शनिवार, जनवरी 18, 2014

जरूरी है आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार

इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि आज़ादी के ६६ साल बाद भी एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर है 
दूसरी और आखिरी क़िस्त 
क्या अगर कोई फैक्ट्री का मालिक या मैनेजर व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार है लेकिन अपने श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम देता है और श्रम कानूनों की अनदेखी करता है तो उसे आम आदमी माना जाएगा? मालिक की ईमानदारी शेयरहोल्डरों के प्रति होनी चाहिए कि श्रमिकों के प्रति? मैनेजर, नियोक्ता यानी मालिक के प्रति ईमानदार रहे या श्रमिकों और ग्राहकों के प्रति?
यही नहीं, स्थाई नौकरी के बजाय ठेके पर नियुक्ति या जब चाहे हायर-फायर की नीति ईमानदारी में गिनी जाएगी या भ्रष्टाचार में? मारुति या ऐसी ही किसी और कंपनी में श्रमिकों की यूनियन बनाने की मांग और अपनी मांगों के लिए हड़ताल और उसे तोड़ने के लिए सरकार के आदेश पर पुलिस के लाठीचार्ज और दमन में कौन ईमानदार है और कौन भ्रष्ट? इनमें किसे आम आदमी माना जाएगा? 
यही नहीं, इससे बड़ी बेईमानी क्या हो सकती है कि देश में आज़ादी के ६६ साल बाद भी अगर एक तिहाई आबादी भूखे सोने के लिए मजबूर हो, लगभग ५० से ७७ फीसदी आबादी गरीबी रेखा (योजना आयोग के मुताबिक २२ फीसदी) के नीचे गुजर-बसर करती हो, लगभग ८८ लाख परिवार झुग्गियों में कीड़े-मकोडों की तरह रहते हों, हर साल लाखों बच्चे कुपोषण के कारण असमय मौत के मुंह में समा जाते हों, लाखों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हों, करोड़ों शिक्षित युवा बेरोजगार हों और यह सूची अंतहीन है.

लेकिन दूसरी ओर, देश में डालर अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही हो और मुकेश अम्बानी पांच हजार करोड़ रूपये की २७ मंजिला अट्टालिका में रहते हों? इसमें आम आदमी कौन है? इनमें कौन ईमानदार और कौन बेईमान है?                                   

साफ़ है कि ईमानदारी बनाम बेईमानी के आधार पर आम आदमी की पहचान अंतर्विरोधों और विसंगतियों से भरी हुई है. बेहतर यह होगा कि आम आदमी की पहचान सामाजिक-आर्थिक आधार पर हो. निश्चय ही, इस देश के गरीब, श्रमिक, छोटे-मंझोले किसान, पिछड़े, दलित, आदिवासी के साथ-साथ अल्पसंख्यकों का बड़ा हिस्सा, विस्थापित असली आम आदमी है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि आम आदमी की परिभाषा और उसके दायरे का विस्तार होना चाहिए. सिर्फ सरकारी गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों को ही आम आदमी मानना आम आदमी के साथ सबसे बड़ा मजाक है क्योंकि सरकारी गरीबी रेखा खुद एक मजाक है.
सच यह है कि शहरों और कस्बों में निम्न मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी आम आदमी है क्योंकि वह भी बुनियादी सुविधाओं जैसे घर, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, बिजली-पानी, शिक्षा-स्वास्थ्य और बेहतर जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा है.
ध्यान रहे कि ९० के दशक के बाद के आर्थिक सुधारों के बाद अर्थव्यवस्था यानी जी.डी.पी में सेवा क्षेत्र का योगदान बढ़कर ५५ फीसदी से ऊपर पहुँच गया है. लेकिन इस क्षेत्र जैसे होटल-रेस्तरां से लेकर बी.पी.ओ तक और शापिंग माल्स से लेकर कुरियर सेवा तक और टेलीकाम से लेकर सेक्युरिटी सर्विस तक में काम कर रहे लाखों युवाओं को जिन बदतर स्थितियों और असुरक्षा के बीच काम करना पड़ रहा है, वह किसी से छुपा नहीं है.

यह ठीक है कि वे सरकारी परिभाषा के मुताबिक गरीब नहीं हैं और उनमें से एक हिस्से का वेतन भी अपेक्षाकृत बेहतर है लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि उन्हें जितने घंटे और जिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है और उसके बावजूद नौकरी से लेकर कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है, उसके कारण उन्हें आम आदमी ही माना जाना चाहिए. इसी तरह असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे करोड़ों श्रमिक आम आदमी हैं और कई मामलों में आम आदमी से बदतर जीवन जीने को मजबूर हैं.
  
लेकिन कैप्टन गोपीनाथ से लेकर मीरा सान्याल तक को किस तरह से आम आदमी माना जाए? इसमें कोई बुराई नहीं है कि वे और उनके जैसे और लोग आम आदमी पार्टी में आएं और राजनीति को आम आदमी की सेवा में लगाने में मदद करें लेकिन इसका सीधा अर्थ यह है कि आम आदमी पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम असली आम आदमी के हितों को आगे बढानेवाले होंगे न कि बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों के.

गरज यह कि केजरीवाल चाहे जैसे आम आदमी को पारिभाषित करें लेकिन असल मुद्दा यह है कि आप पार्टी किस आम आदमी के पक्ष में खड़ी है और उसकी प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाला या ग्रेटर कैलाश?

याद रहे, असली आम आदमी इसी कसौटी पर आम आदमी पार्टी को कसने जा रहा है.

('शुक्रवार' के 22 जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी क़िस्त) 

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