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रविवार, मई 19, 2013

टेलीविजन निर्देशित जनतंत्र की ओर

कारपोरेट मीडिया और ‘मोदी बनाम राहुल’ का संकीर्ण विकल्प    

पहली क़िस्त 

राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ न्यूज चैनल भी अगले आम चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं. हालाँकि आम चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में होने हैं लेकिन बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता के बीच उसके इस साल अक्टूबर-नवंबर तक होने के भी कयास लगाये जा रहे हैं. इसके संकेत इससे भी मिलते हैं कि दिल्ली की सत्ता की दावेदार पार्टियां खासकर कांग्रेस और भाजपा और उनके प्रधानमंत्री पद के घोषित-अघोषित उम्मीदवार खासे सक्रिय हो गए हैं.
व्यूह रचना तैयार होने लगी है. गठबंधन टूटने-बिगडने लगे हैं. नेताओं के दौरों और बैठकों में तेजी आ गई है. पार्टियों और नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाजी शुरू हो गई है और उसका सुर लगातार कर्कश और तेज होने लगा है.
इसके साथ ही न्यूज चैनल भी चुनाव मोड में आ गए हैं. चैनलों पर भी राजनीतिक खबरें लौट आईं हैं. बुलेटिनों में राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों की खबरें सुर्खियाँ बनने लगी हैं. नेताओं, पार्टियों के प्रवक्ताओं के साथ-साथ राजनीतिक पंडितों और रिपोर्टरों की मांग बढ़ गई है.

चैनल नेताओं के घरों और पार्टियों के दफ्तरों से लेकर उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं. ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ के अंदाज़ में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की सभाओं और भाषणों का लाइव प्रसारण बढ़ गया है. राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों पर प्राइम टाइम चर्चाएं/बहसें बढ़ गईं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक दल और उनके नेता भी चैनलों की रिपोर्टिंग, बहसों और लाइव प्रसारणों में खूब दिलचस्पी ले रहे हैं. वे चैनलों पर दिखने और बोलने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं. असल में, न्यूज चैनलों के पर्दे आगामी चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक युद्ध के असली अखाड़े बन गए हैं जहाँ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच छवि और ‘परसेप्शन’ की लड़ाई लड़ी जा रही है.  
आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक पार्टियां और उससे अधिक उनके नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दावेदार
अपनी रणनीति और कार्यक्रम चैनलों को ध्यान में रखकर बना रहे हैं. वे चैनलों को अपनी बातों, दावों और वायदों को लोगों तक पहुंचाने और इस तरह अपनी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
इन शुरूआती रुझानों और पिछले कुछ चुनावों के अनुभवों से यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस बार के आम चुनावों में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका पहले के किसी भी आम चुनाव की तुलना में ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण रहेगी.

इसका संकेत इस तथ्य से मिलता है कि चुनावों की घोषणा और प्रचार शुरू होने से पहले ही चैनलों पर न सिर्फ प्रचार युद्ध शुरू हो गया है बल्कि ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ की होड़ भी शुरू हो गई है.

यही नहीं, चैनलों ने जिस तरह से पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री के दावेदार के बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी को उछाला है और पूरे राजनीतिक मुकाबले को इन दोनों के बीच सीमित कर दिया है, उससे पूरा चुनाव संसदीय चुनाव से ज्यादा राष्ट्रपति चुनाव लगने लगा है.

हालाँकि राजनीतिक मैदान में और कई खिलाडी हैं और पिछले डेढ़ दशकों से आम चुनावों के नतीजे विभिन्न राज्यों के नतीजों के जोड़ से बनते रहे हैं जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं की भूमिका बढ़ती जा रही है लेकिन न्यूज चैनल उसे अमेरिकी पैटर्न के द्वि-दलीय राष्ट्रपति चुनाव बनाने पर तुले हैं.
पूरी चुनावी चर्चा और बहस को बिलकुल अमेरिकी पैटर्न पर प्रधानमंत्री पद के दोनों कथित उम्मीदवारों- नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया है. दोनों उम्मीदवारों के व्यक्तित्व पर चैनलों और बाकी न्यूज मीडिया का इतना अधिक फोकस है कि एकाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक मुद्दे, नीतिगत सवाल और विचार पृष्ठभूमि में चले गए हैं.
सच पूछिए तो ऐसा लगने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र भी अमेरिका और दूसरे कई विकसित पश्चिमी देशों की तरह काफी हद तक एक ‘टीवीकृत लोकतंत्र’ (टेलीवाईज्ड डेमोक्रेसी) बनता जा रहा है जहाँ राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन और डेमोक्रटिक पार्टी के उम्मीदवारों के नैन-नक्श, चाल-ढाल और फैशन से लेकर वक्तृत्व कला, प्रस्तुति और स्टाइल की चर्चा उनके राजनीतिक विचारों, नीतियों, और कार्यक्रमों से कहीं ज्यादा होती है.

