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मंगलवार, फ़रवरी 07, 2012

गरीबों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देने पर क्यों अड़ी है सरकार?

मनरेगा को दफनाने पर तुली है यू.पी.ए सरकार


आम आदमी खासकर गरीबों की सबसे बड़ी खिदमतगार होने का दावा करनेवाली यू.पी.ए सरकार और कांग्रेस पार्टी इसके सबूत के तौर पर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) की दुहाई देते नहीं थकते हैं. लेकिन सच यह है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ इस योजना को एक अनावश्यक बोझ की तरह समझती है बल्कि खुद उसमें पलीता लगाने में जुटी हुई है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि मनमोहन सिंह सरकार संविधान, कानून, कोर्ट और नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मनरेगा के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देने के लिए भी तैयार नहीं है. इसके लिए मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के दायरे से बाहर रखा गया है.

सरकार के अड़ियल रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर पहले आंध्र प्रदेश और फिर कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने फैसलों में स्पष्ट रूप से कहा कि केन्द्र सरकार मनरेगा के तहत स्थानीय राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी नहीं दे सकती है. दोनों उच्च न्यायालयों के मुताबिक, यह अवैध है और ‘जबरन श्रम’ के बराबर है.

उल्लेखनीय है कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने १९६७ में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी पर काम कराना ‘जबरन श्रम’ कराने की तरह है जो पूरी तरह अवैध है. मजदूरी को इससे नीचे गिरने की इजाजत नहीं दी जा सकती है और किसी भी हालत में यह मजदूरी देनी ही होगी.

यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में न्यूनतम मजदूरी (मिनीमम वेज), उचित मजदूरी (फेयर वेज) और लिविंग वेज में अंतर स्पष्ट करते हुए बताया था कि न्यूनतम मजदूरी वह मजदूरी है जिसमें श्रमिक की न्यूनतम जरूरतें भी मुश्किल से पूरा हो पाती हैं. इस मजदूरी में कोई सिर पर छत, बदन पर कपडे, मेडिकल सुविधा और शिक्षा की भी नहीं सोच सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, उचित मजदूरी वह मजदूरी है जिसमें मेडिकल सुविधा, शिक्षा और कपड़े आदि न्यूनतम जरूरतें भी पूरी होनी चाहिए जबकि लिविंग वेज वह मजदूरी है जिसमें वह अपनी और परिवार की विभिन्न जरूरतें पूरा करने के अलावा अपने बुढ़ापे और भविष्य की चिंताओं से मुक्त हो सके.

लेकिन कहाँ देश न्यूनतम मजदूरी से उचित मजदूरी और लिविंग वेज की ओर और सभी श्रमिकों को एक बेहतर जीवन की गारंटी करने की दिशा में कदम बढ़ाता और कहाँ आम आदमी की दुहाईयां देनेवाली एक सरकार आज़ादी के ६४ साल बाद भी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देने के लिए भी तैयार नहीं है?

असल में, मनरेगा के तहत दी जानेवाली मजदूरी को यू.पी.ए सरकार ने न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत दी जानेवाली अनिवार्य मजदूरी से अलग रखा है. इस कारण कई राज्यों में मनरेगा के तहत तय मजदूरी दर राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी दर से कम है. इसे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी और दोनों ही न्यायालयों ने बारी-बारी से मनरेगा के इस प्रावधान को न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन बताते हर ख़ारिज कर दिया.

लेकिन इससे यू.पी.ए सरकार की आँख नहीं खुली. सबसे ज्यादा चिंता और हैरानी की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अड़े हुए हैं कि मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलेगी. उन्होंने ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश, अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह, अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती, श्रम और रोजगार मंत्रालय और यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली एन.ए.सी की राय को अनदेखा करते हुए दोनों हाई कोर्ट के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटिशन दाखिल करके चुनौती देने का फैसला किया. सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मनरेगा के तहत गरीब मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देने पर क्यों अड़े हुए हैं?

असल में, मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी न देने के पीछे एकमात्र तर्क यह है कि इससे न सिर्फ अधिक मजदूरी देनी पड़ेगी और मनरेगा का बजट बढ़ाना पड़ेगा बल्कि राज्य सरकारें मनमाने तरीके से मजदूरी बढ़ाने लगेंगी.

