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शनिवार, मार्च 15, 2014

चैनलों के पर्दे पर उत्तर पूर्व

राष्ट्रीय मीडिया उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखता है

अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया की दिल्ली के पाश बाजार लाजपतनगर में नस्लीय हत्या और उसकी न्यूज मीडिया में कवरेज ने पिछले साल अक्टूबर में कोई पन्द्रह दिनों के लिए अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर की यात्रा की दिला दी. ईटानगर के पास रानो हिल्स स्थित राजीव गाँधी विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं को पत्रकारिता पढ़ाने गया था.
वहीँ मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर चर्चा के दौरान एक छात्रा ने पूछा, ‘देश के बड़े और राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर उत्तर-पूर्व के राज्य और उनकी खबरें क्यों नहीं दिखाई पड़ती हैं?’ प्रश्न बहुत सीधा था और शायद उत्तर भी कि उत्तर-पूर्व नस्लीय भेदभाव का शिकार है.
हालाँकि उत्तर-पूर्व की रुटीन घटनाओं में राष्ट्रीय खबर बनने लायक न्यूज वैल्यू न होने से लेकर दिल्ली से दूरी जैसे तर्कों के जरिये विद्यार्थियों के सामने न्यूज चैनलों का पक्ष रखने की भी कोशिश की और खूब गरमागरम बहस भी हुई लेकिन सच यह है कि खुद इन कमजोर तर्कों से सहमत नहीं था.

ऐसा लग रहा था कि जैसे बहाने बना रहा हूँ और जिसका बचाव नहीं किया जा सकता है, उसका असफल बचाव करने की कोशिश कर रहा हूँ. सच यही है कि उत्तर-पूर्व दिल्ली के राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में एक बारीक और कई बार बहुत नग्न और बर्बर किस्म की नस्लीय उपेक्षा और पूर्वाग्रहों का शिकार है.    

बात वहीँ खत्म नहीं हुई. उसके बाद से लगातार सोचता रहा कि आखिर हमारे राष्ट्रीय न्यूज चैनलों से उत्तर-पूर्व क्यों गायब है? क्या वह देश का हिस्सा नहीं है? क्या वहां की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक घटनाओं के बारे में देश के बाकी हिस्सों के लोगों को नहीं जानना चाहिए? वहां के लोग देश के बाकी हिस्सों से किसी मायने में कमतर हैं?

खुद उत्तर पूर्व के लोग राष्ट्रीय चैनलों में अपने इलाके और समाज को न देखकर क्या महसूस करते होंगे? बात-बात पर राष्ट्रभक्ति का राग अलापनेवाले चैनलों के लिए आखिर उत्तर-पूर्व के क्या मायने हैं और वह उनके न्यूज एजेंडा में कहाँ है?

तथ्य यह है कि जब कभी उत्तर-पूर्व चैनलों पर दिखता भी है तो वह किसी बड़े एथनिक नरसंहार या बम विस्फोट में बड़ी संख्या में मारे जाने या कन्फ्लिक्ट की किसी ऐसी बड़ी घटना के कारण दिखता है या फिर चीन की कथित घुसपैठ या अरुणाचल पर चीन के दावे या विभिन्न अलगाववादी आन्दोलनों और उनकी हिंसक कार्रवाइयों के कारण गाहे-बगाहे सुर्ख़ियों में दिख जाता है.

गोया उत्तर-पूर्व में एथनिक झगडों, अलगाववादी आन्दोलनों, तनावों, हत्याओं, नरसंहारों के अलावा और कुछ होता ही नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय मीडिया में उत्तर पूर्व की एक इकहरी छवि बन गई है जो नस्ली भेदभाव का ही विस्तार और उसे मजबूत करने में मदद करती है.   

इस अर्थ में दिल्ली में नीडो तानिया की नस्ली हत्या के लिए जमीन तैयार करने में न्यूज मीडिया की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता है. यह सच है कि नीडो की हत्या के मुद्दे को राष्ट्रीय न्यूज मीडिया में काफी जगह मिली. न्यूज मीडिया के एक बड़े हिस्से ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ राजधानी में नस्लीय भेदभाव को मुद्दा बनाया.
इससे सरकार, पुलिस-प्रशासन और राजनीतिक दलों पर दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में नस्लीय भेदभाव, छींटाकशी और हमलों के शिकार उत्तर पूर्व के लोगों खासकर विद्यार्थियों और युवा पेशेवरों को संरक्षण देने और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बढ़ा.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि नीडो तानिया की हत्या के मुद्दे को न्यूज मीडिया से पहले दिल्ली में रहनेवाले उत्तर पूर्व के युवाओं और सजग नागरिक समाज के एक हिस्से ने जोरशोर से उठाया. उनकी सक्रियता और लाजपतनगर थाने पर जोरदार प्रदर्शन के कारण न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर भी इसके कवरेज का दबाव बढ़ा.

इसके बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी और जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले और प्रदर्शनकारियों के दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों और नेताओं से मिलकर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग ने नस्ली भेदभाव के मुद्दे को न सिर्फ जिन्दा रखा बल्कि केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस को कार्रवाई और न्यूज मीडिया को कवरेज देने के लिए मजबूर किया.

अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अगर उत्तर पूर्व के युवाओं और दिल्ली के नागरिक समाज खासकर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा सहित दूसरे वाम-जनवादी छात्र संगठनों ने राजधानी की सड़कों पर लगातार इस मुद्दे को उठाया नहीं होता और उत्तर पूर्व के लोगों के साथ वर्षों से जारी नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को मुद्दा नहीं बनाया होता तो क्या न्यूज मीडिया और चैनल इस मुद्दे को इतना कवरेज देते या नस्ली भेदभाव को मुद्दा बनाते?
अनुभव यही बताता है कि राष्ट्रीय मीडिया के लिए राजधानी और देश के बाकी हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव कोई मुद्दा नहीं रहा है. अगर रहा होता तो शायद नीडो की जान नहीं जाती.
असल में, दिल्ली सहित देश के अन्य हिस्सों में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक ऐसा संवेदनशील मुद्दा है जिसे जानबूझकर अनदेखा किया जाता है या छुपाया-दबाया जाता है. यही नहीं, मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक ‘राष्ट्रवादी’ हिस्से को लगता है कि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव और छींटाकशी की सच्चाई को स्वीकार करने पर इसका फायदा उत्तर पूर्व के अलगाववादी समूह उठाएंगे.

इसलिए वह सच्चाई से अवगत होते हुए भी न सिर्फ उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने से हिचकिचाता है बल्कि अक्सर उसे सख्ती से नकारने की कोशिश करता है. इसी तरह मीडिया और राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से को लगता है कि यह भेदभाव सिर्फ उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नहीं बल्कि दिल्ली में दक्षिण और मुंबई में बिहार-यू.पी आदि के लोगों के साथ भी होता है. इसी तर्क के आधार पर कुछ साल पहले तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव के आरोपों को नकारने की कोशिश की थी.

लेकिन नीडो तानिया की हत्या के बाद राजधानी में जिस बड़ी संख्या में उत्तर पूर्व के युवा सड़कों पर उतर आए और अपने गुस्से और पीड़ा का इजहार किया, उससे साफ़ है कि यह मामला सामान्य झगडे-मारपीट और हत्या का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा गंभीर है. अगर यह एक सामान्य हत्या की घटना होती तो उत्तर पूर्व के हजारों युवा सड़कों पर नहीं उतर आते.
सच यह है कि नीडो तानिया की मौत एक ट्रिगर की तरह थी जिससे रोजमर्रा के जीवन में नस्ली भेदभाव, छींटाकशी और हमलों को झेलनेवाले उत्तर पूर्व को लोगों के दबे गुस्से और पीड़ा को फूटकर बाहर आने का मौका दिया.
कई स्वतंत्र संस्थाओं की रिपोर्ट्स इस कड़वी सच्चाई की पुष्टि करती है. जामिया मिल्लिया इस्लामिया के सेंटर फार नार्थ ईस्ट एंड पॉलिसी रिसर्च की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रहनेवाले उत्तर पूर्व के ८१ प्रतिशत नागरिकों ने स्वीकार किया कि उन्हें कालेज, विश्वविद्यालय, बाजार और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर नस्लीय भेदभाव और छींटाकशी का शिकार होना पड़ता है.

इसके अलावा नार्थ ईस्ट सपोर्ट सेंटर और हेल्पलाइन की २००९ की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर पूर्व के ८६ फीसदी से ज्यादा लोगों को नस्ली भेदभाव और यौन उत्पीडन (सेक्सुअल हैरेसमेंट) का शिकार होना पड़ता है. इन रिपोर्टों से साफ़ है कि उत्तर पूर्व के लोगों को अपने ही देश और उसकी राजधानी में नस्लीय भेदभाव का सामना करना पड़ता है.

इसके बावजूद न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का एक हिस्सा इसबार भी नीडो तानिया की हत्या को नस्ली भेदभाव का मामला मानने से इनकार करते हुए इसे तात्कालिक उत्तेजना में हुए झगडे और मारपीट के मामले की तरह पेश करता रहा.
सबसे अफ़सोस की बात यह है कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट’ और ‘ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरीज’ से दबाना-छुपाना चाहा.
लेकिन सलाम करना चाहिए उत्तर पूर्व के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे अनदेखा करना मुश्किल हो गया.  
अच्छी बात यह है कि न्यूज मीडिया और चैनलों के बड़े हिस्से ने इसे नस्ली भेदभाव के एक उदाहरण के रूप में पेश करते हुए मुद्दा बनाया. असल में, देश की राजधानी में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ होनेवाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं.

चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसायटी- सब अलग-अलग कारणों से उससे आँख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं. उन्हें इससे ‘देश की छवि’ से लेकर ‘उत्तर पूर्व में अलगाववादियों द्वारा भुनाने’ की चिंता सताने लगती है. लेकिन इससे समस्या घटने के बजाय बढ़ती जा रही है. 

विडम्बना देखिए कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों/शहरों में उत्तर पूर्व के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीडन और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
हालाँकि नीडो नस्ली भेदभाव की कीमत चुकानेवाला पहला युवा नहीं है और स्थितियां नहीं बदलीं तो वह आखिरी भी नहीं है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या का खून अभी सूखा भी नहीं था कि राजधानी के मुनिरका में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और साकेत में एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, इस घटना के बाद मुनिरका गांव की रेजिडेंट वेलफेयर एसोशियेसन ने बिलकुल खाप की तरह व्यवहार करते हुए उत्तर पूर्व के लोगों पर कई तरह की बेतुकी पाबंदियां आयद कर दीं. यही नहीं, मुनिरका के मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों घरों से निकालने और उन्हें घर न देने का फैसला भी कर लिया.

