शनिवार, दिसंबर 29, 2007

योजना की निरर्थकता के बीच ग्यारहवीं योजना...

बड़े-बड़े दावों के बावजूद पिटे-पिटाए फार्मूलों पर भरोसा

राष्ट्रीय विकास परिषद की 52 वीं बैठक में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) के मसौदे को मंजूर करने की औपचारिकता पूरी कर दी गयी है। इसके साथ ही अगले पांच सालों के लिए देश के विकास की दिशा और रणनीति पर मुहर लग गयी। यह ठीक है कि केन्द्रीय कैबिनेट ग्यारहवीं योजना के मसौदे को पहले ही मंजूरी दे चुकी थी और राट्रीय विकास परिषद की बैठक महज एक औपचारिकता ही थी। इसके बावजूद इस बैठक के महत्व को कम करके आंकना सही नहीं होगा। लेकिन हैरत की बात यह हैकि देश के सबसे प्रमुख गुलाबी आर्थिक अखबार सहित विश्व के सबसे अधिक बिकने वाले अंग्रेजी अखबार और अधिकांश समाचार चैनलों ने राट्रीय विकास परिषद की बैठक में 11वीं योजना की मंजूरी की खबर को पहले पन्ने लायक नहीं समझा।

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उदारीकरण, भूमंडलीकरण और निजीकरण से परिचालित राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आधारित अर्थनीति किस हद तक अप्रासंगिक हो चुकी है। दोहराने की जरुरत नहीं है कि पिछले डेढ़ दशक में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में एक सक्रिय खिलाड़ी के बतौर जैसे-जैसे राज्य की भूमिका घटती गयी है, वैसे-वैसे योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाएं भी महत्वहीन होते चले गए हैं। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे जब उदारीकरण के उत्साही और बेचैन समर्थक बदले हुए आर्थिक परिदृश्य में योजना आयोग को सफेद हाथी बताते हुए उसे समाप्त करने और अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका को निजी क्षेत्र के मददगार (फेसिलिटेटर) के बतौर सीमित करने की मांग कर रहे थे। उन्हें अपने अपने अभियान में काफी हद तक सफलता भी मिली है।

संभव है कि इसे योजना आयोग के उपाध्यक्ष और उदारीकरण के प्रमुख पैरोकार में से एक मोंटेक सिंह अहलुवालिया स्वीकार न करें लेकिन सच यह है कि आज राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की तुलना में मुंबई शेयर बाजार की भूमिका और हैसियत कहीं जयादा बड़ी और निर्णायक हो गयी है। आखिर आज योजना आयोग की परवाह कौन करता है? पंचवर्षीय योजनाएं महज रस्म अदायगी भर बनकर रह गयी हैं जिनका उपयोग सिर्फ राज्यों को उनकी सालाना योजना के लिए आवंटन तय करने और कुछ हद तक राष्ट्रीय बजट में विकास योजनाओं के लिए धन आवंटन करते समय होता है। अन्यथा राष्ट्रीय विकास का एजेंडा, दिशा, नीति और कार्यक्रम तय करने के मामले में पंचवर्षीय योजनाओं की भूमिका सीमित हो गयी है।

11वीं पंचवर्षीय योजना भी इसकी अपवाद नहीं है। अलबत्ता उदारीकरण के पिछले डेढ़ दशक खासकर मोंटेक सिंह अहलुवालिया के नेतृत्व में योजना आयोग का कायांतरण हुआ है और पंचवर्षीय योजनाओं का नया रुपांतरण। इसके तहत बहुत सफाई से योजना आयोग को उदारीकरण आयोग में और पंचवर्षीय योजनाओं को योजना आधारित ढ़ाचें के भीतर उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के एजेंडे नीति और कार्यक्रम के वाहक में बदल दिया है।

जाहिर है कि ऐसा करके अहलुवालिया योजना आयोग और पंचवर्षीय योजनाओं को प्रासंगिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके इस अभियान को उदारीकरण समर्थकों का पूरा समर्थन भी मिल रहा है। आश्चर्य नहीं कि आमतौर पर योजना शब्द से चिढ़नेवाला बाजार 11वीं योजना के मसौदे से खुश हैं।

हालांकि वह उसे बहुत महत्व देने के लिए तैयार नहीं है लेकिन सच यह है कि 11वीं योजना पूरी तरह से उदारीकरण और बाजार की चाशनी में पगी हुई है। योजना का मुख्य लक्ष्य आर्थिक विकास की दर को पहले चार वर्षों में 9 प्रतिशत और आखिरी वर्ष (2011-12) में 10 प्रतिशत तक पहुंचाने का है। हालांकि 11वीं योजना में समावेशी विकास(इनक्लूसिव ग्रोथ) के नारे को मंत्र की तरह कई बार दोहराया गया है लेकिन सच्चाई यह है कि पिछली योजनाओं की तरह इस योजना में भी उच्च विकास दर (9 से 10 फीसदी सालाना) को सभी समस्याओं का रामबाण इलाज मान लिया गया है।

जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। खुद 11वीं योजना के स्वीकृत मसौदे में गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करने वाले भारतियों की संख्या में सिर्फ 8 फीसदी की कमी दर्ज की गयी है। स्वीकार किया गया है कि तीव्र विकास दर के बावजूद पिछले डेढ़ दशकों में गरीबी और बेरोजगारी हटाने में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है। जीडीपी की तेज रफतार के बावजूद 1993-1994 से 2004-2005 के बीच 12 वर्षों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन अर्थ यह हुआ कि औसतन 6 से 7 प्रतिशत की सालाना विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 0.6 प्रतिशत की दर से कमी दर्ज की गयी है। यह न सिर्फ निराशाजनक बल्कि शर्मनाक है। यह शर्मनाक इसलिए भी है क्योंकि गरीबी रेखा का पैमाना वही है जो 1973-74 में प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग के आधार तय किया किया गया था और जब प्रति व्यक्ति आय आज की तुलना में कम थी।

कहने की जरुरत नहीं है कि गरीबी रेखा का मौजूदा सरकारी पैमाना न सिर्फ धोखा है बल्कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या कुल आबादी का 28 फीसदी होने का दावा भी फर्जी है। इस दावे की पोलपट्ठी हल ही में जारी असंगठित क्षेत्र के उस सरकारी सर्वेक्षण ने खोल दी है जिसके मुताबिक देश की कुल आबादी का 77 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम की आय में गुजर-बसर करता है। लेकिन योजना आयोग अभी गरीबी रेखा के अपने संदिग्ध दावे के साथ न सिर्फ चिपका हुआ है बल्कि उसे उम्मीद है कि 11 पंचवर्षीय योजना के दौरान 9 प्रतिशत आर्थिक विकास दर के जरिए वह गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाली आबादी में 10 फीसदी की कमी लाने में कामयाब रहेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि योजना आयोग ने 11वीं योजना के दौरान 9 प्रतिशत की तीव्र विकास दर के बावजूद गरीबों की संख्या में सालाना औसतन 2 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य तय किया है।

इससे 11वीं योजना की दरिद्रता का अनुमान लगाया जा सकता है। वैसे गरीबों की तादाद में सालाना 2 फीसदी की कमी का लक्ष्य भी काफी महत्वाकांक्षी दिखता है, अगर उसकी तुलना गरीबी उन्मूलन के हालिया प्रदर्शन से की जाए। लेकिन अगर योजना आयोग के इस महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम मान भी लिया जाए तो इस रफ्तार से देश से सरकारी गरीबी रेखा को मिटाने में अभी तीन पंचवर्षीय योजनाएं और खप जाएंगी।

साफ है कि पिछली पंचवर्षीय योजनाओं की तरह 11वीं योजना भी गरीबी के अभिशाप को मिटाने में कामयाब नहीं हो पाएगी। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि गरीबी खत्म करना संभव नहीं है या यह कोई ऐसी समस्या है जो पंचवर्षीय योजनाओं या अर्थनीति के जरिए हल नहीं हो सकती है।

लेकिन गरीबी खत्म करने के लिए सिर्फ 9 से 10 प्रतिशत की विकास दर के टोटके पर भरोसा करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला हैं। विकास दर को साध्य मानकर चलने वाली 11वीं योजना गरीबी और बेरोजगारी उन्नमूलन को उच्च विकास दर के बाइ प्रोडक्ट के रुप में देखने की भूल दोहरा रही है। जबकि अनुभव यह बताता है कि उदारीकरण के दौर में उच्च विकास दर का लाभ देश के कुछ हिस्सों और आबादी के 15-20 फीसदी हिस्से तक ही सीमित हो गया है। यही कारण है कि इस बीच क्षेत्रीय विषमता और गैर-बराबरी के साथ-साथ अमीर और गरीब, शहर और गॉंव, कृषि और उद्योग/ सेवा क्षेत्र के बीच की खाई और चौड़ी हुई है। यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे काफी समय तक नकारने के बाद अब उदारीकरण के पैरोकार भी स्वीकार करने लगे हैं।