इसकी वजह यह है कि अमेरिकी राजनीति में विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच आर्थिक-राजनीतिक-वैदेशिक नीति के मामले में फर्क बहुत कम रह गया है. कुछ यही स्थिति ब्रिटेन की भी हो गई है.

सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र भी उसी दिशा में बढ़ रहा है या बढ़ाया जा रहा है? यह किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस के वर्चस्व के खात्मे के बाद शासक वर्ग लंबे अरसे से कोशिश कर रहा है कि राजनीतिक विकल्प को शासक वर्ग की दोनों प्रतिनिधि पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के बीच सीमित कर दिया जाए और उन्हीं दोनों के बीच सत्ता का अदल-बदल होता रहे.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक-वैदेशिक-राजनीतिक नीतियों में कुछ मामूली-दिखावटी फर्कों के व्यापक समानता है. यही नहीं, साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर उनमें अंतर दिखाने की कोशिश की जाती है लेकिन सच यह है कि यह भी काफी हद तक भ्रम है.
दोनों ही पार्टियां सांप्रदायिक गोलबंदी का इस्तेमाल करती रही हैं, फर्क सिर्फ यह है कि भाजपा कट्टर हिंदुत्व का कार्ड खेलती है जबकि कांग्रेस नरम हिंदुत्व का सहारा लेती रही है. जनता का बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे इस सच्चाई को समझने लगा है कि ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे की वास्तविक विकल्प नहीं हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि शासक वर्गों की तमाम कोशिशों के बावजूद बड़ी संख्या में लोग न सिर्फ द्विदलीय व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं है बल्कि वह लगातार इन दोनों से इतर विकल्प की तलाश कर रहे हैं. क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार इसका प्रमाण है.

हालाँकि शासक वर्ग इन क्षेत्रीय और छोटे दलों को कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाले दो गठबंधनों में समेटने और अपने हितों के मातहत लाने में कामयाब रहा है लेकिन वह खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स इस व्यवस्था से बहुत खुश नहीं हैं. उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही है.

शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की नाराजगी की वजह यह है कि गठबंधनों के अंदर
राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, हितों के टकराव और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से पैदा होनेवाले मतभेदों, खींचतान और पापुलिज्म के कारण नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में मुश्किलें-रुकावटें आती हैं, देरी होती है और कई बार ‘पापुलिज्म’ के दबाव में जनता को कुछ राहतें/रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
यही नहीं, शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था (अरेंजमेंट) से बेचैनी की वजह यह भी है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर ‘जल-जंगल-जमीन-खनिज’ की कारपोरेट लूट को देश भर में गरीब, किसान, श्रमिक और आदिवासी खुली चुनौती दे रहे हैं लेकिन यू.पी.ए सरकार उसे दबाने या संभालने में बहुत कामयाब नहीं हो पाई है.
जाहिर है कि शासक वर्ग इस स्थिति को बदलना चाहता है और इसकी जगह ‘एक विचार-दो पार्टियों’ की व्यवस्था को आगे बढ़ाना चाहता है जिससे वह बेहतर राजनीतिक प्रबंधन के साथ उन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ा सके जो आम लोगों खासकर गरीबों-दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर बड़ी पूंजी-कारपोरेट की लूट का रास्ता साफ करते हैं.

