शुक्रवार, जनवरी 17, 2014

तय करो किस ओर हो 'आप'?

'आप’ की प्राथमिकता में कौन है- झुग्गी-झोपड़ी या ग्रेटर कैलाश के वाशिंदे?
 
पहली क़िस्त

आम आदमी पार्टी के दिल्ली विधानसभा चुनाव में चमत्कारिक प्रदर्शन के बाद यह बहस एक बार फिर शुरू हो गई है कि आम आदमी कौन है? आप पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद भाषण में आम आदमी की परिभाषा देते हुए कहा कि जो ईमानदारी के साथ रहना चाहता है वह सब आम आदमी है, चाहे वह झुग्गी में रहता हो या ग्रेटर कैलाश में.

हालाँकि उन्होंने बहुत साफ़-साफ़ नहीं कहा लेकिन केजरीवाल का आशय साफ है कि उनके लिए सभी आम आदमी हैं- चाहे वह अमीर हों या गरीब, पूंजीपति हों या मजदूर, भूस्वामी हों या भूमिहीन खेत मजदूर, सामंत हों या गरीब या फिर विस्थापक कार्पोरेट्स हों या विस्थापित आदिवासी/किसान. यह सूची लंबी हो सकती है लेकिन शर्त सिर्फ यह है कि वह ईमानदार हो और ईमानदारी के साथ खड़ा हो.
कहने की जरूरत नहीं है कि आम आदमी की इस व्यापक लेकिन अंतर्विरोधी परिभाषा के जरिये अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के सामाजिक जनाधार को अधिकतम संभव व्यापक और समावेशी बनाना चाहते हैं जिसमें भारतीय समाज के सभी वर्गों/तबकों/समुदायों इकठ्ठा किया जा सके.

लेकिन वे भूल रहे हैं कि इन सामाजिक वर्गों के बीच बुनियादी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर गहरे अंतर्विरोध हैं. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार और ईमानदारी की समझ को लेकर भी अंतर्विरोध हैं. दरअसल, केजरीवाल आम आदमी की पहचान को सामाजिक-आर्थिक आधार के बजाय नैतिक आधार- ईमानदारी के आधार पर परिभाषित करना चाहते हैं.

लेकिन सवाल यह है कि ईमानदारी की परिभाषा क्या है? आखिर ईमानदार कौन है? बताया जाता है कि खुद मनमोहन सिंह व्यक्तिगत रूप से ईमानदार हैं लेकिन आरोप है कि वे आज़ाद भारत की सबसे भ्रष्ट सरकार के प्रधानमंत्री हैं. ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है कि उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या महत्व है?
खुद केजरीवाल के मुताबिक, ईमानदार वह है जो भ्रष्टाचार यानी घूस लेने-देने का विरोध करता है. लेकिन मुश्किल यह है कि घोषित तौर पर कोई भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं करता है और चाहे वह प्रधानमंत्री हों या छोटे-बड़े कार्पोरेट्स या नौकरशाह या फिर एन.जी.ओ- सभी भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात करते हैं.
लेकिन इनमें से कई व्यक्तिगत तौर पर ईमानदार होते हुए भी भ्रष्टाचार और घूस लेने-देने वालों का विरोध नहीं करते हैं. उससे आँखें मूंदे रहते हैं. क्या उन्हें आम आदमी माना जाना चाहिए?

यही नहीं, व्यक्तिगत भ्रष्टाचार से बड़ा मुद्दा नीतियों के स्तर पर होनेवाले भ्रष्टाचार यानी नीतियों को बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के हितों के अनुकूल और आम आदमी के हितों के खिलाफ बदलने का है. निजीकरण से लेकर उदारीकरण की अर्थनीति में ऊपर से देखिए तो कोई भ्रष्टाचार नहीं है लेकिन गरीबों और आम आदमी पर इसके नकारात्मक प्रभाव को बेईमानी क्यों नहीं माना जाना चाहिए?

