गुरुवार, मार्च 29, 2012

चुनाव और मीडिया

वोटरों को सचेत और सूचित करने के बजाय चैनल ताकतवर राजनीतिक दलों के औजार बन गए हैं

पहली किस्त

यह किसी से छुपा नहीं है कि समकालीन भारतीय राजनीति और चुनावों में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका दिन पर दिन बढ़ती जा रही है. इसका ताजा सबूत है उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव. इन दिनों न्यूज चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की गर्मी छाई हुई है.

इस चुनाव की जिस तरह से व्यापक कवरेज हो रही है, उससे ऐसा लगता है कि जैसे चैनल ही चुनावों के असली अखाड़े बन गए हैं. इसकी एक वजह यह भी है कि चुनाव आयोग के सख्त निर्देशों के कारण जमीन पर चुनाव प्रचार बहुत फीका हो गया है. इसलिए चुनाव प्रचार की जितनी गर्मी जमीन पर नहीं दिखाई पड़ रही है, उससे ज्यादा जोश, शोर, सनसनी और काटा-काटी चैनलों पर मची हुई है.

सच पूछिए तो इन चुनावों खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बड़ी राजनीतिक लड़ाई अगर राज्य के गांवों-कस्बों और शहरों की पगडंडियों-गलियों और सड़कों पर लड़ी जा रही है तो उससे कम बड़ी राजनीतिक लड़ाई चैनलों के स्टूडियो में छिड़ी बहसों-चर्चाओं, शहर-दर-शहर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे कार्यक्रमों और जनमत सर्वेक्षणों में नहीं लड़ी जा रही है. कोई भी पार्टी इसमें पीछे नहीं रहना चाहती है.

दरअसल, राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण और ऊँचे दांव वाली इस लड़ाई में राजनीतिक ‘हवा’, जन धारणाओं (पब्लिक परसेप्शन) और छवियों की भूमिका बहुत अहम हो गई है. सारी लड़ाई जनमत को अपने पक्ष में मोड़ने और इसके लिए अनुकूल जनमत तैयार करने की खातिर जन धारणाओं और छवियों को गढ़ने और तोड़ने-मरोड़ने की हो गई है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस लड़ाई का सबसे प्रमुख मंच मीडिया और उसमें भी न्यूज चैनल हो गए हैं. इस मायने में चैनल भी इस खेल के बहुत महत्वपूर्ण खिलाड़ी हो गए हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का एजेंडा तय करने से लेकर माहौल बनाने में उनकी भूमिका को अनदेखा करना मुश्किल है.
इन चुनावों में मीडिया के प्रभाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने एक ‘हवा’ बना दी है कि इसबार त्रिशंकु विधानसभा बन रही है और किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा. हालांकि यह सिर्फ एक राजनीतिक कयास भर है लेकिन पूरे प्रदेश में इसे एक ‘तथ्य’ की तरह मान्यता मिल गई है.


इसका असर यह हुआ है कि आप प्रदेश के किसी भी जिले या शहर में चले जाइए और पत्रकारों, शिक्षकों, वकीलों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से चुनावों के बारे में बात कीजिये तो वह छूटते ही कहेगा कि त्रिशंकु विधानसभा बनेगी और किसी को बहुमत नहीं मिलेगा. लेकिन उससे इस आकलन का आधार पूछिए तो हकलाने लगता है.

जाहिर है कि उसकी यह धारणा मीडिया रिपोर्टों और उन चुनावी सर्वेक्षणों के आधार पर बनी है जो २००७ के विधानसभा चुनावों के समय गलत साबित हो चुके हैं. हो सकता है कि २०१२ में यह कयास सही साबित हो लेकिन उतना ही संभव है कि यह एक बार फिर गलत साबित हो.

असल में, उत्तर प्रदेश भौगोलिक रूप से इतना बड़ा, क्षेत्रीय रूप से विभिन्नताओं से भरा, सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक रूप से विभिन्नतापूर्ण, असमान और बहुलतापूर्ण और राजनीतिक रूप से इतना जटिल राज्य है कि उसके राजनीतिक मिजाज और ‘हवा’ को पकड़ना इतना आसान नहीं है. उन लोगों के लिए तो यह और भी मुश्किल है जिनके पास राज्य के एक बड़े हिस्से का प्रत्यक्ष और जमीनी अनुभव नहीं है.