इस समझ और रणनीति के तहत ही बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स अगले आम चुनावों से पहले कांग्रेस और यू.पी.ए के विकल्प के बतौर भाजपा और एन.डी.ए को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कांग्रेस-यू.पी.ए की साख पाताल में पहुँच चुकी है और उसका दुबारा सत्ता में लौटना मुश्किल है.

जारी...

('कथादेश' के मई अंक में प्रकाशित स्तंभ की पहली क़िस्त)

बुधवार, अप्रैल 17, 2013

आरामतलब या पार्टनरशिप पत्रकारिता?

मीडिया में आँख मूंदकर मोदी गान हो रहा है   

भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित-अघोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के अश्वमेध का घोड़ा देशव्यापी अभियान पर निकल चुका है. दूसरी ओर, कांग्रेस के युवराज भी शर्माते-सकुचाते मैदान में उतर गए हैं. दोनों के बीच जुबानी जंग शुरू हो चुकी है.
पहले दौर के वाकयुद्ध में छींटाकशी, सवाल-जवाब और आरोप-प्रत्यारोप के साथ अपनी कामयाबियों का बखान भी हो रहा है. इस दौर में दोनों नेता खासकर मोदी पार्टी फोरम से लेकर कारपोरेट मंचों पर देश की समस्याओं को हल करने के दावे और विजन पेश करते नजर आ रहे हैं.
लेकिन असली लड़ाई न्यूज चैनलों के पर्दों/स्टूडियो और सोशल मीडिया के स्क्रीन पर लड़ी जा रही है जहाँ दोनों ओर से स्पिन डाक्टर्स और सोशल मीडिया के पेड कारकून छवि बनाने और बिगाड़ने और धारणाओं (परसेप्शन) की लड़ाई में हर हथियार आजमा रहे हैं.

हालाँकि मैदान में प्रधानमंत्री पद के कई और दावेदार भी हैं लेकिन मीडिया में उन्हें कोई खास भाव नहीं मिल रहा है. मतलब लेवल-प्लेइंग फील्ड नहीं है. मीडिया ने असली मुकाबले से पहले इसे ‘राहुल बनाम मोदी’ की लड़ाई बना दिया है. चैनलों और सोशल मीडिया में यही दोनों छाए हैं.

लेकिन छवि निर्माण की इस लड़ाई में मोदी का कोई जवाब नहीं है. मोदी ने प्रोफेशनल पी.आर कंपनियों से लेकर सोशल मीडिया के पेड कार्यकर्ताओं की मदद से एक सुनियोजित अभियान छेड दिया है. इस अभियान के तहत एक ओर मोदी खुद गुजरात में अपनी उपलब्धियों का गुणगान कर रहे हैं और दूसरी ओर, सुशासन और विकास के ऐसे फार्मूले बता रहे हैं जिनसे देश की सभी समस्याओं का चुटकियाँ बजाते ही समाधान हो जाएगा.                                    

यहाँ तक तो ठीक है. लोकतंत्र में सत्ता के सभी दावेदारों को अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने से लेकर सोच-नीतियां-कार्यक्रम बताने का पूरा अधिकार है.
लेकिन लोकतंत्र में ऐसे मौके पर न्यूज मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उससे एक बहु-सूचित विमर्श की अपेक्षा होती है. खासकर जिस तरह से भारतीय राजनीति का मीडियाकरण (मीडिया-टाईजेशन)  हो रहा है, उसमें सूचनाओं के लिए मीडिया पर नागरिकों की निर्भरता बढ़ती जा रही है.

लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले कुछ सप्ताहों में गुजरात से लेकर बंगाल तक मोदी जहाँ भी जा रहे हैं, मीडिया खासकर चैनल उनके साथ-साथ हैं. वे जिन मंचों पर बोल रहे हैं, चैनल उन्हें लाइव दिखा रहे हैं.

