सुधार नहीं, मौजूदा टी.वी रेटिंग व्यवस्था का विकल्प खोजिये
पहली किस्त
बहुतेरे विश्लेषक ही नहीं, संपादक भी टेलीविजन चैनलों पर कंटेंट के गिरते स्तर और उससे जुड़ी अधिकांश समस्याओं के लिए उनकी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं. चैनलों में यह आम धारणा है और बहुत हद तक सही है कि टी.वी कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने के लिए इस्तेमाल होनेवाली टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टी.आर.पी) की मौजूदा व्यवस्था के कारण चैनलों, प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर अधिक से अधिक रेटिंग बटोरने का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है.
इस कारण वे कार्यक्रमों की गुणवत्ता से अधिक रेटिंग बढ़ाने के टोटकों पर ध्यान देते हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि सभी व्यावसायिक यहां तक कि सार्वजनिक चैनलों पर भी बिना किसी के अपवाद के रेटिंग के लिहाज से सफल कार्यक्रमों की नक़ल से लेकर सफल विषयों के दोहराव, सतही, छिछले और अश्लील कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है.
यही नहीं, हाल के वर्षों में चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं में अधिक से अधिक टी.आर.पी बटोरने की ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई है कि उसमें सामाजिक-मानवीय मूल्यों, नैतिकता, पत्रकारीय एथिक्स और मूल्यों की सबसे अधिक अनदेखी हो रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि चैनलों की इस प्रतियोगिता से कार्यक्रमों की गुणवत्ता में बेहतरी नहीं आ रही है जबकि माना यह जाता है कि प्रतियोगिता से गुणवत्ता में सुधार आता है.
उल्टे हो यह रहा है कि चैनलों के कार्यक्रमों में नयापन, प्रयोग, सुरुचि और विविधता के लिए जगह लगातार कम होती जा रही है. इस मामले में चैनल और कार्यक्रम निर्माता जोखिम लेने और प्रयोग करने के बजाय टी.आर.पी के तयशुदा फार्मूलों पर चलना पसंद करते हैं.
यही कारण है कि टी.आर.पी मापने की मौजूदा व्यवस्था को लेकर शिकायतें बढ़ती ही जा रही हैं. सार्वजनिक मंचों से लेकर संसद तक में इस मुद्दे पर बहस हुई और हो रही है. इन शिकायतों के कारण ही पिछले कुछ वर्षों में दूरसंचार नियामक आयोग- ट्राई और सूचना तकनीक मंत्रालय की संसदीय स्टैंडिंग कमिटी ने इस व्यवस्था की जांच-पड़ताल की और उनकी रिपोर्टें भी आ चुकी हैं.
लेकिन इसके बावजूद व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आया है. पिछले वर्ष सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा और उसमें सुधार के उपाय सुझाने के लिए फिक्की के महासचिव अमित मित्र की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट इस साल जनवरी के दूसरे सप्ताह में पेश कर दी है.
इस रिपोर्ट में समिति ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में कई बड़ी गडबडियों और खामियों की बात स्वीकार की है और माना है कि इसमें सुधार की जरूरत है. समिति ने टी.आर.पी व्यवस्था में सिर्फ दो निजी कंपनियों खासकर ए.सी-निएल्सन/टैम के दबदबे और एकाधिकार पर चिंता प्रकट करने के अलावा टी.आर.पी के सैम्पल आकार की अपर्याप्तता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता के अभाव जैसे मुद्दों को उठाया है.
समिति ने सबसे अधिक जोर मौजूदा टी.आर.पी व्यवस्था में रेटिंग की माप के लिए इस्तेमाल किए जा रहे सैम्पल साइज को बढ़ाने पर दिया है. समिति के मुताबिक, भारत जैसे देश के आकार और विविधता के मुकाबले टी.आर.पी की मौजूदा सैम्पल साइज काफी सीमित और कम है.
समिति के अनुसार, ५० करोड़ से ज्यादा दर्शकों की पसंद का वास्तविक आकलन सिर्फ ८००० पीपुल मीटर से नहीं किया जा सकता है. भारत में टी.वी. रेटिंग के व्यवसाय की सबसे बड़ी और लगभग एकाधिकार की स्थिति रखनेवाली कंपनी टैम के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.
इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है?
यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं.
इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.
टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं. जाहिर है कि टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में इस तरह की भारी विसंगतियाँ हैं.
आश्चर्य नहीं कि टी.आर.पी व्यवस्था की जांच करते हुए ट्राई ने भी स्वीकार किया था कि “ रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था मुख्यतः केबल घरों पर आधारित है. चूँकि केबल घरों की बड़े पैमाने पर अंडर रिपोर्टिंग होती है, इसलिए ८००० घरों पर आधारित रेटिंग की व्यवस्था अत्यधिक अपर्याप्त है. इसके अलावा चूँकि लगभग ६० फीसदी टी.वी सेट्स अभी भी ब्लैक एंड व्हाइट हैं, जिनसे दर्शकों की पसंद के बारे में सही अनुमान लगा पाना बहुत संदेहास्पद है.
इसी तरह, चैनलों की मौजूदगी भी देश के सभी क्षेत्रो में एक सामान नहीं है. इस सबसे रेटिंग की मौजूदा प्राविधि की सीमाएं अस्पष्ट होती हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि जिन चैनलों की ग्रामीण इलाकों या दर्शकों के कुछ हिस्सों में अधिक पैठ होगी, वे रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में नुकसान में रहते हैं. मुख्यतः शहरी दर्शक ही चैनलों की रेटिंग और उनके कार्यक्रमों का शेड्यूल तय कर रहे हैं.”
इसके अलावा, समिति टी.वी उद्योग की इन शिकायतों से भी सहमत दिखती है कि टैम और ए-मैप की मौजूदा रेटिंग व्यवस्था में पारदर्शिता और विश्वसनीयता का भी अभाव है. सैम्पल की गोपनीयता के नाम पर रेटिंग एजेंसियों की मौजूदा व्यवस्था में उनके आंकड़ों की शुद्धता की जांच और उस प्रक्रिया का मूल्यांकन संभव नहीं है. टैम पर यह आरोप अक्सर लगते रहे हैं कि उसके द्वारा बरती जानेवाली गोपनीयता के आवरण में उसके आंकड़ों को बड़े प्रसारक प्रभावित करते हैं. यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पीपुल मीटर्स के पैनल की जानकारी कुछ बड़े चैनलों/प्रसारकों को मुहैया कर दी जाती है जो उसका फायदा संबंधित दर्शकों की पसंद को मैनीपुलेट करके उठाते हैं.
यही नहीं, रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व और उनमें क्रास मीडिया निवेश के कारण हितों के टकराव (कनफ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) के सवाल भी उठते रहे हैं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अगर रेटिंग एजेंसी में प्रसारकों या विज्ञापन एजेंसियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शेयर होगा या रेटिंग एजेंसी का प्रसारकों, कार्यक्रम निर्माता कंपनियों या विज्ञापन एजेंसियों में हिस्सेदारी होगी तो निश्चय ही, हितों के टकराव होगा और उससे रेटिंग की विश्वसनीयता प्रभावित होगी.
इसके अलावा, समिति ने इस चिंता का भी उल्लेख किया है कि रेटिंग व्यवसाय में एकाधिकार की स्थिति के कारण पीपुल मीटर की कीमत बहुत अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, एक पीपुल मीटर की कीमत लगभग डेढ़ लाख रूपये है. आरोप है कि पीपुल मीटर की इस अत्यधिक कीमत के जरिये संबंधित कंपनी अपनी विदेशी पैरेंट कंपनी को अनुचित तरीके (ट्रांसफर प्राइसिंग) से लाभ पहुंचा रही है.
समिति ने इस मुद्दे पर भी चिंता जाहिर की है कि टी.आर.पी के आंकड़ों को जारी करने की अवधि और बारंबारता (फ्रीक्वेंसी) को हर मिनट, हर घंटे, हर दिन और हर सप्ताह करके उसे शेयर बाजार की तरह बना दिया गया है. उल्लेखनीय है कि अभी टैम मीडिया साप्ताहिक आधार पर जबकि ए-मैप दैनिक आधार पर टी.आर.पी रेटिंग जारी करते हैं.
इसके कारण, चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं पर हर सप्ताह रेटिंग में आनेवाले उतार-चढाव के अनुसार अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ता है. प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर न सिर्फ टी.आर.पी में बढ़त को बनाए रखने और कमी को सुधारने का दबाव रहता है बल्कि उनके पास कार्यक्रमों में प्रयोग करने की कोई गुंजाइश भी नहीं रह जाती है.
जारी.....
('कथादेश' के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)
पहली किस्त
बहुतेरे विश्लेषक ही नहीं, संपादक भी टेलीविजन चैनलों पर कंटेंट के गिरते स्तर और उससे जुड़ी अधिकांश समस्याओं के लिए उनकी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं. चैनलों में यह आम धारणा है और बहुत हद तक सही है कि टी.वी कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने के लिए इस्तेमाल होनेवाली टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टी.आर.पी) की मौजूदा व्यवस्था के कारण चैनलों, प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर अधिक से अधिक रेटिंग बटोरने का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है.
इस कारण वे कार्यक्रमों की गुणवत्ता से अधिक रेटिंग बढ़ाने के टोटकों पर ध्यान देते हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि सभी व्यावसायिक यहां तक कि सार्वजनिक चैनलों पर भी बिना किसी के अपवाद के रेटिंग के लिहाज से सफल कार्यक्रमों की नक़ल से लेकर सफल विषयों के दोहराव, सतही, छिछले और अश्लील कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है.
यही नहीं, हाल के वर्षों में चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं में अधिक से अधिक टी.आर.पी बटोरने की ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई है कि उसमें सामाजिक-मानवीय मूल्यों, नैतिकता, पत्रकारीय एथिक्स और मूल्यों की सबसे अधिक अनदेखी हो रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि चैनलों की इस प्रतियोगिता से कार्यक्रमों की गुणवत्ता में बेहतरी नहीं आ रही है जबकि माना यह जाता है कि प्रतियोगिता से गुणवत्ता में सुधार आता है.
उल्टे हो यह रहा है कि चैनलों के कार्यक्रमों में नयापन, प्रयोग, सुरुचि और विविधता के लिए जगह लगातार कम होती जा रही है. इस मामले में चैनल और कार्यक्रम निर्माता जोखिम लेने और प्रयोग करने के बजाय टी.आर.पी के तयशुदा फार्मूलों पर चलना पसंद करते हैं.
यही कारण है कि टी.आर.पी मापने की मौजूदा व्यवस्था को लेकर शिकायतें बढ़ती ही जा रही हैं. सार्वजनिक मंचों से लेकर संसद तक में इस मुद्दे पर बहस हुई और हो रही है. इन शिकायतों के कारण ही पिछले कुछ वर्षों में दूरसंचार नियामक आयोग- ट्राई और सूचना तकनीक मंत्रालय की संसदीय स्टैंडिंग कमिटी ने इस व्यवस्था की जांच-पड़ताल की और उनकी रिपोर्टें भी आ चुकी हैं.
लेकिन इसके बावजूद व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आया है. पिछले वर्ष सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा और उसमें सुधार के उपाय सुझाने के लिए फिक्की के महासचिव अमित मित्र की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट इस साल जनवरी के दूसरे सप्ताह में पेश कर दी है.
इस रिपोर्ट में समिति ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में कई बड़ी गडबडियों और खामियों की बात स्वीकार की है और माना है कि इसमें सुधार की जरूरत है. समिति ने टी.आर.पी व्यवस्था में सिर्फ दो निजी कंपनियों खासकर ए.सी-निएल्सन/टैम के दबदबे और एकाधिकार पर चिंता प्रकट करने के अलावा टी.आर.पी के सैम्पल आकार की अपर्याप्तता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता के अभाव जैसे मुद्दों को उठाया है.
समिति ने सबसे अधिक जोर मौजूदा टी.आर.पी व्यवस्था में रेटिंग की माप के लिए इस्तेमाल किए जा रहे सैम्पल साइज को बढ़ाने पर दिया है. समिति के मुताबिक, भारत जैसे देश के आकार और विविधता के मुकाबले टी.आर.पी की मौजूदा सैम्पल साइज काफी सीमित और कम है.
समिति के अनुसार, ५० करोड़ से ज्यादा दर्शकों की पसंद का वास्तविक आकलन सिर्फ ८००० पीपुल मीटर से नहीं किया जा सकता है. भारत में टी.वी. रेटिंग के व्यवसाय की सबसे बड़ी और लगभग एकाधिकार की स्थिति रखनेवाली कंपनी टैम के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.
इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है?
यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं.
इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.
टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं. जाहिर है कि टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में इस तरह की भारी विसंगतियाँ हैं.
