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शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

सोमवार, मार्च 10, 2014

आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में चैनल

खेल में पार्टी बनते जा रहे चैनल आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचेंगे?

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं और पार्टियों-नेताओं के लिए दांव ऊँचे होते जा रहे हैं, आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी तीखे और व्यक्तिगत होने लगे हैं. न्यूज मीडिया हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोपों का मंच और अखाड़ा बनता रहा है.
चुनावों के दौरान यह बहुत असामान्य बात नहीं है. न्यूज मीडिया खासकर चैनल इसमें खूब दिलचस्पी भी लेते रहे हैं. लेकिन इसबार पहली दफा खुद न्यूज मीडिया खासकर चैनल इन आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में आ गए हैं. इससे चैनल बिलबिलाये हुए हैं.
हुआ यह है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी से लेकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व सेनाध्यक्ष पलट नेता बने जनरल वी.के सिंह तक खुलेआम न्यूज मीडिया पर खुन्नस निकाल रहे हैं. यहाँ तक कि न्यूज के डार्लिंग समझे जानेवाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया है.

केजरीवाल का आरोप है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश और अनिल अम्बानी का पैसा लगा हुआ है और इस कारण वे आम आदमी पार्टी और व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ अभियान झूठी ख़बरें दिखा और अभियान चला रही हैं.

दूसरी ओर, भाजपा नेताओं और मोदी समर्थकों का आरोप है कि अखबार और चैनल केजरीवाल का महिमामंडन कर रहे हैं क्योंकि उनके ज्यादातर पत्रकार वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी हैं. यही नहीं, भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी और आर.एस.एस से जुड़े एस. गुरुमूर्ति ने एन.डी.टी.वी पर धन शोधन (मनी लांडरिंग) का आरोप लगाते हुए अभियान छेड रखा है.
खुद मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एन.डी.टी.वी पर सरकारी पैसे से चलने और बाद में दिल्ली की एक रैली में इसी चैनल की एक पत्रकार पर नवाज़ शरीफ की मिठाई खाने का आरोप लगाया था.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, सोशल मीडिया- ट्विटर और फेसबुक पर भी चैनलों और उनके
संपादकों/एंकरों को मोदी और केजरीवाल समर्थक जमकर गरिया रहे हैं. इससे चैनलों और मीडिया के साथ पत्रकारों में भी बेचैनी है.

नतीजा, एडिटर्स गिल्ड को न्यूज मीडिया के बचाव में उतरना पड़ा. लेकिन इससे लगता नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर हमले कम होंगे. इसकी वजह यह है कि इस बार चुनावों में न सिर्फ दांव बहुत ऊँचे हैं, केजरीवाल जैसे नए खिलाड़ी ‘नियमों को तोड़कर’ खेल रहे हैं बल्कि इसबार खेल में न्यूज मीडिया खासकर चैनल खुद खिलाड़ी बन गए हैं.

आप मानें या न मानें लेकिन यह तथ्य है कि २०१४ के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में लड़े जा रहे हैं. शोशल मीडिया से ज्यादा यह न्यूज चैनलों का चुनाव है. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हर रविवार को होनेवाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है. आश्चर्य नहीं कि इन रैलियों की टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टी.वी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.
चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं.

सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि कई चैनल चुनावी दंगल की तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग और व्याख्या के बजाये खेल में खुद पार्टी हो गए हैं. यह भी सही है कि उनमें से कई की डोर बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में है और वे उन्हें अपनी मर्जी से नचा रहे हैं. कुछ बहती गंगा में हाथ धोने में लग गए हैं और कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह झूम रहे हैं.

ऐसे में, हैरानी क्यों? जब चैनल खेल में पार्टी बनते जा रहे हैं तो आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचते?
                      
