छात्र-युवा एक नई
संघर्षशील वाम राजनीति में उम्मीदें देख रहे हैं
उत्तर प्रदेश समेत पांच विधानसभाओं के
नतीजों के बाबत एक्जिट पोल के अनुमानों से तेज हो गए कयासों और चर्चाओं के बीच देश
के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
(जे.एन.यू) में हुए छात्रसंघ चुनाव के नतीजों को अनदेखा करना मुश्किल है.
चार साल
के अंतराल के बाद हुए इन चुनावों में सी.पी.आई-एम.एल (लिबरेशन) से संबद्ध आल
इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) ने माकपा-भाकपा के छात्र संगठनों-
एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ के गठबंधन के साथ-साथ कांग्रेस की एन.एस.यू.आई और संघ परिवार
से संबद्ध ए.बी.वी.पी को भारी अंतर से पछाड़ते हुए सभी पदों पर जीत दर्ज की है.
इन नतीजों से साफ़ है कि जे.एन.यू
छात्रसंघ चुनाव में यह एक तरह से आइसा की सुनामी थी जिसमें उसके सभी राजनीतिक
विरोधी बह से गए. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आइसा की अध्यक्ष पद
की उम्मीदवार सुचेता डे ने कुल पड़े वोटों का लगभग ५० फीसदी हासिल किया और उनकी जीत
का अंतर १३५१ वोटों का रहा.
यह इस मायने में चौंकानेवाला है कि जे.एन.यू छात्रसंघ
चुनाव पूरी तरह से राजनीतिक और वैचारिक लाइनों पर लड़े जाते हैं बल्कि उसमें हमेशा
कांटे का मुकाबला रहता है.
यही नहीं, देश की शायद ही कोई
राजनीतिक-वैचारिक धारा - संसदीय मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों से लेकर वाम धारा
के सभी संगठनों तक और अस्मिता की राजनीति से लेकर अराजकतावादियों तक हो जो
जे.एन.यू छात्रसंघ चुनावों में हिस्सा न लेती हो.
लेकिन इस बार जे.एन.यू के
छात्रों ने निर्णायक रूप से क्रांतिकारी वाम धारा के संगठन आइसा के पक्ष में जनादेश
दिया है. यह सही है कि नब्बे के दशक में जे.एन.यू कैम्पस में सक्रिय हुई आइसा ने
पिछले २० वर्षों में खुद को इस कैम्पस के एक मजबूत संगठन के बतौर स्थापित कर लिया
है. वह पिछले कई चुनावों से जीतती भी आ रही है.
यहाँ तक कि चार साल पहले जब सुप्रीम
कोर्ट के आदेश पर देश भर में छात्रसंघ चुनावों को लिंगदोह समिति की सिफारिशों के
मुताबिक कराने को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद चुनाव स्थगित हो गए थे, उस समय भी
आइसा ने छात्रसंघ में चारों पदों पर जीत हासिल की थी. यह भी सही है कि जे.एन.यू
वामपंथी राजनीतिक का गढ़ रहा है और पिछले दो दशकों से इक्का-दुक्का मौकों को छोडकर
मुख्य मुकाबला आइसा और एस.एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ के गठबंधन के बीच होता रहा है.
लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि इस वामपंथी गढ़ में भगवा छात्र संगठन- ए.बी.वी.पी
और कांग्रेसी एन.एस.यू.आई के घुसपैठ को रोकने और उसे वाम गढ़ बनाए रखने की अगुवाई
आइसा को हाथों में आ गई है.
यही नहीं, जे.एन.यू में अब वाम राजनीति
की मुख्य प्रतिनिधि और आवाज़ आइसा बन गई है. पिछले कई चुनावों और खासकर इस चुनाव
में माकपा-भाकपा के छात्र संगठनों- एस.एफ.आई-ए.आई.एस.एफ को जितनी करारी शिकस्त
झेलनी पड़ी है, वह वाम राजनीति में नए बदलावों का संकेत है.
यह इस मायने में बहुत
महत्वपूर्ण है कि जे.एन.यू से यह नतीजा तब आया है जब देश में जबरदस्त राजनीतिक
उथल-पुथल है और वाम राजनीति हाशिए पर है. खासकर पश्चिम बंगाल और केरल में हार के
बाद सरकारी वामपंथ- माकपा-भाकपा जिस तरह से लकवाग्रस्त सा हो गया है और
राजनीतिक-वैचारिक दुविधाओं में फंसा हुआ है, वह देश भर में वाम समर्थकों को निराश करने वाला है.
