बुधवार, जनवरी 27, 2010

साठ का गणतंत्र
दोराहे पर मीडिया
क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि जिस समय गणतंत्र साठ का हो रहा है, देश में 'पेड न्यूज' यानि पैसा लेकर खबरों की शक्ल में विज्ञापन छापने पर तीखी बहस चल रही है? क्या यह भी सिर्फ संयोग है कि जिस संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके जरिये मीडिया की आज़ादी की गारंटी की गई है, उसके साठ साल के होने के मौके पर देश में मीडिया को 'रेगुलेट'(नियंत्रित) करने की मांग को लेकर बहस तेज हो रही है? निश्चय ही, यह सिर्फ संयोग नहीं है. ये दोनों ही मुद्दे एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और उनका सीधा सम्बन्ध मुख्यधारा के मीडिया उद्योग की मौजूदा दशा-दिशा से है.

इन दोनों ही मुद्दों और उनपर जारी बहसों से यह पता चलता है कि पिछले साठ सालों में भारतीय मीडिया कहाँ से कहाँ पहुंच गया है? कहाँ साठ साल पहले संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार देते हुए मीडिया से यह अपेक्षा थी कि वह देश के करोड़ों बेजुबान लोगों की आवाज़ बनेगा, एक सजग और बेख़ौफ़ पहरेदार की तरह सत्तातंत्र की निगरानी करेगा, लोगों को एक सक्रिय, सजग और सतर्क नागरिक बनने में मदद के लिए सभी जरूरी सूचनाएं बिना किसी घालमेल और पूर्वाग्रह के पहुंचाएगा और विभिन्न विचारों को एक खुला मंच देकर देश में बहस-मुबाहिसे का एक लोकतान्त्रिक माहौल बनाएगा. लेकिन कहाँ साठ साल बाद बहस इस बात पर हो रही है कि क्या मीडिया के लिए मुनाफा ही सब कुछ है? क्या पैसे लेकर विज्ञापन को खबर की तरह छापना नैतिक और जायज है? क्या मीडिया की कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है या होनी चाहिए?

असल में, मीडिया खासकर समाचार मीडिया के स्वास्थ्य से हम अपने गणतंत्र की सेहत का भी अंदाज़ा लगा सकते हैं. एक स्वस्थ और सक्रिय मीडिया के बिना एक जीवंत और गतिशील गणतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यही कारण है कि भारतीय गणतंत्र ने अपने सभी नागरिकों को एक मौलिक अधिकार के बतौर अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार दिया है. लेकिन मीडिया को अलग से कोई अधिकार नहीं दिया गया है और उसकी आज़ादी अनिवार्य और अभिन्न रूप से नागरिकों की आज़ादी से जुडी हुई है. मीडिया की आज़ादी नागरिकों की आज़ादी का विस्तार है. न कुछ इससे अधिक और न कुछ इससे कम.

इस मायने में, एक स्वस्थ मीडिया के लिए उसकी स्वतंत्रता, निर्भीकता, निष्पक्षता, विविधता और बहुलता बहुत जरूरी है. यही उसके स्वस्थ होने की निशानी हैं. लेकिन अगर इन कसौटियों पर साठ के गणतंत्र के मीडिया को कसा जाए तो उसके स्वास्थ्य को लेकर उम्मीद कम और चिंता ज्यादा होती है. हालांकि उसके पास खुश होने के लिए भी बहुत कुछ है लेकिन उससे निराशा की भी बहुत वजहें हैं. निश्चय ही, इस बात पर खुश हुआ जा सकता है कि ऐसे समय में जब विकसित देशों में मीडिया कम्पनियां लड़खड़ा रही हैं, अख़बार संकट में हैं, देश में मीडिया का बहुत तेजी से विस्तार हो रहा है. मीडिया की पहुंच बढ़ रही है. नए-पुराने अख़बार, टी.वी. चैनल, रेडियो स्टेशन और इन्टरनेट खूब फलफूल रहे हैं. मीडिया कंपनियों का मुनाफा बढ़ रहा है.

लेकिन एक व्यवसाय के बतौर मीडिया उद्योग के फलने-फूलने के बावजूद खुद मीडिया विश्वसनीयता और पहचान के संकट से गुजर रहा है. मीडिया उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश और उसके कारपोरेटीकरण के बाद मीडिया के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. मीडिया कंपनियों पर उनके देशी-विदेशी निवेशकों की ओर से अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का दबाव बढ़ा है. इस कारण मीडिया कंपनियों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव भी काफी ज्यादा बढ़ गया है. नतीजा यह कि वे मीडिया के कंटेंट को प्रभावित कर रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि समाचार मीडिया में कार्पोरेट क्षेत्र की गडबडियों और अनियमितताओं की खबरें न के बराबर छपती हैं.