यही नहीं, लाइव के अलावा सुबह से रात तक उनके भाषणों के चुनिंदा क्लिप अहर्निश चल रहे हैं और प्राइम टाइम चर्चाओं में भी वे छाए हुए हैं. मोदी के लिए मीडिया ‘जादुई गुणक’ (मैजिक मल्टीप्लायर) बन गया है जो उनके आधे सच्चे-आधे झूठे दावों-फार्मूलों को बिना किसी स्वतंत्र जांच पड़ताल और सवाल-जवाब के एक वैधता सा दे रहा है.
इस तरह मीडिया खासकर चैनल मोदी के इस प्रचार अभियान में जाने-अनजाने पार्टनर से बनते जा रहे हैं. यह एक गंभीर समस्या है. सवाल यह है कि मीडिया खासकर चैनलों का काम क्या सिर्फ पोस्ट-आफिस का है? या, उनके आडिएंस की अपेक्षा यह है कि वे नेताओं के दावों/बयानों की पत्रकारीय जांच-पड़ताल और छानबीन भी करें और उन्हें उनके पूरे सन्दर्भ के साथ पेश करें?
उदाहरण के लिए, मोदी ने फिक्की की महिला सभा में गुजरात की राज्यपाल पर आरोप लगाया कि वे महिला होकर भी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए ५० फीसदी सीटें आरक्षित करनेवाले विधेयक को मंजूरी नहीं दे रही हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी का यह आरोप तुरंत सुर्खी बन गया और घंटों चैनलों पर चलता रहा.

लेकिन किसी चैनल ने इस आरोप की और छानबीन करने की जरूरत नहीं समझी. भला हो, एन.डी.टी.वी-इंडिया का जिसपर उस रात ‘तहलका’ की राणा अयूब ने खुलासा किया कि यह विधेयक अनिवार्य वोटिंग के प्रावधान के कारण रोका गया है.       

यह अकेला मामला नहीं है. ऐसे अनेकों दावे हैं जिनकी छानबीन और पूरे संदर्भ के साथ पेश करना जरूरी है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
कहना मुश्किल है कि यह आरामतलब पत्रकारिता का नतीजा है या पार्टनरशिप पत्रकारिता का? वजह चाहे जो हो लेकिन मोदी और उनकी प्रचार टीम इसका पूरा फायदा उठा रही है और नुकसान दर्शकों-पाठकों और व्यापक अर्थों में लोकतंत्र का हो रहा है.
('तहलका' के 30 अप्रैल के अंक में प्रकाशित। आप इसे तहलका हिंदी की वेबसाईट पर भी पढ़ सकते हैं।)       

मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

राहुल मॉडल की सीमाएं उजागर और चमक फीकी पड़ चुकी है

आखिर राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी के माडलों में बुनियादी अंतर क्या है? 

अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने और विकास की गति को तेज करने को लेकर राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल की चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं.

दोनों मॉडलों में ज्यादा बुनियादी समानताओं और मामूली भाषा और शैलीगत भिन्नताओं के बावजूद राजनीतिक पंडित और स्पिन डाक्टर दोनों के बीच के बारीक फर्कों, उनकी खूबियों और कमियों को स्पष्ट करने में खूब पसीना बहा रहे हैं. खुद दोनों नेताओं ने इस फर्क को उछालने और उसपर जोर देने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है.
लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी शासक वर्ग की जिन दोनों प्रमुख और प्रतिनिधि पार्टियों की अगुवाई कर रहे हैं, उनकी वैचारिकी और अर्थनीति के केन्द्र में वही नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण और उसके जरिये हासिल की गई तेज आर्थिक वृद्धि दर को देश-समाज की सभी समस्याओं और चुनौतियों का हल मानती है.

आश्चर्य नहीं कि अपने बुनियादी चरित्र और अंतर्वस्तु में राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल में भी कोई खास अंतर नहीं है. यही कारण है कि दोनों मॉडलों को लेकर हो रही बहसों और चर्चाओं में विचारों, नीतियों, मुद्दों और कार्यक्रमों से ज्यादा उनके व्यक्तित्वों, भाषण शैलियों और अदाओं पर चर्चा हो रही है.
उदाहरण के लिए, राहुल गाँधी मॉडल को ही लीजिए जिसे नरेन्द्र मोदी मॉडल के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. सवाल यह है कि राहुल मॉडल में ऐसा नया या अनूठा क्या है जो उसे कांग्रेस या यू.पी.ए सरकार से अलग और विशिष्ट बनाता है?

