क्या भारतीय अर्थव्यवस्था भी यूरोप के रास्ते पर बढ़ रही है?
एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और बाजारवादी सुधारों पर गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं और खासकर यूरोप और अमेरिका में आर्थिक संकट और गतिरुद्धता से निपटने में उसकी विफलता स्पष्ट होती जा रही है, उस समय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से निपटने के लिए नए बजट में एक बार फिर उसी अर्थनीति और पिटे हुए आर्थिक सुधारों पर भरोसा जताया है.
यह हैरान करनेवाला है. वित्त मंत्री से यह अपेक्षा थी कि वे महंगाई को काबू में रखते हुए न सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने के उपाय करेंगे बल्कि इस विकास का लाभ आम लोगों खासकर गरीबों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे.
लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने मान लिया कि महंगाई अब कोई बड़ी चुनौती नहीं रह गई है. दूसरा, महंगाई से निपटने के लिए उन्होंने मांग को नियंत्रित करने पर ज्यादा जोर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि उनका सारा ध्यान वित्तीय घाटे को कम करने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती पर रहा. इसके लिए उन्होंने बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की बढ़ोत्तरी से लेकर सब्सिडी में कटौती की तलवार चलाई है.
साफ़ है कि वे मानकर चल रहे हैं कि वित्तीय घाटे में कमी करने और इसके जरिये ब्याज दरों में कटौती का रास्ता साफ़ करने से निजी देशी-विदेशी कारपोरेट निवेश बढ़ेगा. इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी और एक बार तेज गति से दौड़ने लगेगी.
लेकिन क्या ऐसा होगा? पहली बात तो यह है कि इस समय जब बाजार में मांग पर पर पहले से ही दबाव है, उत्पाद और सेवा करों में वृद्धि और उर्वरक और पेट्रोलियम सब्सिडी में भरी कटौती के प्रस्ताव से महंगाई की आग और भड़क सकती है. इससे औद्योगिक वस्तुओँ की मांग में गिरावट का खतरा बढ़ गया है. इससे पहले से ही मंदी की मार झेल रहे औद्योगिक क्षेत्र पर दबाव और बढ़ जायेगा.
इस समय यूरोप में यही हो रहा है. वहाँ सरकारों ने मंदी और आर्थिक संकट से निपटने के लिए जिस तरह से किफ़ायतशारी के उपायों पर अत्यधिक जोर दिया, उसका नतीजा यह हुआ है कि मंदी और आर्थिक संकट और गहरा हो गया है.
लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने उससे कोई सबक नहीं लिया है. वह भी उन्हीं यूरोपीय सरकारों की राह पर चल रही है जिन्होंने वित्तीय घाटे को समस्या मानकर उसके इलाज के लिए आमलोगों को किफायतशारी की कड़वी दवा पिलाने की कोशिश की.
लेकिन सच्चाई यह है कि वित्तीय घाटा मर्ज नहीं है बल्कि मर्ज का लक्षण भर है. अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन से सरकार की आय घट गई और घाटा बढ़ गया. ऐसे में, इस मर्ज का इलाज अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को सुधारना होना चाहिए. ताजा आर्थिक समीक्षा भी मानती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन के कारण करों की उगाही पर बुरा असर पड़ा है जिससे घाटा बेकाबू हो गया है.
लेकिन अर्थव्यवस्था के खराब प्रदर्शन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण निवेश में आई गिरावट है. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था में निवेश २००७-०८ के जी.डी.पी के ३५ फीसदी की तुलना में घटकर मात्र ३० फीसदी रह गया है. निवेश में कमी की एक वजह लोगों की बचत में आई कमी भी है.
खुद आर्थिक समीक्षा मानती है कि बचत दर में आई कमी की एक प्रमुख वजह महंगाई है. कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो-ढाई वर्षों से ऊँची महंगाई दर ने न सिर्फ लोगों का बजट बिगाड़ दिया बल्कि उनकी बचत पर भी इसका बुरा असर पड़ा है. इससे मांग पर भी नकारात्मक असर पड़ा है.
ऐसे में, इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए जरूरी था कि सरकार निवेश को प्रोत्साहित करे. सच पूछिए तो इस मामले में प्रणब मुखर्जी और यू.पी.ए सरकार से एक साहसिक बजट की उम्मीद थी जो अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के लिए न सिर्फ साहसिक पहल करता बल्कि कुछ समय के लिए वित्तीय घाटे की चिंता को भूल जाता.