लेकिन यह मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का ही कमाल है कि उन्होंने पूरे राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की ‘हवा’ बना दी है. यही नहीं, मीडिया ने यह भी माहौल बना दिया है कि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सपा उभरेगी. बसपा दूसरे नंबर पर खिसक गई है और कांग्रेस-भाजपा तीसरे-चौथे स्थान की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसमें कांग्रेस लगातार ऊपर चढ़ रही है.


निश्चय ही, ये सिर्फ कयास हैं क्योंकि इनके पक्ष में जो राजनीतिक कारण और आधार बताये जा रहे हैं, उसके ठीक उलट उतने ही मजबूत राजनीतिक कारण और आधार हैं. चुनावी सर्वेक्षणों के बारे में जितना कहा जाए, कम है क्योंकि उनके बीच मुख्य निष्कर्ष पर सहमति होते हुए भी सीटों के आकलन में इतना फर्क है कि वे-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं.
चैनलों पर मौजूद विशेषज्ञों के बीच भी यही राग चल रहा है जो एक-दूसरे की तमाम बातों से असहमत होते हुए भी मूल निष्कर्ष पर सहमत हैं. इससे पूरे राज्य में एक राजनीतिक भ्रम और दुविधा की स्थिति बन गई है. इसका राजनीतिक फायदा किसे मिल रहा है, यह भी किसी से छुपा नहीं है.

लेकिन इससे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के बढ़ते प्रभाव का भी पता चलता है. असल में, जैसे-जैसे राजनीति अधिक से अधिक मीडिया चालित (मिडिएटेड) होती जा रही है यानी आमलोगों/वोटरों का राजनीति, उसके मुद्दों, राजनीतिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं/प्रतिनिधियों से सीधा और प्रत्यक्ष सम्बन्ध कम होता जा रहा है और वे राजनीति के बारे में मीडिया के जरिये देख-सुन-समझ रहे हैं, वैसे-वैसे मीडिया का लोगों/वोटरों पर प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है.

एक अर्थ में यह सत्ता की राजनीति के लोगों से कटते जाने, वोटरों से उसके सीधे संवाद के खत्म होते जाने और जोड़-तोड़, दांवपेंच और खरीद-फरोख्त पर निर्भर होते जाने का नतीजा है.


आश्चर्य नहीं कि इन चुनावों में भी वही पार्टियां मीडिया पर सबसे अधिक निर्भर हैं जिनके पास वोटरों से सीधे संवाद के लिए जमीनी संगठन और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कमी है. वे इस कमी को मीडिया के जरिये पूरी करने की कोशिश कर रहे हैं.

इसके लिए वे मीडिया को इस तरह से ‘मैनीपुलेट’ कर रहे हैं कि मीडिया उनके लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने से लेकर उनके पक्ष में जनमत बनाने में इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मीडिया इस खेल में कोई मासूम और निर्दोष खिलाड़ी है जिसका राजनीतिक पार्टियां अपने हितों के मुताबिक इस्तेमाल कर रही हैं.


जाहिर है कि पूंजीवादी लोकतंत्र में कोई भी चीज मुफ्त नहीं होती है. मीडिया तो बिलकुल भी मुफ्त नहीं है. मीडिया एक बिजनेस है और हर बिजनेस की तरह उसे भी मुनाफा चाहिए. यह ठीक है कि मीडिया और सत्ता राजनीति के बीच बिजनेस से ज्यादा गहरा रिश्ता है.
यह भी ठीक है कि मीडिया सत्ता संरचना का अभिन्न हिस्सा है और उसके व्यापक हित सत्ता और शासक वर्गों के साथ नाभिनालबद्ध रहे हैं. इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि सत्ता प्रतिष्ठान मीडिया का इस्तेमाल अपने हितों के अनुकूल जनमत बनाने और उसके जरिये लोगों को नियंत्रित करने के लिए करता रहा है.

(यह लेख मार्च के पहले सप्ताह में हिंदी पत्रिका "कथादेश" में छपा था. लेकिन चुनाव कवरेज का मुद्दा हमेशा प्रासंगिक रहेगा..यह पहली किस्त है...कल पढ़िए दूसरी किस्त)