हालाँकि इस फैसले पर हंगामे के बाद मुनिरका के स्थानीय मकान-मालिकों ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में ऐसा कोई फैसला करने से इनकार करते दावा किया कि वे सिर्फ ‘नशा करने, हंगामा करने और रात को देर से घर लौटनेवालों’ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उनके निशाने पर कौन है और क्यों?  

हैरानी की बात यह है कि पुलिस ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन मकान-मालिकों के फैसले के आगे अपनी विवशता भी जाहिर कर दी क्योंकि यह उनका ‘अधिकार’ है कि वे किसे किरायेदार रखें और किसे नहीं? सवाल यह है कि क्या यह नस्ली भेदभाव का एक और सुबूत नहीं है?
ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता दिया जाता था या फिर उन्हें रुटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात है. उत्तर पूर्व के लोगों के रहन-सहन और खान-पान से लेकर बात-व्यवहार के बारे में आम दिल्लीवालों में अनेकों भ्रामक धारणाएं, स्टीरियोटाइप्स और पूर्वाग्रह हैं.
यहाँ तक कि खुद पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी का रवैय्या भी कम भेदभावपूर्ण नस्ली नहीं है. विभिन्न मामलों में दिल्ली पुलिस का व्यवहार भी उसी पूर्वाग्रह और स्टीरियोटाइप्स से संचालित होता रहा है. उदाहरण के लिए, दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के लोगों के बारे में स्थानीय लोगों को शिक्षित करने के बजाय उल्टे उत्तर पूर्व के लोगों के लिए दिल्ली में “क्या करें और क्या न करें” की लंबी सूची जारी की हुई है.

यही नहीं, जब चीन के राष्ट्रपति भारत के दौरे पर आ रहे थे तो दिल्ली पुलिस ने उत्तर पूर्व के कई युवाओं को तिब्बती समझकर पकड़ लिया और थाने में बैठाए रहे. मामला सिर्फ दिल्लीवालों, दिल्ली पुलिस और प्रशासन तक सीमित नहीं है बल्कि सच यह है कि इस नस्ली भेदभाव की जड़ें काफी गहरी और व्यापक हैं और आम जनजीवन का कोई भी वर्ग और समूह इसके प्रभाव से बचा हुआ नहीं है.     

मीडिया भी इसका अपवाद नहीं है. राष्ट्रीय मीडिया खासकर न्यूज चैनल उत्तर पूर्व को एक खास “राष्ट्रवादी” वैचारिक खांचे में देखते हैं और उत्तर पूर्व के बारे में अपनी कवरेज में प्रचलित पूर्वाग्रहों और स्टीरियोटाइप्स को ही मजबूत करते हैं.
उदाहरण के लिए, अन्ना हजारे के अनशन को 24X7 कवरेज देनेवाले और उन्हें ‘महानायक’ बनानेवाले चैनलों ने मणिपुर में सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ पिछले १४ साल से अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला की कितनी बार सुध ली?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन उत्तर पूर्व में ऐसे अनेकों मामले/मुद्दे/घटनाएँ हैं जिन्हें राष्ट्रीय मीडिया ने या तो अनदेखा किया या फिर तोडमरोड कर पेश किया है.
लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. अच्छी बात यह है कि इससे चैनलों-अख़बारों से लेकर सिविल सोसायटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले कुछ महीनों में होनेवाले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी उत्तर पूर्व के लोगों के लिए फटा जा रहा है.

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुईं है.

इसके शिकार सिर्फ उत्तर पूर्व के ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होनेवाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती देने और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक स्थानों/मंचों को नस्ली रूप से ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाना होगा.
अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर उत्तर पूर्व के हैं? इन चैनलों पर उत्तर पूर्व की ख़बरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के उत्तर पूर्व में रिपोर्टर हैं? यही नहीं, मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र या कथानक उत्तर पूर्व के हैं?
मनोरंजन से लेकर न्यूज चैनलों तक में उत्तर पूर्व के लोगों और इलाके के प्रतिनिधित्व और उनकी पूर्वाग्रहों से मुक्त प्रस्तुति का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि लोगों को शिक्षित करने और उनमें संवेदनशीलता पैदा करने में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

यह एक तथ्य है कि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में उत्तर पूर्व के लोगों की संख्या नगण्य है, वे फैसले लेने की जगहों पर नहीं हैं और उत्तर पूर्व के राज्यों में उनके संवाददाता भी नहीं हैं.

यही नहीं, इन चैनलों के रिपोर्टर/संपादक शायद ही कभी उत्तर पूर्व के राज्यों की रिपोर्टिंग पर गए हों. आश्चर्य नहीं कि न्यूजरूम में ऐसे गेटकीपरों और रिपोर्टरों की संख्या बहुतायत में है जो कभी उत्तर पूर्व नहीं गए और वहां के बारे में सुनी-सुनाई बातों के आधार पर धारणाएं बना रखी हैं.