केन्द्र सरकार का असल डर यह है कि राजनीतिक फायदा उठाने के लिए राज्य सरकारों में न्यूनतम मजदूरी बढाने की होड़ शुरू हो जायेगी और उसका सारा बोझ केन्द्र सरकार को उठाना पड़ेगा. लेकिन केन्द्र सरकार का यह डर निराधार है. तथ्य यह है कि पूरे देश में सिर्फ पांच राज्य ऐसे हैं जहां न्यूनतम मजदूरी मनरेगा के तहत घोषित मजदूरी दर से ज्यादा है.

दूसरे, न्यूनतम मजदूरी घोषित करने के मामले में राज्य सरकारें बहुत कंजूस रही हैं. सच यह है कि न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी दर घोषित करने की प्रक्रिया को नौकरशाहों और राजनेताओं की मदद से उद्योगपतियों-व्यापारियों-ठेकेदारों-जमींदारों के गठजोड़ ने हाइजैक कर लिया है. यह गठजोड़ सुनिश्चित करता है कि राज्य सरकारों द्वारा घोषित की जानेवाली न्यूनतम मजदूरी न्यूनतम ही रहे. आखिर उसके खुद के हितों का सवाल है.

यही नहीं, अधिकांश राज्यों में न्यूनतम मजदूरी कानून का घोषित/अघोषित उल्लंघन एक नियम है. निजी क्षेत्र में खुलेआम इसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है. इस कानून को लागू करनेवाला श्रम विभाग इतना भ्रष्ट और अक्षम है कि वह कोई आँखें बंद किये सोया रहता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मनरेगा कानून के आने से यह उम्मीद बनी थी कि अब ग्रामीण गरीबों को कम से कम न्यूनतम मजदूरी मिलेगी और उससे ग्रामीण इलाकों में मजदूरी का नया बेंचमार्क तय होगा. यह कुछ हद तक हुआ भी है. आश्चर्य नहीं कि मनरेगा के खिलाफ एक कु-प्रचार यह भी है कि इसके कारण शहरों खासकर औद्योगिक केन्द्रों में सस्ते मजदूर मिलने बंद हो गए हैं और दूसरी ओर, किसानों को भी मजदूर नहीं मिल रहे हैं.

यह अर्धसत्य है. सच यह है कि मजदूर अब मनरेगा में घोषित मजदूरी दर से अधिक दर मांग रहे हैं. अब तक न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम कराने के आदी उद्योगों और बड़े फार्मरों/जमींदारों को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है.

इसका असर यह हुआ है कि शरद पवार जैसे नेता खुलकर और बहुतेरे नेता अंदरखाते इस कानून का विरोध करने में जुटे हैं. मांग हो रही है कि मनरेगा को कृषि कार्यों के पीक सीजन में स्थगित कर दिया जाए क्योंकि किसन को मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूरी “आसमान छूने” लग रही है.

इसलिए मनमोहन सिंह का यह डर बिलकुल बेमानी है कि मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के साथ जोड़ देने पर राज्य सरकारें तेजी से न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने लगेंगी. सच्चाई प्रधानमंत्री को भी पता है. लेकिन वे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

लेकिन अब उम्मीद करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद वे अपने रवैये पर पुनर्विचार करेंगे और मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत लाने का विरोध नहीं करेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि केन्द्र सरकार मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी नहीं दे सकती है. यह गैरकानूनी है. क्या आम आदमी के साथ खड़ी होने का दावा करनेवाली यू.पी.ए सरकार ग्रामीण गरीबों के हक में खड़ी होगी?

('नया इंडिया' में ६ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

खाद्य सुरक्षा का मजाक बनाने पर तुली है सरकार

खाद्य सुरक्षा की राह में कौन अटका रहा है रोड़े




खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर यू.पी.ए सरकार और एन.ए.सी के बीच खींचतान जारी है. इस सिलसिले में सबसे ताजा उदाहरण यह है कि एन.ए.सी द्वारा सरकार को भेजे गए खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे की जांच कर रही समिति के मुखिया और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने साफ तौर पर कह दिया है कि एन.ए.सी का प्रस्ताव अव्यावहारिक है और इसे लागू करना संभव नहीं है.

कहने को रंगराजन समिति के इस निष्कर्ष से ‘हैरान’ एन.ए.सी अब अपना जवाब तैयार करने में लगी है लेकिन उसके रक्षात्मक रवैये से साफ है कि वह अब पीछे हटने और सरकार की चिंताओं को भी ध्यान में रखने के नामपर लीपापोती की तैयारी कर रही है.

