने माकपा-भाकपा के छात्र संगठनों- एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ के गठबंधन के साथ-साथ कांग्रेस की एन.एस.यू.आई और संघ परिवार से संबद्ध ए.बी.वी.पी को भारी अंतर से पछाड़ते हुए सभी पदों पर जीत दर्ज की है.

इन नतीजों से साफ़ है कि जे.एन.यू छात्रसंघ चुनाव में यह एक तरह से आइसा की सुनामी थी जिसमें उसके सभी राजनीतिक विरोधी बह से गए. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आइसा की अध्यक्ष पद की उम्मीदवार सुचेता डे ने कुल पड़े वोटों का लगभग ५० फीसदी हासिल किया और उनकी जीत का अंतर १३५१ वोटों का रहा.
यह इस मायने में चौंकानेवाला है कि जे.एन.यू छात्रसंघ चुनाव पूरी तरह से राजनीतिक और वैचारिक लाइनों पर लड़े जाते हैं बल्कि उसमें हमेशा कांटे का मुकाबला रहता है.

यही नहीं, देश की शायद ही कोई राजनीतिक-वैचारिक धारा - संसदीय मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से लेकर वाम धारा के सभी संगठनों तक और अस्मिता की राजनीति से लेकर अराजकतावादियों तक हो जो जे.एन.यू छात्रसंघ चुनावों में हिस्सा न लेती हो.
लेकिन इस बार जे.एन.यू के छात्रों ने निर्णायक रूप से क्रांतिकारी वाम धारा के संगठन आइसा के पक्ष में जनादेश दिया है. यह सही है कि नब्बे के दशक में जे.एन.यू कैम्पस में सक्रिय हुई आइसा ने पिछले २० वर्षों में खुद को इस कैम्पस के एक मजबूत संगठन के बतौर स्थापित कर लिया है. वह पिछले कई चुनावों से जीतती भी आ रही है.

यहाँ तक कि चार साल पहले जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर देश भर में छात्रसंघ चुनावों को लिंगदोह समिति की सिफारिशों के मुताबिक कराने को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद चुनाव स्थगित हो गए थे, उस समय भी आइसा ने छात्रसंघ में चारों पदों पर जीत हासिल की थी. यह भी सही है कि जे.एन.यू वामपंथी राजनीतिक का गढ़ रहा है और पिछले दो दशकों से इक्का-दुक्का मौकों को छोडकर मुख्य मुकाबला आइसा और एस.एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ के गठबंधन के बीच होता रहा है.
लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि इस वामपंथी गढ़ में भगवा छात्र संगठन- ए.बी.वी.पी और कांग्रेसी एन.एस.यू.आई के घुसपैठ को रोकने और उसे वाम गढ़ बनाए रखने की अगुवाई आइसा को हाथों में आ गई है.

यही नहीं, जे.एन.यू में अब वाम राजनीति की मुख्य प्रतिनिधि और आवाज़ आइसा बन गई है. पिछले कई चुनावों और खासकर इस चुनाव में माकपा-भाकपा के छात्र संगठनों- एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ को जितनी करारी शिकस्त झेलनी पड़ी है, वह वाम राजनीति में नए बदलावों का संकेत है.
यह इस मायने में बहुत महत्वपूर्ण है कि जे.एन.यू से यह नतीजा तब आया है जब देश में जबरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल है और वाम राजनीति हाशिए पर है. खासकर पश्चिम बंगाल और केरल में हार के बाद सरकारी वामपंथ- माकपा-भाकपा जिस तरह से लकवाग्रस्त सा हो गया है और राजनीतिक-वैचारिक दुविधाओं में फंसा हुआ है, वह देश भर में वाम समर्थकों को निराश करने वाला है.   