क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें? 
('कथादेश' के मार्च'2014 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)      

सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

सरोकारों और आदर्शों की मार्केटिंग और कारोबार के खतरे

कारपोरेट पत्रकारिता के मुकाबले वैकल्पिक पत्रकारिता को उसी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की मदद से खड़ा नहीं किया जा सकता

दूसरी और आखिरी क़िस्त

लेकिन सफलता की चमक ने तेजपाल और उनके समर्थकों की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी. अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि तेजपाल जिस फिसलन के रास्ते पर बढ़ रहे थे लेकिन दूसरी ओर, ‘तहलका’ के साहसी, प्रतिबद्ध और मेहनती युवा पत्रकारों के सरोकारी और खोजी रिपोर्टों के कामों की चमक से उसे ढंकने में कामयाब हो रहे थे, उससे उन्हें भ्रम हो गया था कि उन्हें रोकनेवाला और उनपर सवाल उठानेवाला कोई नहीं है.
जाहिर है कि इस दुस्साहस को अपनी बेटी के समान कनिष्ठ सहयोगी पर यौन हमले जैसे नैतिक और आपराधिक स्खलन में पतित होना था. कहने की जरूरत नहीं है कि तरुण तेजपाल जैसे सितारे का इस तरह से पतित होना वैकल्पिक और जनहित की पत्रकारिता और दूसरे मानवीय मूल्यों, आदर्शों और सरोकारों के लिए एक बड़ा धक्का है.
लेकिन इसके साथ ही यह उन सभी लोगों के लिए एक सबक भी है जो बड़ी पूंजी की समझौता-परस्त पत्रकारिता के मुकाबले गरीबों, कमजोर और बेआवाज़ लोगों के हक में बेहतर मानवीय आदर्शों, सरोकारों और उद्देश्यों की वैकल्पिक पत्रकारिता करना चाहते हैं.

निस्संदेह, तेजपाल के पतन का सबसे बड़ा सबक यह है कि उद्देश्य और सरोकार बड़े होते हैं न कि उनके लिए काम करने का दावा करनेवाला पत्रकार-संपादक. दूसरे, आप जिन सिद्धांतों, मूल्यों और आदर्शों के पालन की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, उनपर सबसे पहले आपको खुद खरा उतरना होगा. इसके बिना आप लोगों का भरोसा नहीं जीत सकते हैं.

तीसरे, सरोकारों और आदर्शों की मार्केटिंग और कारोबार का मतलब फिसलन और विचलन की शुरुआत है और जिसका अंत बहुत त्रासद होता है.

चौथे, वैकल्पिक पत्रकारिता के लिए सांस्थानिक ढांचा भी वैकल्पिक होना चाहिए. अगर ‘तहलका’ का ढांचा इतना व्यक्ति केंद्रित और अलोकतांत्रिक नहीं होता तो संस्थान में सुप्रीम कोर्ट के विशाखा फैसले के मुताबिक कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से निपटने की ज्यादा सक्रिय और पारदर्शी व्यवस्था होती.
पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण यह कि बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के मुकाबले वैकल्पिक और सरोकारी पत्रकारिता को उसी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों की मदद से खड़ा नहीं किया जा सकता है. इन दोनों में एक स्वाभाविक हितों का टकराव है जिसे बचा पाना असंभव है और जिसमें अंततः बड़ी और कारपोरेट पूंजी के हित ही भारी पड़ते हैं.   
लेकिन सवाल यह है कि क्या तरुण तेजपाल के विचलनों और अपराध की सजा ‘तहलका’ को दी जानी चाहिए? निश्चय ही, तेजपाल पर लग रहे आरोपों पर कानूनी फैसला आना बाकी है और उन्हें बचाव करने का पूरा हक है. यही नहीं, इस मामले की कई न्यूज चैनलों और अखबारों में जिस तरह से सनसनीखेज तरीके और एक परपीडक आनंद और चटखारे के साथ रिपोर्टिंग की गई, उनकी मंशा भी किसी से छुपी नहीं है.

लेकिन आरोपों की गंभीरता और साक्ष्यों को देखते हुए इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि तेजपाल पर लगे आरोपों से ‘तहलका’ की साख पर असर पड़ा है. तरुण तेजपाल और ‘तहलका’ जिस तरह से एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे, उसमें पत्रिका के लिए खुद को उस दाग से बचा पाना आसान नहीं है.

सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि यह एक ऐसी त्रासदी है जिसकी तेजपाल से अधिक कीमत ‘तहलका’ और उसके प्रतिबद्ध पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि साख और विश्वसनीयता हासिल करने में बरसों लग जाते हैं लेकिन एक बड़ी भूल और गलती उसे मिनटों में मिट्टी में मिला सकती है. इस तथ्य के बावजूद कि ‘तहलका’ खासकर हिंदी संस्करण में युवा और प्रतिबद्ध पत्रकार पत्रिका की साख को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हैं, पत्रिका के लिए आनेवाले महीने चुनौती के होंगे.
उनके लिए यह परीक्षा की घड़ी है और निश्चय ही, उन्हें यह साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए कि ‘तहलका’ का तेजपाल से अलग भी अस्तित्व है और वह वैकल्पिक पत्रकारिता के उन आदर्शों, सरोकारों और उद्देश्यों के लिए पहले से कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध है.
खासकर ‘तहलका’ पर हो रहे उन दक्षिणपंथी-प्रतिक्रियावादी और भगवा ताकतों के हमलों का पर्दाफाश जरूर किया जाना चाहिए जो इस मौके का इस्तेमाल न सिर्फ ‘तहलका’ बल्कि दूसरे सभी प्रगतिशील और जनोन्मुखी वैकल्पिक पत्रकारिता के प्रयोगों को निशाना बनाने के लिए कर रहे हैं.