साफ है कि खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को हल्का और सीमित करने की जमीन तैयार की जा रही है. रंगराजन समिति की रिपोर्ट से साफ है कि सरकार एन.ए.सी द्वारा खाद्य सुरक्षा को लेकर सुझाये गए सीमित प्रस्तावों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है. जबकि एन.ए.सी ने पहले ही खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को सरकार के मंत्रियों और अफसरों से चर्चा के बाद काफी हल्का और सीमित कर दिया है. इसके बावजूद रंगराजन समिति ने जिन आधारों पर उसके प्रस्ताव को ख़ारिज किया है, उससे स्पष्ट है कि उसने एन.ए.सी की लंबी-चौड़ी कसरत और सीमित प्रस्ताव को भी कोई खास भाव नहीं दिया.

यही कारण है कि एन.ए.सी के एक महत्वपूर्ण सदस्य ज्यां द्रेज को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि एन.ए.सी अब नेशनल एडवाइजरी काउन्सिल नहीं बल्कि नोशनल यानी दिखावटी एडवाइजरी काउन्सिल बनती जा रही है. उल्लेखनीय है कि एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर सबसे पहले भोजन के अधिकार को एक सार्वभौम कानूनी अधिकार बनाने की घोषणा से शुरुआत की थी लेकिन इस सवाल पर खुद एन.ए.सी के अंदर और बाहर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ मतभेद होने के कारण पीछे हटते हुए उसने बीच का एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें देश की कुल ७५ फीसदी आबादी को सीमित खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान किया था.

इस प्रस्ताव में भी एन.ए.सी ने इस कानून के तहत खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को दो समूहों में बाँट दिया था. पहले समूह को प्राथमिक समूह कहा गया जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की २८ प्रतिशत आबादी शामिल करने का प्रस्ताव था जिन्हें हर महीने तीन रूपये किलो चावल, दो रूपये किलो गेहूं और एक रूपये किलो मोटा अनाज के भाव से ३५ किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया था. दूसरी ओर, सामान्य समूह में ग्रामीण क्षेत्रों से ४४ फीसदी और शहरी क्षेत्रों से २२ फीसदी आबादी को हर महीने खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) की आधी कीमत पर २० किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया था.

कहने की जरूरत नहीं है कि एन.ए.सी का यह प्रस्ताव भी उम्मीदों से काफी कम और बहुत सीमित था. प्राथमिक और सामान्य समूह का विभाजन काफी हद तक मौजूदा गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) और ऊपर (ए.पी.एल) के विभाजन की लाइन पर ही था. यहां तक कि योजना आयोग तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के बाद बी.पी.एल परिवारों की संख्या में १० से १५ फीसदी तक बढ़ोत्तरी करने पर राजी हो गया था.

इसी तरह, सामान्य समूह को ऊँची कीमत पर और वह भी सिर्फ २० किलोग्राम अनाज देने का प्रस्ताव खाद्य सुरक्षा का मजाक उड़ने जैसा ही था. लेकिन एन.ए.सी के इस सीमित और आधा-अधूरे प्रस्ताव का उससे भी बड़ा मजाक यू.पी.ए सरकार द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति ने उड़ाया है.

रंगराजन समिति का कहना है कि यह प्रस्ताव लागू करना संभव नहीं है क्योंकि लाभार्थियों को कानूनी अधिकार देने के लिए जरूरी अनाज उपलब्ध नहीं है. समिति के मुताबिक, इस अधिकार को एन.ए.सी के सुझावों के अनुसार लागू करने के लिए २०१४ में ७.४ करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जबकि खादयान्नों की पैदावार और खरीद के मौजूदा ट्रेंड के आधार पर सरकार के पास अधिकतम ५.७६ करोड़ टन अनाज ही उपलब्ध होगा.

समिति का यह भी तर्क है कि भोजन का कानूनी अधिकार देने के बाद सरकार को अपना वायदा हर हाल में यहां तक कि लगातार दो सालों तक सूखा पड़ने की स्थिति में भी पूरा करने में सक्षम होना चाहिए. समिति के अनुसार, मौजूदा परिस्थितियों में आयात के जरिये इस कानूनी वायदे को पूरा करना संभव नहीं है.