11वीं योजना का दस्तावेज भी इस सच्चाई को स्वीकार करता है। लेकिन जैसे आदतें बहुत मुश्किल से छुटती हैं, वैसे ही उदारीकरण के विचार और बाजार में अटूट आस्था से पीछा छुड़ाने में भी यूपीए सरकार नाकाम रही हैं। 11वीं योजना का प्रारुप इसका सबूत है। इसमें कृषि संकट से निपटने को प्राथमिकता देने की बात कही गयी है। लेकिन तथ्य यह है कि कृषि संकट का सीधा संबंध उदारीकरण की अर्थनीति से है जिसके तहत न सिर्फ कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गयी, सब्सिडी कटौती के नाम पर बिजली-पानी-खाद-कीटनाशकों की कीमतें बेतहाशा बढ़ायी गयीं बल्कि किसानों को सस्ते कृषि उत्पादों के आयात से मुकाबले के लिए अकेला छोड़ दिया गया।

ऐसे में 11वीं योजना से यह उम्मीद थी कि वह कृषि संकट से निपटने के लिए वैकल्पिक उपायों का प्रस्ताव करेगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वह न सिर्फ पिटे-पिटाए उपायों को ही नई शब्दावली में फिर पेश करता है बल्कि कृषि संकट से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल देता है। इसी तरह, 11वीं योजना के दौरान रोजगार के 7 करोड़ नए अवसर पैदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन सारी उम्मीद निजी क्षेत्र से हैं। इस तरह से कोई 27 राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं लेकिन उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो मौजूदा नीतियों, कार्यक्रमों की रफ्तार और दिशा को देखते हुए आकाशकुसुम से दिखते हैं। जैसे 2012 तक 24 घंटे बिजली की उपलब्धता और सभी गांवों को ब्राडबैंड से जोड़ने का दावा। साफ है, आप चाहें तो मुंगेरीलाल के हसीन सपने 11 वीं योजना के दस्तावेज में भी देख सकते हैं।

मंगलवार, दिसंबर 18, 2007

समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण का बढ़ता खतरा...

यह लोकतंत्र के लिए जरूरी विविधता और बहुलता के लिए खतरे की घंटी है

लंबे अरसे बाद भारतीय समाचारपत्र उद्योग में इन दिनों काफी हलचल है। समाचारपत्र उद्योग में इस बीच कई ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिनके कारण यह उद्योग एक बार फिर चर्चाओं में है। बीच के दौर में टेलीविजन और इंटरनेट के तीव्र विस्तार के कारण समाचारपत्र उद्योग फोकस में नहीं रह गया था। लेकिन पिछले साल से समाचारपत्र उद्योग में खासकर बड़े समाचारपत्र समूहों के विस्तार के कारण गतिविधियां काफी तेज हो गई हैं। न सिर्फ समाचारपत्रों के नए संस्करण शुरू हो रहे हैं और उनके बीच प्रतियोगिता तीखी होती जा रही है बल्कि समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में भी महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई पड़ रहा है।

इस सिलसिले में समाचारपत्र उद्योग में उभर रही कुछ महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों पर गौर करना जरूरी है। समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे प्रतिस्पर्द्धा तीखी होती जा रही है, वैसे-वैसे छोटे और मंझोले अखबारों के लिए अपना अस्तित्व बचाना कठिन होता जा रहा है। कुछ महीने पहले देश के सबसे बड़े मीडिया समूह बेनेट कोलमैन एंड कंपनी लिमिटेड (टाइम्स ऑफ इंडिया समूह) ने कन्नड के जानेमाने अखबार "विजय टाइम्स" को खरीद लिया। ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि झारखंड का एक बड़ा और अपनी अलग पहचान के लिए मशहूर समाचारपत्र "प्रभात खबर" भी बिकने के लिए तैयार है। उसे खरीदने के लिए देश के कई बड़े अखबार समूह कतार में हैं। हालांकि इन दो घटनाओं के आधार पर कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है लेकिन इससे एक निश्चित प्रवृत्ति का संकेत जरूर मिलता है।

पूंजीवादी समाचारपत्र उद्योग के ढ़ांचे में यह कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। दुनिया के अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में यह पहले ही हो चुका है। जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है और जैसे बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को हजम कर जाती हैं, वैसे ही बड़े अखबार समूह छोटे और मंझोले अखबारों को खा जाते हैं। हालांकि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में यह प्रवृत्ति अभी सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति नहीं है लेकिन यह आशंका लंबे अरसे से प्रकट की जा रही है कि जैसे-जैसे समाचारपत्र उद्योग में बड़ी और विदेशी पूंजी का प्रवेश बढ़ रहा है, प्रतिस्पर्द्धा तीखी हो रही है, वैसे-वैसे छोटे समाचारपत्रों के लिए अपने अस्तित्व को बचा पाना मुश्किल होता जाएगा।