इस मामले में उसे कृषि, आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश के लिए आगे आना चाहिए था. लेकिन बजट में वित्त मंत्री ने योजना मद में १८ फीसदी की वृद्धि की है जो मौजूदा चुनौतियों के मुकाबले नाकाफी है.
असल में, वे यह मानकर चल रहे हैं कि निजी पूंजी निवेश के लिए आगे आएगी. सरकार का काम सिर्फ उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है. लेकिन यह एक बड़ा जोखिम है. अगर उनकी उम्मीद के मुताबिक निजी देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए आगे नहीं आई तो अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस सकती है.
साफ़ है कि देश के नीति-नियंताओं से लेकर आर्थिक मैनेजरों तक की आँख पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ऐसा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी में ही देश और अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल और मुक्ति दिखाई देती है. इस कारण उन्हें देश के अंदर मौजूद संभावनाएं नहीं दिखाई देती हैं या वे जान-बूझकर उससे आँखें मूंदे रहते हैं.
उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था में निवेश बढाने की चुनौती को ही लीजिए. यह कितना जरूरी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि चालू वित्तीय वर्ष में औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र ३.९ फीसदी रहने की उम्मीद है. पिछले साल भर में कई महीने औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक भी हो गई. इसमें भी खासकर पूंजीगत सामानों की उत्पादन दर लगातार कई महीने नकारात्मक रही है.
यह इस बात का सबूत है कि औद्योगिक क्षेत्र में नया निवेश नहीं हो रहा है. इसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. लेकिन निवेश न बढ़ने का सारा दोष ऊँची ब्याज दरों पर डाल कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच रही है.
ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था में निवेश की गुंजाइश नहीं है. अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों लेकिन खासकर कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सामाजिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की गुंजाइश और उससे बढ़कर भारी जरूरत है. सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था इसके लिए भूखी है. लेकिन निजी क्षेत्र इन क्षेत्रों में आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है. इसकी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था में मांग में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है.
सच यह है कि बिना मांग में वृद्धि और उसकी निरंतरता सुनिश्चित किये निजी पूंजी निवेश के लिए आगे नहीं आएगी. लेकिन अर्थव्यवस्था में मांग में वृद्धि के लिए जरूरी है कि लोगों को नए रोजगार मिलें और उनकी आय में वृद्धि हो. इसके लिए औद्योगिक और संरचनागत क्षेत्र में निवेश बढ़ाना अनिवार्य है.
लेकिन अगर निजी क्षेत्र विभिन्न कारणों से निवेश बढ़ाने में हिचकिचा रहा है तो यह जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी. यह देखा गया है कि जब निजी निवेश में ठहराव या गतिरोध हो तो सार्वजनिक निवेश में वृद्धि से निजी निवेश भी उत्साहित होता है.
लेकिन वित्त मंत्री का रोना है कि उसके पास संसाधन नहीं हैं और वित्तीय घाटा बढ़ रहा है. लेकिन यह आधा सच है. सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है बशर्ते अगर वह नव उदारवादी अर्थनीति के दबावों और वित्तीय घाटे के आब्शेसन से बाहर निकल सके.
तथ्य यह है कि केन्द्र सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रूपये से अधिक का नगद और बैंक जमा पड़ा हुआ है. सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि वित्त मंत्री बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और विश्व बैंक-मुद्रा कोष को खुश करने के लिए निवेश के बजाय विनिवेश की बात कर रहे हैं.
उन्होंने पिछले वर्ष के बजट में विनिवेश से ४० हजार करोड रूपये जुगाड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया था. हालाँकि सरकार किसी तरह इस लक्ष्य का ३० फीसदी जुगाड पाई है. इसके बावजूद एक बार फिर बजट में टोटके की तरह विनिवेश से ३० हजार करोड रूपये जुटाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया है.
साफ़ है कि नव उदारवादी सुधारों से मोहग्रस्त यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है.
इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी बिजनेस को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है. इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है.
लेकिन मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे के सामने है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है.
असल में , इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी.
लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए. यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है.
अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.
लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है.
लेकिन प्रणब मुखर्जी ने बजट में यह मौका गँवा दिया. इसकी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है. यही नहीं, इससे महंगाई की आग भी और भडक सकती है. अगर ऐसा हुआ तो वे वित्तीय घाटे को भी काबू करने में नाकाम रहेंगे क्योंकि वे सरकार की आय में गिरावट को नहीं रोक पायेंगे.
यूरोप में यही हो रहा है. आशंका यह है कि इस बजट से भारतीय अर्थव्यवस्था भी उसी रास्ते न बढ़ जाए.
