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बुधवार, मई 18, 2011

बेटियों के हत्यारे

सामाजिक टाइम बम्ब में तब्दील हो रहा है लैंगिक असंतुलन


हैरानी की बात नहीं है कि बाल लिंगानुपात के मामले में ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है. देश के सबसे संपन्न इलाके बेटियों के लिए सबसे खतरनाक इलाकों में तब्दील होते जा रहे हैं. हालांकि २००१ की तुलना में २०११ में पंजाब और हरियाणा में बाल लिंग अनुपात में मामूली सुधार हुआ है लेकिन ये दोनों राज्य अब भी बाल लिंगानुपात के मामले में देश के सभी राज्यों में सबसे बदतर स्थिति में हैं.


इन दोनों में बाल लिंगानुपात ८५० से भी नीचे है. इसी तरह बाल लिंगानुपात में सबसे अधिक गिरावट महाराष्ट्र और राजस्थान में दर्ज की गई है जहां पिछले एक दशक में बाल लिंगानुपात घटकर ८८३ रह गया है.

 
कहने की जरूरत नहीं है कि बेटियों की लगातार घटती संख्या एक ऐसे लैंगिक सामाजिक असंतुलन को पैदा कर रही है जो सामाजिक टाइम बम बनता जा रहा है. यह स्थिति सीधे तौर पर सामाजिक अराजकता और तनाव को निमंत्रण देने की तरह है. सवाल यह है कि बाल लिंगानुपात में इस लगातार कमी की वजहें क्या हैं?

 
निश्चय ही, इसके लिए सबसे अधिक वह सामंती पितृ-सत्तात्मक सामाजिक संरचना और सोच जिम्मेदार है जो न सिर्फ महिलाओं के साथ दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार करती है बल्कि महिलाओं को बोझ की तरह समझती है. इस सोच के कारण आज भी बेटियां अवांछित समझी जाती हैं और बेटों के लिए उनकी बलि तक चढ़ाने में संकोच नहीं होता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक सुधार और जनतांत्रिक आन्दोलनों, महिलाओं के जुझारू संघर्षों और कानूनी-संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद यह प्रतिगामी सोच अभी भी कमजोर नहीं हुई है. उल्टे यह सामंती सोच पूंजीवादी उपभोक्तावाद के साथ मिलकर औरत को एक उपभोग की वस्तु की तरह इस्तेमाल करने में जुटी हुई है.

 
पूंजीवादी आधुनिकता के नाम पर औरत को कहने को दिखावटी आज़ादी मिली है लेकिन वास्तविकता में उसकी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. औरतों के प्रति बर्बरता और क्रूरता नए रूपों में सामने आई है. आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल करके बालिका भ्रूण हत्या सबसे अधिक पढ़े-लिखे और आधुनिक परिवारों में ही हो रही है.

यही नहीं, तमाम आर्थिक तरक्की और बेटे और बेटी में कोई फर्क न होने के दावों के बावजूद लड़कियां किस कदर अवांछित बनी हुई हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पैदा होने के बाद बेटों की तुलना में बेटियों के जिन्दा रहने की उम्मीद कम रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एन.एफ.एच.एस) के मुताबिक, १९९३-९७ के बीच पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर का अनुपात प्रति हजार लड़कों पर १०११ लड़कियों का था जो कि २०००-०४ के बीच बढ़कर १०४५ हो गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी वजह पैदा होने के बाद बेटियों की उपेक्षा और उनकी देखभाल में जानबूझकर बरती जानेवाली लापरवाही है.
   
यह सचमुच कितनी शर्मनाक बात है कि आर्थिक महाशक्ति बनने का दावा करनेवाले देश में जन्म के पहले वर्ष में लड़के की तुलना में एक लड़की के मरने की आशंका ४० प्रतिशत अधिक है जबकि पहले से पांचवें जन्मदिन के बीच लड़के की तुलना में एक लडकी के जिन्दा न रहने की आशंका ६१ फीसदी ज्यादा है.

 
इससे पता चलता है कि ऊँची विकास दर के बावजूद सामाजिक तौर पर भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ आगे बढ़ने को तैयार नहीं है बल्कि और प्रतिगामी होता जा रहा है. वह वैश्विक होती अर्थव्यवस्था और उसके साथ आ रही नकली और अधकचरी आधुनिकता और दूसरी ओर, महिलाओं की बढ़ती दावेदारी के साथ तालमेल न बैठा पाने का बदला लड़कियों और महिलाओं से निकाल रहा है.
   
नतीजा, हाल के वर्षों में लड़कियों के पब में जाने या वैलेंटाइन डे पर प्रेम के खुले इजहार के खिलाफ भगवा ब्रिगेड और नैतिकता के ठेकेदारों के हिंसक हमले या जाति-बिरादरी के बाहर प्रेम और विवाह के फैसले के खिलाफ खाप पंचायतों और परिवारों के हमले बढ़े हैं. इसी का दूसरा पहलु यह है कि लड़के की चाह न सिर्फ बढ़ती जा रही है बल्कि बदलते समय और आर्थिक दबावों के कारण परिवार छोटा रखने के दबाव का असर बढ़ते लिंग चयन (पुत्र के पक्ष में) के रूप में सामने आ रहा है.