हाल के महीनों में राहुल गाँधी के सार्वजनिक भाषणों में ऐसी कोई नई बात, सोच या आइडिया नहीं दिखाई पड़ा है जो कांग्रेस की वैचारिकी या नीतियों में कोई बड़े या उल्लेखनीय बदलावों की ओर इशारा करता हो.                                                                   

उनके भाषणों में वही समावेशी विकास और आर्थिक वृद्धि का लाभ गरीबों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुँचाने की बातें हैं, विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को सशक्त बनाने पर जोर है और युवाओं के लिए नए अवसर और उम्मीदें पैदा करने जैसे आह्वान और सपने हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार पिछले नौ सालों से यही बातें कर रही हैं. लेकिन व्यवहार में इसके ठीक उलट हो रहा है. तथ्य यह है कि पिछले छह-सात महीनों में कांग्रेस नेतृत्व ने नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को न सिर्फ निर्णायक रूप से अंगीकार किया है बल्कि खुलकर उसके समर्थन में आ गया है और उसकी हरी झंडी के बाद यू.पी.ए सरकार उन्हें जोरशोर से लागू करने और आगे बढ़ाने में भी जुटी है.

याद रहे, एक ओर कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी के नेतृत्व को औपचारिक रूप आगे बढ़ाया जा रहा था और दूसरी ओर, उसी समय पार्टी कार्यसमिति की मुहर के साथ यू.पी.ए सरकार खासकर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक झटके में खुदरा व्यापार से लेकर पेंशन क्षेत्र में एफ.डी.आई को इजाजत देने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने के कई बड़े और विवादस्पद फैसले किये हैं.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों से थोड़ी दूरी बनाकर चलनेवाले और सुधारों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से डालनेवाले कांग्रेस नेतृत्व ने पहली बार दिल्ली में खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के समर्थन में रैली आयोजित की जिसके स्टार वक्ता खुद राहुल गाँधी थे.

साफ़ है कि कांग्रेस नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण को लेकर अब कोई भ्रम नहीं है और उसने बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को खुश करने का और इसके लिए आर्थिक सुधारों पर दांव लगाने फैसला कर लिया है और पिछले छह महीनों में यहाँ तक कि पार्टी के उपाध्यक्ष बनने के बाद भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि राहुल गाँधी कांग्रेस नेतृत्व से अलग सोच रहे हैं.
असल में, राहुल मॉडल और कुछ नहीं बल्कि नव उदारवादी आर्थिक वैचारिकी पर आधारित बड़ी पूंजी-कारपोरेट निर्देशित ‘विकास’ और उसके भीतर गरीबों के लिए थोड़ी-मोड़ी राहतों की व्यवस्था करके उसे आमलोगों के बीच सहनीय बनाने तक सीमित है.

सच पूछिए तो यह रणनीति नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के राजनीतिक प्रबंधन की रणनीति है जिसका मकसद आर्थिक सुधारों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों-हाशिए पर पड़े लोगों का समर्थन जीतना और उसे उनके बीच स्वीकार्य बनाना है.
यहाँ तक कि अब तो विश्व बैंक ने भी इसी भाषा में बोलना शुरू कर दिया है. विश्व बैंक ने भी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को समावेशी बनाने के नामपर गरीबों को कुछ राहत देने और इसके लिए एन.जी.ओ आदि की मदद लेने की बात दशक भर पहले से ही शुरू कर दी थी.

इस सोच को २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के पिटने और एन.डी.ए की हार के बाद एक तरह की स्वीकार्यता मिली. अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति नियंताओं ने आर्थिक सुधारों को लोगों के गले उतारने के लिए समावेशी विकास और नरेगा जैसी योजनाएं शुरू कीं. नीति निर्णय में एन.जी.ओ को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) जैसे प्रबंध किये गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे एक राजनीतिक स्थिरता आई और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद मिली. याद रहे कि समावेशी विकास के नारों के बीच इसी दौर में जमीन की लूट का रास्ता साफ़ करने के लिए सेज आया, विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे और ज्यादा खोले गए और सार्वजनिक संसाधनों की लूट (जैसे २-जी और के.जी बेसिन आदि) तेज हुई.  

