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मंगलवार, फ़रवरी 28, 2012

उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है

जो मतदाता उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ या वापस दायरों में बंद करना मुश्किल होगा

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर कयासों का दौर जारी है. ईमानदारी की बात यह है कि किसी को ठीक-ठीक पता नहीं है कि नतीजे किस करवट बैठेंगे या त्रिशंकु लटकेंगे? राजनीतिक रूप से बहुत ऊँचे दांव वाले इस चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन उत्तर प्रदेश के मैदानों से ऐसी कई खबरें आ रही है जिनसे सत्ता परिवर्तन से अधिक नए और ज्यादा गहरे बदलाव की उम्मीदें बंधने लगी हैं.

यह उस राज्य के लिए ज्यादा अच्छी खबर है जिसके बारे में मान लिया गया था कि यहाँ कुछ नहीं बदल सकता है और कवि धूमिल ने शायद इसी हताशा में लिखा था कि ‘इस कदर कायर हूँ/ कि उत्तर प्रदेश हूँ.’

लेकिन उत्तर प्रदेश खड़ा हो रहा है. यह और बात है कि वह इस तरह नहीं खड़ा हो रहा है, जैसा युवराज चाहते हैं. वह उस तरह भी नहीं खड़ा हो रहा है जैसे बहनजी चाहती हैं. वह उस तरह भी नहीं बदल रहा है जैसे समाजवादी युवराज चाहते हैं और न वह बदलकर हिन्दुत्ववादी हो रहा है, जैसा रामभक्त चाहते हैं.

इन सबकी इच्छाओं से अलग उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसके कारण उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को बदलना पड़ रहा है. सच पूछिए तो इन चुनावों की सबसे उल्लेखनीय बात यही है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.

यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. यह संभव है कि इन चुनावों के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव शायद उतनी स्पष्ट न दिखे.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत औसतन ५७ से लेकर ६० फीसदी के बीच पहुँच गया है. यह पिछली बार की तुलना में १० से १५ फीसदी तक अधिक है. इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है.

सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिख रहे हैं. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस अपने दायरों में बंद करना मुश्किल होगा. आश्चर्य नहीं कि सभी राजनीतिक पार्टियों की सांस अटकी हुई है.

दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ रही है जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ रही है.

तीसरा खास बदलाव यह दिख रहा है कि मुस्लिम वोटर किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है. इस बार वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है.

इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं. निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोग अपने तरीके से राजनीतिक दलों को कई सबक सिखाने जा रहे हैं. सबक नंबर एक, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.
सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए.

कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं. चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.

कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के वोटर एक नई प्रगतिशील. जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बना रहे हैं. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होंगे.
इससे उत्तर प्रदेश में एक नए वाम-लोकतान्त्रिक मिजाज की राजनीति के लिए जगह बनी है. लेकिन क्या बदलाव की ताकतें इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

(दैनिक 'नया इंडिया' में २७ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

सोमवार, मई 09, 2011

माया का मेगापोलिस

जमीन की लूट के लिए मायावती सरकार ने किसानों के खिलाफ युद्ध सा छेड दिया है




दिल्ली के पास ग्रेटर नोयडा के भट्टा-पारसौल गांव से भडकी किसान आंदोलन की चिंगारी मुख्यमंत्री मायावती के प्रिय प्रोजेक्ट यमुना एक्सप्रेसवे के किनारे-किनारे आगरा और मथुरा तक फ़ैल गई है. लेकिन किसानों की मांगों पर सहानुभूति से विचार करने या उनसे संवाद करने के बजाय सर्वजन की सरकार ने पिछले चार महीनों से जमीन के मनमाने अधिग्रहण या कहिये लूट के खिलाफ आंदोलनरत किसानों के मनोबल को तोड़ने के लिए पुलिस-पी.ए.सी को उतार दिया है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उत्तर प्रदेश पुलिस-पी.ए.सी वहां वही कर रही है जिसके लिए वह दशकों से कुख्यात है. पंतनगर से लेकर मलियाना-हाशिमपुरा और रामपुर चौराहा तक जनसंहार, लूट और बलात्कार की दोषी पी.ए.सी के इतिहास से कौन नहीं परिचित है? वही पुलिस-पी.ए.सी किसानों पर फायरिंग, उनकी फसलों-घरों और संपत्ति को जलाने से लेकर अपने दो साथियों की मौत से इस कदर पागल हो गई है कि वह गांवों और किसानों के घरों में घुसकर बूढ़े-बच्चों और महिलाओं की पिटाई कर रही है. अंधाधुंध गिरफ्तारियां हो रही हैं.  

