गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

वनाधिकार कानून को अंगूठा


वनाधिकार कानून का मजाक उड़ाने पर तुली हुई है यू.पी.ए सरकार


हालांकि वनाधिकार कानून को लागू हुए चार साल से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन जमीन पर इस कानून का कहीं अता-पता नहीं है. हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी तक ११ राज्यों ने इस कानून को लागू नहीं किया है. यही नहीं, जिन राज्यों में यह कानून लागू भी किया गया है, वहां भी इसका लाभ जंगलवासियों और आदिवासियों को नहीं मिल रहा है. वास्तव में, ऐसा लगता ही नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार सुनिश्चित करनेवाला कोई कानून भी पास हुआ है.

यहां तक कि खुद केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय और वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा एन.सी. सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक संयुक्त समिति ने स्वीकार किया है कि वनाधिकार कानून को ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया है. समिति के अनुसार, इस कानून का मुख्य उद्देश्य जंगलों के देखभाल में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाना था लेकिन जंगल के संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन की दिशा में पहल न के बराबर हुई है.

सक्सेना समिति के मुताबिक, इस कानून के तहत आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने जिन २९ लाख दावों का निपटारा किया है, उनमें से सिर्फ १.६ प्रतिशत मामलों में सामुदायिक अधिकार को मान्यता दी है है. उसमें भी जंगल से निकलनेवाले उत्पादों पर अधिकार शामिल नहीं है.

यही नहीं, इस समिति ने यह भी पाया कि अधिकांश राज्यों में जंगल की भूमि पर आदिवासियों और जंगलवासियों के व्यक्तिगत अधिकार और रिहाइश के अधिकार के दावों के नामंजूर कर दिया जाता है. इस कानून के तहत जंगलों के संसाधनों जैसे वनोत्पादों, तालाबों और चरागाहों पर सामुदायिक अधिकार को भी मान्यता नहीं दी जा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून को लागू करने में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के ढीले-ढाले रवैये के अलावा वन और पर्यावरण मंत्रालय का नकारात्मक रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है. असल में, कानून बन जाने के बावजूद इन मंत्रालयों और उनके अफसरों की मानसिकता अभी भी बदली नहीं है.

इसके अलावा, जिला प्रशासन, पुलिस विभाग, वन विभाग के अफसरों, ठेकेदारों और माफियाओं का गठजोड़ भी जंगलों पर से अपने कब्जे और लूट को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. ये निहित स्वार्थी तत्व हरगिज नहीं चाहते हैं कि जंगलों के प्रबंधन में आदिवासियों को शामिल किया जाए और न ही वह आसानी से जंगलों के संसाधनों को आदिवासियों को सौपने के लिए तैयार है.

जाहिर है कि उन्हें राज्य सरकारों का भी पूरा संरक्षण भी हासिल है. राज्य सरकारें राजस्व के स्रोत के नामपर वनोत्पादों की खरीद-बिक्री पर अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि तेंदू पत्ते से लेकर अधिकांश वनोत्पादों के व्यापार को नियंत्रित करने के नाम पर राज्य सरकारें आदिवासियों के खुले शोषण का जरिया बन गई हैं.

असल में, वनाधिकार कानून को जिस तरह से बनाया गया है और उसे लागू किया जा रहा है, उसमें इस कानून का यही हश्र होना था. अधिकांश मामलों में आदिवासियों और अन्य जंगलवासियों के लिए यह साबित करना बहुत मुश्किल हो रहा है कि वे उस जमीन पर ७५ साल से रह रहे हैं. अधिकांश आदिवासी कचहरी और वकीलों के चक्कर काट रहे हैं. इसके बावजूद उनके अधिकारों को नकारने में देर नहीं लगाई जा रही है. सवाल है कि आदिवासी कागज-पत्र आदि कहां से लायें? होना तो यह चाहिए था कि जंगल विभाग और जिला प्रशासन खुद ऐसे कागजात आदि जुटाएं.

हालांकि एन.ए.सी ने इस कानून को ठीक तरीके नहीं लागू किए जाने पर दोनों मंत्रालयों की खिंचाई की है लेकिन खुद एन.ए.सी का रवैया भी बहुत चलताऊ सा है. एन.ए.सी ने इस कानून को लागू करने के लिए इन मंत्रालयों को कई सुझाव भी दिए हैं. लेकिन यू.पी.ए सरकार के रवैये से लगता नहीं है कि इस मुद्दे पर उसके रूख में कोई बदलाव आया है.

उल्टे वन और पर्यावरण मंत्रालय एन.सी सक्सेना की रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. यही नहीं, वन मंत्रालय एन.ए.सी के इस सुझाव से कतई सहमत नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के लिए उनसे ७५ साल की रिहाइश के सबूत मांगने पर बहुत जोर नहीं देना चाहिए.

साफ है कि यू.पी.ए सरकार ने वनाधिकार कानून को एक सजावटी कानून बनाने का फैसला कर लिया है. यही कारण है कि एन.ए.सी के सुझावों के बावजूद सरकार में कोई खास हलचल या सक्रियता नहीं दिख रही है.

कल पढ़िए खाद्य सुरक्षा बिल पर जारी रस्साकशी पर...

(समकालीन जनमत के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)



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