दूसरी ओर, मीडिया के सरोकारों का दायरा भी घटा है. वह मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के सरोकारों से अधिक संचालित हो रहा है. वह अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को नागरिक की तरह नहीं बल्कि उपभोक्ताओं की तरह 'ट्रीट' कर रहा है. जाहिर है कि नागरिक की सूचना जरूरतें अलग होती हैं और उपभोक्ताओं की अलग. दोनों की चिंताएं और सरोकार भी काफी हद तक अलग होते हैं. एक उपभोक्ता अपने उपभोग को लेकर चिंतित रहता है और उसे आमतौर पर इसकी परवाह नहीं होती है कि उसके बढ़ते उपभोग से देश की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और समाज पर क्या असर पड़ रहा है? लेकिन एक नागरिक की पहली चिंता बढ़ते उपभोग के असर को लेकर होगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि एक स्वस्थ गणतंत्र को उपभोक्ता से अधिक नागरिक चाहिए. ऐसे नागरिक जो नागरिक पहले हैं और उपभोक्ता बाद में. जाहिर है कि लोगों में नागरिक के ये संस्कार पैदा करने और आगे बढाने में मीडिया की बहुत अहम भूमिका है. लेकिन चिंता की बात यह है कि कार्पोरेट मीडिया अपने पाठकों,दर्शकों और श्रोताओं को नागरिक बनाने में नहीं बल्कि उपभोक्ता बनाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है.यह गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए घातक है. इससे मीडिया कंपनियों का मुनाफा जरूर बढ़ सकता है लेकिन गणतंत्र का घाटा बढ़ जायेगा.

साफ है कि साठ के गणतंत्र के मौके पर मीडिया एक दोराहे पर खड़ा है. वह जिस राह पर जा रहा है, उसमे आगे खतरा है. यह राह उसकी पहचान ख़त्म कर देगी. साथ ही, यह गणतंत्र के लिए भी मीडिया के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित होने का समय है. आखिर गणतंत्र और मीडिया का स्वास्थ्य एक-दूसरे से गहराई से जुड़ा है. आश्चर्य नहीं कि एक-दूसरे का संक्रमण दोनों को बीमार बना रहा है.

मंगलवार, जनवरी 26, 2010

साठ का गणतंत्र

तेज  बढ़ती  अर्थव्यवस्था में 'गण'  की  जगह

साठ साल  के गणतंत्र में भारतीय अर्थव्यवस्था ने एक लम्बा सफर तय किया है. इस बीच, अर्थव्यवस्था में कई बदलाव आये हैं.अर्थव्यवस्था नेहरूवादी समाजवाद का खोल उतारकर निजी देशी-विदेशी पूंजी के नेतृत्व में उदारीकरण-भूमंडलीकरण की राह पर सरपट दौड़ रही है. वह 'हिन्दू वृद्धि दर' से आज दुनिया की दूसरी सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ पिछले डेढ़ दशक में देश में खूब समृद्धि भी आई है. वह समृद्धि भले ही देश के सभी वर्गों तक नहीं पहुंची हो लेकिन अमीरों के अलावा मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग के एक बड़े हिस्से को इसका जबरदस्त लाभ हुआ है. आश्चर्य नहीं कि अपनी गरीबी के लिए जाने जानेवाले भारत में अरबपतियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है. 'फ़ोर्ब्स' पत्रिका के मुताबिक डालर अरबपतियों की सूची में भारत अमेरिका और चीन के बाद ५८ अरबपतियों के साथ दुनिया भर में तीसरे स्थान पर है.

यही नहीं, भारतीय डालर अरबपतियों की कुल सम्पदा चीनी अरबपतियों की सम्पदा से काफी अधिक है. इस मायने में भारत अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है. साफ है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालिया गतिशीलता के साथ देश में सम्पदा बरस रही है. आज भारतीय अर्थव्यवस्था एक खरब डालर की अर्थव्यवस्था हो चुकी है. निश्चय ही, अर्थव्यवस्था के इस 'चमत्कारी' प्रदर्शन ने दुनिया भर का ध्यान खींचा है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार पर दांव लगने के लिए दुनिया भर की बड़ी-बड़ी कम्पनियां कतार लगाये खड़ी हैं. कहा जा रहा है कि आनेवाले दशकों में  भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाएं ही वैश्विक अर्थव्यवस्था के इंजन के रूप में काम करेंगी.

