रविवार, मई 19, 2013

टेलीविजन निर्देशित जनतंत्र की ओर

कारपोरेट मीडिया और ‘मोदी बनाम राहुल’ का संकीर्ण विकल्प    

पहली क़िस्त 

राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ-साथ न्यूज चैनल भी अगले आम चुनावों की तैयारियों में जुट गए हैं. हालाँकि आम चुनाव अगले साल अप्रैल-मई में होने हैं लेकिन बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता के बीच उसके इस साल अक्टूबर-नवंबर तक होने के भी कयास लगाये जा रहे हैं. इसके संकेत इससे भी मिलते हैं कि दिल्ली की सत्ता की दावेदार पार्टियां खासकर कांग्रेस और भाजपा और उनके प्रधानमंत्री पद के घोषित-अघोषित उम्मीदवार खासे सक्रिय हो गए हैं.
व्यूह रचना तैयार होने लगी है. गठबंधन टूटने-बिगडने लगे हैं. नेताओं के दौरों और बैठकों में तेजी आ गई है. पार्टियों और नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप और बयानबाजी शुरू हो गई है और उसका सुर लगातार कर्कश और तेज होने लगा है.
इसके साथ ही न्यूज चैनल भी चुनाव मोड में आ गए हैं. चैनलों पर भी राजनीतिक खबरें लौट आईं हैं. बुलेटिनों में राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों की खबरें सुर्खियाँ बनने लगी हैं. नेताओं, पार्टियों के प्रवक्ताओं के साथ-साथ राजनीतिक पंडितों और रिपोर्टरों की मांग बढ़ गई है.

चैनल नेताओं के घरों और पार्टियों के दफ्तरों से लेकर उनके सार्वजनिक कार्यक्रमों में दिलचस्पी दिखाने लगे हैं. ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ के अंदाज़ में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की सभाओं और भाषणों का लाइव प्रसारण बढ़ गया है. राजनीतिक हलचलों और गतिविधियों पर प्राइम टाइम चर्चाएं/बहसें बढ़ गईं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक दल और उनके नेता भी चैनलों की रिपोर्टिंग, बहसों और लाइव प्रसारणों में खूब दिलचस्पी ले रहे हैं. वे चैनलों पर दिखने और बोलने का कोई मौका छोड़ नहीं रहे हैं. असल में, न्यूज चैनलों के पर्दे आगामी चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक युद्ध के असली अखाड़े बन गए हैं जहाँ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच छवि और ‘परसेप्शन’ की लड़ाई लड़ी जा रही है.  
आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक पार्टियां और उससे अधिक उनके नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दावेदार
अपनी रणनीति और कार्यक्रम चैनलों को ध्यान में रखकर बना रहे हैं. वे चैनलों को अपनी बातों, दावों और वायदों को लोगों तक पहुंचाने और इस तरह अपनी छवि गढ़ने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.
इन शुरूआती रुझानों और पिछले कुछ चुनावों के अनुभवों से यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस बार के आम चुनावों में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका पहले के किसी भी आम चुनाव की तुलना में ज्यादा बड़ी और महत्वपूर्ण रहेगी.

इसका संकेत इस तथ्य से मिलता है कि चुनावों की घोषणा और प्रचार शुरू होने से पहले ही चैनलों पर न सिर्फ प्रचार युद्ध शुरू हो गया है बल्कि ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री’ की होड़ भी शुरू हो गई है.

यही नहीं, चैनलों ने जिस तरह से पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री के दावेदार के बतौर गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी को उछाला है और पूरे राजनीतिक मुकाबले को इन दोनों के बीच सीमित कर दिया है, उससे पूरा चुनाव संसदीय चुनाव से ज्यादा राष्ट्रपति चुनाव लगने लगा है.

हालाँकि राजनीतिक मैदान में और कई खिलाडी हैं और पिछले डेढ़ दशकों से आम चुनावों के नतीजे विभिन्न राज्यों के नतीजों के जोड़ से बनते रहे हैं जिसमें क्षेत्रीय पार्टियों और नेताओं की भूमिका बढ़ती जा रही है लेकिन न्यूज चैनल उसे अमेरिकी पैटर्न के द्वि-दलीय राष्ट्रपति चुनाव बनाने पर तुले हैं.
पूरी चुनावी चर्चा और बहस को बिलकुल अमेरिकी पैटर्न पर प्रधानमंत्री पद के दोनों कथित उम्मीदवारों- नरेन्द्र मोदी और राहुल गाँधी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द सीमित कर दिया गया है. दोनों उम्मीदवारों के व्यक्तित्व पर चैनलों और बाकी न्यूज मीडिया का इतना अधिक फोकस है कि एकाधिक महत्वपूर्ण मुद्दों को छोड़कर अन्य सभी राजनीतिक मुद्दे, नीतिगत सवाल और विचार पृष्ठभूमि में चले गए हैं.
सच पूछिए तो ऐसा लगने लगा है कि भारतीय लोकतंत्र भी अमेरिका और दूसरे कई विकसित पश्चिमी देशों की तरह काफी हद तक एक ‘टीवीकृत लोकतंत्र’ (टेलीवाईज्ड डेमोक्रेसी) बनता जा रहा है जहाँ राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन और डेमोक्रटिक पार्टी के उम्मीदवारों के नैन-नक्श, चाल-ढाल और फैशन से लेकर वक्तृत्व कला, प्रस्तुति और स्टाइल की चर्चा उनके राजनीतिक विचारों, नीतियों, और कार्यक्रमों से कहीं ज्यादा होती है.