पुलिसिया आतंक का यह हाल है कि किसान गांव छोड़कर भाग गए हैं. यही नहीं, पुलिस किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया और उनके साथियों को ऐसे ही खोज रही है, जैसे अमेरिका ओसामा बिन लादेन को खोज रहा था. उसने तेवतिया पर ५० हजार रूपये का इनाम घोषित कर दिया है. पुलिस के रवैये से साफ है कि उसने आंदोलनकारी किसानों को सबक सिखाने का फैसला कर लिया है. निश्चय ही, इस पूरे दमन अभियान को खुद मुख्यमंत्री मायावती का समर्थन हासिल है क्योंकि उत्तर प्रदेश शासन में बिना उनके इशारे के पत्ता भी नहीं खड़कता है.

ऐसा लगता है कि मायावती सरकार ने बिल्डरों, रीयल इस्टेट कंपनियों और देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के हक में उत्तर प्रदेश में किसानों के खिलाफ एक तरह से युद्ध सा छेड दिया है. सीधे-सीधे सरकार की अगुवाई में बड़े पैमाने पर किसानों की जमीन लूटी जा रही है. कहीं यमुना एक्सप्रेस-वे के नाम से और कहीं गंगा एक्सप्रेस-वे के नाम पर. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि जिस गंगा-यमुना के किनारे एक पूरी सभ्यता-संस्कृति विकसित हुई और उसके उपजाऊ मैदानों में किसानों ने कड़ी मेहनत से लाखों-करोड़ों का पेट भरा, उन्हीं किसानों और उनके साथ इस पूरी सभ्यता को उजाड़ने का अभियान चल रहा है.

लेकिन विकास के नाम पर गंगा-जमुनी तहजीब की इस धरती पर कहीं फार्मूला वन की रेसिंग का ट्रैक बन रहा है, कहीं गोल्फ कोर्स, कहीं क्रिकेट स्टेडियम बन रहा है और कहीं लक्जरी अपार्टमेंट. इसके लिए किसानों की जमीनें जबरदस्ती छिनी जा रही हैं. मायावती सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर छह लेन के यमुना एक्सप्रेस-वे या गंगा एक्सप्रेस-वे की क्या जरूरत है? यह भी कि रेसिंग ट्रैक, गोल्फ कोर्स और लक्जरी अपार्टमेंट जरूरी हैं या करोड़ों किसानों की आजीविका और वह उपजाऊ जमीन जिससे पैदा होनेवाले अनाज से करोड़ों लोगों का पेट भर रहा है?

लेकिन मायावती राज में ऐसे सवाल बेमानी हो गए हैं. जमीन की लूट का आलम यह है कि एक सरकारी नोटिफिकेशन के जरिये इस साल फरवरी में मायावती सरकार ने एक झटके में यमुना एक्सप्रेस-वे के किनारे छह जिलों के करीब ११८७ गांवों की पूरी जमीन को ग्रामीण-कृषि भूमि से शहरी भूमि घोषित कर दिया. इसके तहत यमुना एक्सप्रेस-वे के बाईं ओर से यमुना के किनारे तक का १०-१५ किलोमीटर का पूरा इलाका रातों-रात शहरी और यमुना एकस्प्रेस-वे इंडस्ट्रियल डेवेलपमेंट अथारिटी के अधीन आ गया है.

हालांकि मायावती सरकार का दावा है कि इससे एक्सप्रेस-वे के किनारे संगठित और सुनियोजित विकास हो पायेगा लेकिन हकीकत यह है कि सर्वजन की सरकार ने एक झटके में ११८७ गांवों की लगभग २,३६,६८२ हेक्टेयर जमीन भू-माफिया, बिल्डरों और रीयल इस्टेट कंपनियों की खुली लूट के लिए थाली में परोस करके दे दी है. यह पूरी जमीन नोयडा और दिल्ली के कुल क्षेत्रफल से अभी अधिक है. इसमें दस से अधिक नोयडा बन सकते हैं.

मतलब यह कि मायावती मोहम्मद तुगलक की तरह अपना दौलताबाद यानी दिल्ली से भी बड़ा मेगापोलिस बनाना चाहती हैं. वैसे भी बहन जी का स्माल इज ब्यूटीफुल में कोई भरोसा नहीं है. उनका विशाल और भव्य से प्रेम किसी से छुपा नहीं है. चूँकि उनकी सरकार के अफसर मानते हैं कि देश का भविष्य शहरीकरण में है, इसलिए वे नए शहर बनाने में जुटे हैं. यह और बात है कि इन नए शहरों में गरीबों और दलितों के लिए कोई जगह नहीं है. दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के पुराने शहर बहन जी की अनदेखी के कारण बदहाल और बर्बाद होते जा रहे हैं.        

लेकिन बहन जी अपनी इन तुगलकी योजनाओं के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं. ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में सरकार जे.पी. समूह चला रहा है. अन्यथा क्या कारण है कि करोड़ों किसानों की आजीविका की चिंता करने के बजाय बहन जी जे.पी. समूह के हितों की रक्षा के लिए इस कदर उद्वेलित हैं? जे.पी समूह के प्रति उनका यह अत्यधिक स्नेह समझ से बाहर है. उसके लिए उन्हें किसानों का खून बहाने में भी संकोच नहीं हो रहा है.

लेकिन जे.पी समूह से प्रेम के मामले में बहन जी अकेली राजनेता नहीं हैं. जे.पी का फैन क्लब भाजपा से लेकर कांग्रेस तक फैला हुआ है. चाहे गुजरात में नरेंद्र मोदी हों या मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान हों या हिमाचल प्रदेश के प्रेम सिंह धूमल या पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह या फिर कांग्रेस के कमलनाथ या दिग्विजय सिंह या फिर सपा के मुलायम सिंह यादव. यह लिस्ट बहुत लंबी है. स्वाभाविक भी है. आखिर जे.पी कोई छोटी-मोटी कंपनी तो है नहीं.

ऐसी तेजी से बढ़ती कंपनी से दोस्ती कौन नहीं करेगा जिसका राजस्व १६ हजार करोड़ रूपये तक पहुंच चुका है. आश्चर्य नहीं कि आज जे.पी के चाहनेवाले हर पार्टी में मौजूद हैं जो जल्दी ही खींसे निपोरते हुए कहने लगेंगे कि विकास जरूर होना चाहिए लेकिन किसानों के हितों का ध्यान भी रखा जाना चाहिए. गौर करिए, जरूर और भी का अंतर. ये महानुभाव मायावती की जमकर लानत-मलामत करेंगे लेकिन विकास की तरफदारी भी करेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि विकास के नाम पर जमीन की लूट के सवाल पर सभी राजनीतिक दलों में आम सहमति बन चुकी है.       

ऐसे में, किसान क्या करें? उनके पास विकल्प क्या है? हैरानी की बात नहीं है कि इस जमीन लूट के खिलाफ किसानों में नोयडा से लेकर अलीगढ़ और आगरा से मथुरा तक आग धधक रही है. किसानों के लिए यह अब जीवन-मरण की लड़ाई बन गई है. यह बात मायावती भी जानती हैं. उन्हें पता है कि अगर इस बार किसानों का आंदोलन साम-दाम-दंड-भेद का सहारा लेकर नहीं कुचला गया तो फिर उनका मेगापोलिस बनाने का सपना हमेशा के लिए टूट जायेगा. इसलिए वह किसानों का आंदोलन तोड़ने के लिए उनका मनोबल तोड़ने की कोशिश कर रही हैं.

एक ओर किसानों को अपराधी और अराजक साबित करने की कोशिश की जा रही है, उनके नेताओं को मोस्ट वांटेड घोषित किया जा रहा है और दूसरी ओर, उन्हें फुसलाने की कोशिशें हो रही हैं. एक ओर पुलिस-पी.ए.सी को दमन-उत्पीडन की खुली छूट दे दी गई है और दूसरी ओर, किसानों को प्रलोभन दिए जा रहे हैं. यानी वह हर तौर तरीका इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे किसानों का मनोबल तोडा जा सके. अलीगढ़ के टप्पल में वह यह प्रयोग कर चुकी हैं. भट्टा-पारसौल में भी वही दोहराने की कोशिश की जा रही है.