इस लिहाज से इस बार जे.एन.यू छात्रसंघ चुनाव के नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि वामपंथी राजनीति का भविष्य जनसंघर्षों और वाम के स्वतंत्र एसर्शन से जुड़ा हुआ है न कि बुर्जुवा संसदीय पार्टियों के साथ अवसरवादी जोड़तोड़ और उनकी पूंछ बनकर लटकने में.
मुश्किल यह है कि माकपा-भाकपा ने न सिर्फ जन संघर्षों का रास्ता छोड़ दिया है बल्कि पश्चिम बंगाल में तो वे जन संघर्षों को कुचलने की राह पर बढ़ गए. यही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में कभी सांप्रदायिक भाजपा को रोकने के नामपर माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा कांग्रेस के साथ खड़ा हो जाता है और कभी कांग्रेस से लड़ने के नामपर तेलुगु देशम, अन्नाद्रमुक से लेकर परोक्ष रूप से भाजपा के साथ खड़ा दिखता है.
यही नहीं, माकपा को पश्चिम बंगाल में उन्हीं नव उदारवादी नीतियों को बेशर्मी से लागू करती दिखाई पड़ी जिनके खिलाफ वह वैचारिक तौर पर लड़ने का नाटक करती है. कहने की जरूरत नहीं है कि माकपा के इन राजनीतिक विचलनों ने उन युवाओं को बहुत निराश किया है जो न सिर्फ बदलाव की राजनीति में भरोसा करते हैं बल्कि मानते हैं कि बदलाव की राजनीति वामपंथ के नेतृत्व में ही चलनी चाहिए.
दूसरी ओर, ये युवा माओवादियों के अराजक और वामपंथी दुस्साहसवाद से भी सहमत नहीं हैं. युवाओं का बड़ा तबका बंदूक के बजाय आम जनता के जनतांत्रिक संघर्षों की राजनीति में यकीन रखता है.
दरअसल, जे.एन.यू में आइसा का उभार इसी की राजनीतिक अभिव्यक्ति है. इसमें वामपंथी राजनीति के लिए स्पष्ट सन्देश है. वह यह कि वामपंथ से लोगों खासकर गरीबों, छोटे-मंझोले किसानों, खेतिहर मजदूरों, असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी अपेक्षा यह है कि वे न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ देश भर में जल, जंगल और जमीन को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए चल रहे संघर्षों की अगुवाई करें बल्कि इन नीतियों के कारण बढ़ रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लड़ाई में आगे रहें.

इसके अलावा लोग यह भी चाहते हैं कि वामपंथ एक नई समावेशी राजनीति को आगे बढ़ाए जिसमें अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक निषेध और भगवा राष्ट्रवाद के खुले नकार के साथ-साथ जन संघर्षों पर सबसे ज्यादा जोर हो.
यही नहीं, जे.एन.यू छात्रसंघ चुनाव के नतीजे कांग्रेस और भाजपा और उनकी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ भी जनादेश हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्र-युवाओं ने कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी की राजनीति को नकार दिया है.

याद रहे कि राहुल गाँधी ने पिछले कुछ सालों में जे.एन.यू में एन.एस.यू.आई को खड़ा करने के लिए ख़ासा जोर लगाया है लेकिन नतीजों से साफ़ है कि युवाओं ने यू.पी.ए सरकार को उसके भ्रष्टाचार और शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण के कारण नकार दिया है.
आइसा ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था और नतीजों से साफ है कि एन.एस.यू.आई को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है. इसके साथ ही आइसा ने भगवा राष्ट्रवाद और खासकर भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को लगातार निशाने पर रखा.
इस तरह जे.एन.यू से एक बिलकुल स्पष्ट राजनीतिक सन्देश आया है कि युवा एक नई वाम राजनीति में उम्मीदें देख रहे हैं. लेकिन अब आइसा के सामने इस सन्देश को पूरे देश में ले जाने की चुनौती है. जाहिर है कि यह जे.एन.यू में जीतने से बड़ी चुनौती है.
('नया इंडिया' और हिंदी के कई दैनिकों में प्रकाशित टिप्पणी...वैसे यह बहुत जल्दी में लिखी टिप्पणी है...कोशिश करूँगा कि जल्दी ही छात्र राजनीति पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखूं...लेकिन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.)