'आप' ने उम्मीदें बहुत जगाई हैं लेकिन आगे
की राह विचार और राजनीति की स्पष्टता से ही बनेगी
हालिया विधानसभा चुनावों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के
शानदार प्रदर्शन और कांग्रेस के समर्थन लेकिन आम लोगों से पूछकर अल्पमत की सरकार
बनाने के बाद से आप पार्टी मीडिया की सुर्ख़ियों से लेकर राजनीतिक चर्चाओं और बहसों
के केन्द्र में है.
यहाँ तक कि उत्तर भारत के तीन राज्यों खासकर मध्य प्रदेश और
राजस्थान में भाजपा की भारी जीत की चमक, दिल्ली में आप पार्टी के दूसरे नंबर पर
रहने के बावजूद उसकी जीत के चमक के आगे फीकी पड़ गई है.
आप पार्टी की राजनीतिक
सफलता के कारणों की पड़ताल से लेकर राष्ट्रीय राजनीति में उसकी संभावनाओं तक के
बारे में आकलनों और अनुमानों की बाढ़ सी आई हुई है. उसके घोर आलोचक भी उसे नजरंदाज
नहीं कर पा रहे हैं, कई आलोचकों के सुर बदलने लगे हैं और प्रशसंकों की संख्या में
तेजी से इजाफा हुआ है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप चाहे आम आदमी पार्टी की आलोचना करें
या उसकी प्रशंसा या उससे उम्मीद करते हुए सवाल खड़े करें या उसकी सीमाएं गिनाएं
लेकिन इतना तय है कि उसे अनदेखा करना या पूरी तरह ख़ारिज करना संभव नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आप पार्टी की राजनीतिक कामयाबी केवल दिल्ली तक सीमित नहीं रहनेवाली है क्योंकि यह कोई क्षेत्रीय पार्टी नहीं है और न ही इसने किसी क्षेत्रीय अस्मिता या मुद्दे की वैचारिकी-राजनीति के आधार पर कामयाबी हासिल की है.
हैरानी की बात नहीं है कि आप की कामयाबी की प्रतिध्वनियाँ देश के कई राज्यों-इलाकों-शहरों और यहाँ तक कि गांवों में भी सुनी जा रही है. यही नहीं, अच्छी-खासी संख्या में आम लोग, युवा और विद्यार्थी, अन्य दलों और जनांदोलनों से जुड़े कार्यकर्ता-नेता और जानी-मानी हस्तियाँ आम आदमी पार्टी में शामिल हो रही हैं.
असल में, आप पार्टी ने जिस तरह से दिल्ली में कांग्रेस-भाजपा के बीच
विभाजित द्विदलीय राजनीति में किसी नई राजनीतिक पार्टी के लिए खड़ी ऊँची प्रवेश
बाधा को कामयाबी के साथ चुनौती दी, उसने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में
कांग्रेस-भाजपा और दूसरे मध्यमार्गी दलों की
भ्रष्ट-अवसरवादी-सत्तापरस्त-धनबल-बाहुबल की राजनीति से नाराज और ऊबे हुए आम आदमी
में एक नई उम्मीद पैदा कर दी है.
इसमें सबसे खास बात यह है कि उसने हाल के महीनों
में नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी की द्विधारी के लगातार तेज होते कानफोडू शोर
को भी मंद कर दिया है. यही नहीं, आप पार्टी ने जिस तरह से राजनीति में
सादगी-शुचिता और मुद्दों की वापसी पर जोर दिया है और उसे सत्तालोलुपता और वी.आई.पी
संस्कृति के पर्याय के बजाय जनसेवा के साधन के बतौर पेश किया है, उससे उसने
आमलोगों के एक बड़े तबके खासकर उच्च मध्यम वर्ग से लेकर निम्न मध्यम वर्ग और शहरी
गरीबों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों का भरोसा जीतने और उन्हें राजनीतिक प्रक्रिया
में उतारने में कामयाबी हासिल की है.