समिति का यह भी कहना है कि इस वायदे को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा भारी मात्रा में अनाज की खरीद से खुले बाजार में अनाजों की कीमतें बढ़ जाएंगी. इन तर्कों के आधार पर रंगराजन समिति का सुझाव है कि खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ फीसदी और शहरी इलाकों की २८ फीसदी आबादी को दिया जाए जो कि एन.ए.सी के कथित प्राथमिक समूह के करीब है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि भोजन के अधिकार के सीमित और आधे-अधूरे प्रस्ताव पर भी रंगराजन समिति के तर्कों में नया कुछ भी नहीं है. इस तरह की राय नव उदारवादी आर्थिक सुधार के समर्थक और पैरोकार बहुत पहले से व्यक्त करते रहे हैं. वे भोजन के सार्वभौम अधिकार के विरोध को जायज ठहराने के लिए जानबूझकर अनाज और इस कारण सब्सिडी की मांग को इतना अधिक बढ़ा-चढाकर दिखाते रहे हैं कि वह असंभव दिखने लगे.

जबकि सच्चाई यह है कि न सिर्फ देश में अनाज की कोई कमी नहीं है बल्कि सरकार चाहे तो इस अधिकार को लागू करने के लिए जरूरी अनाज खरीद सकती है. इसके लिए उसे सिर्फ अनाज खरीद के मौजूदा दायरे को और बढ़ाना होगा. इससे न सिर्फ किसानों को बिचौलियों से निजात मिलेगी बल्कि उनकी फसलों की उचित कीमत भी मिल पायेगी. इससे किसानों को पैदावार बढ़ाने का प्रोत्साहन भी मिलेगा.

दूसरे, सरकार के बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने से कीमतें बढ़ने की आशंका इसलिए बेमानी है क्योंकि अनाज खरीदकर अगर उसे लोगों तक पहुँचाया गया तो कीमतें बढेंगी नहीं, उल्टे उनपर लगाम लगेगी. कीमतें तब बढ़ती हैं जब सरकार अनाज दबाकर बैठ जाती है जैसीकि जमाखोरी उसने अभी कर रखी है.

साफ है कि सरकार की मंशा वास्तविक और व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की नहीं है. वह अधिक से अधिक थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ मौजूदा प्रावधानों को ही खाद्य सुरक्षा के नामपर थोपना चाहती है.

('समकालीन जनमत' के फरवरी अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

वनाधिकार कानून को अंगूठा


वनाधिकार कानून का मजाक उड़ाने पर तुली हुई है यू.पी.ए सरकार


हालांकि वनाधिकार कानून को लागू हुए चार साल से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन जमीन पर इस कानून का कहीं अता-पता नहीं है. हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी तक ११ राज्यों ने इस कानून को लागू नहीं किया है. यही नहीं, जिन राज्यों में यह कानून लागू भी किया गया है, वहां भी इसका लाभ जंगलवासियों और आदिवासियों को नहीं मिल रहा है. वास्तव में, ऐसा लगता ही नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार सुनिश्चित करनेवाला कोई कानून भी पास हुआ है.

यहां तक कि खुद केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय और वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा एन.सी. सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक संयुक्त समिति ने स्वीकार किया है कि वनाधिकार कानून को ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया है. समिति के अनुसार, इस कानून का मुख्य उद्देश्य जंगलों के देखभाल में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाना था लेकिन जंगल के संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन की दिशा में पहल न के बराबर हुई है.

सक्सेना समिति के मुताबिक, इस कानून के तहत आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने जिन २९ लाख दावों का निपटारा किया है, उनमें से सिर्फ १.६ प्रतिशत मामलों में सामुदायिक अधिकार को मान्यता दी है है. उसमें भी जंगल से निकलनेवाले उत्पादों पर अधिकार शामिल नहीं है.

यही नहीं, इस समिति ने यह भी पाया कि अधिकांश राज्यों में जंगल की भूमि पर आदिवासियों और जंगलवासियों के व्यक्तिगत अधिकार और रिहाइश के अधिकार के दावों के नामंजूर कर दिया जाता है. इस कानून के तहत जंगलों के संसाधनों जैसे वनोत्पादों, तालाबों और चरागाहों पर सामुदायिक अधिकार को भी मान्यता नहीं दी जा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून को लागू करने में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के ढीले-ढाले रवैये के अलावा वन और पर्यावरण मंत्रालय का नकारात्मक रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है. असल में, कानून बन जाने के बावजूद इन मंत्रालयों और उनके अफसरों की मानसिकता अभी भी बदली नहीं है.