इसके साथ ही, न्यूज मीडिया ने तेजपाल प्रकरण में जिस तरह से उन्मत्त (हिस्टरिकल) मीडिया ट्रायल चलने की कोशिश की है, उससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि वह ‘भीड़ न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को आगे बढ़ा रहा है. यह कहने का आशय कतई नहीं है कि न्यूज मीडिया को ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग नहीं करनी चाहिए या उसे दबाने-छुपाने की कोशिश करनी चाहिए.

इसके उलट ऐसे मामलों में न्यूज मीडिया से अतिरिक्त संवेदनशीलता और सक्रियता की अपेक्षा की जाती है. आरोपी जितना ताकतवर और प्रभावशाली हो, न्यूज मीडिया को उतने ही साहस और प्रतिबद्धता के साथ सच को सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए.
लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि रिपोर्टिंग में पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों- तथ्यों की पुष्टि, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और अनुपातबोध का ध्यान नहीं रखा जाए. इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए, यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच न पाए.
लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार के चटखारे भरे विवरण और विस्तृत चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के लोभ से बचा जाए.

लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया के एक बड़े हिस्से में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय का ही हो रहा है.

यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीडन और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के अंदर सब कुछ ठीक-ठाक है और न्यूज मीडिया में एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल थे. तेजपाल मामले में चैनलों और अखबारों की अति सक्रियता कहीं उसी चोर भाव से तो नहीं निकल रही है?
झांसा देने के लिए चोर खुद बहुत जोरशोर से चिल्लाता है. क्या न्यूज मीडिया के शोर के पीछे भी यही वजह है? सच यह है कि न्यूज मीडिया में भी महिला पत्रकारों को उतना ही यौन उत्पीड़न झेलना पड़ता है जितना अन्य किसी भी प्रोफेशन में झेलना पड़ता है. खासकर हाल के वर्षों में जैसे-जैसे न्यूज मीडिया विशेषकर चैनलों में महिला कर्मियों की संख्या बढ़ी है, यौन उत्पीड़न की घटनाएं भी बढ़ी हैं.
लेकिन ज्यादातर मामलों में न्यूज मीडिया संस्थानों के अंदर के सामंती माहौल और पुरुषवादी वर्चस्व के कारण महिला पत्रकारों/कर्मियों के लिए उसे उठाना और न्याय पाना लगभग मुश्किल है. न्यूज मीडिया संस्थानों का प्रबंधन और नेतृत्वकर्ता संपादक शिकायतों को सुनने के लिए तैयार नहीं होते और उसे दबाने और छुपाने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखते हैं.

सच यह है कि न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में कई तेजपाल हैं और उनके बारे में प्रबंधन सहित बहुतों को जानकारी है लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती है.

सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडितों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है?
क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी आडिट की? तथ्य यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र, सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीडन जांच और कार्रवाई समिति नहीं है या सिर्फ कागजों पर है.
क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहाँ यौन उत्पीडन के मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इसपर सबकी नजर रहनी चाहिए.

('कथादेश' के जनवरी'14 अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

एक सितारे का पतन

बहुत पहले हो गई थी तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत

पहली क़िस्त

विडम्बना देखिए कि मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता और उसके नैतिक विचलनों के खिलाफ आवाज़ उठानेवाली और खुद को वैकल्पिक पत्रकारिता के साथ जोड़नेवाली पत्रिका ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल अपनी ही एक युवा रिपोर्टर के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों में जेल में हैं.
यही नहीं, युवा रिपोर्टर की शिकायत पर त्वरित, उचित और कानून के मुताबिक कार्रवाई न करने, मामले को दबाने और लीपापोती करने की कोशिश के आरोप में ‘तहलका’ की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
हालाँकि तेजपाल पर लगे आरोपों पर फैसला कोर्ट में होगा और उन्हें अपने कानूनी बचाव का पूरा हक है लेकिन इस मामले में तेजपाल ने खुद अपना स्टैंड जिस तरह से कई बार बदला है और पहले पश्चाताप के एलान के बाद अब उस युवा रिपोर्टर पर सवाल उठा रहे हैं, उसे लेखिका अरुंधती राय ने ठीक ही ‘दूसरा बलात्कार’ कहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि तेजपाल प्रकरण सामने आने और उससे सख्ती से निपटने में पत्रिका प्रबंधन की नाकामी के बाद ‘तहलका’ के आधा दर्जन से ज्यादा पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है.

इस बीच, ‘तहलका’ की फंडिंग और खासकर तेजपाल के व्यावसायिक लेनदेन को लेकर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं. इस कारण एक संस्थान और पत्रिका के रूप में ‘तहलका’ के भविष्य पर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘तहलका’ के संस्थापक तरुण तेजपाल पर लगे यौन उत्पीडन और बलात्कार के आरोपों और संदिग्ध व्यावसायिक लेनदेन और संबंधों के कारण पत्रिका की साख को गहरा धक्का लगा है और उससे उबरना आसान नहीं होगा.
यही नहीं, ‘तहलका’ पर जिस तरह से चौतरफा हमले हो रहे हैं, उसमें पत्रिका के लिए टिके रहना खासकर अपने युवा और वरिष्ठ पत्रकारों को पत्रिका के साथ खड़े रहने और इन हमलों का मुकाबला करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गया है.