 
इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले दो दशकों में लिंग चयन में इस्तेमाल होनेवाली अल्ट्रा-साउंड मशीनों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है. अब यह किसी से छुपा नहीं है कि इन मशीनों की बढ़ती संख्या और बाल लिंगानुपात में गिरावट के बीच सीधा सम्बन्ध है.

 
यू.एन.एफ.पी.ए की एक रिपोर्ट के अनुमानों के मुताबिक, २००१-०५ के बीच प्रति २० बेटियों के जन्म पर एक बालिका भ्रूण का गर्भपात करवाया गया जो कि १९९६-२००० के बीच प्रति ३० बालिकाओं के जन्म पर एक बालिका भ्रूण के गर्भपात का था. इसका अर्थ यह हुआ कि २००१-०५ के बीच लिंग चयन के बतौर हर साल लगभग ५ लाख बालिका भ्रूणों का गर्भपात करवाया गया.

कहने की जरूरत नहीं है कि लिंग चयन के लिए अल्ट्रा-साउंड के इस्तेमाल के सबसे अधिक मामले उच्च और मध्यम वर्गीय परिवारों में देखे जाते हैं क्योंकि अल्ट्रा-साउंड के इस्तेमाल की फ़ीस देने की कूवत गरीब परिवारों में कम ही है. हालांकि देश के कुछ उत्तरी राज्यों में समृद्ध ग्रामीण परिवार भी इसमें पीछे नहीं हैं.  

 
लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि लिंग परीक्षण पर कानूनी रोक लगानेवाले पी.एन.डी.टी कानून के बावजूद न सिर्फ धड़ल्ले से लिंग परीक्षण और बालिका भ्रूण हत्या हो रही है बल्कि अल्ट्रा-साउंड मशीनों का काला कारोबार अस्पतालों-जांच केन्द्रों, डाक्टरों, पुलिस और अन्य सरकारी महकमों के संगठित गठजोड़ के संरक्षण में फल-फूल रहा है.
 
आश्चर्य नहीं कि यह आम शिकायत है कि बहुतेरी अल्ट्रा-साउंड मशीनें बिना किसी पंजीकरण के चल रही हैं. उनपर कभी कार्रवाई नहीं होती. यहां तक कि जिन कुछ मामलों में कार्रवाई हुई भी, उनमें बहुत कम मामलों में औपचारिक मुक़दमा दर्ज हुआ या फिर सजा हुई.

निश्चय ही, इसके पीछे भ्रष्टाचार के अलावा एक बड़ी वजह कानून लागू करनेवाली एजेंसियों और उनके अधिकारियों-कर्मचारियों पुरुष-सत्तात्मक और स्त्री विरोधी सोच का हावी होना है. इन एजेंसियों में पी.एन.डी.टी कानून तोड़नेवालों के प्रति एक छिपी हुई सहानुभूति देखी जा सकती है.

 
हैरानी की बात नहीं है कि लिंग चयन और बालिका भ्रूण हत्या के मामलों को रोकने में यह कानून पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ है. 

(सामयिक वार्ता के मई'११ अंक में प्रकाशित आलेख) 

मंगलवार, मई 17, 2011

कहां गईं बेटियां ?


उत्तर भूमंडलीकरण दौर में भी महिलाओं के खिलाफ सामाजिक-आर्थिक भेदभाव जारी है   



जनगणना २०११ के प्रारंभिक नतीजे उम्मीदों और आशंकाओं के मुताबिक ही हैं. जैसाकि ऐसी किसी भी बड़ी जनगणना के साथ होता है, इसमें भी कुछ अच्छी ख़बरें हैं, कुछ बहुत अच्छी ख़बरें नहीं हैं और कुछ बहुत निराश और चिंतिंत करनेवाली खबरें भी हैं. यह कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप जनगणना नतीजों को कहां खड़े होकर देख रहे हैं?

बड़ी आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ माननेवाले सरकारी हलकों के लिए ताजा जनगणना के नतीजे अपनी नाकामियों का ठीकरा बढ़ती आबादी पर फोड़ने के एक और मौके की तरह आए हैं.  हमेशा की तरह बढ़ती आबादी को लेकर छाती पीटने का क्रम शुरू हो गया है और देश के भविष्य को लेकर एक से एक भयावह तस्वीर खींची जा रही है.


हालांकि तथ्य यह है कि देश में आबादी बढ़ने की रफ़्तार लगातार कम हो रही है. ताजा जनगणना से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. इसके मुताबिक, जहां २००१ की पिछली जनगणना में १९९१-२००१ के बीच जनसंख्या की सालाना औसतन वृद्धि दर १.९५ प्रतिशत थी, वहीँ २००१ से २०११ के बीच जनसंख्या की औसतन सालाना वृद्धि दर गिरकर १.६२ प्रतिशत रह गई है.

सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि तमिलनाडु को छोड़कर देश के सभी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी दर्ज की गई है. तमिलनाडु में बढ़ोत्तरी की वजह बाहर से आप्रवासन को माना जा रहा है. जनसंख्या की वृद्धि दर में इस गिरावट से साफ है कि आबादी में बढ़ोत्तरी की रफ़्तार कम हो रही है. इसके बावजूद जनसंख्या बम का हौवा खड़ा करनेवाले आबादी को कोसने में लगे हैं.
 

लेकिन दूसरी ओर वे न सिर्फ साक्षरता में वृद्धि के लिए अपनी पीठ ठोंकने में जुटे हुए हैं बल्कि आबादी में युवाओं की बढ़ती तादाद को लेकर जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) के दावे भी कर रहे हैं. यह और बात है कि इस जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और युवाओं को बेहतर शिक्षा और मौके मुहैया कराने में उनकी ओर से अब तक कोई खास पहल या गंभीर कोशिश नहीं की गई है. उसके कारण जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति एक बड़ी दुर्घटना में तब्दील होती दिख रही है.


जनगणना से जनसंख्या वृद्धि दर में कमी और साक्षरता में बढ़ोत्तरी के अलावा एक और कुछ राहत की खबर यह है कि देश की कुल आबादी में महिला-पुरुष यानी लिंग अनुपात में मामूली सुधार हुआ है. ताजा जनगणना के मुताबिक, देश की आबादी में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की आबादी २००१ के ९२६ से बढ़कर ९४० हो गई है. १९६१ में भी लिंग अनुपात यही था. हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि लिंग अनुपात में यह सुधार जनगणना में प्रक्रिया में सुधार खासकर महिलाओं की गणना पर अतिरिक्त जोर देने के कारण भी हो सकता है.

लेकिन इस मामूली सुधार के बावजूद तथ्य यह है कि भारत और चीन, दुनिया के दस सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों में हैं जहां लिंग अनुपात सबसे बदतर है. इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि लिंग अनुपात के मामले में पड़ोसी देशों नेपाल, बर्मा, बंगलादेश और श्रीलंका और यहां तक कि पाकिस्तान का रिकार्ड भारत से बेहतर है!

यही नहीं, लिंग अनुपात में मामूली सुधार की वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में महिलाएं अपने वजूद को लेकर न सिर्फ अधिक सजग और मुखर हुई हैं बल्कि अपने संघर्षों के कारण प्रतिकूल सामंती और उपभोक्तावादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे के भीतर भी अपने लिए स्थितियां कुछ बेहतर कर पाई हैं. उनकी औसत आयु, जीवन और शैक्षिक स्तर में मामूली सुधार हुआ है जिसकी वजह से लिंग अनुपात में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है.

इसके बावजूद यह एक कड़वी सच्चाई है कि उत्तर भूमंडलीकरण और उदारीकरण के पिछले दो दशकों में कई मामलों में महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है. उनके खिलाफ हिंसा और अपराध के मामले बढ़े हैं. खाप पंचायतों के बर्बर हमले बढ़े हैं और खाप मानसिकता के असर से शहर और आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार भी अछूते नहीं बचे हैं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक दशक में देश में महिला-पुरुष अनुपात में मामूली सुधार के बावजूद हैरान करनेवाली खबर यह है कि देश में सुशासन के माडल माने जानेवाले राज्यों गुजरात और बिहार के अलावा सिर्फ जम्मू-कश्मीर में महिला-पुरुष अनुपात पहले की तुलना में और बिगड़ा है.

यही नहीं, गुजरात एकमात्र राज्य है जहां ९० और २१ वीं सदी के पहले दशक में लगातार महिला-पुरुष अनुपात में गिरावट दर्ज की गई है. २०११ में गुजरात में महिला-पुरुष अनुपात ९२० रह गया है और बाल लिंगानुपात के मामले में यह सिर्फ ८८६ है. क्या इसके लिए नरेंद्र मोदी की भगवा पुरुषत्वपूर्ण राजनीति जिम्मेदार है? कहना मुश्किल है लेकिन निश्चय ही, इसके लिए गुजरात की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है.


लेकिन इस जनगणना से सबसे चौंकानेवाली खबर यह है कि छह वर्ष से कम के आयु वर्ग में लड़कों की तुलना में लड़कियों की जनसंख्या में गिरावट का क्रम जारी है. जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, ०-६ वर्ष के आयुवर्ग में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या १९९१ के ९४५ से घटते हुए २००१ में ९२७ और अब २०११ में ९१४ रह गई है. उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में माना जाता है कि बाल लिंगानुपात का कम से कम ९५० होना चाहिए.

लेकिन भारत में बाल लिंगानुपात १९६१ के ९७६ के स्तर से लगातार नीचे जा रहा है. इसका अर्थ यह हुआ कि १९६१ से १९९१ के बीच तीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर ३१ बेटियों कम हो गईं. लेकिन चिंता की बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले बीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर और ३१ बेटियां गुम हो गईं. साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के इस दौर में बेटियां और भी अवांछित होती जा रही हैं.

जारी...