इसके अलावा, जिला प्रशासन, पुलिस विभाग, वन विभाग के अफसरों, ठेकेदारों और माफियाओं का गठजोड़ भी जंगलों पर से अपने कब्जे और लूट को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. ये निहित स्वार्थी तत्व हरगिज नहीं चाहते हैं कि जंगलों के प्रबंधन में आदिवासियों को शामिल किया जाए और न ही वह आसानी से जंगलों के संसाधनों को आदिवासियों को सौपने के लिए तैयार है.

जाहिर है कि उन्हें राज्य सरकारों का भी पूरा संरक्षण भी हासिल है. राज्य सरकारें राजस्व के स्रोत के नामपर वनोत्पादों की खरीद-बिक्री पर अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि तेंदू पत्ते से लेकर अधिकांश वनोत्पादों के व्यापार को नियंत्रित करने के नाम पर राज्य सरकारें आदिवासियों के खुले शोषण का जरिया बन गई हैं.

असल में, वनाधिकार कानून को जिस तरह से बनाया गया है और उसे लागू किया जा रहा है, उसमें इस कानून का यही हश्र होना था. अधिकांश मामलों में आदिवासियों और अन्य जंगलवासियों के लिए यह साबित करना बहुत मुश्किल हो रहा है कि वे उस जमीन पर ७५ साल से रह रहे हैं. अधिकांश आदिवासी कचहरी और वकीलों के चक्कर काट रहे हैं. इसके बावजूद उनके अधिकारों को नकारने में देर नहीं लगाई जा रही है. सवाल है कि आदिवासी कागज-पत्र आदि कहां से लायें? होना तो यह चाहिए था कि जंगल विभाग और जिला प्रशासन खुद ऐसे कागजात आदि जुटाएं.

हालांकि एन.ए.सी ने इस कानून को ठीक तरीके नहीं लागू किए जाने पर दोनों मंत्रालयों की खिंचाई की है लेकिन खुद एन.ए.सी का रवैया भी बहुत चलताऊ सा है. एन.ए.सी ने इस कानून को लागू करने के लिए इन मंत्रालयों को कई सुझाव भी दिए हैं. लेकिन यू.पी.ए सरकार के रवैये से लगता नहीं है कि इस मुद्दे पर उसके रूख में कोई बदलाव आया है.

उल्टे वन और पर्यावरण मंत्रालय एन.सी सक्सेना की रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. यही नहीं, वन मंत्रालय एन.ए.सी के इस सुझाव से कतई सहमत नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के लिए उनसे ७५ साल की रिहाइश के सबूत मांगने पर बहुत जोर नहीं देना चाहिए.

साफ है कि यू.पी.ए सरकार ने वनाधिकार कानून को एक सजावटी कानून बनाने का फैसला कर लिया है. यही कारण है कि एन.ए.सी के सुझावों के बावजूद सरकार में कोई खास हलचल या सक्रियता नहीं दिख रही है.

कल पढ़िए खाद्य सुरक्षा बिल पर जारी रस्साकशी पर...

(समकालीन जनमत के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)



बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

एन.ए.सी बनाम यू.पी.ए सरकार : समझिए इस नूराकुश्ती को

क्या कांग्रेस मनमोहन सिंह से पीछा छुड़ाने का बहाना तलाश रही है?

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) और कांग्रेस की अगुवाई वाली यू.पी.ए सरकार के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है. पिछले डेढ़ महीने में खाद्य सुरक्षा कानून के मसौदे और सूचना के अधिकार में संशोधन से लेकर कई और महत्वपूर्ण आर्थिक, सामाजिक और कानूनी मुद्दों पर दोनों के बीच का टकराव सार्वजनिक रूप से खुलकर सामने आ गया है.

मीडिया के एक हिस्से में इस तकरार को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच के टकराव के रूप में भी पेश किया जा रहा है. सच जो भी हो लेकिन ऊपर से देखने पर कम से कम ऐसा जरूर लगता है, गोया मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार एक रास्ते जा रही है जबकि सोनिया गांधी के नेतृत्व में एन.ए.सी और कुछ हद तक कांग्रेस पार्टी भी दूसरी दिशा में जा रहे हैं.

लेकिन एन.ए.सी और सरकार के बीच इस तकरार और टकराव में कितनी हकीकत है और कितना फ़साना? हालांकि इस तकरार में कोई नई बात नहीं है. पहले भी खासकर यू.पी.ए-एक के कार्यकाल में विभिन्न मुद्दों पर सरकार और एन.ए.सी के बीच तकरार और खींचतान चलती रही है. लेकिन पहले के उस तकरार में दिखावा ज्यादा और वास्तविकता कम थी.