हाल की घटनाओं से यह आशंका पुष्ट हुई है। क्या इसका अर्थ यह है कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में भी कंसोलिडेशन की प्रक्रिया शुरू हो गई है ? क्या समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का खतरा बढ़ रहा है ? इसका अभी कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इस प्रश्न पर मीडिया उद्योग के विशेषज्ञों के बीच सहमति नहीं है। बहुतेरे ऐसे मीडिया विशेषज्ञ हैं जो यह मानते हैं कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग में संकेन्द्रण और कुछेक बड़े अखबार समूहों के एकाधिकार का कोई खतरा नहीं है। उनके अनुसार भारत की भाषाई और क्षेत्रीय विविधता और बहुलता ऐसे किसी भी संकेन्द्रण और एकाधिकार के खिलाफ सबसे बड़ी गारंटी है।

इन मीडिया विशेषज्ञों का तर्क है कि देश के अधिकांश राज्यों की अलग-अलग भाषाओं और क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण किसी एक या दो मीडिया कंपनियों के लिए यह संभव नहीं है कि वे सभी भाषाओं में अखबार निकालें और पूरे बाजार पर कब्जा कर लें। भारत में समाचारपत्र उद्योग के विकास पर निगाह डाले तो वह इस तर्क की पुष्टि करता है। भारतीय समाचारपत्र उद्योग में क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों का बढ़ता दबदबा इसका प्रमाण है।
 
पिछले कुछ दशकों में साक्षरता, तकनीक, उपभोक्तावाद और राजनीतिक जागरूकता के विकास का लाभ उठाकर उन्होंने अपनी ताकत और हैसियत में लगातार इजाफा किया है। आज लगभग हर प्रमुख भाषा में क्षेत्रीय अखबार समूहों का दबदबा है। इस दबदबे को बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूह चुनौती नहीं दे पाए और पिछले कुछ वर्षों में इन क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपना कद राष्ट्रीयस्तर तक बढ़ा लिया है। इनमें से कई समूह आज बड़े राष्ट्रीय मीडिया समूहों को चुनौती दे रहे हैं।
ये तथ्य अपनी जगह पूरी तरह सही है। लेकिन इनसे सिर्फ अबतक के विकास का पता चलता है। यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि भारतीय समाचारपत्र उद्योग ने अपने विकास का एक वृत्त पूरा कर लिया है। यहां से आगे उसकी विकासयात्रा की दिशा पहले की तरह नहीं होगी, यह तय है। ऐसा कहने के पीछे कई ठोस तथ्य और तर्क हैं।
 
दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में आ रहे परिवर्तनों को देश के आर्थिक ढांचे में आ रहे परिवर्तनों के संदर्भ में देखने की जरूरत है। 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरूआत के बाद से भारतीय अर्थतंत्र में बड़ी देशी और विदेशी पूंजी का दबदबा बढ़ा है। भारतीय उद्योगों का कारपोरेटीकरण हुआ है। जाहिर है कि इसका असर भारतीय समाचारपत्र उद्योग पर भी पड़ा है।
 
आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के तहत देशी अखबारों में 26 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत को एक बड़ी घटना माना जाना चाहिए। इस फैसले का शुरू में लगभग सभी बड़े और छोटे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूह विरोध कर रहे थे। लेकिन कुछ साल पहले कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों को छोड़कर कई बड़े और क्षेत्रीय समाचारपत्र समूहों ने विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके बाद समाचारपत्र उद्योग में बड़ी देशी पूंजी के साथ-साथ बड़ी विदेशी पूंजी का प्रवेश हुआ है। इससे समाचारपत्र उद्योग में कई परिवर्तन हुए हैं।
 
भाषाई और क्षेत्रीय अखबार समूहों ने अपने छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर निकलकर व्यावसायिक जोखिम उठाना, प्रबंधन को प्रोफेसनल हाथों में सौपना, मार्केटिंग के आधुनिक तौर तरीकों को अपनाना और ब्राडिंग पर जोर देना शुरू कर दिया है। उनमें शेयर और पूंजी बाजार से पूंजी उठाने या विदेशी पूंजी से हाथ मिलाने में कोई हिचकिचाहट नहीं रह गई है। कई क्षेत्रीय और भाषाई अखबार समूहों ने कारपोरेटीकरण के जरिए अपना पूरा कायांतरण कर लिया है। हिंदी के दो अखबार समूहों-जागरण और भाष्कर, जो पाठक संख्या के मामले में देश के पहले और दूसरे नंबर के अखबार हैं, ने आधुनिक और व्यावसायिक प्रबंधन और मार्केटिंग के तौर-तरीकों को अपनाने में गजब की आक्रामकता दिखाई है।
 