लेकिन चिंता की बात यह है कि आज से साठ साल पहले जिस 'गण' की सेवा के लिए भारत गणतंत्र बना, उस 'गण' को तेजी से दौड़ रही अर्थव्यवस्था के बहुत कम लाभ मिले हैं. खुद सरकारी आंकड़े इस तथ्य की गवाही देते हैं. उदाहरण के लिए अभी हाल ही में जाने-माने अर्थशास्त्री सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में देश में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों का सही अनुमान लगाने के लिए गठित योजना आयोग की समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि देश में गरीबों की संख्या कुल आबादी का 37 प्रतिशत है. यह योजना आयोग के मौजूदा अनुमान 27 प्रतिशत से काफी ज्यादा  है. लेकिन उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि जब देश में अर्थव्यवस्था औसतन 7से 8प्रतिशत की रफ़्तार से कुलांचे भर रही थी और समृद्धि और उसके साथ डालर अरबपतियों की संख्या दिन दूनी,रात चौगुनी बढ़ रही थी, उस समय देश में गरीबों की तादाद में मात्र सालाना औसतन 0.74 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई.

सवाल है कि अर्थव्यवस्था से निकल रही जबरदस्त समृद्धि कहाँ जा रही है? निश्चय ही इस सवाल का एक सिरा देश में डालर अरबपतियों की संख्या में तेजी से हो रही वृद्धि से जुड़ता है. जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं है कि डालर अरबपति देश की कुल जनसंख्या के मात्र 0.00001 प्रतिशत हैं लेकिन देश के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी)के एक चौथाई हिस्से पर उनका कब्ज़ा है. दूसरी ओर, खुद सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति के मुताबिक देश की कुल आबादी का 78 प्रतिशत हिस्सा प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम की आय पर गुजर कर रहा है. साफ है कि देश में गैर बराबरी बढ़ रही है. सच पूछिए तो आज गरीबी से कहीं अधिक आर्थिक विषमता और गैर बराबरी भारतीय गणतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है.

यह गैर बराबरी कई रूपों में उभरकर हमारे सामने आ रही है. इसका एक रूप तो मौजूदा महा महंगाई में भी देखा जा सकता है.क्या यह चिंता की बात नहीं है कि गणतंत्र बनने के बाद देश ने अन्न उत्पादन में बहुत तरक्की की है लेकिन प्रति व्यक्ति/प्रति दिन खाद्यान्नों की उपलब्धता लगातार कम हुई है?उदाहरण के लिए 1951 में प्रति व्यक्ति/प्रति दिन अनाजों और दालों की उपलब्धता क्रमश: 334 और 61 ग्राम (कुल 394 ग्राम) थी, वह आर्थिक तरक्की के साथ बढ़ते हुए 1971 में लगभग 417 और 51 ग्राम (कुल 469 ग्राम) और 1991 में 468 और 42 ग्राम (कुल 510 ग्राम) हो गई लेकिन अब 2007 में यह घटकर 407 और 35 ग्राम (कुल 442 ग्राम) रह गई है. साफ है कि आज देश में प्रति व्यक्ति/प्रति दिन अनाजों/दालों की उपलब्धता 1971 से भी कम रह गई है. 

हालांकि कई लोगों का मानना है कि आर्थिक समृद्धि के साथ लोगों ने अनाजों के बजाय अंडे-मांस-दूध और सब्जियां अधिक खाना शुरू कर दिया है. इस दावे में थोड़ी सच्चाई है लेकिन 20 रूपये से कम पर गुजर-बसर करनेवाले कोई 80 करोड़ लोगों के लिए सच यही है कि उन्हें हर दिन दोनों जून दाल-रोटी के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है.यही कारण है कि पिछले साठ वर्षों में आर्थिक तरक्की कि तेज रफ़्तार के बावजूद हमारे गणतंत्र का 'गण' कहीं पीछे छूटता जा रहा है. वह अर्थव्यवस्था की तेज रफ़्तार के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रहा है. यही नहीं, कहीं न कहीं उसे यह भी लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं को उसकी परवाह नहीं रह गई है.            

जबरदस्त आर्थिक तरक्की के बावजूद साठा का पाठा हो रहे गणतंत्र के लिए यह चिंता और उससे अधिक गंभीर चिंतन का विषय होना चाहिए. आखिर 'गण' को नज़रंदाज़ करके अर्थव्यवस्था का गणतंत्र कैसे आगे बढ़ सकता है?            

