दोराहे पर मीडिया
क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि जिस समय गणतंत्र साठ का हो रहा है, देश में 'पेड न्यूज' यानि पैसा लेकर खबरों की शक्ल में विज्ञापन छापने पर तीखी बहस चल रही है? क्या यह भी सिर्फ संयोग है कि जिस संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके जरिये मीडिया की आज़ादी की गारंटी की गई है, उसके साठ साल के होने के मौके पर देश में मीडिया को 'रेगुलेट'(नियंत्रित) करने की मांग को लेकर बहस तेज हो रही है? निश्चय ही, यह सिर्फ संयोग नहीं है. ये दोनों ही मुद्दे एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं और उनका सीधा सम्बन्ध मुख्यधारा के मीडिया उद्योग की मौजूदा दशा-दिशा से है.
इन दोनों ही मुद्दों और उनपर जारी बहसों से यह पता चलता है कि पिछले साठ सालों में भारतीय मीडिया कहाँ से कहाँ पहुंच गया है? कहाँ साठ साल पहले संविधान में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार देते हुए मीडिया से यह अपेक्षा थी कि वह देश के करोड़ों बेजुबान लोगों की आवाज़ बनेगा, एक सजग और बेख़ौफ़ पहरेदार की तरह सत्तातंत्र की निगरानी करेगा, लोगों को एक सक्रिय, सजग और सतर्क नागरिक बनने में मदद के लिए सभी जरूरी सूचनाएं बिना किसी घालमेल और पूर्वाग्रह के पहुंचाएगा और विभिन्न विचारों को एक खुला मंच देकर देश में बहस-मुबाहिसे का एक लोकतान्त्रिक माहौल बनाएगा. लेकिन कहाँ साठ साल बाद बहस इस बात पर हो रही है कि क्या मीडिया के लिए मुनाफा ही सब कुछ है? क्या पैसे लेकर विज्ञापन को खबर की तरह छापना नैतिक और जायज है? क्या मीडिया की कोई सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है या होनी चाहिए?
असल में, मीडिया खासकर समाचार मीडिया के स्वास्थ्य से हम अपने गणतंत्र की सेहत का भी अंदाज़ा लगा सकते हैं. एक स्वस्थ और सक्रिय मीडिया के बिना एक जीवंत और गतिशील गणतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. यही कारण है कि भारतीय गणतंत्र ने अपने सभी नागरिकों को एक मौलिक अधिकार के बतौर अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार दिया है. लेकिन मीडिया को अलग से कोई अधिकार नहीं दिया गया है और उसकी आज़ादी अनिवार्य और अभिन्न रूप से नागरिकों की आज़ादी से जुडी हुई है. मीडिया की आज़ादी नागरिकों की आज़ादी का विस्तार है. न कुछ इससे अधिक और न कुछ इससे कम.
इस मायने में, एक स्वस्थ मीडिया के लिए उसकी स्वतंत्रता, निर्भीकता, निष्पक्षता, विविधता और बहुलता बहुत जरूरी है. यही उसके स्वस्थ होने की निशानी हैं. लेकिन अगर इन कसौटियों पर साठ के गणतंत्र के मीडिया को कसा जाए तो उसके स्वास्थ्य को लेकर उम्मीद कम और चिंता ज्यादा होती है. हालांकि उसके पास खुश होने के लिए भी बहुत कुछ है लेकिन उससे निराशा की भी बहुत वजहें हैं. निश्चय ही, इस बात पर खुश हुआ जा सकता है कि ऐसे समय में जब विकसित देशों में मीडिया कम्पनियां लड़खड़ा रही हैं, अख़बार संकट में हैं, देश में मीडिया का बहुत तेजी से विस्तार हो रहा है. मीडिया की पहुंच बढ़ रही है. नए-पुराने अख़बार, टी.वी. चैनल, रेडियो स्टेशन और इन्टरनेट खूब फलफूल रहे हैं. मीडिया कंपनियों का मुनाफा बढ़ रहा है.
लेकिन एक व्यवसाय के बतौर मीडिया उद्योग के फलने-फूलने के बावजूद खुद मीडिया विश्वसनीयता और पहचान के संकट से गुजर रहा है. मीडिया उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश और उसके कारपोरेटीकरण के बाद मीडिया के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. मीडिया कंपनियों पर उनके देशी-विदेशी निवेशकों की ओर से अधिक से अधिक मुनाफा कमाने का दबाव बढ़ा है. इस कारण मीडिया कंपनियों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव भी काफी ज्यादा बढ़ गया है. नतीजा यह कि वे मीडिया के कंटेंट को प्रभावित कर रहे हैं. आश्चर्य नहीं कि समाचार मीडिया में कार्पोरेट क्षेत्र की गडबडियों और अनियमितताओं की खबरें न के बराबर छपती हैं.
दूसरी ओर, मीडिया के सरोकारों का दायरा भी घटा है. वह मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग के सरोकारों से अधिक संचालित हो रहा है. वह अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को नागरिक की तरह नहीं बल्कि उपभोक्ताओं की तरह 'ट्रीट' कर रहा है. जाहिर है कि नागरिक की सूचना जरूरतें अलग होती हैं और उपभोक्ताओं की अलग. दोनों की चिंताएं और सरोकार भी काफी हद तक अलग होते हैं. एक उपभोक्ता अपने उपभोग को लेकर चिंतित रहता है और उसे आमतौर पर इसकी परवाह नहीं होती है कि उसके बढ़ते उपभोग से देश की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और समाज पर क्या असर पड़ रहा है? लेकिन एक नागरिक की पहली चिंता बढ़ते उपभोग के असर को लेकर होगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि एक स्वस्थ गणतंत्र को उपभोक्ता से अधिक नागरिक चाहिए. ऐसे नागरिक जो नागरिक पहले हैं और उपभोक्ता बाद में. जाहिर है कि लोगों में नागरिक के ये संस्कार पैदा करने और आगे बढाने में मीडिया की बहुत अहम भूमिका है. लेकिन चिंता की बात यह है कि कार्पोरेट मीडिया अपने पाठकों,दर्शकों और श्रोताओं को नागरिक बनाने में नहीं बल्कि उपभोक्ता बनाने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहा है.यह गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए घातक है. इससे मीडिया कंपनियों का मुनाफा जरूर बढ़ सकता है लेकिन गणतंत्र का घाटा बढ़ जायेगा.
साफ है कि साठ के गणतंत्र के मौके पर मीडिया एक दोराहे पर खड़ा है. वह जिस राह पर जा रहा है, उसमे आगे खतरा है. यह राह उसकी पहचान ख़त्म कर देगी. साथ ही, यह गणतंत्र के लिए भी मीडिया के स्वास्थ्य को लेकर चिंतित होने का समय है. आखिर गणतंत्र और मीडिया का स्वास्थ्य एक-दूसरे से गहराई से जुड़ा है. आश्चर्य नहीं कि एक-दूसरे का संक्रमण दोनों को बीमार बना रहा है.
1 टिप्पणी:
आज मीडिया सबसे ताकतवर हो गया है उसे और जिम्मेदार होने कि जरुरत है . हमसभी मीडिया पर भरोसा करते है और मीडिया को इसे समझाना चाहिए
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