वह वास्तव में, एक तरह की मिली-जुली कुश्ती ज्यादा थी जिसका मकसद न सिर्फ विपक्ष का स्पेस भी अपने पास रखना था बल्कि यू.पी.ए सरकार पर कांग्रेस अध्यक्ष के प्राधिकार को स्थापित करना और सरकार के कुछ अच्छे फैसलों और कदमों की क्रेडिट उन्हें देनी थी. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए के पिछले कार्यकाल में यह रणनीति काफी कारगर रही.

लेकिन एक ऐसे समय में जब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यू.पी.ए सरकार के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों और महंगाई रोकने में नाकामी के कारण चौतरफा हमलों से घिरी हुई है और गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रही है, उस समय इस तरह के खुले टकराव की बात थोड़ी हैरान करनेवाली जरूर है. लेकिन बारीकी से देखिए तो इसमें हैरान करनेवाली कोई बात नहीं है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह मूलतः अभी भी नूराकुश्ती ही है. खाद्य सुरक्षा से लेकर मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी देने तक जैसे टकराव के कई मुद्दों पर बुनियादी रूप से एन.ए.सी के इक्का-दुक्का सदस्यों को छोड़कर बहुमत सदस्यों और मनमोहन सिंह सरकार की राय में कोई बड़ा फर्क नहीं है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह पहलेवाली नूराकुश्ती से कई मायनों में अलग भी है.

असल में, इस टकराव और तकरार के पीछे कई कारण हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण यह लगता है कि कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा गंभीरता से मनमोहन सिंह से पीछा छुड़ाना चाहता है. पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों ने इस सरकार की जो भी थोड़ी-बहुत चमक और साख थी, उसे उतार दिया है. इन मामलों में सरकार के साथ-साथ कांग्रेस की भी खूब भद पिटी है.

इसी तरह, महंगाई से निपटने में नाकामी के कारण भी सरकार और पार्टी को चौतरफा आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी के एक हिस्से का मानना है कि वैसे भी मनमोहन सिंह को राहुल गांधी के लिए गद्दी छोडनी ही है तो यह बेहतर होगा कि पार्टी इस सरकार के खिलाफ बन रहे सत्ता विरोधी रुझानों के मद्देनजर अभी से दूरी बनानी शुरू कर दे.

कांग्रेस के इस हिस्से को खुद सोनिया गांधी का भी आशीर्वाद हासिल है. लेकिन वह खुलकर सामने नहीं आना चाहती हैं. आखिर सत्ता की मलाई को कौन छोड़ना चाहता है? लेकिन वह यह भी चाहती हैं कि माखनचोर का इल्जाम उनपर न लगे. कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल यह भी है कि वह प्रधानमंत्री पद से मनमोहन सिंह को इतनी आसानी से हटा भी नहीं सकती है.

२००९ के चुनावों में जीत का श्रेय कुछ हद तक मनमोहन सिंह और उनकी छवि को भी दिया गया था. यह भी सही है कि २००९ के बाद कई मामलों में प्रधानमंत्री के बतौर वे अपने प्राधिकार को इस्तेमाल करके नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते भी दिख रहे हैं. इससे भी पार्टी और एन.ए.सी के सदस्यों के साथ तकरार को बढ़ावा मिल रहा है.

दरअसल, २००९ के चुनावों में कांग्रेस की सीटों में ठीक-ठाक बढ़ोत्तरी और यू.पी.ए-दो के सत्ता में आने के बाद पार्टी और सरकार में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों ने मान लिया कि उन्हें सुधारों को जोरशोर से आगे बढ़ाने का खुला लाइसेंस मिल गया है. लेकिन पार्टी के अंदर एक प्रभावी हिस्से और बाहर एन.ए.सी जैसे शुभचिंतकों का मानना था कि आर्थिक सुधारों के मामले में फूंक-फूंककर कदम बढ़ाये जाएं और सरकार की दिशा कुलमिलाकर मध्य-वाम ही रखी जाए क्योंकि यह जीत राजनीतिक तौर पर इसी मध्य-वाम लाइन और नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त जनता को राहत देनेवाली मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण ही संभव हो पाई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भी इस मौके का इस्तेमाल करके कई रुके हुए आर्थिक सुधारों के फैसलों पर आगे बढ़ने का दबाव बनाए हुए है. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए-दो सरकार ने शुरुआत में नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की दिशा में ही कदम उठाये जिसका सबसे बड़ा सबूत २००९ और उसके बाद २०१० के आम बजट हैं.