रविवार, जनवरी 17, 2010

मीडियानामा

सबसे बड़े अखबार का "छोटापन" 
ऐसा लगता है कि देश के सबसे अधिक पाठक संख्यावाले अखबार ने अपनी "लोकप्रियता" की पूरी कीमत वसूलने का फैसला कर लिया है. इसके लिए वह किसी भी हद तक गिरने को तैयार है. मीडिया वेबसाईट "भड़ास-फार-मीडिया" की एक रिपोर्ट के अनुसार अब इस अखबार ने बिहार में पंचायत दर्शिका यानि पंचायत सदस्यों की फोन डायरी छापने के नाम पर ग्राम प्रधानो यानि मुखियाओं से पांच-पांच हज़ार रूपये वसूलने के काम में अपने संपादकीय विभाग का इस्तेमाल करते हुए रिपोर्टरों और स्ट्रिंगरों को लगा दिया है. जो रिपोर्टर/स्ट्रिंगर पैसा वसूलने के लिए तैयार नहीं है, उसे नौकरी से निकालने  की धमकी दी जा रही है. जाहिर है कि मुखियाओं से पैसा वसूलने के लिए उस अख़बार के पत्रकारों को न सिर्फ अपनी संपादकीय स्वतंत्रता से समझौता करना पड़ेगा बल्कि एक ब्लैकमेलर की तरह अखबार का डर दिखाकर पैसा वसूलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. इस तरह पैसा वसूलने के बाद कौन रिपोर्टर पैसा देनेवाले मुखिया के बारे में ईमानदारी से रिपोर्ट लिख सकेगा?

इस प्रकरण ने साफ कर दिया है कि "पेड न्यूज" यानि पैसा लेकर खबर छापने के लिए कुख्यात हो चुके इस अखबार को प्रेस परिषद् और एडिटर्स गिल्ड से लेकर जाने-माने संपादकों-पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं की कोई परवाह नहीं है, पछतावा तो दूर की बात है. इससे यही लगता है कि उसने व्यापक बौद्धिक जनमत को ठेंगा दिखाते हुए अखबार को येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाने की मशीन मान लिया है. ऐसा करते हुए उसे किसी पत्रकारीय नैतिकता, आचार संहिता और मूल्यों की परवाह नहीं रह गई है. यह और बात है कि इस अखबार को चलनेवाली कंपनी ने अपनी वेबसाईट पर एक लम्बी चौड़ी आचार संहिता में नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें की हैं. लेकिन ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक मुनाफा बनाने के लिए कंपनी को अपने ही वायदे का ध्यान नहीं रह गया है.

हालांकि इस और ऐसे ही कई दूसरे अखबारों के लिए यह कोई नई बात नहीं है. 80 के दशक में ही ऐसे अधिकांश अखबारों ने अपने रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को बाकायदा विज्ञापन इक्कठा करने के काम में लगा दिया था. इन रिपोर्टरों/स्ट्रिंगरों को वेतन के बदले विज्ञापन लाने का कमीशन मिलता था. बात वहीँ तक नहीं रुकी. जल्दी ही कई अखबार मालिकों  ने अपने संपादकों-पत्रकारों का इस्तेमाल अपने जायज-नाजायज व्यापार-उद्योग धंधों के लिए लाइजनिंग करने में शुरू कर दिया. पिछले डेढ़ दशक में यह प्रवृत्ति एक महामारी का रूप ले चुकी है और शायद ही कोई मीडिया समूह इसका अपवाद रह गया हो. अखबार या समाचार मीडिया की इसी ताकत से आकर्षित होकर पिछले दशक में जायज-नाजायज धंधे से जुड़े न जाने कितने बिल्डर-व्यापारी-नेता और चिट फंड कंपनियों ने अपना अखबार-चैनल शुरू किया जिसका असली मकसद अपने धंधों के लिए सुरक्षा, समाज में सम्मान और सत्ता से लाइजनिंग करना था और है.

जाहिर है कि ऐसे अखबारों-चैनलों से पैसा लेकर खबर छापने या दबाने की ही अपेक्षा की जा सकती है. हालांकि ऐसा करते हुए वे अपना ही नुकसान कर रहे हैं क्योंकि पाठकों-दर्शकों का विश्वास खोकर वे खुद लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकते हैं. लेकिन मुनाफे की हवस ने उन्हें अँधा बना दिया है. वे अपने तौर तरीकों में बदलाव लाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन सोचने की बात यह है कि ऐसे अखबारों-चैनलों के कारण पाठक के बतौर हमे और आपको क्या नुकसान हो रहा है? यह सीधे-सीधे हमारे-आपके जानने के अधिकार का हनन है. एक भ्रष्ट और अनैतिक मीडिया से निकलनेवाली आधी-अधूरी और झूठी सूचनाएं हमें नागरिक के बतौर अपनी भूमिका तार्किक तरीके से निभाने के अयोग्य बना देती हैं. साफ है कि ऐसा मीडिया लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत नहीं कर रहा है बल्कि उसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहा है.         