इसकी वजह यह है कि अमेरिकी राजनीति में विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों के स्तर पर शासक वर्ग की दोनों प्रमुख पार्टियों- रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के बीच आर्थिक-राजनीतिक-वैदेशिक नीति के मामले में फर्क बहुत कम रह गया है. कुछ यही स्थिति ब्रिटेन की भी हो गई है.

सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र भी उसी दिशा में बढ़ रहा है या बढ़ाया जा रहा है? यह किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस के वर्चस्व के खात्मे के बाद शासक वर्ग लंबे अरसे से कोशिश कर रहा है कि राजनीतिक विकल्प को शासक वर्ग की दोनों प्रतिनिधि पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा के बीच सीमित कर दिया जाए और उन्हीं दोनों के बीच सत्ता का अदल-बदल होता रहे.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक-वैदेशिक-राजनीतिक नीतियों में कुछ मामूली-दिखावटी फर्कों के व्यापक समानता है. यही नहीं, साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर उनमें अंतर दिखाने की कोशिश की जाती है लेकिन सच यह है कि यह भी काफी हद तक भ्रम है.
दोनों ही पार्टियां सांप्रदायिक गोलबंदी का इस्तेमाल करती रही हैं, फर्क सिर्फ यह है कि भाजपा कट्टर हिंदुत्व का कार्ड खेलती है जबकि कांग्रेस नरम हिंदुत्व का सहारा लेती रही है. जनता का बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे इस सच्चाई को समझने लगा है कि ये दोनों पार्टियां एक-दूसरे की वास्तविक विकल्प नहीं हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि शासक वर्गों की तमाम कोशिशों के बावजूद बड़ी संख्या में लोग न सिर्फ द्विदलीय व्यवस्था को स्वीकार करने को तैयार नहीं है बल्कि वह लगातार इन दोनों से इतर विकल्प की तलाश कर रहे हैं. क्षेत्रीय और छोटे दलों का उभार इसका प्रमाण है.

हालाँकि शासक वर्ग इन क्षेत्रीय और छोटे दलों को कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाले दो गठबंधनों में समेटने और अपने हितों के मातहत लाने में कामयाब रहा है लेकिन वह खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स इस व्यवस्था से बहुत खुश नहीं हैं. उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही है.

शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की नाराजगी की वजह यह है कि गठबंधनों के अंदर
राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, हितों के टकराव और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं से पैदा होनेवाले मतभेदों, खींचतान और पापुलिज्म के कारण नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाने में मुश्किलें-रुकावटें आती हैं, देरी होती है और कई बार ‘पापुलिज्म’ के दबाव में जनता को कुछ राहतें/रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
यही नहीं, शासक वर्गों खासकर बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स की मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था (अरेंजमेंट) से बेचैनी की वजह यह भी है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों खासकर ‘जल-जंगल-जमीन-खनिज’ की कारपोरेट लूट को देश भर में गरीब, किसान, श्रमिक और आदिवासी खुली चुनौती दे रहे हैं लेकिन यू.पी.ए सरकार उसे दबाने या संभालने में बहुत कामयाब नहीं हो पाई है.
जाहिर है कि शासक वर्ग इस स्थिति को बदलना चाहता है और इसकी जगह ‘एक विचार-दो पार्टियों’ की व्यवस्था को आगे बढ़ाना चाहता है जिससे वह बेहतर राजनीतिक प्रबंधन के साथ उन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ा सके जो आम लोगों खासकर गरीबों-दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों के हितों की कीमत पर बड़ी पूंजी-कारपोरेट की लूट का रास्ता साफ करते हैं.

इस समझ और रणनीति के तहत ही बड़ी पूंजी-कार्पोरेट्स अगले आम चुनावों से पहले कांग्रेस और यू.पी.ए के विकल्प के बतौर भाजपा और एन.डी.ए को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि कांग्रेस-यू.पी.ए की साख पाताल में पहुँच चुकी है और उसका दुबारा सत्ता में लौटना मुश्किल है.

जारी...

('कथादेश' के मई अंक में प्रकाशित स्तंभ की पहली क़िस्त)

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