जैसे बिजली और पानी के निजीकरण की नीति को लीजिए. दिल्ली सहित देश के अधिकांश राज्यों में बिजली और कुछ में पानी के निजीकरण के तहत बड़ी कंपनियों को उनके उत्पादन और वितरण का जिम्मा सौंप दिया गया जिसकी कीमत आम आदमी को चुकानी पड़ रही है.
क्या यह सिर्फ दिल्ली तक और कुछ कंपनियों तक सीमित भ्रष्टाचार है या इसके लिए निजीकरण की नीति भी जिम्मेदार है? इसी तरह देश में पिछले डेढ़-दो दशकों में उदारीकरण और निजीकरण के नाम पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को जिस तरह से देश के बेशकीमती प्राकृतिक और सार्वजनिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई है, वह किसी से छुपा नहीं है.
यह अनदेखा करना भी मुश्किल है कि चाहे कोयला खदानों के आवंटन का मामला हो या २ जी स्पेक्ट्रम आवंटन का मामला हो या फिर इस जैसे दूसरे मामले हों, इनमें भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत उदारीकरण और निजीकरण की वह नीति है जिसे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स के अनुकूल बनाया गया है.

यह ठीक है कि ये कुछ ऐसे मामले हैं जिनमें उदारीकरण और निजीकरण के तहत घोषित प्रक्रियाओं का उल्लंघन करके प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबांट हुई लेकिन इनके अलावा जहाँ नियमों और प्रक्रियाओं के तहत प्राकृतिक संसाधन कार्पोरेट्स को दिए गए, वहां क्या सब ठीक चल रहा है?

उदाहरण के लिए, के.जी बेसिन गैस आवंटन के मुद्दे को लीजिए, जहाँ रिलायंस के दबाव के तहत यू.पी.ए सरकार नियमों का पालन करते हुए जिस तरह से गैस की कीमतें दुगुनी करने का फैसला कर चुकी है, क्या वह भ्रष्टाचार नहीं है?
यह सिर्फ एक उदाहरण है लेकिन अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को ले लीजिए, निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों के तहत जैसे बड़ी कंपनियों को अपनी मर्जी के मुताबिक वस्तुओं और सेवाओं की कीमतें तय करने का अधिकार दे दिया गया, उसकी असली कीमत आम आदमी चुका रहा है. चाहे वह दवाओं की कीमतें तय करने का मसला हो या अस्पताल या स्कूल फीस या फिर बिजली की. यहाँ तक कि नियामक संस्थाएं बड़े कार्पोरेट्स के हितों को आगे बढ़ाने का माध्यम बन गई हैं.
इसी तरह केन्द्र सरकार हर साल बजट में बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों को पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक की टैक्स छूट और रियायतें अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन के नामपर देती हैं लेकिन आम आदमी को छोटी सी राहत को भी सब्सिडी बताकर उसमें कटौती की कैंची चलाने में जुटी रहती है. सवाल यह है कि क्या यह बेईमानी या भ्रष्टाचार नहीं है?

लेकिन मजे की बात यह है कि भ्रष्टाचार के इलाज के नाम पर आगे बढ़ाई गई उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के सबसे बड़े पैरोकार विश्व बैंक-मुद्रा कोष भी भ्रष्टाचार के खिलाफ है और भारत सरकार भी, सी.आई.आई/फिक्की/एसोचैम भी भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और आई.ए.एस एसोशियेशन भी और एन.जी.ओ भी भ्रष्टाचार रोकने के लिए लड़ रहे हैं और राजनीतिक दल भी.

लेकिन क्या ये सभी आम आदमी के प्रतिनिधि हैं? फिर भ्रष्टाचार बढ़ता क्यों जा रहा है? क्या यह सिर्फ कुछ व्यक्तियों का नैतिक विचलन भर है या एक संस्थागत चुनौती है? लेकिन केजरीवाल की आम आदमी की परिभाषा में अन्तर्निहित अंतर्विरोध सिर्फ यही नहीं है.
सवाल यह है कि सिर्फ भ्रष्टाचार का विरोध और ईमानदारी की कसमें खाकर झुग्गी-झोपड़ी से लेकर ग्रेटर कैलाश तक में रहनेवाले सभी लोग आम आदमी कैसे हो सकते हैं? पांच करोड़ के फ़्लैट में रहनेवाले और हर महीने लाखों-करोड़ों कमानेवाले अमीर के घर में घरेलू काम करनेवाली या उसकी कार के ड्राइवर या घर के चौकीदार या माली- सभी आम आदमी कैसे हो सकते हैं?
क्या लाखों-करोड़ों कमानेवालों के यहाँ काम के बदले सिर्फ कुछ हजार में किसी तरह गुजारा करनेवालों के लिए ईमानदारी के मायने एक ही हैं?
('शुक्रवार' के २६ जनवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त) 
 

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