इस लिहाज से इस बार जे.एन.यू छात्रसंघ
चुनाव के नतीजों ने साफ़ कर दिया है कि वामपंथी राजनीति का भविष्य जनसंघर्षों और
वाम के स्वतंत्र एसर्शन से जुड़ा हुआ है न कि बुर्जुवा संसदीय पार्टियों के साथ
अवसरवादी जोड़तोड़ और उनकी पूंछ बनकर लटकने में.
मुश्किल यह है कि माकपा-भाकपा ने न
सिर्फ जन संघर्षों का रास्ता छोड़ दिया है बल्कि पश्चिम बंगाल में तो वे जन
संघर्षों को कुचलने की राह पर बढ़ गए. यही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में कभी
सांप्रदायिक भाजपा को रोकने के नामपर माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा कांग्रेस
के साथ खड़ा हो जाता है और कभी कांग्रेस से लड़ने के नामपर तेलुगु देशम, अन्नाद्रमुक
से लेकर परोक्ष रूप से भाजपा के साथ खड़ा दिखता है.
यही नहीं, माकपा को पश्चिम बंगाल में
उन्हीं नव उदारवादी नीतियों को बेशर्मी से लागू करती दिखाई पड़ी जिनके खिलाफ वह
वैचारिक तौर पर लड़ने का नाटक करती है. कहने की जरूरत नहीं है कि माकपा के इन
राजनीतिक विचलनों ने उन युवाओं को बहुत निराश किया है जो न सिर्फ बदलाव की राजनीति
में भरोसा करते हैं बल्कि मानते हैं कि बदलाव की राजनीति वामपंथ के नेतृत्व में ही
चलनी चाहिए.
दूसरी ओर, ये युवा माओवादियों के अराजक और वामपंथी दुस्साहसवाद से भी
सहमत नहीं हैं. युवाओं का बड़ा तबका बंदूक के बजाय आम जनता के जनतांत्रिक संघर्षों की
राजनीति में यकीन रखता है.
दरअसल, जे.एन.यू में आइसा का उभार इसी
की राजनीतिक अभिव्यक्ति है. इसमें वामपंथी राजनीति के लिए स्पष्ट सन्देश है. वह यह
कि वामपंथ से लोगों खासकर गरीबों, छोटे-मंझोले किसानों, खेतिहर मजदूरों, असंगठित
क्षेत्र के श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी
अपेक्षा यह है कि वे न सिर्फ नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ देश भर में जल,
जंगल और जमीन को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए चल रहे संघर्षों की अगुवाई करें
बल्कि इन नीतियों के कारण बढ़ रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लड़ाई में आगे रहें.
इसके अलावा लोग यह भी चाहते हैं कि
वामपंथ एक नई समावेशी राजनीति को आगे बढ़ाए जिसमें अस्मिताओं की संकीर्ण राजनीति का
सकारात्मक निषेध और भगवा राष्ट्रवाद के खुले नकार के साथ-साथ जन संघर्षों पर सबसे
ज्यादा जोर हो.
यही नहीं, जे.एन.यू छात्रसंघ चुनाव के नतीजे कांग्रेस और भाजपा और
उनकी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ भी जनादेश हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह
है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्र-युवाओं ने कांग्रेस के
युवराज राहुल गाँधी की राजनीति को नकार दिया है.
याद रहे कि राहुल गाँधी ने पिछले कुछ
सालों में जे.एन.यू में एन.एस.यू.आई को खड़ा करने के लिए ख़ासा जोर लगाया है लेकिन
नतीजों से साफ़ है कि युवाओं ने यू.पी.ए सरकार को उसके भ्रष्टाचार और शिक्षा के
निजीकरण और व्यवसायीकरण के कारण नकार दिया है.
आइसा ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था और
नतीजों से साफ है कि एन.एस.यू.आई को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है. इसके साथ ही
आइसा ने भगवा राष्ट्रवाद और खासकर भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति को लगातार निशाने
पर रखा.
इस तरह जे.एन.यू से एक बिलकुल स्पष्ट
राजनीतिक सन्देश आया है कि युवा एक नई वाम राजनीति में उम्मीदें देख रहे हैं. लेकिन
अब आइसा के सामने इस सन्देश को पूरे देश में ले जाने की चुनौती है. जाहिर है कि यह
जे.एन.यू में जीतने से बड़ी चुनौती है.
('नया इंडिया' और हिंदी के कई दैनिकों में प्रकाशित टिप्पणी...वैसे यह बहुत जल्दी में लिखी टिप्पणी है...कोशिश करूँगा कि जल्दी ही छात्र राजनीति पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखूं...लेकिन आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.)
2 टिप्पणियां:
सूर्योदय को कोई नहीं रोक सकता है.
काश आइसा इस लहर को पूरे देश में पैदा कर सकती! हम सभी ऐसा करने में योगदान देने के लिए तैयार हैं.
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