इसलिए जब राहुल गाँधी समावेशी विकास के लिए अधिकार आधारित एप्रोच की बात करते हैं तो आज वह एक मजाक से अधिक नहीं लगता है. एक नारे के बतौर समावेशी विकास अपनी चमक खो चुका है. उसकी सीमाएं किसी से छुपी नहीं हैं.                                            

सच यह है कि चाहे नरेगा हो या शिक्षा का अधिकार या खाद्य सुरक्षा का अधिकार- ये सभी अपने मूल अंतर्वस्तु में शिक्षा, रोजगार और भोजन के मौलिक अधिकार के आइडिया का मजाक उड़ानेवाले हैं. तथ्य यह है कि कांग्रेस और यू.पी.ए के समावेशी विकास की सीमा नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी सीमित और आधी-अधूरी योजनाएं हैं.

अन्यथा यह तो खुद राहुल गाँधी भी जानते हैं कि कारपोरेट निर्देशित विकास में आमलोगों को कुछ खास नहीं मिल रहा है. उल्टे उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. सी.आई.आई के सम्मेलन में खुद राहुल गाँधी ने स्वीकार किया कि ‘विकास के ज्वारभाटे में हर नाव ऊँचा उठ जाती है लेकिन यहाँ तो बहुसंख्यकों के पास नाव ही नहीं है.’
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत कारपोरेट विकास के मॉडल में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार तो जरूर तेज हुई है लेकिन उससे आई समृद्धि एक बहुत ही छोटे वर्ग तक सीमित हो गई है.

इसकी वजह यह है कि यह मूलतः ‘रोजगारविहीन, शहर केंद्रित और कुछ क्षेत्रों तक सीमित और सार्वजनिक संसाधनों की लूट’ पर आधारित ‘कारपोरेट विकास’ रहा है. इसके कारण न सिर्फ आर्थिक गैर बराबरी और विषमताएं बढ़ी हैं, गरीबों-आदिवासियों को उनके अपने जल-जंगल-जमीन-खनिजों से बेदखल किया गया है बल्कि लाखों किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं, श्रमिकों का शोषण-उत्पीडन बढ़ा है और श्रम की कोई गरिमा कम हुई है.
पर्यावरण विनाश को अनदेखा किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि देश भर में इन नीतियों और कारपोरेट लूट के खिलाफ किसान, श्रमिक, आदिवासी और गरीब लड़ाई में उतर आए हैं.

यह तथ्य है कि आज किसानों-गरीबों-आदिवासियों के इन विरोध प्रदर्शनों के कारण देश भर में दर्जनों पावर, स्टील, हाईवे, रीयल इस्टेट प्रोजेक्ट्स ठप्प पड़े हैं. दूसरी ओर, २-जी से लेकर कोयला आवंटन जैसे मामलों के खुलासों के बाद सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट और याराना पूंजीवाद पर सवाल उठने लगे हैं.
जाहिर है कि इससे कारपोरेट जगत बहुत बेचैन है और यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगा रहा है. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने पिछले छह महीनों में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट दबाव में आर्थिक सुधारों के बाबत बड़े फैसलों के साथ ठहरे पड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट की निवेश सम्बन्धी समिति गठित की है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों में पर्यावरण और आदिवासी जमीन से सम्बन्धी बाधाओं को दरकिनार करते हुए हजारों करोड़ के प्रोजेक्ट्स को एक्सप्रेस अनुमति दी है.

राहुल माडल की सीमाओं का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर राहुल गाँधी सी.आई.आई के जिस सम्मेलन में विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को और अधिकार देने की बात कर रहे हैं, गरीबों को सुनने और उन्हें विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बात कर रहे थे, उसी सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण में पंचायतों की अनुमति की बाध्यता में छूट देने का एलान किया. क्या अब भी राहुल मॉडल की सीमाएं बताने की जरूरत है?
हैरानी की बात नहीं है कि इसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है और उनके स्पिन डाक्टरों की उसे चमकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके खरीददार उससे मुंह मोड़ते दिख रहे हैं.

('राष्ट्रीय सहारा'के हस्तक्षेप में १ अप्रैल को प्रकाशित टिप्पणी)