('तहलका' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

सोमवार, जुलाई 01, 2013

मोदी के मामले में मीडिया के सामने तटस्थ होने का विकल्प नहीं है

मीडिया और चैनलों को न्याय और सच के साथ खड़ा होना होगा

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
यही नहीं, न्यूज मीडिया जिस तरह से २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार के मुद्दे को भाजपा/आर.एस.एस की उग्र हिंदुत्व की राजनीति, उसमें मोदी सरकार की भूमिका, पीड़ितों को अब तक न्याय न मिलने और न्याय के रास्ते में लगातार रुकावटें पैदा करने, गुजरात में अल्पसंख्यकों को हाशिए पर ढकेल दिए जाने और सबसे बढ़कर मोदी की हिंदुत्व-कारपोरेट विकास के मिश्रण से तैयार दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति के एजेंडे के तहत महीन-द्विअर्थी-आक्रामक प्रचार शैली से काटकर पेश करता है, उसके कारण ऐसा आभास होता है कि मोदी को अनावश्यक रूप से निशाना बनाया जा रहा है.
इसी का फायदा उठाकर मोदी की पी.आर मशीनरी यह प्रचार करती रही है कि न्यूज मीडिया खासकर राष्ट्रीय (दिल्ली) का मीडिया और अंग्रेजी प्रेस २००२ के दंगों के बहाने मोदी का ‘खलनायकीकरण’ करता रहा है जबकि उसके बाद से गुजरात में ‘शांति है और तेज विकास’ है.
जाहिर है कि न्यूज मीडिया और चैनल यह नहीं बताते हैं कि गुजरात में यह शांति और विकास किस कीमत पर है? वे जांच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं करते हैं कि गुजरात में न सिर्फ अल्पसंख्यकों को ख़ामोशी से एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत हाशिए पर ढकेल दिया गया है बल्कि विरोध की सभी आवाजों को दबा दिया गया है.

चूँकि आम दर्शकों को यह पृष्ठभूमि नहीं दी जाती है, इसलिए वे भी मोदी की पी.आर मशीनरी के इस प्रचार को सच मानने लगते हैं कि मोदी के ‘बेदाग़’ प्रशासन और प्रदर्शन पर २००२ के दंगे एक मामूली दाग भर हैं जिन्हें मोदी और गुजरात को बदनाम करने के लिए जरूरत से ज्यादा उछाला जाता रहा है और अब उसे भुला दिया जाना चाहिए.

यही नहीं, मोदी की सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति के व्यापक सन्दर्भों-परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि से काटकर २००२ के नरसंहार के अत्यधिक उल्लेख और उसके बाद के हालात की रिपोर्टिंग से परहेज के जरिये लोगों में इस मुद्दे को लेकर विरूचि सी पैदा करने की कोशिश हो रही है.
साफ़ है कि इस तरह न सिर्फ २००२ के सांप्रदायिक नरसंहार के मुद्दे को धीरे-धीरे अप्रासंगिक बनाने की कोशिश
हो रही है बल्कि मोदी के भाषणों और प्रचार में विकास और शक्तिशाली राष्ट्र के नारे की आड़ में बारीक-द्विअर्थी सांप्रदायिक टिप्पणियों और अभियान को नजरंदाज़ करने की भी कोशिश की जा रही है. जैसे मोदी को एक दक्षिणपंथी पार्टी के नेता के रूप में चुनाव प्रचार अभियान में ऐसी टिप्पणियां करने का स्वाभाविक हक हासिल है और उसे अनदेखा किया जाना चाहिए.    
ऐसे में, मोदी के आलोचक माने-जानेवाले राजदीप सरदेसाई जैसे वरिष्ठ संपादक जब ‘मोदी की स्तुति या निंदा की चरम सीमा से परे जाकर विश्लेषण’ करने और मीडिया से ‘बीच का कोई रास्ता निकालने’ के लिए कहते हैं तो यह सवाल पैदा होता है कि मोदी के मामले में बीच का रास्ता निकालने का क्या अर्थ है?

क्या इस बीच के रास्ते का मतलब यह है कि मोदी के मामले में न्यूज मीडिया २००२ के नरसंहार, उसके पीडितों को अब तक न्याय न मिलने और गुजरात में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर फोकस न करे? या उसे संतुलित करने के लिए वायब्रेंट गुजरात और उसके तीव्र विकास की रिपोर्टों के साथ पेश करे? सबसे बढ़कर क्या बीच के रास्ते का अर्थ यह भी नहीं है कि मोदी की राजनीति में सकारात्मक तत्व खोजे जाएँ और इस तरह उनकी आलोचना की धार को भोथरा कर दिया जाए?

क्या पत्रकारिता में संतुलन और निष्पक्षता का अर्थ न्याय और अन्याय के बीच संतुलन रखना और दोनों में से किसी के पक्ष में खड़ा न होना है? आखिर गुजरात में २००२ के नरसंहार के दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों के लिए न्याय की मांग में तटस्थता और संतुलन और बीच का रास्ता क्या हो सकता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि यह संतुलन और निष्पक्षता की कृत्रिम और मशीनी व्याख्या है. याद रहे, पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों में पीड़ितों-कमजोरों और न्याय के साथ खड़ा होना, सत्ता की जवाबदेही तय करना और उसकी गडबडियों का पर्दाफाश करना भी है. इसमें बीच का रास्ता नहीं हो सकता है. बीच का रास्ता दरअसल, लीपापोती और दोषियों को परोक्ष रूप से बचाने का रास्ता है.  
दूसरे, राजदीप सरदेसाई का यह आग्रह भी गंभीर सवाल खड़ा करता है कि मोदी के आकलन में वैचारिक आग्रहों से परे जाकर उनका मूल्यांकन किया जाए? सवाल यह है कि सरदेसाई किन वैचारिक आग्रहों की बात कर रहे हैं? क्या वह यह कह रहे हैं कि मोदी का आकलन करते हुए धर्मनिरपेक्षता के विचार को परे रख दिया जाए?

क्या वह यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि दुनिया भर के लोकतंत्रों और भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों को दिए गए संरक्षण और अधिकारों के विचार को किनारे करके मोदी का आकलन किया जाए? क्या सरदेसाई यह कह रहे हैं कि मोदी के आकलन में मानवाधिकारों के विचार प्रति उनके शत्रुपूर्ण रवैये को अनदेखा कर दिया जाए?

ऐसे ही कई और विचार हैं जिन्हें दुनिया भर में सार्वभौम मानवाधिकारों के रूप में स्वीकार किया गया है लेकिन क्या पत्रकारिता में वैचारिक आग्रह छोड़ने के नामपर उन्हें अनदेखा किया जा सकता है?

सवाल यह है कि क्या पत्रकारों और पत्रकारिता को इन विचारों के प्रति कोई आग्रह या प्रतिबद्धता नहीं रखनी चाहिए? इससे एक और बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या पत्रकारिता का कोई वैचारिक आधार नहीं है? क्या उसे विचारशून्य होना चाहिए?
संभव है कि सरदेसाई के कहने तात्पर्य यह नहीं हो. लेकिन देखा गया है कि पत्रकारिता को वैचारिक आग्रहों से परे रखने का आग्रह बिना किसी अपवाद के सत्ता और वर्चस्व की ताकतों और अनुदारवादी-दक्षिणपंथी-फासीवादी वैचारिक खेमों की ओर से आता है. इसके जरिये वह पत्रकारिता को सत्ता और ताकतवर वर्गों के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं.
आखिर विचारों के बिना पत्रकारिता क्या है? सच यह है कि पत्रकारिता की आत्मा उसके विचारों और सरोकारों में है. विचार ही पत्रकारिता को वह धार और औजार देते हैं जिसके जरिये वह जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में खड़ी हो पाती है, जिसके जरिये वह सच का संधान करती है और जिसके माध्यम से वह नागरिकों को सत्य, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, संतुलित और निष्पक्ष सूचनाएं और जानकारियाँ देकर शिक्षित और स्वशासन के लिए तैयार करती है.

लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक/आर्थिक न्याय, समता, मानवाधिकार (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विरोध का अधिकार आदि), अल्पसंख्यकों के अधिकार आदि प्रगतिशील विचारों और सरोकारों से ही एक पत्रकार के पास वह दृष्टि और समझ आती है जिससे वह देश-समाज में घट रही घटनाओं-व्यक्तियों-मुद्दों की पड़ताल करता है और उनका आकलन कर पाता है.