यह सच है कि ‘तहलका’ की भंडाफोड और आक्रामक पत्रकारिता से नाराज और चिढ़ी राजनीतिक ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों खासकर भगवा ब्रिगेड ने इस मौके का फायदा उठाते हुए ‘तहलका’ पर हमले तेज कर दिए हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली के मामले के भंडाफोड के बाद भाजपा को जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण से लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को इस्तीफा देना पड़ा था, उस चोट को वे कभी भुला नहीं पाए.

यही नहीं, इसके बाद भी गुजरात के २००२ के दंगों के आरोपियों की स्टिंग आपरेशन के जरिये पहचान करवाने, उनके खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और उन्हें सजा दिलवाने में ‘तहलका’ की साहसिक पत्रकारिता की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह भी तथ्य है कि ‘तहलका’ के खुलासों से बौखलाई तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने उसे बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रहा. इसके अलावा भगवा संगठन हमेशा से ये आरोप लगाते रहे हैं कि ‘तहलका’ कांग्रेस समर्थक, पूर्वाग्रह-ग्रसित और हिंदू विरोधी है और केवल भाजपा या दूसरी भगवा ताकतों के भ्रष्टाचार, घोटालों और अपराधों को सामने लाने की कोशिश करता है.
लेकिन सच यह है कि ‘तहलका’ ने कोयला खान आवंटन घोटाले से लेकर महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले तक कई ऐसे घोटालों का पर्दाफाश किया है जिसके निशाने पर कांग्रेस और उसके समर्थक दल रहे हैं.
इसके बावजूद जब तरुण तेजपाल ने जब अपनी कनिष्ठ सहयोगी के यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपों पर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए इसे सांप्रदायिक ताकतों की साजिश बताने की कोशिश की तो यह साफ़ था कि वे खुद को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ ले रहे हैं.

ऐसा करते हुए वे न सिर्फ एक बहुत कमजोर और अनैतिक तर्क पेश कर रहे हैं बल्कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई को भी कमजोर कर रहे हैं. आखिर सांप्रदायिक शक्तियों को ‘तहलका’ के खिलाफ पलटवार करने का मौका किसने दिया?

क्या तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी को मालूम नहीं था कि ‘तहलका’ और उसकी पत्रकारिता जिन ऊँचे आदर्शों, मूल्यों और प्रतिमानों की कसौटी पर राजनेताओं, अफसरों से लेकर बाकी दूसरे ताकतवर लोगों को कसती रही है, उसी कसौटी पर उसे भी खरा उतरना होगा?              

खासकर तब जब आप ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की अनियमितताओं और अपराधों का पर्दाफाश करने में लगे हों और उनसे जवाबदेही मांग रहे हों, यह याद रखना चाहिए कि आपसे कहीं ज्यादा जवाबदेही मांगी जाएगी और ऊँची कसौटियों पर कसा जाएगा.

सवाल यह है कि एक ओर ‘तहलका’ महिलाओं के यौन उत्पीडन और बलात्कार के मामले जोरशोर से उठा रहा था, सोनी सोरी से लेकर मनोरमा देवी जैसे अनेकों मामलों पर अभियान चला रहा था और यहाँ तक कि गोवा के जिस थिंक-फेस्ट के दौरान तरुण तेजपाल पर अपनी कनिष्ठ सहयोगी के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं, वहां भी एक सत्र यौन उत्पीड़न और बलात्कार पीडितों के संघर्ष पर था लेकिन तरुण तेजपाल को अपनी सहयोगी पत्रकार, मित्र की बेटी और अपनी बेटी की दोस्त पर सख्त विरोध के बावजूद दो बार यौन हमला करने का साहस कहाँ से आया?

ऐसा लगता है कि तेजपाल जिन सरोकारों और उद्देश्यों की पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दावा कर रहे थे, उन उद्देश्यों और सरोकारों से खुद को बड़ा मान बैठने की भूल कर बैठे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि वे खुद जनहित की पत्रकारिता के पर्याय बन गए हैं.
यह भी कि वे जैसे चाहेंगे, जनहित को पारिभाषित करेंगे और मुद्दे, सरोकार और उद्देश्य उनके पीछे चलेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ही कोई व्यक्ति खुद को उन आदर्शों, मूल्यों, सरोकारों और उद्देश्यों से बड़ा और अहम मानने लगता है जिससे उसे पहचान और सम्मान मिला है, उसके फिसलन और विचलनों की शुरुआत हो जाती है.
तेजपाल भी इसके अपवाद नहीं हैं. मीडिया से आ रही रिपोर्टों से साफ़ है कि तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी जब उन्होंने बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के जवाब में वैकल्पिक और जनहित पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के नाम पर संदिग्ध उद्योगपतियों और व्यवसायियों से समझौते करने शुरू कर दिए.

‘तहलका’ के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के नामपर तेजपाल ने नैतिक रूप से संदिग्ध उपक्रम शुरू किये, जैसे व्यवसायियों के साथ हाथ मिलाये और खुद और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ पैसे और संपत्ति बनाई, वह वैकल्पिक और सरोकारी जनहित की पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्शों के कहीं से भी अनुकूल नहीं थे.