गुरुवार, जनवरी 07, 2010

नए साल में आई.आई.एम.सी

क्या अब द्विवर्षीय पत्रकारिता डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू करने का समय आ गया है?
 
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आई.आई.एम.सी का मौजूदा एक वर्षीय पत्रकारिता डिप्लोमा पाठ्यक्रम न सिर्फ समय की कसौटी पर खरा उतरा है बल्कि उसने समाज और मीडिया जगत में अपनी एक खास और अलग पहचान बनाई है. हमारे विद्यार्थियों ने मीडिया और पत्रकारिता के लगभग हर क्षेत्र में अपनी धाक जमाई है. 
 
लेकिन बदलते हुए समय के साथ सबको बदलना चाहिए. मीडिया और पत्रकारिता में हो रहे व्यापक बदलावों को ध्यान में रखते हुए क्या आई.आई.एम.सी को अपने पाठ्यक्रमों को और व्यापक और सघन बनाने की जरूरत नहीं है?
 
आप क्या सोचते हैं कि क्या आई.आई.एम.सी को अपने पाठ्यक्रमों में आमूल-चूल बदलाव नहीं करना चाहिए?  ऐसी जरूरत पिछले काफी वर्षों से महसूस की जा रही है कि हमें अपने एक वर्षीय पाठ्यक्रम को अब द्विवर्षीय बनाना चाहिए और विद्यार्थियों को नई चुनौतियों के लिए तैयार करना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि पाठ्यक्रम में और गहराई लाई जाये और उसे व्यापक बनाया जाये. 
 
यह नए दौर की मांग है कि  हमें अपने विद्यार्थियों को मल्टी-टास्किंग के लिए तैयार करना चाहिए. आप क्या सोचते हैं? अपनी राय जरूर दीजिये..यह भी बताइए कि हमें अपने नए विद्यार्थियों को और क्या पढाना और बताना चाहिए? आपकी राय हमारे लिए बहुत बेशकीमती है..   
 
आपकी राय का बेसब्री से इंतजार है.

बुधवार, जनवरी 06, 2010

नए साल में अर्थव्यवस्था

नए साल में अर्थव्यवस्था को खुशफहमी नहीं सतर्कता चाहिए  

 

नया साल 2010 अर्थव्यवस्था के लिए क्या लेकर आ रहा है? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर हर आमो-खास की नज़रें लगी हुई है.  कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से मनमोहन सिंह सरकार को काफी उम्मीदें हैं. उसे विश्वास है कि इस साल अर्थव्यवस्था न सिर्फ पूरी तरह से पटरी पर आ जाएगी बल्कि वैश्विक मंदी से पहले की तेज रफ़्तार पकड़ लेगी. खुद प्रधानमंत्री और उनकी सलाहकार परिषद का मानना है कि बीते साल में वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने जबरदस्त जिजीविषा का परिचय दिया है और चालू वित्तीय वर्ष (2009-10) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7 प्रतिशत तक पहुंच सकती है. यही नहीं, उनका यह भी मानना है कि अगले दो सालों में अर्थव्यवस्था फिर से ९ प्रतिशत की सुपर सोनिक गति पकड़ लेगी.

 

तात्पर्य यह कि चिंता की कोई बात नहीं है. जाहिर है कि यह दावा करते हुए यू.पी.ए सरकार न सिर्फ देश को आश्वस्त करने की कोशिश कर रही है कि अर्थव्यवस्था की लगाम और उसका नियंत्रण पूरी तरह से उसके हाथ में है बल्कि अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर अपनी पीठ भी ठोंकने में लगी हुई है. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के छोटे-बड़े मैनेजर तक देश में और उससे बाहर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में मौजूदा विपरीत परिस्थितियों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की 6.9 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर के मद्देनजर उसके बेहतर प्रबंधन का श्रेय लेते घूम रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर सिर्फ जी.डी.पी की वृद्धि दर के पैमाने पर देखा जाए तो अर्थव्यवस्था ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है. लेकिन सवाल है कि क्या सिर्फ जी.डी.पी वृद्धि दर को अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत का सूचक माना जा सकता है?