('जनसत्ता' के १७ मार्च के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और बाजारवादी सुधारों पर गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं और खासकर यूरोप और अमेरिका में आर्थिक संकट और गतिरुद्धता से निपटने में उसकी विफलता स्पष्ट होती जा रही है, उस समय वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से निपटने के लिए नए बजट में एक बार फिर उसी अर्थनीति और पिटे हुए आर्थिक सुधारों पर भरोसा जताया है.
यह हैरान करनेवाला है. वित्त मंत्री से यह अपेक्षा थी कि वे महंगाई को काबू में रखते हुए न सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने के उपाय करेंगे बल्कि इस विकास का लाभ आम लोगों खासकर गरीबों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे.
लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने मान लिया कि महंगाई अब कोई बड़ी चुनौती नहीं रह गई है. दूसरा, महंगाई से निपटने के लिए उन्होंने मांग को नियंत्रित करने पर ज्यादा जोर दिया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि उनका सारा ध्यान वित्तीय घाटे को कम करने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती पर रहा. इसके लिए उन्होंने बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसदी की बढ़ोत्तरी से लेकर सब्सिडी में कटौती की तलवार चलाई है.
साफ़ है कि वे मानकर चल रहे हैं कि वित्तीय घाटे में कमी करने और इसके जरिये ब्याज दरों में कटौती का रास्ता साफ़ करने से निजी देशी-विदेशी कारपोरेट निवेश बढ़ेगा. इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी और एक बार तेज गति से दौड़ने लगेगी.
लेकिन क्या ऐसा होगा? पहली बात तो यह है कि इस समय जब बाजार में मांग पर पर पहले से ही दबाव है, उत्पाद और सेवा करों में वृद्धि और उर्वरक और पेट्रोलियम सब्सिडी में भरी कटौती के प्रस्ताव से महंगाई की आग और भड़क सकती है. इससे औद्योगिक वस्तुओँ की मांग में गिरावट का खतरा बढ़ गया है. इससे पहले से ही मंदी की मार झेल रहे औद्योगिक क्षेत्र पर दबाव और बढ़ जायेगा.
इस समय यूरोप में यही हो रहा है. वहाँ सरकारों ने मंदी और आर्थिक संकट से निपटने के लिए जिस तरह से किफ़ायतशारी के उपायों पर अत्यधिक जोर दिया, उसका नतीजा यह हुआ है कि मंदी और आर्थिक संकट और गहरा हो गया है.
लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने उससे कोई सबक नहीं लिया है. वह भी उन्हीं यूरोपीय सरकारों की राह पर चल रही है जिन्होंने वित्तीय घाटे को समस्या मानकर उसके इलाज के लिए आमलोगों को किफायतशारी की कड़वी दवा पिलाने की कोशिश की.
लेकिन सच्चाई यह है कि वित्तीय घाटा मर्ज नहीं है बल्कि मर्ज का लक्षण भर है. अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन से सरकार की आय घट गई और घाटा बढ़ गया. ऐसे में, इस मर्ज का इलाज अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को सुधारना होना चाहिए. ताजा आर्थिक समीक्षा भी मानती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन के कारण करों की उगाही पर बुरा असर पड़ा है जिससे घाटा बेकाबू हो गया है.
लेकिन अर्थव्यवस्था के खराब प्रदर्शन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण निवेश में आई गिरावट है. आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था में निवेश २००७-०८ के जी.डी.पी के ३५ फीसदी की तुलना में घटकर मात्र ३० फीसदी रह गया है. निवेश में कमी की एक वजह लोगों की बचत में आई कमी भी है.
खुद आर्थिक समीक्षा मानती है कि बचत दर में आई कमी की एक प्रमुख वजह महंगाई है. कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले दो-ढाई वर्षों से ऊँची महंगाई दर ने न सिर्फ लोगों का बजट बिगाड़ दिया बल्कि उनकी बचत पर भी इसका बुरा असर पड़ा है. इससे मांग पर भी नकारात्मक असर पड़ा है.
ऐसे में, इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए जरूरी था कि सरकार निवेश को प्रोत्साहित करे. सच पूछिए तो इस मामले में प्रणब मुखर्जी और यू.पी.ए सरकार से एक साहसिक बजट की उम्मीद थी जो अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के लिए न सिर्फ साहसिक पहल करता बल्कि कुछ समय के लिए वित्तीय घाटे की चिंता को भूल जाता.
इस मामले में उसे कृषि, आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश के लिए आगे आना चाहिए था. लेकिन बजट में वित्त मंत्री ने योजना मद में १८ फीसदी की वृद्धि की है जो मौजूदा चुनौतियों के मुकाबले नाकाफी है.
असल में, वे यह मानकर चल रहे हैं कि निजी पूंजी निवेश के लिए आगे आएगी. सरकार का काम सिर्फ उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है. लेकिन यह एक बड़ा जोखिम है. अगर उनकी उम्मीद के मुताबिक निजी देशी-विदेशी पूंजी निवेश के लिए आगे नहीं आई तो अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस सकती है.
साफ़ है कि देश के नीति-नियंताओं से लेकर आर्थिक मैनेजरों तक की आँख पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ऐसा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी में ही देश और अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल और मुक्ति दिखाई देती है. इस कारण उन्हें देश के अंदर मौजूद संभावनाएं नहीं दिखाई देती हैं या वे जान-बूझकर उससे आँखें मूंदे रहते हैं.
उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था में निवेश बढाने की चुनौती को ही लीजिए. यह कितना जरूरी है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि चालू वित्तीय वर्ष में औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र ३.९ फीसदी रहने की उम्मीद है. पिछले साल भर में कई महीने औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक भी हो गई. इसमें भी खासकर पूंजीगत सामानों की उत्पादन दर लगातार कई महीने नकारात्मक रही है.
यह इस बात का सबूत है कि औद्योगिक क्षेत्र में नया निवेश नहीं हो रहा है. इसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. लेकिन निवेश न बढ़ने का सारा दोष ऊँची ब्याज दरों पर डाल कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच रही है.
ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था में निवेश की गुंजाइश नहीं है. अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों लेकिन खासकर कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सामाजिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की गुंजाइश और उससे बढ़कर भारी जरूरत है. सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था इसके लिए भूखी है. लेकिन निजी क्षेत्र इन क्षेत्रों में आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है. इसकी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था में मांग में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है.
सच यह है कि बिना मांग में वृद्धि और उसकी निरंतरता सुनिश्चित किये निजी पूंजी निवेश के लिए आगे नहीं आएगी. लेकिन अर्थव्यवस्था में मांग में वृद्धि के लिए जरूरी है कि लोगों को नए रोजगार मिलें और उनकी आय में वृद्धि हो. इसके लिए औद्योगिक और संरचनागत क्षेत्र में निवेश बढ़ाना अनिवार्य है.
लेकिन अगर निजी क्षेत्र विभिन्न कारणों से निवेश बढ़ाने में हिचकिचा रहा है तो यह जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी. यह देखा गया है कि जब निजी निवेश में ठहराव या गतिरोध हो तो सार्वजनिक निवेश में वृद्धि से निजी निवेश भी उत्साहित होता है.
लेकिन वित्त मंत्री का रोना है कि उसके पास संसाधन नहीं हैं और वित्तीय घाटा बढ़ रहा है. लेकिन यह आधा सच है. सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है बशर्ते अगर वह नव उदारवादी अर्थनीति के दबावों और वित्तीय घाटे के आब्शेसन से बाहर निकल सके.
तथ्य यह है कि केन्द्र सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रूपये से अधिक का नगद और बैंक जमा पड़ा हुआ है. सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि वित्त मंत्री बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और विश्व बैंक-मुद्रा कोष को खुश करने के लिए निवेश के बजाय विनिवेश की बात कर रहे हैं.
उन्होंने पिछले वर्ष के बजट में विनिवेश से ४० हजार करोड रूपये जुगाड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया था. हालाँकि सरकार किसी तरह इस लक्ष्य का ३० फीसदी जुगाड पाई है. इसके बावजूद एक बार फिर बजट में टोटके की तरह विनिवेश से ३० हजार करोड रूपये जुटाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया है.
साफ़ है कि नव उदारवादी सुधारों से मोहग्रस्त यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है.
इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी बिजनेस को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है. इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है.
लेकिन मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे के सामने है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है.
असल में , इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी.
लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए. यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है.
अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.
लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है.
लेकिन प्रणब मुखर्जी ने बजट में यह मौका गँवा दिया. इसकी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है. यही नहीं, इससे महंगाई की आग भी और भडक सकती है. अगर ऐसा हुआ तो वे वित्तीय घाटे को भी काबू करने में नाकाम रहेंगे क्योंकि वे सरकार की आय में गिरावट को नहीं रोक पायेंगे.
('जनसत्ता' के १७ मार्च के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें