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शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)

गुरुवार, अप्रैल 03, 2014

पत्रकारिता के नीरा राडिया काल में ‘निष्पक्षता’

नत्थी पत्रकारिता के खतरे   

न्यूज चैनल- ‘आज तक’ के एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी और आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल के बीच ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत का एक वीडियो इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर न्यूज मीडिया और चैनलों पर सुर्ख़ियों में है.
अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ भाजपा नेताओं से लेकर कुछ न्यूज चैनल तक एंकर-पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी पर पत्रकारिता की नैतिकता (एथिक्स) और मर्यादा लांघने का आरोप लगा रहे हैं. इस ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में वाजपेयी की केजरीवाल से अति-निकटता और सलाहकार जैसी भूमिका को निशाना बनाते हुए उनकी निष्पक्षता पर ऊँगली उठाई जा रही है.
आरोप लगाया जा रहा है कि वाजपेयी आम आदमी पार्टी की ओर झुके हुए हैं और चैनल के अंदर आप के प्रतिनिधि/प्रवक्ता की तरह काम कर रहे हैं. यह भी कहा जा रहा है कि वाजपेयी भी आशुतोष जैसे कई पत्रकार-संपादकों की तरह हैं जो चैनल/अखबार में आम आदमी पार्टी के पक्ष में काम कर रहे हैं, खबरों के साथ तोडमरोड कर रहे हैं और पार्टी के अनुकूल जनमत बनाने के अभियान में शामिल हैं.

इस कारण केजरीवाल के साथ उनका इंटरव्यू ‘फिक्सड’ और पी-आर किस्म का है जिसका मकसद केजरीवाल की सकारात्मक छवि गढना है और जिसमें शहीद भगत सिंह तक को इस्तेमाल किया जा रहा है.

सवाल यह है कि क्या वाजपेयी और केजरीवाल की ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत सिर्फ एक स्वाभाविक
सौजन्यता/औपचारिकता या हद से हद तक एक तरह का बडबोलापन है या फिर इसे पत्रकारीय निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता माना जाए?
हालाँकि पत्रकारिता के नीरा राडिया और पेड न्यूज काल में पुण्य प्रसून और केजरीवाल की बातचीत काफी शाकाहारी लगती है लेकिन इसमें पत्रकारिता की नैतिकता, मानदंडों और प्रोफेशनलिज्म के लिहाज से असहज और बेचैन करनेवाले कई पहलू हैं. इस बातचीत में वाजपेयी किसी स्वतंत्र पत्रकार और नेता के बीच बरती जानेवाली अनिवार्य दूरी को लांघते हुए दिखाई पड़ते हैं.
दूसरे, पत्रकारिता और पी-आर में फर्क है और पत्रकार का काम किसी भी नेता (चाहे वह कितना भी लोकप्रिय और सर्वगुणसंपन्न हो) की अनुकूल ‘छवि’ गढना नहीं बल्कि उसकी सच्चाई को सामने लाना है.

असल में, किसी भी पत्रकारीय साक्षात्कार में पत्रकार-एंकर अपने दर्शकों का प्रतिनिधि होता है और इस नाते उससे अपेक्षा होती है कि वह साक्षात्कारदाता से वे सभी सवाल पूछेगा जो उसके दर्शकों को मौका मिलता तो उससे पूछते. याद रहे कि कोई भी पत्रकारीय इंटरव्यू पत्रकार और साक्षात्कारदाता खासकर सार्वजनिक जीवन में सक्रिय या पद पर बैठे नेता के बीच की निजी बातचीत नहीं है.

सच यह है कि जब कोई नेता अपने को इंटरव्यू के लिए पेश करता है तो इसके जरिये वह लोगों के बीच यह सन्देश देने की कोशिश करता है कि वह अपने विचारों/क्रियाकलापों में पूरी तरह पारदर्शी है, कुछ भी छुपाना नहीं चाहता है और हर तरह के सार्वजनिक सवाल-जवाब और जांच-पड़ताल के लिए तैयार है.
ऐसे में, पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह उस नेता से कड़े से कड़े और मुश्किल सवाल पूछे ताकि उसके विचारों/क्रियाकलापों से लेकर उसकी कथनी-करनी के बीच के फर्क और अंतर्विरोधों को उजागर किया जा सके. क्या पुण्य प्रसून वाजपेयी, केजरीवाल से इंटरव्यू करते हुए इस कसौटी पर खरे उतरते हैं?
इसका फैसला दर्शकों पर छोड़ते हुए भी जो बात खलती है, वह यह है कि ‘आफ द रिकार्ड’ बातचीत में केजरीवाल कार्पोरेट्स और प्राइवेट सेक्टर के बारे में बात करने से बचने की दुहाई देते नजर आते हैं क्योंकि इससे मध्यवर्ग नाराज हो जाएगा.

लेकिन क्या यह वही अंतर्विरोध नहीं है जिसे इंटरव्यू में उजागर किया जाना चाहिए? यही नहीं, यह और भी ज्यादा चिंता की बात है कि वाजपेयी जैसा जनपक्षधर पत्रकार केजरीवाल को अपनी ‘क्रांतिकारी’ छवि गढ़ने के लिए भगत सिंह के इस्तेमाल का मौका दे.

कहने की जरूरत नहीं है कि यहीं से फिसलन की शुरुआत होती है जब कोई पत्रकार किसी नेता-पार्टी के साथ ‘नत्थी’ (एम्बेडेड) दिखने लगता है. 
('तहलका' के ३० मार्च के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)                                       

सोमवार, मार्च 10, 2014

आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में चैनल

खेल में पार्टी बनते जा रहे चैनल आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचेंगे?

जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आ रहे हैं और पार्टियों-नेताओं के लिए दांव ऊँचे होते जा रहे हैं, आपसी आरोप-प्रत्यारोप भी तीखे और व्यक्तिगत होने लगे हैं. न्यूज मीडिया हमेशा से ऐसे आरोप-प्रत्यारोपों का मंच और अखाड़ा बनता रहा है.
चुनावों के दौरान यह बहुत असामान्य बात नहीं है. न्यूज मीडिया खासकर चैनल इसमें खूब दिलचस्पी भी लेते रहे हैं. लेकिन इसबार पहली दफा खुद न्यूज मीडिया खासकर चैनल इन आरोप-प्रत्यारोपों के लपेटे में आ गए हैं. इससे चैनल बिलबिलाये हुए हैं.
हुआ यह है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी से लेकर गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और पूर्व सेनाध्यक्ष पलट नेता बने जनरल वी.के सिंह तक खुलेआम न्यूज मीडिया पर खुन्नस निकाल रहे हैं. यहाँ तक कि न्यूज के डार्लिंग समझे जानेवाले आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के खिलाफ पूरा मोर्चा ही खोल दिया है.

केजरीवाल का आरोप है कि कई मीडिया कंपनियों में मुकेश और अनिल अम्बानी का पैसा लगा हुआ है और इस कारण वे आम आदमी पार्टी और व्यक्तिगत तौर पर उनके खिलाफ अभियान झूठी ख़बरें दिखा और अभियान चला रही हैं.

दूसरी ओर, भाजपा नेताओं और मोदी समर्थकों का आरोप है कि अखबार और चैनल केजरीवाल का महिमामंडन कर रहे हैं क्योंकि उनके ज्यादातर पत्रकार वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्ष और कांग्रेसी हैं. यही नहीं, भाजपा नेता सुब्रमणियम स्वामी और आर.एस.एस से जुड़े एस. गुरुमूर्ति ने एन.डी.टी.वी पर धन शोधन (मनी लांडरिंग) का आरोप लगाते हुए अभियान छेड रखा है.
खुद मोदी ने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में एन.डी.टी.वी पर सरकारी पैसे से चलने और बाद में दिल्ली की एक रैली में इसी चैनल की एक पत्रकार पर नवाज़ शरीफ की मिठाई खाने का आरोप लगाया था.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो, सोशल मीडिया- ट्विटर और फेसबुक पर भी चैनलों और उनके
संपादकों/एंकरों को मोदी और केजरीवाल समर्थक जमकर गरिया रहे हैं. इससे चैनलों और मीडिया के साथ पत्रकारों में भी बेचैनी है.

नतीजा, एडिटर्स गिल्ड को न्यूज मीडिया के बचाव में उतरना पड़ा. लेकिन इससे लगता नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर हमले कम होंगे. इसकी वजह यह है कि इस बार चुनावों में न सिर्फ दांव बहुत ऊँचे हैं, केजरीवाल जैसे नए खिलाड़ी ‘नियमों को तोड़कर’ खेल रहे हैं बल्कि इसबार खेल में न्यूज मीडिया खासकर चैनल खुद खिलाड़ी बन गए हैं.

आप मानें या न मानें लेकिन यह तथ्य है कि २०१४ के चुनाव जितने जमीन पर लड़े जा रहे हैं, उतने ही चैनलों पर और उनके स्टूडियो में लड़े जा रहे हैं. शोशल मीडिया से ज्यादा यह न्यूज चैनलों का चुनाव है. केजरीवाल और मोदी की ‘लार्जर दैन लाइफ’ छवि गढ़ने में न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह पहला आम चुनाव है जिसमें चैनल इतनी बड़ी और सीधी भूमिका निभा रहे हैं. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि हर रविवार को होनेवाली मोदी की रैलियां जिनका असली लक्ष्य चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट के जरिये करोड़ों वोटरों तक पहुंचना है. आश्चर्य नहीं कि इन रैलियों की टाइमिंग से लेकर मंच की साज-सज्जा तक और कैमरों की पोजिशनिंग से लेकर भाषण के मुद्दों तक का चुनाव टी.वी दर्शकों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है.
चुनावी दंगल में इस बढ़ती और निर्णायक भूमिका के कारण ही चैनल नेताओं और पार्टियों के निशाने पर आ गए हैं. इसके जरिये चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें विरोधी पक्ष में झुकने से रोकने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इसके लिए काफी हद तक खुद चैनल भी जिम्मेदार हैं.

सच यह है कि चैनल खुद दूध के धोए नहीं हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि कई चैनल चुनावी दंगल की तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग और व्याख्या के बजाये खेल में खुद पार्टी हो गए हैं. यह भी सही है कि उनमें से कई की डोर बड़े कार्पोरेट्स के हाथों में है और वे उन्हें अपनी मर्जी से नचा रहे हैं. कुछ बहती गंगा में हाथ धोने में लग गए हैं और कुछ बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह झूम रहे हैं.

ऐसे में, हैरानी क्यों? जब चैनल खेल में पार्टी बनते जा रहे हैं तो आरोप-प्रत्यारोपों के उछलते कीचड़ से भला कब तक बचते?
                      
('तहलका' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

सोमवार, फ़रवरी 24, 2014

नीडो की कुर्बानी

उत्तर पूर्व के साथ भेदभाव में मीडिया भी शामिल है

देश की राजधानी में उत्तर पूर्व के लोगों के साथ होनेवाला नस्ली भेदभाव एक ऐसा बर्बर और कड़वा सच है जिसे जानते सब हैं लेकिन सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए कम ही तैयार होते हैं. चाहे पुलिस-प्रशासन हो या मीडिया या फिर सिविल सोसायटी- सब अलग-अलग कारणों से उससे आँख चुराते हैं या बहुत दबी जुबान में चर्चा करते हैं.
अफ़सोस की बात यह है कि दिल्ली और देश के अन्य राज्यों/शहरों में उत्तर पूर्व के लोगों को जिस तरह का नस्ली भेदभाव, उत्पीडन और अपमान झेलना पड़ता है, उसे मुद्दा बनाने और न्यूज मीडिया सहित नागरिक समाज की चेतना को झकझोरने के लिए अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो तानिया को अपनी जान देनी पड़ी.
अफ़सोस यह भी कि शुरू में कई चैनलों और उनके रिपोर्टरों ने पुलिस के तोते की तरह नीडो की मौत को ‘मामूली मारपीट और ड्रग्स के ओवरडोज’ जैसी स्टीरियोटाइप ‘स्टोरीज’ से दबाना-छुपाना चाहा.