 

निश्चय हीनहीं. सच यह है कि अर्थव्यवस्था के कई ऐसे मोर्चे हैं जहां यू.पी.ए सरकार का प्रबंधन न सिर्फ नाकाम रहा बल्कि स्थिति पूरी तरह से उसके नियंत्रण से बाहर दिखी. आसमान छूती महंगाई खासकर खाने-पीने की वस्तुओं और अनाजों-सब्जियों की रिकार्डतोड़ महंगाई पिछले साल भी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी रही और नए साल में भी इस बेकाबू महंगाई पर नियंत्रण पाना एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी. कृषि और खाद्य मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि रबी की अच्छी फसल आने के बाद ही महंगाई पर कुछ लगाम लग सकेगा. इसका अर्थ यह हुआ कि सब कुछ मौसम के किन्तु-परन्तु पर निर्भर है. अगर अगले तीन-चार महीनों में मौसम ने अपना मिजाज ठीक रखा और रबी की अच्छी पैदावार हुई तो महंगाई कुछ हद तक काबू में आ सकेगी. 

 

यही नहीं, महंगाई के जिन्न को काबू में करने के लिए सिर्फ रबी ही नहीं बल्कि इन्द्र देवता को भी मनाना पड़ेगा. अर्थव्यवस्था के लिए बीते साल की तरह एक बार फिर मानसून की विफलता बहुत भारी पड़ सकती है क्योंकि मौजूदा सरकार सहित अधिकांश सरकारों ने मानसून की विफलताओं से कुछ नहीं सीखा है और न ही उनके पास इससे निपटने की कोई ठोस और दीर्घकालीन योजना और उसे लागू करने की इच्छाशक्ति है. यही कारण है कि यू.पी.ए सरकार निश्चिंत है कि इस साल मानसून अच्छा रहेगा और पटरी पर लौटती अर्थव्यवस्था को इससे और गति मिलेगी. लेकिन साफ तौर पर यह एक जुआ है. सब कुछ मानसून के मिजाज पर निर्भर करता है और उसके बारे में दावे के साथ कोई कुछ नहीं कह सकता है. अगर मानसून इस साल भी गड़बड़ाया तो क्या सरकार के पास इससे निपटने के लिए कोई तैयारी है?

 

इस साल सरकार  के लिए दूसरी सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि जी.डी.पी कि वृद्धि दर को कैसे बनाये रखा जाए? असल मेंसरकार एक दुविधा में फंसी हुई है. दुविधा यह है कि वित्तीय घाटे को काबू में रखते हुए उच्च विकास दर कैसे हासिल की जाए? यह दुविधा इसलिए है कि वैश्विक मंदी और देश में सूखे के बावजूद अर्थव्यवस्था में मौजूदा 7 प्रतिशत के लगभग की वृद्धि दर सरकार के भारी-भरकम प्रोत्साहन पैकेजों के कारण संभव हो पाई है. लेकिन करीब दो लाख करोड़ रूपये के प्रोत्साहन पैकेजों और छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के कारण वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ६.प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुका है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अटूट आस्था रखनेवालों के लिए यह किसी कुफ्र से काम नहीं है. यही कारण है कि वित्त मंत्री बार-बार कह रहे हैं कि इतना अधिक घाटा अर्थव्यवस्था के दूरगामी स्वास्थ्य के लिए घातक है और इसे लम्बे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता है. लेकिन सवाल है कि इन प्रोत्साहन पैकेजों को कब और कैसे वापस लिया जाए

 

जाहिर है कि इस मुद्दे पर सरकार में सहमति नहीं है. हालांकि अर्थव्यवस्था के नव उदारवादी मैनेजर इन प्रोत्साहन पैकेजों को जल्दी से जल्दी वापस लेना चाहते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि उन्हें भी पता है कि इन्हें वापस लेने पर अर्थव्यवस्था लड़खड़ा सकती है. निश्चय ही इस मामले में सरकार को हड़बड़ी में कोई फैसला करने के बजाय सोच-समझकर फैसला करना चाहिए. हालांकि फैसले की घडी बिलकुल सामने है. वित्त मंत्री को नए बजट में सरकार का रवैया साफ करना होगा. यही नहीं, उन्हें बजट में इस बारे में भी ठोस फैसला करना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा कृषि क्षेत्र को कैसे मिलेपिछले साल के सूखे ने कृषि क्षेत्र के लिए भी एक बड़े प्रोत्साहन पैकेज की जरूरत के सवाल को बहुत शिद्दत के साथ उठा दिया है. 