यही नहीं, तेजपाल के कुछ पूर्व सहयोगियों का आरोप है कि उन्होंने कुछ खोजी रिपोर्टें जैसे गोवा में अवैध खनन से संबंधित रिपोर्ट को प्रकाशित होने से रोक दिया और बदले में गोवा सरकार और खनन कंपनियों से अनुचित फायदा उठाया. गोवा के कुछ वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकारों ने गोवा में नियमों को तोड़कर बने तेजपाल के बंगले और संपत्ति पर गंभीर सवाल उठाए हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आरोपों में अगर जरा भी दम है तो यह तेजपाल पर लगे बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपों से कम गंभीर नहीं हैं. साफ़ है कि ‘तहलका’ के घोषित आदर्शों और सरोकारों के विपरीत नैतिक विचलन की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी और उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार खुद तेजपाल थे.
अफसोस और चिंता की बात यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के दावों के बावजूद ‘तहलका’ का खुद का सांस्थानिक ढांचा इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं था कि उसमें तेजपाल की महत्वाकांक्षाओं और उसके कारण उनके नैतिक विचलनों पर अंकुश लगाया जा सकता.

ऐसा लगता है कि तेजपाल ‘तहलका’ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रहे थे जिसमें ‘तहलका’ की जनहित पत्रकारिता के घोषित उद्देश्य और सरोकार पीछे चले गए थे और निजी हित ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी हो गए थे.

इसकी वजह यह थी कि ‘तहलका’ के घोषित उद्देश्यों और सरोकारों को सितारा (स्टार) समझने के बजाय तेजपाल खुद को स्टार समझने लगे थे और सरोकारों की मार्केटिंग और कारोबार में लग गए थे. उसकी स्वाभाविक परिणति अनैतिक समझौतों और विचलनों में ही होनी थी.

जारी.... 

('कथादेश' के जनवरी अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)

गुरुवार, जनवरी 23, 2014

राजनीति और पत्रकारिता: किसकी राजनीति, किसकी पत्रकारिता?

मुद्दा आशुतोष का राजनीति में जाना नहीं बल्कि कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है
दूसरी क़िस्त 
ऐसे में यह सवाल ज्यादा प्रासंगिक है कि किसी पत्रकार या संपादक की निजी वैचारिक-राजनीतिक राय और पक्षधरता से ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा क्या उस समाचार संस्थान की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता नहीं है?
यह सवाल इसलिए और ज्यादा जरूरी है क्योंकि समाचार संस्थान के अंदर विभिन्न स्तरों पर जांच-पड़ताल और छानबीन की ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें अगर किसी एक या दो या उससे अधिक पत्रकारों की ‘खबरों और रिपोर्टों’ में मौजूद राजनीतिक झुकाव या पूर्वाग्रह को सम्पादित किया जा सकता है.
लेकिन अगर वह समाचार संस्थान वैचारिक-राजनीतिक तौर पर खुद एक पक्ष में झुका हो तो संस्थान के सभी पत्रकारों/संपादकों पर उस ‘लाइन’ के अनुसार रिपोर्ट करने या विचार प्रकट करने के अलावा क्या विकल्प बचता है?
आश्चर्य नहीं कि अमरीका समेत सभी उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में मुख्यधारा के कारपोरेट समाचार संस्थानों में ‘समाचार और विचार के बीच चर्च और राज्य की तरह की स्पष्ट विभाजन रेखा’ के दावों और स्वतंत्रता, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय मूल्यों पर अत्यधिक जोर के बावजूद उसकी वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता, पूर्वाग्रह और झुकाव किसी से छुपे नहीं रहे हैं.

यही नहीं, पत्रकारों और संपादकों के चयन में भी उनकी सोच का ध्यान रखा जाता रहा है. यहाँ तक कि ५०-६० के दशक में अमरीका में सीनेटर मैकार्थी के नेतृत्व में न्यूज मीडिया, अकादमिक जगत से लेकर शासन-प्रशासन के सभी हिस्सों से वाम-प्रगतिशील-लिबरल सोच रखनेवाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर निकाला गया था.

नोम चोमस्की और एडवर्ड हरमन के अध्ययनों से भी यह साफ़ है कि अमरीकी मीडिया वैचारिक-राजनीतिक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था और सत्ता प्रतिष्ठान के साथ गहराई से नाभिनालबद्ध है और अभिव्यक्ति/प्रेस की आज़ादी एक बहुत संकीर्ण दायरे में बंधी हुई है.
लेकिन कारपोरेट न्यूज मीडिया की साख और विश्वसनीयता के भ्रम को बनाए रखने और वास्तव में, पत्रकारों की स्वतंत्र रिपोर्टिंग की संभावनाओं को सीमित करने के लिए उनपर पार्टी राजनीति और यहाँ तक कि स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने की आचार संहिता थोपी जाती है.
ऐसा लगता है कि प्रोफेशनलिज्म के नामपर पत्रकारों को राजनीति और राजनीतिक गतिविधियों यहाँ तक कि स्वतंत्र नागरिक पहलकदमियों और कार्रवाइयों से दूर रखने के पीछे असली उद्देश्य उनकी स्वतंत्र रिपोर्टिंग की संभावनाओं को सीमित करना और सत्ता का भोंपू बनाए रखना है.   
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. यहाँ भी न्यूज मीडिया की पत्रकारीय आचार संहिता में पत्रकार/संपादक के किसी राजनीतिक पार्टी के साथ खुले संबंधों और राजनीति गतिविधियों में शिरकत पर पाबन्दी है. पत्रकारों और रिपोर्टरों से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी वैचारिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह या झुकाव के रिपोर्ट और विश्लेषण करें. लेकिन व्यवहार में सच्चाई ठीक इसके उलट है.

अधिकांश समाचार संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव स्पष्ट है और उनके संपादकों के विचार-राजनीतिक झुकाव भी किसी से छुपे नहीं हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि फिर भी वे अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता का दावा करते नहीं थकते हैं.

यह भी तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि इमर्जेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार के दौरान तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने योजनाबद्ध तरीके से आर.एस.एस समर्थकों और उससे सहानुभूति रखनेवाले कार्यकर्ताओं को अखबारों में घुसाया था.

दूसरी ओर, वाम और जे.पी की सर्वोदयी राजनीति से कार्यकर्ता और समर्थक भी अच्छी-खासी संख्या में अखबारों में आए हालाँकि ९० और उसके बाद के दशक में ऐसे ज्यादातर वाम समर्थक पत्रकारों/संपादकों को भारतीय किस्म के मैकार्थीवाद के तहत नव उदारवादी तख्तापलट में अखबारों और दूसरे समाचार संस्थानों से बाहर कर दिया गया.
इसके बाद ज्यादातर कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों में नव उदारवादी बाजार समर्थक सुधारों और दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थकों को जगह दी गई या उन्हें आगे बढ़ाया गया और संपादक आदि महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया. इसी दौर में राजनीति से दूर रहने और अराजनीतिक न्यूज मीडिया के दावों के बीच मुख्यधारा के अधिकांश कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों ने खुलकर नव उदारवादी अर्थनीति और अनुदार राजनीति का सर्थन किया.
याद रहे कि ८० के दशक के उत्तरार्ध और ९० के दशक में घोर सांप्रदायिक रामजन्मभूमि अभियान को अनेकों अखबार समूहों ने खुला समर्थन दिया और भाजपा के राजनीतिक उभार में मदद की.       
इसी दौर में कई पत्रकार/संपादक ‘निष्पक्षता’ का चोला उतारकर भाजपा में शामिल हुए. दूसरी ओर, इसी दौर में बहुतेरे संपादकों/पत्रकारों को ‘फ्री मार्केट’ में मुक्ति दिखाई दी जबकि कई लालू से लेकर मुलायम सिंह के ‘सामाजिक न्याय’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर फ़िदा दिखाई दिए. हैरानी की बात नहीं है कि आज आशुतोष समेत अनेक पत्रकारों/संपादकों को आम आदमी पार्टी में ‘ईमानदारी’ और ‘बदलाव’ की संभावनाएं दिख रही हैं.
साफ़ है कि भारतीय पत्रकारिता में प्रोफेशनलिज्म, स्वतंत्रता और निष्पक्षता के तमाम दावों के बावजूद न सिर्फ मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव और पूर्वाग्रह एक तथ्य रहा है बल्कि ज्यादातर संपादकों/पत्रकारों की राजनीतिक-वैचारिक पक्षधरता भी जगजाहिर रही है.
यही नहीं, उनकी राजनीति का दायरा और दिशा भी उतनी ही स्पष्ट रही है. वह बिना किसी अपवाद के सत्ता प्रतिष्ठान और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़ी रही है. इसका नीरा राडिया टेप्स से बड़ा प्रमाण और क्या होगा? दूसरी ओर, वैकल्पिक और जन राजनीति के प्रति उसकी चिढ़ भी किसी से छुपी नहीं है.  
यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘निष्पक्षता’ और ‘गैर राजनीतिक’ होने के दावों के बावजूद अनेकों अखबारों और न्यूज चैनलों में प्रधान संपादक और स्थानीय संपादक से लेकर ब्यूरो चीफ और संवाददाताओं की नियुक्ति में बड़े नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और कार्पोरेट्स की सीधी दखल है.

‘द हिंदू’ और ‘ओपन’ के संपादकों की बर्खास्तगी में राजनीतिक और कार्पोरेट्स की भूमिका की चर्चा आम है. इसी तरह ज्यादातर रिपोर्टर खासकर राजनीतिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर/ब्यूरो संवाददाताओं के राजनीतिक संबंध और झुकाव साफ़ दिखाई पड़ते हैं.

उनमें से कई तो उन पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं. इसके कारण राजनीतिक रिपोर्टिंग और उसकी धार लगातार कमजोर और भोथरी हुई है और कारपोरेट न्यूज मीडिया मुख्यधारा की कारपोरेट-परस्त राजनीति का प्रवक्ता बन गया है. नरेन्द्र मोदी को लेकर इस कारपोरेट न्यूज मीडिया का उत्साह किसी से छुपा नहीं है.
  
कहने का तात्पर्य यह है कि जब सगरे कूप में भंग पड़ी है तो आशुतोष के बजरिये पत्रकारिता, राजनीति प्रवेश की शिकायत क्या करें?

असल में, मुद्दा आशुतोष का पत्रकारिता छोड़कर पूर्णकालिक राजनीति में जाना नहीं बल्कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है. ‘स्वतंत्र’ और ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के नामपर कारपोरेट समाचार संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठान और उसके प्रतिनिधि राजनीतिक दलों के बीच जिस तरह का अघोषित गठबंधन बना है और वह जिस तरह की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है, उसमें  आशुतोष के अलावा और क्या अपेक्षा की जा सकती है?

जारी… 

('कथादेश' के फ़रवरी'14 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)