आश्चर्य नहीं कि टी.आर.पी व्यवस्था की जांच करते हुए ट्राई ने भी स्वीकार किया था कि “ रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था मुख्यतः केबल घरों पर आधारित है. चूँकि केबल घरों की बड़े पैमाने पर अंडर रिपोर्टिंग होती है, इसलिए ८००० घरों पर आधारित रेटिंग की व्यवस्था अत्यधिक अपर्याप्त है. इसके अलावा चूँकि लगभग ६० फीसदी टी.वी सेट्स अभी भी ब्लैक एंड व्हाइट हैं, जिनसे दर्शकों की पसंद के बारे में सही अनुमान लगा पाना बहुत संदेहास्पद है.
इसी तरह, चैनलों की मौजूदगी भी देश के सभी क्षेत्रो में एक सामान नहीं है. इस सबसे रेटिंग की मौजूदा प्राविधि की सीमाएं अस्पष्ट होती हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि जिन चैनलों की ग्रामीण इलाकों या दर्शकों के कुछ हिस्सों में अधिक पैठ होगी, वे रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में नुकसान में रहते हैं. मुख्यतः शहरी दर्शक ही चैनलों की रेटिंग और उनके कार्यक्रमों का शेड्यूल तय कर रहे हैं.”
इसके अलावा, समिति टी.वी उद्योग की इन शिकायतों से भी सहमत दिखती है कि टैम और ए-मैप की मौजूदा रेटिंग व्यवस्था में पारदर्शिता और विश्वसनीयता का भी अभाव है. सैम्पल की गोपनीयता के नाम पर रेटिंग एजेंसियों की मौजूदा व्यवस्था में उनके आंकड़ों की शुद्धता की जांच और उस प्रक्रिया का मूल्यांकन संभव नहीं है. टैम पर यह आरोप अक्सर लगते रहे हैं कि उसके द्वारा बरती जानेवाली गोपनीयता के आवरण में उसके आंकड़ों को बड़े प्रसारक प्रभावित करते हैं. यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पीपुल मीटर्स के पैनल की जानकारी कुछ बड़े चैनलों/प्रसारकों को मुहैया कर दी जाती है जो उसका फायदा संबंधित दर्शकों की पसंद को मैनीपुलेट करके उठाते हैं.
यही नहीं, रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व और उनमें क्रास मीडिया निवेश के कारण हितों के टकराव (कनफ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) के सवाल भी उठते रहे हैं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अगर रेटिंग एजेंसी में प्रसारकों या विज्ञापन एजेंसियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शेयर होगा या रेटिंग एजेंसी का प्रसारकों, कार्यक्रम निर्माता कंपनियों या विज्ञापन एजेंसियों में हिस्सेदारी होगी तो निश्चय ही, हितों के टकराव होगा और उससे रेटिंग की विश्वसनीयता प्रभावित होगी.
इसके अलावा, समिति ने इस चिंता का भी उल्लेख किया है कि रेटिंग व्यवसाय में एकाधिकार की स्थिति के कारण पीपुल मीटर की कीमत बहुत अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, एक पीपुल मीटर की कीमत लगभग डेढ़ लाख रूपये है. आरोप है कि पीपुल मीटर की इस अत्यधिक कीमत के जरिये संबंधित कंपनी अपनी विदेशी पैरेंट कंपनी को अनुचित तरीके (ट्रांसफर प्राइसिंग) से लाभ पहुंचा रही है.
समिति ने इस मुद्दे पर भी चिंता जाहिर की है कि टी.आर.पी के आंकड़ों को जारी करने की अवधि और बारंबारता (फ्रीक्वेंसी) को हर मिनट, हर घंटे, हर दिन और हर सप्ताह करके उसे शेयर बाजार की तरह बना दिया गया है. उल्लेखनीय है कि अभी टैम मीडिया साप्ताहिक आधार पर जबकि ए-मैप दैनिक आधार पर टी.आर.पी रेटिंग जारी करते हैं.
इसके कारण, चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं पर हर सप्ताह रेटिंग में आनेवाले उतार-चढाव के अनुसार अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ता है. प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर न सिर्फ टी.आर.पी में बढ़त को बनाए रखने और कमी को सुधारने का दबाव रहता है बल्कि उनके पास कार्यक्रमों में प्रयोग करने की कोई गुंजाइश भी नहीं रह जाती है.
जारी.....
('कथादेश' के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें