मुद्दा आशुतोष का राजनीति में जाना नहीं बल्कि कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है
यही नहीं, पत्रकारों और संपादकों के चयन में भी उनकी सोच का ध्यान रखा जाता रहा है. यहाँ तक कि ५०-६० के दशक में अमरीका में सीनेटर मैकार्थी के नेतृत्व में न्यूज मीडिया, अकादमिक जगत से लेकर शासन-प्रशासन के सभी हिस्सों से वाम-प्रगतिशील-लिबरल सोच रखनेवाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर निकाला गया था.
अधिकांश समाचार संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव स्पष्ट है और उनके संपादकों के विचार-राजनीतिक झुकाव भी किसी से छुपे नहीं हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि फिर भी वे अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता का दावा करते नहीं थकते हैं.
यह भी तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि इमर्जेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार के दौरान तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने योजनाबद्ध तरीके से आर.एस.एस समर्थकों और उससे सहानुभूति रखनेवाले कार्यकर्ताओं को अखबारों में घुसाया था.
‘द हिंदू’ और ‘ओपन’ के संपादकों की बर्खास्तगी में राजनीतिक और कार्पोरेट्स की भूमिका की चर्चा आम है. इसी तरह ज्यादातर रिपोर्टर खासकर राजनीतिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर/ब्यूरो संवाददाताओं के राजनीतिक संबंध और झुकाव साफ़ दिखाई पड़ते हैं.
उनमें से कई तो उन पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं. इसके कारण राजनीतिक रिपोर्टिंग और उसकी धार लगातार कमजोर और भोथरी हुई है और कारपोरेट न्यूज मीडिया मुख्यधारा की कारपोरेट-परस्त राजनीति का प्रवक्ता बन गया है. नरेन्द्र मोदी को लेकर इस कारपोरेट न्यूज मीडिया का उत्साह किसी से छुपा नहीं है.
कहने का तात्पर्य यह है कि जब सगरे कूप में भंग पड़ी है तो आशुतोष के बजरिये पत्रकारिता, राजनीति प्रवेश की शिकायत क्या करें?
असल में, मुद्दा आशुतोष का पत्रकारिता छोड़कर पूर्णकालिक राजनीति में जाना नहीं बल्कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है. ‘स्वतंत्र’ और ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के नामपर कारपोरेट समाचार संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठान और उसके प्रतिनिधि राजनीतिक दलों के बीच जिस तरह का अघोषित गठबंधन बना है और वह जिस तरह की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है, उसमें आशुतोष के अलावा और क्या अपेक्षा की जा सकती है?
जारी…
('कथादेश' के फ़रवरी'14 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
दूसरी क़िस्त
ऐसे में यह सवाल ज्यादा प्रासंगिक है कि किसी पत्रकार या संपादक की
निजी वैचारिक-राजनीतिक राय और पक्षधरता से ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा क्या उस
समाचार संस्थान की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता नहीं है?
यह सवाल इसलिए और ज्यादा
जरूरी है क्योंकि समाचार संस्थान के अंदर विभिन्न स्तरों पर जांच-पड़ताल और छानबीन
की ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें अगर किसी एक या दो या उससे अधिक पत्रकारों की
‘खबरों और रिपोर्टों’ में मौजूद राजनीतिक झुकाव या पूर्वाग्रह को सम्पादित किया जा
सकता है.
लेकिन अगर वह समाचार संस्थान वैचारिक-राजनीतिक तौर पर खुद एक पक्ष में
झुका हो तो संस्थान के सभी पत्रकारों/संपादकों पर उस ‘लाइन’ के अनुसार रिपोर्ट
करने या विचार प्रकट करने के अलावा क्या विकल्प बचता है?
आश्चर्य नहीं कि अमरीका समेत सभी उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में
मुख्यधारा के कारपोरेट समाचार संस्थानों में ‘समाचार और विचार के बीच चर्च और
राज्य की तरह की स्पष्ट विभाजन रेखा’ के दावों और स्वतंत्रता, तथ्यपूर्ण,
वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय मूल्यों पर अत्यधिक जोर के बावजूद
उसकी वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता, पूर्वाग्रह और झुकाव किसी से छुपे नहीं रहे हैं. यही नहीं, पत्रकारों और संपादकों के चयन में भी उनकी सोच का ध्यान रखा जाता रहा है. यहाँ तक कि ५०-६० के दशक में अमरीका में सीनेटर मैकार्थी के नेतृत्व में न्यूज मीडिया, अकादमिक जगत से लेकर शासन-प्रशासन के सभी हिस्सों से वाम-प्रगतिशील-लिबरल सोच रखनेवाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर निकाला गया था.
नोम चोमस्की और एडवर्ड हरमन के अध्ययनों से भी यह साफ़ है कि अमरीकी
मीडिया वैचारिक-राजनीतिक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था और सत्ता प्रतिष्ठान के साथ
गहराई से नाभिनालबद्ध है और अभिव्यक्ति/प्रेस की आज़ादी एक बहुत संकीर्ण दायरे में बंधी
हुई है.
लेकिन कारपोरेट न्यूज मीडिया की साख और विश्वसनीयता के भ्रम को बनाए रखने
और वास्तव में, पत्रकारों की स्वतंत्र रिपोर्टिंग की संभावनाओं को सीमित करने के
लिए उनपर पार्टी राजनीति और यहाँ तक कि स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने
की आचार संहिता थोपी जाती है.
ऐसा लगता है कि प्रोफेशनलिज्म के नामपर पत्रकारों को
राजनीति और राजनीतिक गतिविधियों यहाँ तक कि स्वतंत्र नागरिक पहलकदमियों और
कार्रवाइयों से दूर रखने के पीछे असली उद्देश्य उनकी स्वतंत्र रिपोर्टिंग की
संभावनाओं को सीमित करना और सत्ता का भोंपू बनाए रखना है.
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. यहाँ भी न्यूज मीडिया की पत्रकारीय आचार
संहिता में पत्रकार/संपादक के किसी राजनीतिक पार्टी के साथ खुले संबंधों और
राजनीति गतिविधियों में शिरकत पर पाबन्दी है. पत्रकारों और रिपोर्टरों से अपेक्षा
की जाती है कि वे बिना किसी वैचारिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह या झुकाव के रिपोर्ट और
विश्लेषण करें. लेकिन व्यवहार में सच्चाई ठीक इसके उलट है.अधिकांश समाचार संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव स्पष्ट है और उनके संपादकों के विचार-राजनीतिक झुकाव भी किसी से छुपे नहीं हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि फिर भी वे अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता का दावा करते नहीं थकते हैं.
यह भी तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि इमर्जेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार के दौरान तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने योजनाबद्ध तरीके से आर.एस.एस समर्थकों और उससे सहानुभूति रखनेवाले कार्यकर्ताओं को अखबारों में घुसाया था.
दूसरी ओर, वाम और जे.पी की सर्वोदयी राजनीति से कार्यकर्ता और समर्थक
भी अच्छी-खासी संख्या में अखबारों में आए हालाँकि ९० और उसके बाद के दशक में ऐसे
ज्यादातर वाम समर्थक पत्रकारों/संपादकों को भारतीय किस्म के मैकार्थीवाद के तहत नव
उदारवादी तख्तापलट में अखबारों और दूसरे समाचार संस्थानों से बाहर कर दिया गया.
इसके बाद ज्यादातर कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों में नव उदारवादी बाजार समर्थक
सुधारों और दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थकों को जगह दी गई या उन्हें आगे बढ़ाया गया
और संपादक आदि महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया. इसी दौर में राजनीति से दूर रहने और
अराजनीतिक न्यूज मीडिया के दावों के बीच मुख्यधारा के अधिकांश कारपोरेट न्यूज
मीडिया संस्थानों ने खुलकर नव उदारवादी अर्थनीति और अनुदार राजनीति का सर्थन किया.
याद रहे कि ८० के दशक के उत्तरार्ध और ९० के दशक में घोर सांप्रदायिक रामजन्मभूमि
अभियान को अनेकों अखबार समूहों ने खुला समर्थन दिया और भाजपा के राजनीतिक उभार में
मदद की.
इसी दौर में कई पत्रकार/संपादक ‘निष्पक्षता’ का चोला उतारकर भाजपा में
शामिल हुए. दूसरी ओर, इसी दौर में बहुतेरे संपादकों/पत्रकारों को ‘फ्री मार्केट’
में मुक्ति दिखाई दी जबकि कई लालू से लेकर मुलायम सिंह के ‘सामाजिक न्याय’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’
पर फ़िदा दिखाई दिए. हैरानी की बात नहीं है कि आज आशुतोष समेत अनेक
पत्रकारों/संपादकों को आम आदमी पार्टी में ‘ईमानदारी’ और ‘बदलाव’ की संभावनाएं दिख
रही हैं.
साफ़ है कि भारतीय पत्रकारिता में प्रोफेशनलिज्म, स्वतंत्रता और
निष्पक्षता के तमाम दावों के बावजूद न सिर्फ मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया
संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव और पूर्वाग्रह एक तथ्य रहा है बल्कि ज्यादातर
संपादकों/पत्रकारों की राजनीतिक-वैचारिक पक्षधरता भी जगजाहिर रही है.
यही नहीं,
उनकी राजनीति का दायरा और दिशा भी उतनी ही स्पष्ट रही है. वह बिना किसी अपवाद के
सत्ता प्रतिष्ठान और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़ी रही है. इसका
नीरा राडिया टेप्स से बड़ा प्रमाण और क्या होगा? दूसरी ओर, वैकल्पिक और जन राजनीति
के प्रति उसकी चिढ़ भी किसी से छुपी नहीं है.
यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘निष्पक्षता’ और ‘गैर राजनीतिक’ होने के
दावों के बावजूद अनेकों अखबारों और न्यूज चैनलों में प्रधान संपादक और स्थानीय
संपादक से लेकर ब्यूरो चीफ और संवाददाताओं की नियुक्ति में बड़े नेताओं, मंत्रियों,
मुख्यमंत्रियों और कार्पोरेट्स की सीधी दखल है. ‘द हिंदू’ और ‘ओपन’ के संपादकों की बर्खास्तगी में राजनीतिक और कार्पोरेट्स की भूमिका की चर्चा आम है. इसी तरह ज्यादातर रिपोर्टर खासकर राजनीतिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर/ब्यूरो संवाददाताओं के राजनीतिक संबंध और झुकाव साफ़ दिखाई पड़ते हैं.
उनमें से कई तो उन पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं. इसके कारण राजनीतिक रिपोर्टिंग और उसकी धार लगातार कमजोर और भोथरी हुई है और कारपोरेट न्यूज मीडिया मुख्यधारा की कारपोरेट-परस्त राजनीति का प्रवक्ता बन गया है. नरेन्द्र मोदी को लेकर इस कारपोरेट न्यूज मीडिया का उत्साह किसी से छुपा नहीं है.
कहने का तात्पर्य यह है कि जब सगरे कूप में भंग पड़ी है तो आशुतोष के बजरिये पत्रकारिता, राजनीति प्रवेश की शिकायत क्या करें?
असल में, मुद्दा आशुतोष का पत्रकारिता छोड़कर पूर्णकालिक राजनीति में जाना नहीं बल्कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है. ‘स्वतंत्र’ और ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के नामपर कारपोरेट समाचार संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठान और उसके प्रतिनिधि राजनीतिक दलों के बीच जिस तरह का अघोषित गठबंधन बना है और वह जिस तरह की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है, उसमें आशुतोष के अलावा और क्या अपेक्षा की जा सकती है?
जारी…
('कथादेश' के फ़रवरी'14 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
1 टिप्पणी:
Journalism journey-good inight.I wish to draw your kind attention toward 'local pages' in vernacular media written mostly by 'stingers' without any journalistic quality or understanding.These local pages have vast readership and influence /inform more people than any 'prominent'national newspaper and periodicals.This segment of journalism need insight of scholars like you.
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