यही नहीं, गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने भी प्रधानमंत्री के समर्थन से सुधारों की राह में रोड़ा बन रहे माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के लिए बहुत जोरशोर से आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर दिया. उधर, मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जैसे कई अति उत्साही मंत्री सुधारों को तेज करने के अभियान उतर पड़े.

सच यह है कि इन सुधारों और फैसलों को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का समर्थन भी हासिल है लेकिन यह भी सच है कि जैसे-जैसे आपरेशन ग्रीन हंट और वेदांता, पास्को और अन्य बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ जन विरोध बढ़ने लगा, कांग्रेस के एक हिस्से में बेचैनी बढ़ने लगी. उसके लिए यह मौका सुधार समर्थक नेताओं से हिसाब बराबर करने का भी था.

इसी बीच, नई सरकार के कई सुधार समर्थक मंत्रियों के कुछ कारपोरेट समूहों के लिए खुले पक्षपात और उन्हें जमकर रेवडियाँ बांटने से नाराज कारपोरेट समूहों में भी बेचैनी बढ़ रही थी. नतीजा, जल्दी ही टेलीकाम से लेकर सी.डब्ल्यू.जी तक एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे और पूरी मनमोहन सिंह सरकार अंदर और बाहर से हमलों से घिर गई.

यही नहीं, सरकार एक बड़े कारपोरेट युद्ध में भी फंस गई. ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था. यही समय था जब कांग्रेस के एक हिस्से ने भी सोनिया गांधी की मौन सहमति के साथ सरकार से दूरी बढ़ाने की रणनीति पर अमल शुरू कर दिया. यहां तक कि सरकार और सुधारों के प्रति खुद युवराज राहुल गांधी के सुर भी थोड़े अलग और बदले हुए लगने लगे.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से तैयार कर रहे और उनकी छवि गढ़ने में जुटे रणनीतिकारों की रणनीति भी यही है कि राहुल की एक गरीब समर्थक छवि गढ़ने के लिए जरूरी है कि उन्हें सरकार की छवि खासकर उन फैसलों से अलग रखा जाए जिनको लेकर विवाद और जन विरोध हो.

इसी रणनीति के तहत पिछले कुछ महीनों में एन.ए.सी को भी सक्रिय किया गया है. एन.ए.सी के जरिये कांग्रेस नेतृत्व दो राजनीतिक मकसद साधने में लगा है. पहला, इसके जरिये खुद की सरकार से अलग एक गरीब और आम आदमी समर्थक छवि बनाई जाए. इसके लिए खाद्य सुरक्षा से लेकर वनाधिकार कानून जैसे मुद्दों को उठाया जाए और उन्हें लागू करने का राजनीतिक श्रेय सरकार के बजाय खुद लिया जाए.

दूसरा, इससे राजनीतिक एजेंडा बदलने में भी मदद मिलेगी. भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर फंसी सरकार और कांग्रेस पार्टी हर कोशिश कर रहे हैं कि मुद्दा बदले. उन्हें लगता है कि अगर एन.ए.सी द्वारा उठाये गए मुद्दों पर चर्चा होगी तो कांग्रेस नेतृत्व को अपनी छवि चमकाने में मदद मिलेगी.

लेकिन एन.ए.सी के सुझावों पर जारी इस तकरार का एक लाभ सरकार को भी है. यह किसी से छुपा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार खासकर उसके नव उदारवादी सुधार समर्थक खाद्य सुरक्षा आदि मुद्दों पर एन.ए.सी के प्रस्तावों को लेकर उत्साहित नहीं है. हालांकि सरकार और सुधार समर्थक लाबी को खुश करने के लिए एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को बहुत कमजोर कर दिया है.

इसके बावजूद सरकार एन.ए.सी के प्रस्ताव को अव्यवहारिक मानती है. वह न सिर्फ उसे एन.ए.सी द्वारा प्रस्तावित प्रावधानों के साथ लागू नहीं करना चाहती है बल्कि वह उसे रंगराजन समिति द्वारा सुझाये संशोधनों के साथ भी लागू करने की जल्दी में नहीं है. एन.ए.सी के साथ तकरार के कारण उसे इसे अभी और टालने का बहाना मिल गया है.

ध्यान रहे कि कांग्रेस और यू.पी.ए ने २००९ के चुनावों में खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार देने का वायदा किया था. लेकिन पौने दो साल गुजरने के बावजूद सरकार और एन.ए.सी के बीच अभी भी उसके मसौदे पर बहस चल रही है. साफ है कि यह इसे जब तक संभव हो सके टालने की रणनीति है. कहने की जरूरत नहीं है कि परोक्ष रूप से कांग्रेस अध्यक्ष भी इस खेल में शामिल हैं.

यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि जब भी कांग्रेस अध्यक्ष ने किसी भी मुद्दे पर स्टैंड लिया, सरकार को झुकते देर नहीं लगी है. सवाल है कि अगर सोनिया गांधी की इन मुद्दों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता है तो वे साफ स्टैंड लेकर सरकार पर दबाव क्यों नहीं डालती हैं? वे अगर चाहें तो इन सुझावों पर दाएं-बाएं कर रही सरकार तुरंत सीधे रास्ते पर आ सकती है.

लेकिन नहीं, जानबूझकर मुद्दे को लटकाया और खींचा जा रहा है ताकि एक तरफ सरकार अपने वित्तीय घाटे को कम करने के कठमुल्लावादी एजेंडे को आगे बढ़ा सके और दूसरी ओर, सोनिया गांधी खुद को गरीबनवाज साबित कर सकें. सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि इस पूरी तकरार और खींचतान का एक नतीजा यह हुआ है कि खाद्य सुरक्षा से लेकर आर.टी.आई और मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी जैसे मुद्दे भी विवादस्पद हो गए हैं.

जबकि ऐसे मुद्दों में विवाद की कोई खास गुंजाइश नहीं है. यह भी एक सोची-समझी रणनीति है. असल में, किसी मुद्दे को विवादस्पद बना देने का फायदा यह है कि इससे उस मुद्दे के प्रति न सिर्फ लोगों में भ्रम, संशय और संदेह पैदा हो जाते हैं बल्कि जनमत भी प्रभावित होता है.

इस मामले में भी यही हो रहा है. उदाहरण के लिए, खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर एन.ए.सी और प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति के बीच मतभेद और टकराव के कारण खाद्य सुरक्षा को लेकर मध्य वर्ग और लोगों में यह भ्रम और संशय बढ़ रहा है कि इसे एन.ए.सी के कहे मुताबिक लागू करना संभव नहीं है और न ही यह वांछनीय है.

ऐसे में, अगर एन.ए.सी और खाद्य सुरक्षा के अधिकार के लिए लड़नेवाले संगठन इस मुद्दे पर अड़ते हैं तो सरकार को यह प्रचार करने का मौका मिल जायेगा कि इन संगठनों के अड़ियल रूख के कारण खाद्य सुरक्षा के कानून को लागू करने में कठिनाई आ रही है.

यह और बात है कि इस मुद्दे पर सरकार का रवैया सबसे अधिक अड़ियल है. लेकिन इस पूरे विवाद के कारण सरकार को न सिर्फ इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे को और हल्का और कमजोर करने का तर्क और मौका मिल रहा है बल्कि एन.ए.सी के भी पीछे हटने की जमीन तैयार हो रही है. असल में, जब भी किसी मुद्दे पर विवाद बढ़ता है तो बीच का रास्ता लेने का माहौल बनने लगता है. कई बार विवाद इसी उद्देश्य से खड़े भी किए जाते हैं.

आश्चर्य नहीं कि अगले कुछ दिनों में खाद्य सुरक्षा और अन्य मुद्दों पर बीच का रास्ता लेने का माहौल बनाया जायेगा और सोनिया गांधी के नेतृत्व में एन.ए.सी को इसे स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया जायेगा. एन.ए.सी पहले ही इस मुद्दे पर जिस तरह से काफी पीछे हट चुकी है, उसे और पीछे हटने में शायद ही कोई गुरेज होगा.

यह बात और है कि इस समझौते में खाद्य सुरक्षा का कानून न सिर्फ और पिलपिला, बेमानी और नई बोतल में पुरानी शराब होकर रह जायेगा. लेकिन नूराकुश्ती का नतीजा और हो भी क्या सकता है?

आगे दो किस्तों में पढ़िए खाद्य सुरक्षा और वनाधिकार कानून के बारे में....

(समकालीन जनमत के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)