इतना ही नहीं, आप पार्टी की कामयाबी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है
क्योंकि उसने भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन से निकली उर्जा को संगठित करने और
चुनाव को भी एक आंदोलन बनाने में कामयाबी हासिल की है. आश्चर्य नहीं कि उसने यह चुनाव लोगों की भागीदारी से लड़ा, चाहे प्रचार के लिए धन जुटाने का मसला हो या घर-घर जाकर प्रचार करने के लिए हजारों कार्यकर्ता तैयार करने की चुनौती. आप का चुनाव अभियान एक आंदोलन की तरह ही था जिसमें एक ताजगी थी और प्रचार के मामले में कई अनोखे प्रयोगों के जरिये उसने लोगों का ध्यान खींचने में सफलता हासिल की.
यही नहीं, चुनाव में उसकी शानदार सफलता की एक बड़ी वजह यह भी थी कि उसने दिल्ली चुनावों का एजेंडा- चाहे भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या बिजली-पानी की बढ़ी हुई दरों का मसला- तय किया था और उसके लिए लगातार सड़कों पर उतरकर आंदोलन किया था.
यही नहीं, आप पार्टी ने खुद को शासक वर्ग की दोनों प्रमुख प्रतिनिधि
पार्टियों कांग्रेस-भाजपा के साथ-साथ दूसरी सभी शासक मध्यमार्गी पार्टियों से
बराबर की दूरी पर रखा, पूरे राजनीतिक और सत्ता तंत्र को निशाना बनाया और अपनी
पहचान और पहुँच के दायरे को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के एकसूत्री और संकीर्ण
दायरे से आगे निकालने के लिए घोषणापत्र में बिजली-पानी-शिक्षा-स्वास्थ्य और महिला
सुरक्षा से लेकर झुग्गीवासियों के आवास, ठेके पर काम कर रहे लाखों श्रमिकों के लिए
स्थाई रोजगार जैसे ढेरों मुद्दे जोड़े.
निश्चय ही, इससे आप पार्टी को सामाजिक तौर
पर अपने मध्यमवर्गीय संकीर्ण दायरे से बाहर फैलने और शहरी गरीबों, निम्न मध्यवर्ग,
श्रमिकों और महिलाओं-युवाओं को साथ लाने में सफलता मिली है. आप पार्टी की कामयाबी
का यह सबसे उल्लेखनीय पहलू है कि उसने ९० के दशक के बाद से भारतीय राजनीति जिस संकीर्ण और प्रतिक्रियावादी
अस्मिताओं की राजनीति का पर्याय सी बन गई थी, उसका एक सकारात्मक निषेध करते हुए
धनबल-बाहुबल के दबदबे को तोडा है.
इसके अलावा आप पार्टी की सफलता इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसने
आम लोगों में यह भरोसा और उम्मीद पैदा की है कि अगर वे एकजुट हों तो राजनीति में न
सिर्फ भ्रष्ट, धनबल-बाहुबल और जाति-धर्म की संकीर्ण राजनीति से अपना उल्लू सीधा
करनेवाली पार्टियों और नेताओं को चुनौती दी जा सकती है बल्कि उन्हें शिकस्त भी दी
जा सकती है. इसने भारतीय राजनीति में ‘कुछ बदल नहीं सकता’ की निराशा-हताशा को काफी हद तक तोड़ने में कामयाबी हासिल की है. असल में, यह निराशा-हताशा और सत्ता के दमन का भय भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल आंदोलन और उसके बाद पिछले साल बलात्कार विरोधी महिला सुरक्षा की बेख़ौफ़ आज़ादी आंदोलन के समय ही टूट गया था.
इन आन्दोलनों ने न सिर्फ आम लोगों खासकर युवाओं, महिलाओं और शहरी गरीबों को भ्रष्ट, असंवेदनशील और अन्यायपूर्ण राजनीतिक तंत्र से लड़ने की एक नई हिम्मत दी थी बल्कि उन्हें राजनीति में बदलाव के लिए सोचने और सक्रिय हस्तक्षेप के लिए भी प्रेरित किया था.
नतीजा, हमारे सामने है. इसमें कोई शक नहीं है कि आप पार्टी की जीत ने
भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में नई उम्मीद पैदा की है. दमघोंटू राजनीति के बीच
आप एक ताजा हवा के झोंके की तरह महसूस हो रही है. निश्चय ही, इसकी एक बड़ी वजह यह भी
है कि आप पार्टी एक बिना अतीत या इतिहास की पार्टी है.
लोगों के सामने उसका
भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष है, उसके युवा नेताओं की साफ़-सुथरी छवि है और लोगों को
नव उदारवादी अर्थनीति की मार से राहत दिलानेवाली घोषणाएं/वायदे हैं. उसकी
वैचारिक-राजनीतिक सीमाएं, समस्याएं और अंतर्विरोध और व्यक्तिगत कमियां/कमजोरियां
सामने नहीं आईं हैं.
आश्चर्य नहीं कि शहरी मध्यवर्ग से लेकर गरीबों का एक बड़ा
हिस्सा उसमें मौजूदा भ्रष्ट और क्षरित राजनीतिक संस्कृति को चुनौती देने और आम
आदमी को नव उदारवादी पूंजी की मार से राहत दिलानेवाली और लोगों के प्रति जवाबदेह
नई राजनीति की संभावनाएं देख रहा है.
यही कारण है कि दिल्ली चुनावों के बाद उसका तेजी से विस्तार हुआ और हो
रहा है. आप पार्टी अगले लोकसभा चुनावों में कोई ३०० से अधिक सीटों पर लड़ने के दावे
कर रही है. राजनीतिक पंडितों एक हिस्से के बीच बहसों और चर्चाओं में आप पार्टी को
कांग्रेस और भाजपा के मुकाबले एक तीसरी राजनीतिक ताकत के उभार के रूप में देखा जा
रहा है. यहाँ तक कि कई विश्लेषक भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के असली प्रतिद्वंद्वी के बतौर आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को देखने लगे हैं और कुछ विश्लेषक तो केजरीवाल में मोदी को सत्ता तक पहुँचने से रोकने की सम्भावना भी देखने लगे हैं.
यही नहीं, कई प्रमुख स्वतंत्र वामपंथी एक्टिविस्ट्स, विश्लेषक और बुद्धिजीवी इस कारण आप पार्टी को रणनीतिक रूप से समर्थन करने की वकालत भी कर रहे हैं.
हालाँकि लोकसभा चुनावों में आप पार्टी के प्रदर्शन को लेकर अभी से
कयास लगाने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन इतना तय है कि राष्ट्रीय राजनीति में आप
पार्टी के धमाकेदार प्रवेश ने मौजूदा राजनीतिक गणित और समीकरणों को कुछ हद तक ही
सही लेकिन उलट-पुलट दिया है.
यह सच है कि पारंपरिक राजनीति के नियमों, बाधाओं और
चुनौतियों को ध्यान में रखें तो सिर्फ
चार महीने बाद होने जा रहे आम चुनावों में
आप पार्टी से किसी चमत्कारिक प्रदर्शन की उम्मीद करना एक तरह का अतिरेकी उत्साह
होगा.
लेकिन अगर दिल्ली के चुनावों में आप की सफलता और उसके बाद बने उत्साहपूर्ण
राजनीतिक माहौल में छिपी संभावनाओं पर गौर करें तो इससे इनकार नहीं किया जा सकता
है कि भारतीय राजनीति के पारंपरिक नियम टूट रहे हैं, बाधाएं कमजोर पड़ रही है और
चुनौतियाँ अजेय नहीं हैं.
('सबलोग' के जनवरी अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त)
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