आखिर सरदेसाई मोदी के आकलन के लिए नैतिकता और पत्रकारिता की जिस कसौटी की बात करते हैं, वह विचारों के बिना क्या है? उन्हें यह बताना चाहिए कि मोदी का मूल्यांकन वे किन कसौटियों पर करना चाहेंगे? उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि नैतिकता के जिन पैमानों को फिर से ठीक करने की बात कर रहे हैं, वे पैमाने क्या हैं?
नैतिकता (एथिक्स) के किस पैमाने में न्याय नहीं है? पत्रकारीय नैतिकता या आचार संहिता (एथिक्स) में क्या कोई विचार या सरोकार नहीं हैं? अगर हैं तो नरेन्द्र मोदी का आकलन उनपर क्यों नहीं होना चाहिए? और अगर उस आकलन में मोदी खरे नहीं उतरते हैं तो यह कहने में एक पत्रकार को संकोच या बीच का रास्ता क्यों अख्तियार करना चाहिए?
यह सवाल आज इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि मोदी की सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति ने वास्तव में, आज कोई बीच का रास्ता नहीं रहने दिया है. यह फैसला करने का वक्त है क्योंकि मोदी जिस राजनीति और उसके एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, वह जनतंत्र के बुनियादी मूल्यों, विचारों और सरोकारों के विरुद्ध है.

इस समय तटस्थ रहने का विकल्प नहीं है और ऐसे मौकों पर तटस्थता एक अपराध है. आनेवाले महीनों में जैसे-जैसे मोदी का अभियान आगे बढ़ेगा, पत्रकारिता खुद कसौटी पर खड़ी होगी.

('कथादेश' के जुलाई अंक में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है। गाली-गलौज छोड़कर कटु से कटु आलोचना का स्वागत है।

मोदी की कसौटी पर न्यूज मीडिया

मोदी की विकासपुरुष की छवि बनाने में जुटा मीडिया उनका चीयरलीडर बनता जा रहा है? 

पहली क़िस्त 
टी.वी पत्रकारिता के जाने-माने चेहरे, एडिटर्स गिल्ड के पूर्व अध्यक्ष और आई.बी.एन नेटवर्क-१८ के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई ने स्वीकार किया है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का उभार मीडिया की ‘निष्पक्षता’ और ‘वैचारिक एजेंडे से परे जाकर सत्य के संधान’ के लिए कसौटी बन गया है.
 
उनके मुताबिक, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है. अब क्योंकि मोदी बड़ी छलांग लगानेवाले हैं, मीडिया के लिए यही सही समय है, जब वह अपने नैतिक पैमाने फिर से ठीक कर ले.’ (दैनिक भास्कर, संपादकीय पृष्ठ, १४ जून)
सरदेसाई का सवाल है कि ‘क्या यह संभव है कि मोदी की स्तुति या चरम निंदा की सीमा से परे जाकर विश्लेषण किया जाए? क्या मीडिया कोई बीच का रास्ता निकाल सकता है जहाँ तटस्थ और निष्पक्ष भाव से दुराग्रह या चीयरलीडर होने का आरोप लगे बिना मोदी का आकलन किया जा सके?’
वे आगे पूछते हैं, ‘या मोदी इतने ध्रुवीकृत नेता हैं कि मीडिया तक दी खेमों में विभाजित हो गया है? सरदेसाई मोदी की रिपोर्टिंग और आकलन की चुनौती पर आगे कहते हैं कि, ‘अपने अनुभवों से मेरा मानना है कि मोदी समर्थक या विरोधी कहलाने से बचना मुश्किल है. लेकिन फिर भी हमें प्रयास करना होगा क्योंकि पत्रकारिता का इसकी शुद्ध अवस्था में वैचारिक एजेंडों से परे सत्य का पेशा बने रहना जरूरी है.’

सरदेसाई ने यह कसौटी इस पृष्ठभूमि में पेश की है कि जहाँ २००२ से २००७ तक गुजरात के दंगे और दंगा पीड़ितों को न्याय का मुद्दा मीडिया की सुर्ख़ियों में रहे, वहीँ ’उनकी जगह अब चमचमाते वायब्रेंट गुजरात ने ले ली है...आज मीडिया ३६० डिग्री घूम गया है. अब यह गुड गवर्नेंस का मोदी मन्त्र है जिसने बाकी सबको धुंधला कर दिया है...अगर कभी गुजरात की कहानी दंगों के प्रिज्म के जरिये कही जाती थी तो वह अब कारपोरेट इंडिया के नजरों से कही जाती है.’

सरदेसाई मानते हैं कि, ‘पत्रकारिता जनसंपर्क नहीं हो सकती है. न ही यह चरित्र हनन करनेवाली हो सकती है.’ सरदेसाई की इस राय पर विवाद की गुंजाइश नहीं है. निश्चय ही, पत्रकारिता जनसंपर्क (पी.आर) नहीं हो सकती है और न ही उसे किसी का चरित्र हनन करने की इजाजत दी जा सकती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की पत्रकारिता का बड़ा हिस्सा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के पी.आर अभियान में शामिल हो चुका है. इनमें न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा पूरे उत्साह के साथ जबकि एक छोटा हिस्सा कुछ हिचकिचाहट के साथ शामिल है. लेकिन दोनों मोदी की एक ‘विकास पुरुष और दृढ नेता’ के रूप में छवि गढ़ने के एक व्यापक पी.आर अभियान के सहमत भागीदार बन चुके हैं.
इसका प्रमाण यह है कि पिछले डेढ़-दो महीनों में मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर मोदी छाए हुए हैं. न सिर्फ मोदी की हर छोटी-बड़ी, जरूरी और गैर-जरूरी गतिविधि, यात्रा, मुलाकात को व्यापक और गैर-आलोचनात्मक (अन-क्रिटिकल) कवरेज मिल रही है बल्कि बिना अपवाद के उनके सभी भाषण लाइव दिखाए जा रहे हैं. ट्विटर पर १४० कैरेक्टर की उनकी टिप्पणियां या बयान सुर्खियाँ बन रहे हैं.  

पिछले दिनों कम से कम दो प्रमुख न्यूज चैनलों (‘आज तक’ और ‘ए.बी.पी न्यूज’) ने सर्वेक्षणों के जरिये यह दिखाने की कोशिश की कि नरेन्द्र मोदी इस समय देश के सबसे ‘लोकप्रिय नेता’ हैं और लोकप्रियता चार्ट में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से काफी आगे निकल चुके हैं.

मजे की बात यह है कि भाजपा कार्यकारिणी ने पिछले महीने जब गोवा में मोदी को २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की प्रचार समिति का अध्यक्ष घोषित किया तो कई भाजपा नेताओं और उनके प्रवक्ताओं ने न्यूज चैनलों के इन सर्वेक्षणों का हवाला देते हुए इस फैसले को सही ठहराने की कोशिश की.
यही नहीं, मोदी के प्रधानमंत्री पद के अभियान में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की सक्रिय भागीदारी का आलम यह है कि भाजपा की गोवा कार्यकारिणी का बैठक के कई दिनों पहले से उसमें मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास शुरू हुए और बैठक के दौरान वह चरम पर पहुँच गया, जब २४x७ चैनलों पर सिर्फ और सिर्फ यही मुद्दा छाया रहा.
अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि न्यूज चैनलों के इस हाई-पिच कवरेज ने भाजपा नेतृत्व में मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर गंभीर मतभेदों के बावजूद पार्टी को यह फैसला लेने पर मजबूर कर दिया.

कहना मुश्किल है कि अगर पिछले कुछ सालों खासकर पिछले साल-डेढ़ साल से मोदी की पी.आर मशीनरी ने सुनियोजित अभियान नहीं चलाया होता, मोदी की एक ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की छवि नहीं गढ़ी होती और सबसे बढ़कर कारपोरेट न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने इस छवि को बिना किसी आलोचना के ज्यों का त्यों स्वीकार करके देश के सामने नहीं पेश किया होता तो मोदी के लिए भाजपा को अपने नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार कर पाना क्या इतना आसान होता?

हैरानी की बात नहीं है कि इस प्रकरण के बाद कई विश्लेषकों और कुछ भाजपा नेताओं तक की शिकायत है कि पार्टी को न्यूज मीडिया खासकर चैनल चला रहा है. लेकिन यह आधा सच है. वास्तव में, भाजपा और न्यूज मीडिया दोनों को मोदी की पी.आर मशीनरी चला रही है. यहाँ यह जोड़ना जरूरी है कि इस पी.आर मशीनरी के पीछे देश के बड़े कारपोरेट समूहों की ताकत भी लगी है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस की तेजी से गिरती साख को देखते हुए बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स नरेन्द्र मोदी को विकल्प के रूप में आगे बढ़ा रहे हैं. कारपोरेट न्यूज मीडिया इस मुहिम के सबसे महत्वपूर्ण औजारों में से है. वह कारपोरेट एजेंडे को ही आगे बढ़ा रहा है.
इसलिए राजदीप सरदेसाई मोदी की प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी को लेकर कारपोरेट न्यूज मीडिया के ३६० डिग्री घूम जाने को लेकर जो हैरानी जाहिर कर रहे हैं, उसमें इतना हैरान होने की बात नहीं है. कारपोरेट न्यूज मीडिया पर मोदी ने कोई काला जादू नहीं किया है बल्कि यह मोदी में कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी का राजनीतिक निवेश है जो कारपोरेट न्यूज मीडिया के जरिये उनकी छवि चमकाने और अनुकूल माहौल बनाने के लिए किया जा रहा है.

जाहिर है कि इस प्रक्रिया में कारपोरेट न्यूज मीडिया मोदी पर लगे २००२ के सांप्रदायिक नरसंहार के दाग को हल्का करने या उनके विकास माडल की कमियों और सीमाओं को अनदेखा करने या छुपाने, उनके बड़े-बड़े दावों को बिना किसी जांच-पड़ताल के लोगों के बीच पहुंचाने और उनकी राजनीति-अर्थनीति की बारीकी से छानबीन के कार्यभार से बचने की कोशिश कर रहा है.

ऐसा नहीं है कि न्यूज मीडिया या चैनलों में गुजरात के २००२ के नरसंहार, फिर राज्य में अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों और ईसाईयों) के साथ भेदभाव और उनका सुनियोजित हाशियाकरण और फर्जी मुठभेड़ों आदि में नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार की भूमिका का उल्लेख नहीं होता है लेकिन उसका टोन और एंगल बदल गए हैं.
उदाहरण के लिए, चैनलों पर मोदी की राजनीति और रणनीति को लेकर होनेवाली अंतहीन बहसें हों या उनके कार्यक्रमों/भाषणों की कवरेज- उनमें घूम-फिरकर २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार का मुद्दा उठता है लेकिन नई बात यह है कि इसे भाजपा का प्रवक्ता नहीं बल्कि खुद एंकर या रिपोर्टर १९८४ में कांग्रेस और तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के कार्यकाल में हुए सिख विरोधी नरसंहार या कांग्रेस की सरकारों के कार्यकाल में हुए दंगों से संतुलित करने की कोशिश करते हैं.
गोया १९८४ के नरसंहार, २००२ के नरसंहार को रोक पाने में मोदी की नाकामी और उसकी जवाबदेही लेने से बच निकलने के तार्किक औचित्य हों.   
दूसरे, अब २००२ के जनसंहार को कारपोरेट न्यूज मीडिया और चैनल गुजरात में मोदी के एक दशक से अधिक के ‘सुशासन’ और उनकी खुद की ‘विकास पुरुष और सख्त प्रशासक’ की भीमकाय छवि के बीच ‘एकमात्र दाग’ की तरह से पेश करते हैं जिसे अब अनदेखा कर दिया जाना चाहिए.

उसे एक बड़े मुद्दे की तरह उठाने में न्यूज मीडिया और चैनलों की थकान साफ़ देखी जा सकती है. अधिकांश चैनलों में चर्चाओं-बहसों के दौरान जाने-माने एंकरों और विश्लेषकों को न सिर्फ २००२ के नरसंहार का जिक्र करने से बचते हुए या उसका जिक्र आने पर एक ठंडी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए या कई मौकों पर चिडचिड़ाते हुए देखा जा सकता है.

('कथादेश' के जुलाई अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)