 

साथ ही, नए वर्ष में सरकार को इस सवाल का भी जवाब जरूर तलाशना होगा कि प्रोत्साहन पैकेजों का फायदा उठाकर लाभ बटोर रहा उद्योग जगत इसका लाभ न सिर्फ उपभोक्ताओं तक पहुंचाए बल्कि औद्योगिक वृद्धि दर का लाभ रोजगार के नए अवसरों के रूप में भी सामने आना चाहिए. मंदी के नाम पर पिछले डेढ़ साल में लाखों लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है और अभी भी अर्थव्यवस्था में सुधार और तेजी के दावों के बावजूद रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं. विश्लेषकों का कहना है कि यह वास्तव में "रोजगारविहीन वृद्धि" है. यह चिंता की बात है और इस मामले में "सब कुछ ठीक-ठाक है" की पर्दादारी से काम नहीं चलेगा. सरकार को उद्योग जगत को कड़ी से कहना होगा कि अगर उसे प्रोत्साहन पैकेजों का लाभ आगे भी चाहिए तो छंटनी बंद करने के साथ-साथ नई नौकरियां देनी होंगी.

 

असल में, सरकार को अपनी पीठ ठोंकने और अर्थव्यवस्था को लेकर खुशफहमी पालने के बजाय इस साल अधिक सतर्कता से काम करना होगा. भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने फ़ाल्टलाइन हैं कि वह कभी भी लड़खड़ा सकती है. शेयर बाज़ार में एक ऐसी ही  फ़ाल्टलाइन को सक्रिय देखा जा सकता है जहां संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.एफ.आई) के जरिये आ रही आवारा पूंजी ने बीते साल मंदी के बावजूद बाज़ार को 81 फीसदी से अधिक चढ़ा दिया है. हालांकि अर्थव्यवस्था के मैनेजर इससे अत्यंत प्रसन्न हैं लेकिन यह ख़ुशी और निश्चिन्तता घातक हो सकती है.

रविवार, जनवरी 03, 2010

मीडियानामा

चाहिए और सतर्क और सक्रिय समाचार मीडिया

एक सतर्क, सजग और सक्रिय समाचार मीडिया क्या कुछ कर सकता है, इसका एक और चमकीला उदाहरण हम सबके सामने है। रुचिका गिरहोत्रा के मामले में सी।बी।आई कोर्ट के फैसले के बाद मीडिया ने जिस तरह से हरियाणा के पूर्व डी.जी.पी रहे एस.पी.एस राठौर और उसके राजनीतिक संरक्षकों को घेरा है और केंद्र और राज्य सरकार को पूरे मामले को फिर से खोलने के लिए बाध्य किया है, वह एक लोकतान्त्रिक समाज में समाचार मीडिया की शक्ति और प्रभाव का एक और प्रमाण है।
रुचिका के बहाने ऐसे कई और मामले खुले में सामने आ रहे हैं और प्रभावशाली अपराधियों को संरक्षण दे रही सरकारों को कार्रवाई के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। सहज ही कल्पना की जा सकती है कि अगर सतर्क और सक्रिय समाचार मीडिया नहीं होता तो क्या रुचिका को न्याय मिलने की कोई उम्मीद की जा सकती थी? और रुचिका ही क्यों, जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू, नितीश कटारा जैसे चर्चित मामलों में भी ताकतवर और कानून को अपने घर की चेरी माननेवालों के खिलाफ लड़ने और न्याय होने की आशा जगी है तो उसमे मीडिया की बहुत उल्लेखनीय भूमिका है।

निश्चय ही, ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की सक्रियता और खुलकर स्टैंड लेने के कारण सत्ता, विधायिका और न्यायपालिका को नींद से जगना पड़ा है और न चाहते हुए भी जनमत के डर से कड़े फैसले करने पड़े हैं।
इसके लिए कार्पोरेट मीडिया का मुझ जैसा कड़ा आलोचक भी खुले दिल से उसकी प्रशंसा करना चाहता है। हालांकि मीडिया की इस सक्रियता में भी उसकी मध्यमवर्गीय सीमाएं और शहरी पूर्वाग्रह साफ देखे जा सकते हैं लेकिन इसके बावजूद मीडिया की यह सक्रियता स्वागतयोग्य है। सच पूछिए तो लोकतंत्र के चौथे खम्भे मीडिया से देश और समाज की अपेक्षाएं इससे कहीं अधिक हैं। ये अपेक्षाएं रुचिका जैसे मामलों में मीडिया की सक्रियता से न्याय होने की बढ़ी उम्मीदों के कारण और भी ज्यादा बढ़ गई हैं।

दरअसल, यही समाचार मीडिया की असली भूमिका है। लोकतंत्र में वह आम आदमी यानि गरीबों, कमजोरों, हाशिये पर पड़े लोगों और जिनकी कोई आवाज़ नहीं है, उनकी आवाज़ है। वह उनके हितों का पहरेदार (वाचडाग) है और उससे हमेशा यह अपेक्षा रहती है कि वह सोनेवालों को जगाता रहे।
अफसोस कि बात यह है कि पिछले दो दशकों में समाचार मीडिया के चरित्र में ऐसा बदलाव आया है कि वह लोगों को जगाने की अपनी मूल भूमिका छोड़कर उन्हें सुलाने में ज्यादा जुटा रहता है। ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के दबाव में वह हनुमान की तरह अपनी इस शक्ति को भूल गया है। इसकी कीमत अंततः लोगों को ही चुकानी पड़ती है।
जरा सोचिये, अगर समाचार मीडिया हर दिन इसी सक्रियता के साथ कई और गुमनाम रुचिकाओं, जेसिकाओं, नितीशों और उनसे आगे बढ़कर गरीबों, किसानो, मजदूरों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों की आवाज़ उठाने लगे तो क्या सत्ता में बैठे लोगों को नींद आ पायेगी?
इसीलिए हमें और सक्रिय, सजग और सतर्क समाचार मीडिया की जरूरत है। क्या मीडिया अपनी इस ताकत को पहचानेगा?

शनिवार, जनवरी 02, 2010

एक कम्बल के लिए हत्या - अपराधी कौन?

इस समय जब पूरा देश नए साल और हमारा मीडिया नए दशक के स्वागत में बावला हुआ जा रहा है, मुझसे इस स्वागतगान के बेतुके और कुछ हद तक अश्लील कोरस में शामिल नहीं हुआ जा पा रहा है। मैं आपका नया साल ख़राब नहीं करना चाहता लेकिन क्या करूँ, मानसिक रूप से कल से ही बहुत परेशान हूँ।

सवाल यह है कि क्या कोई इस कड़ाके की ठण्ड में सिर्फ एक कम्बल के लिए किसी की जान ले सकता है? बात बहुत छोटी सी लगती है या कम से कम ऊपर से ऐसी दिखती है। हालांकि बात इतनी छोटी भी नहीं है। पर दिल्ली के अधिकांश अख़बारों ने उसे इसी तरह देखा। उनके लिए यह एक कालम की अपराध डायरी जैसी छोटी सी खबर थी, जो अन्दर के पन्नों पर रूटीन खबर की तरह डाल दी गई थी।

पता नहीं आपने दिल्ली के लगभग सभी अख़बारों में अन्दर के पन्नों पर छपी उस खबर को पढ़ा या नहीं लेकिन मैंने जब से पढ़ी है, नए साल का जश्न अश्लील सा लगने लगा है। खबर कुछ इस तरह से है- 27 और २८ दिसंबर की रात जब दिल्ली ठण्ड से कांप रही थी और पारा ५ डिग्री तक लुढ़क गया था, देशबंधु गुप्ता रोड इलाके में सोनू नामके एक १५ वर्षीय लडके की हत्या कर दी गई थी। वह दिल्ली में सड़क पर बीडी-सिगरेट आदि का एक छोटा खोका लगाकर गुजर-बसर करता था। वह सड़क पर ही सोता भी था। ठण्ड से बचने के लिए उसने एक नया कम्बल ख़रीदा था। लेकिन हत्या के बाद कम्बल गायब था।

पुलिस जाँच में यह बात सामने आई है कि उस इलाके में एक और बेघर श्रवण के पास कल से नया कम्बल दिख रहा है। पुलिस ने उसे पकड़कर पूछताछ की तो पता चला कि उस रात कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए उसे कोई ठौर नहीं मिल रहा था। उसके पास कम्बल भी नहीं था। ठण्ड बर्दाश्त से बाहर थी। श्रवण ने रात में सोनू का कम्बल उठाने की कोशिश की. लेकिन सोनू जग गया। इसके बाद श्रवण ने उस कम्बल के लिए पत्थर मारकर सोनू की हत्या कर दी। श्रवण को सोनू की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया है और वह जेल में है।

कहानी सिर्फ इतनी सी है। लेकिन मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो गया है कि मैं किसे अपराधी मानूं? क्या नया कम्बल खरीदना सोनू का गुनाह था? या हाड़ कंपानेवाली ठण्ड से बचने के लिए कम्बल हथियाने की कोशिश में हत्या तक कर देनेवाले श्रवण को अपराधी मानूं?

उम्मीद है कि उसे जेल में एक ठीक-ठाक कम्बल जरूर मिल गया होगा। यह भी कि अब उसे दोनों जून खाना भी मिल जाता होगा। हमारी-आपकी तरह न सही लेकिन श्रवण को कड़ाके की ठण्ड से कुछ राहत जरूर मिल गई होगी।

क्या आप बता सकते हैं कि अपराधी कौन है? मुझे तो लगता है कि अपराधी हम सब हैं जिन्होंने खुद की ठण्ड से आगे देखना और सोचना बंद कर दिया है ।