जागरण भाषाई समाचारपत्र समूहों में पहला ऐसा समूह है जिसने आर्थिक उदारीकरण के बाद अपने पुराने स्टैंड से पलटते हुए सबसे पहले आयरलैंड के इंडिपेडेंट न्यूज एंड मीडिया समूह से डेढ़ सौ करोड रूपये का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आमंत्रित किया। यही नहीं, वह हिंदी का पहला और भारतीय भाषाओं का भी संभवत: पहला समाचारपत्र है जो आईपीओ लेकर पूंजी बाजार में आया। आज जागरण प्रकाशन शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनी है जिसका बाजार पूंजीकरण (मार्केट कैप) 1789 करोड रूपये है। विदेशी और शेयर बाजार की पूंजी ने जागरण समूह को कानपुर के एक छोटे, पारिवारिक और बंद दायरे से बाहर एक कारपोरेट कंपनी के रूप में खड़ा कर दिया है।

निश्चय ही समाचारपत्र घरानों का शेयर बाजार में आना और विदेशी पूंजी के साथ हाथ मिलाना हाल के वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन है। हालांकि यह परिवर्तन अभी तक हिंदी के जागरण समूह के अलावा हिंदुस्तान टाइम्स, डेक्कन क्रानिकल और मिड डे समूह तक ही पहुंचा है। लेकिन इसका समाचारपत्र उद्योग पर गहरा असर पड़ा है। इससे उद्योग में प्रतियोगिता तीखी हुई है और होड़ में आगे रहने के लिए समाचारपत्र समूह न सिर्फ अपने क्षेत्रीय/स्थानीय वर्चस्व के क्षेत्र से बाहर निकलने और फैलने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि एक दूसरे के वर्चस्व के क्षेत्र में घुसकर चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, कई अखबार समूह मीडिया के नए क्षेत्रों जैसे- टीवी, रेडियो, इंटरनेट में घुसने और पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं तो कई समूह अपने ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबले के लिए आपस में हाथ मिलाते और गठबंधन करते दिख रहे हैं।

इस सब के कारण कुछ अखबार समूह पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं जबकि कुछ अन्य अखबार समूह कमजोर हुए हैं। उदाहरण के लिए समाचारपत्र उद्योग में जहां टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भाष्कर, डेक्कन क्रानिकल, आनंद बाजार आदि ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है वहीं कई बड़े, मझोले और छोटे समाचारपत्र समूहों-आज, देशबंधु, नई दुनिया, पायनियर, इंडियन एक्सप्रेस, स्टेटसमैन, अमृत बाजार आदि को होड़ में टिके रहने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यही नही, कुछ और बड़े अखबार समूहों- अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (मध्यप्रदेश), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

दरअसल, समाचारपत्र उद्योग में अपने राजस्व के लिए विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता के कारण छोटे और मझोले समाचारपत्रों के साथ-साथ कुछ बड़े समाचारपत्र समूहों के लिए भी खुद को प्रतिस्पर्धा में टिकाए रख पाना मुश्किल होता जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि अखबारों के कुल राजस्व में प्रसार से होनेवाली आय और विज्ञापन आय के बीच का संतुलन पूरी तरह से विज्ञापनों के पक्ष झुक गया है। बड़े अंग्रेजी अखबारों में विज्ञापन आय कुल राजस्व का 85 से लेकर 95 फीसदी तक हो गई है। जबकि भाषाई समाचारपत्रों के राजस्व में विज्ञापनों का हिस्सा 65 से 75 फीसदी तक पहुंच गया है। आज बिना विज्ञापन के अखबार या पत्रिका चलाना संभव नहीं रह गया है।

लेकिन विज्ञापन देनेवाली कंपनियां और विज्ञापन एजेंसियां विज्ञापन देते हुए किसी उदारता के बजाय उन्हीं बड़े अखबारों और मीडिया समूहों को पसंद करती हैं जिनके पाठक अधिक हों और वे उच्च और मध्यवर्ग से आते हों। असल में, समाचारपत्र उद्योग में एक 'तीन का नियम` (रूल ऑफ थ्री) चलता है। जिसे सबसे पहले एमोरी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जगदीश सेठ ने पेश किया था।
 
इस नियम के अनुसार अधिकतर स्थानीय/क्षेत्रीय बाजारों में नम्बर एक अखबार (गुणवत्ता नहीं बल्कि पाठक/प्रसार संख्या के आधार पर) राजस्व और मुनाफे का बड़ा हिस्सा उडा ले जाता है। दूसरे नंबर का अखबार भी संतोषजनक मुनाफा कमा लेता है जबकि तीसरे नंबर का अखबार किसी तरह ब्रेक इवेन यानि थोड़ा बहुत मुनाफा बना पाता है। इन तीन के अलावा बाकी सभी अखबार व्यावसायिक रूप से घाटा झेलते हैं। वे तभी चल सकते हैं जब उनका कोई और संस्करण मुनाफा कमा रहा हो या किसी और व्यावसाय से उसकी भरपाई हो रही हो।
गौरतलब है कि वर्ष 2005 में देश के सभी समाचारपत्रों को मिलनेवाला कुल विज्ञापन राजस्व 7,929 करोड रूपये तक पहुंच गया। यह 1980 में मात्र 150 करोड रूपये था और उस समय कुल राजस्व में प्रसार और विज्ञापन आय का हिस्सा 50-50 फीसदी था। लेकिन आज समाचारपत्र उद्योग में विज्ञापनों पर बढ़ती निर्भरता का नतीजा यह हुआ है कि छोटे, मंझोले और वैसे बड़े अखबारों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है जो किसी शहर या क्षेत्र में पहले या दूसरे या अधिक से अधिक तीसरे नंबर के अखबार नहीं हैं।
 
इस तरह से हर क्षेत्र में दो या तीन अखबार ही प्रतियोगिता में रह गए हैं। प्रतियोगिता में टिके रहने के लिए अखबार समूह के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिए क्योंकि पाठकों को आकर्षित करने के लिए मार्केटिंग के आक्रामक तौर-तरीकों पर काफी पैसा बहाना पड़ रहा है।

लेकिन जो अखबार समूह विज्ञापनों से पर्याप्त पैसा नहीं कमा रहा है और पहले तीन में नहीं है तो उसके लिए ताकतवर प्रतिद्वंद्वी से मुकाबला करना लगातार कठिन होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार समूहों के लिए बड़े समाचारपत्र समूहों से कीमतों में कटौती (प्राइसवार) और मुफ्त उपहार आदि का मुकाबला करना इसलिए संभव नहीं है क्योंकि वे विज्ञापनों से उतनी कमाई नहीं कर रहे हैं और वे अपनी आय के लिए पाठको पर निर्भर होते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि समाचारपत्र उद्योग में जैसे-जैसे बड़ी देशी विदेशी पूंजी का दबाव बढ़ता जाएगा, छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर होते जाएंगे। जैसे एक क्षेत्र या बाजार में दो या तीन अखबार समूहों का वर्चस्व होगा, वैसे ही राष्ट्रीयस्तर पर भी धीरे-धीरे अधिग्रहण और विलयन (एक्वीजीशन और मर्जर) के जरिए दो-तीन बड़े समाचारपत्र समूह उभरकर आएंगे।

विज्ञापनों पर निर्भरता का एक नतीजा यह भी हुआ है कि समाचारपत्रों में विज्ञापनदाताओं को लुभाने के लिए होड़ शुरू हो गई है। एक तरह से विज्ञापनदाता समाचारपत्रों को निर्देशित कर रहें हैं कि उन्हें किस तरह का अखबार निकालना चाहिए। इस कारण अधिकतर सफल अखबार एक-दूसरे की कॉपी बन गए हैं। इस तरह समाचारपत्रों के बीच बढ़ती प्रतियोगिता के बावजूद उनके बीच की विविधता खत्म होती जा रही है। व्यावसायिक रूप से सफल सभी समाचारपत्रों में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। आखिर टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स में क्या फर्क है ? इसी तरह भाष्कर और दैनिक जागरण के बीच का फर्क मिटता जा रहा है।

जाहिर है कि इससे भारतीय समाचारपत्र उद्योग में मौजूदा विविधता और बहुलता की स्थिति खतरे में पड़ती जा रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह कोई अच्छी खबर नहीं है। किसी भी लोकतंत्र की ताकत उसके मीडिया की विविधता और बहुलता पर निर्भर करती है। नागरिकों के पास सूचना और विचार के जितने विविधतापूर्ण और अधिक स्रोत होंगे, वे अपने मताधिकार का उतना ही बेहतर इस्तेमाल कर पाएंगे। यही कारण है कि अधिकांश विकसित पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में मीडिया में संकेन्द्रण और एकाधिकार की स्थिति को रोकने के लिए क्रॉस मीडिया होल्डिंग को लेकर कई तरह की पाबंदियां हैं।
 
भारत में अब तक ऐसा कोई कानून नहीं है। बड़े मीडिया समूह ऐसे कानून का विरोध करते रहे हैं। लेकिन भारतीय समाचारपत्र उद्योग में जिस तरह से कुछ बड़े अखबार समूहों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, उसे देखते हुए ऐसे कानून के बारे में विचार करने का समय आ गया है। यही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के मद्देनजर समाचारपत्र उद्योग में घटती विविधता और बहुलता पर विचार करने का समय भी आ गया है।

एक कदम आगे दो कदम पीछे...

ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार प्रगतिशील और जनहित से जुड़े मामलों में एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलने की आदी हो गई है। इस तरह वह घूम-फिरकर जहां से चली थी, उससे पीछे पहुंचती दिख रही है।
 
ताजा मामला सूचना के अधिकार कानून से जुड़ा हुआ है। मनमोहन सिंह सरकार ने भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों के दबाव में सूचना के अधिकार कानून में संशोधन कर फाइलों पर की जाने वाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर करने का फैसला किया है। इस संशोधन के बाद अब केवल विकास और सामाजिक मामलों से जुड़ी फाइलों की नोटिंग ही सूचना के अधिकार के तहत उपलब्ध होगी। इस तरह सरकार ने एक ही झटके में महत्वपूर्ण मामलों में नीति निर्णय की प्रक्रिया को एक बार फिर गोपनीयता के पर्दे में बंद कर नौकरशाही को मनमानी करने की खुली छूट दे दी है।

निश्चय ही, इस फैसले से सूचना के अधिकार की आत्मा को गहरा धक्का लगा है और भ्रष्ट तंत्र में इसका बहुत गलत और नकारात्मक संदेश जाएगा। अफसोस की बात यह है कि लोकतंत्र की दुहाइयां देनेवाली यूपीए सरकार ने यह फैसला करने से पहले न तो केन्द्रीय सूचना आयोग से सलाह-मशविरा किया और न ही उन जन संगठनों को विश्वास में लिया जो सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकप्रिय हथियार बनाने में सक्रिय हैं। हैरत की बात यह है कि यूपीए सरकार का यह फैसला केन्द्रीय सूचना आयोग के इस साल 31 जनवरी के उस निर्णय के बाद आया है जिसमें उसने फाइलों पर की जानेवाली नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत मुहैया कराने को कहा था।

वैसे यह बात किसी से छुपी नहीं थी कि नौकरशाही शुरू से न सिर्फ इस प्रावधान का खुलकर विरोध कर रही थी बल्कि उसने सूचना का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी हर संभव कोशिश की कि फैसलों और नीति निर्णयों से संबंधित फाइलों पर की जानेवाली टिप्पणियों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा जाए। लेकिन इस मामले में केन्द्रीय सूचना आयोग के प्रतिकूल फैसले के बाद नौकरशाही और राजनेताओं के भ्रष्ट गठजोड़ ने मनमोहन सिंह सरकार को बाध्य कर दिया कि वह सूचना के अधिकार कानून के लागू होने के दस महीनों के अंदर ही कानून में संशोधन करके उसे निरर्थक बनाने पर तुल गई है।

दरअसल, नौकरशाही सूचना के अधिकार के कानून की बढ़ती लोकप्रियता और बड़े पैमाने पर जनसंगठनों और नागरिको की ओर से सूचनाओं की मांग और उनकी सक्रियता से घबरा गई है। ऐसा लगता है कि स्वयं यूपीए सरकार को यह कानून बनाते हुए यह उम्मीद थी कि लोग इसका बहुत कम इस्तेमाल करेंगे और कुल मिलाकर यह एक दिखावटी कानून होगा। लेकिन उसकी यह सोच गलत साबित हुई। हालांकि अभी वह इस कानून के कारण किसी बड़ी मुसीबत में नहीं फंसी है लेकिन लोगों की सक्रियता के कारण इसके आसार जरूर पैदा हो गए थे।
 
बोफर्स मामले में अरूण जेतली ने सूचना के अधिकार के तहत क्वात्रोकी से जुड़ी कुछ सूचनाएं मांगी थी। इसी तरह नागरिक संगठनों ने गुजरात नरसंहार के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच हुए पत्र व्यवहार को सार्वजनिक करने की मांग की हुई थी। जाहिर है कि यह तो शुरूआत थी और नौकरशाही को यह भय होने लगा था कि आने वाले दिनों में ऐसी सूचनाओं की मांग बढ़ेगी और उसे नकारना मुश्किल होगा।

कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी निर्णय तक पहुंचने या किसी नीति को बनाने की प्रक्रिया में शामिल नौकरशाहों और मंत्रियों ने क्या कहा या टिप्पणी की, यह जानना बहुत जरूरी है। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान ही अधिकारी और मंत्री मनमानी और अनियमितता बरतते हैं। फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के अधिकार के तहत खोलने से अधिकारियों और मंत्रियों की जवाबदेही तय करना और उस पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना आसान हो जाता। इसके जरिए ही किसी अधिकारी के फैसलों या कोई फैसला न लेने और अनिर्णय की जिम्मेदारी तय की जा सकती है। जाहिर है कि फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर करके सूचना के अधिकार को एक तरह से बेमानी बना दिया गया है। 

आखिर फाइलों पर की गई नोटिंग को गोपनीय बनाकर और सिर्फ फैसले को सूचना के अधिकार के तहत सार्वजनिक करने का क्या अर्थ है ? इससे तो किसी अधिकारी या मंत्री की जवाबदेही नहीं तय हो सकती है। अब कोई नागरिक किसी सरकारी विभाग या अफसर से यह सवाल कैसे पूछ सकता है कि फलां काम क्यों नहीं हुआ या किस कारण उसमें देर हुई या हो रही है?
 
साफ है कि इस अधिकार के बिना सूचना के अधिकार का कानून नखदंतविहीन हो गया है। जिन लोगों को उम्मीद थी कि सूचना का अधिकार सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार, काहिली और अनियमितताओं पर रोक लगाने का एक सशक्त हथियार साबित होगा, उन्हें यूपीए सरकार के इस फैसले से निश्चय ही बहुत निराशा होगी। इस फैसले से साफ हो गया है कि मनमोहन सिंह सरकार जिस सुशासन और उसके लिए जरूरी पारदर्शिता की दुहाइयां देती रहती है, उसके प्रति उसकी प्रतिबद्धता किस हद तक है ?

इस मामले में यूपीए सरकार का यह तर्क न सिर्फ खोखला बल्कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया तर्क है कि अमेरिका, ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया में भी सूचना के अधिकार के तहत फाइलों पर की गई नोटिंग को सूचना के दायरे से बाहर रखा गया है। तथ्य यह है कि अमेरिका में फैसलों और नीतियों पर पहुंचने की प्रक्रिया में की गई टिप्पणियों को केवल तब तक सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है, जब तक कि फैसला नहीं हो जाता। फैसला हो जाने के बाद उसे सार्वजनिक किया जा सकता है। इसी तरह आस्ट्रेलिया में भी केवल उन्हीं सूचनाओं को सार्वजनिक नहीं किया जाता जिसके बारे में एजेंसी यह साबित कर दे कि यह जानकारी सार्वजनिक हित में नहीं है और यह किसी व्यक्ति के निजी या बिजनेस से संबंधित मामला है।

यह सचमुच अफसोस और चिंता की बात है कि सूचना के अधिकार के जिस कानून को यूपीए सरकार ने इतने धूमधाम के साथ पेश किया और उसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती रही है, उसे ही वह सालभर से भी कम समय में खत्म करने पर तुल गई है। इससे उसकी असलियत सामने आ गई है। उसने अपने को प्रगतिशील और ईमानदार सरकार की तरह पेश करने की कोशिश की लेकिन जैसे ही उसकी प्रगतिशीलता भ्रष्ट तंत्र के लिए चुनौती बनने लगी, उसने प्रगतिशीलता और पारदर्शिता के लबादे को उतार फेंकने में समय बिलकुल नहीं लगाया। 

वैसे भी सूचना का अधिकार कानून बनाने के बावजूद उसके प्रति यूपीए सरकार की प्रतिबद्धता हमेशा ही संदेह के घेरे में रही है। उसने और अन्य राज्य सरकारों ने शुरू से ही इस कानून को लागू करने में जिस तरह से लगातार अडचने पैदा कीं, उससे साफ था कि पारदर्शिता का यह ढोंग बहुत दिनों तक नहीं चलने वाला है।
 
क्या यह हैरत की बात नहीं है कि कानून लागू होने के दस महीनों बाद भी कई राज्यों में सूचना आयोग के गठन का काम अधूरा है। इसी तरह सभी लोक प्राधिकरणों में जनसूचना अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई है जिसके कारण नागरिकों को सूचना हासिल करने में अब भी काफी मुश्किल हो रही है। यही नहीं इस कानून की धारा 4(1) (ख) के तहत विभिन्न सूचनाओं को स्वत: सार्वजनिक करने का काम भी नहीं किया जा रहा है।
 
यही हाल रहा तो सूचना का अधिकार एक मजाक बनकर रह जाएगा। यूपीए सरकार शायद यही चाहती है।