लेकिन सलाम करना चाहिए उत्तर पूर्व के उन सैकड़ों छात्र-युवाओं और प्रगतिशील-रैडिकल छात्र संगठनों का जिन्होंने नीडो की नस्ली हत्या के बाद लाजपतनगर से लेकर जंतर-मंतर तक अपने गुस्से और विरोध का इतना जुझारू इजहार किया कि मीडिया से लेकर राजनीतिक पार्टियों-नेताओं और सरकार-पुलिस-प्रशासन को उसे नोटिस करना पड़ा. उन चैनलों/अखबारों का भी जिन्होंने पुलिस की प्लांटेड स्टोरीज को ख़ारिज करके इसे मुद्दा बनाया.

नतीजा, उत्तर पूर्व के लोगों के साथ नस्ली भेदभाव का मुद्दा एक बार न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि नीडो की हत्या के खून अभी सूखे भी नहीं थे कि राजधानी में मणिपुर की एक बच्ची के साथ बलात्कार और एक युवा पर जानलेवा हमले का मामला सामने आ गया.
ऐसा नहीं है कि इससे पहले ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं लेकिन होता यह था कि या तो उन्हें दबा दिया जाता दिया जाता था या फिर उन्हें रुटीन अपराध के मामले मानकर निपटा दिया जाता था. नस्ली छींटाकशी और उपहास तो जैसे आम बात थी. 
लेकिन नीडो की मौत के बाद लगता है उत्तर-पूर्व के युवाओं का धैर्य जवाब देने लगा है. वे इसे और सहने के बजाय इससे लड़ने और चुनौती देने का मन बना चुके हैं. इससे चैनलों-अख़बारों से लेकर सिविल सोसायटी की अंतरात्मा भी जागी दिखती है. अगले लोकसभा चुनावों के कारण नेताओं का दिल भी फटा जा रहा है.

क्या स्थिति बदलेगी या फिर कुछ दिनों बाद फिर किसी नीडो को जान देनी पड़ेगी? यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि उत्तर पूर्व के लोगों के साथ लंबे समय से जारी नस्ली भेदभाव के लिए एक खास सवर्ण हिंदू राष्ट्रवादी-मर्दवादी-नस्लवादी मानसिकता जिम्मेदार है जिसकी जड़ें पुलिस-प्रशासन से लेकर मीडिया तक में फैली हुईं है. इसके शिकार सिर्फ उत्तर पूर्व के ही नहीं बल्कि सभी कमजोर वर्ग और अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम-सिख और आदिवासी आदि हैं.

यह इतनी आसानी से खत्म होनेवाला नहीं है. इससे लड़ने के लिए न सिर्फ इस मानसिकता को चुनौती और एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है बल्कि नस्लभेद के उन सभी दबे-छिपे रूपों और स्टीरियोटाइप्स को खुलकर नकारना और सार्वजनिक मंचों को ज्यादा से ज्यादा समावेशी बनाना होगा.
अपने न्यूज चैनलों को ही देख लीजिए, उनके कितने एंकर/रिपोर्टर उत्तर पूर्व के हैं? इन चैनलों पर उत्तर पूर्व की ख़बरों को कितनी जगह मिलती है? कितने चैनलों के उत्तर पूर्व में रिपोर्टर हैं? मनोरंजन चैनलों पर कितने धारावाहिकों के पात्र उत्तर पूर्व के हैं? उत्तर पूर्व को लेकर उपेक्षा, भेदभाव और स्टीरियोटाइप्स की यह सूची बहुत लंबी है.
क्या नीडो की मौत के बाद न्यूज मीडिया अपने अंदर भी झांकेगा? क्या इस ‘पब्लिक स्फीयर’ में भी हम कुछ बदलाव की उम्मीद करें?

('तहलका' के 28 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)   


शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2014

मीडिया आक्सीजन के बिना ‘आप’

मीडिया की अहर्निश प्रशंसा का नशा आप पार्टी के मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोलता रहा है

आम आदमी पार्टी (आप) और उसके नेता अरविंद केजरीवाल इन दिनों न्यूज मीडिया से खासे नाराज और खिन्न से दिख रहे हैं. उन्हें लगता है कि न्यूज चैनल और अखबार पूर्वाग्रह और एक एजेंडे के तहत उनकी सरकार की गैर जरूरी आलोचना कर रहे हैं और नकारात्मक खबरें दिखा रहे हैं. केजरीवाल के मुताबिक, पत्रकार तो ईमानदार हैं लेकिन मीडिया के मालिक इस या उस पार्टी से जुड़े हैं और पत्रकारों पर दबाव डालकर ‘आप’ के खिलाफ खबरें करवा रहे हैं.
दूसरी ओर, नस्लवाद, मोरल पुलिसिंग और विजिलैंटिज्म के आरोपों से घिरे दिल्ली सरकार में कानून मंत्री सोमनाथ भारती की मीडिया से नाराजगी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि टी.वी रिपोर्टरों के सवालों पर वे आपा खो बैठे और उल्टे रिपोर्टर पर सवाल दाग दिया कि सवाल पूछने के लिए (नरेन्द्र) मोदी ने कितने पैसे दिए हैं?
हालाँकि भारती ने बाद में माफ़ी मांग ली लेकिन आप पार्टी के दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं की न्यूज मीडिया से नाराजगी खत्म नहीं हुई है. असल में, वे चैनलों और अखबारों के लगातार तीखे होते सवालों और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. आप पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की बौखलाहट से ऐसा लगता है कि उनमें आलोचना सुनने की आदत नहीं है.

गोया वे भगवान हों जो गलतियाँ नहीं कर सकता और किसी भी तरह की आलोचना से परे है. आलोचना के हर सुर को वे संदेह और साजिश की तरह देख रहे हैं. वे अपनी गलतियों और कमजोरियों को देखने के लिए तैयार नहीं हैं. उल्टे गलतियाँ और कमियां बतानेवालों को निशाना बना रहे हैं.
 

लेकिन इसके लिए न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनल भी जिम्मेदार हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप की कामयाबी के बाद चैनलों और अखबारों में जिस तरह से दिन-रात राग आप क्रांति बज रहा था और उसमें सिर्फ खूबियां ही खूबियां नजर आ रही थीं, वह किसी भी नेता, पार्टी और उसके समर्थकों का दिमाग खराब कर सकती है.
यही हुआ. चैनलों और अखबारों की अहर्निश प्रशंसा का नशा आप पार्टी के कई मंत्रियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं के सिर चढ़कर बोल रहा है. कानून मंत्री सोमनाथ भारती हों या कवि-नेता कुमार विश्वास या फिर आप के अन्य नेता- उनके क्रियाकलापों, हाव-भाव और बयानों में अहंकार और आक्रामकता के अलावा आलोचनाओं के प्रति उपहास का रवैया साफ़ देखा जा सकता है.
लेकिन इससे न्यूज मीडिया का नहीं बल्कि आप पार्टी को नुकसान हो रहा है. केजरीवाल और उनके साथी अपने अंदर झांकने और अपनी गलतियों और कमियों को दूर करने के बजाय इसकी ओर इशारा करनेवाले न्यूज मीडिया को निशाना बनाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं. चैनलों और अखबारों से लड़कर उन्हें कुछ हासिल होनेवाला नहीं है.

आखिर केजरीवाल से बेहतर कौन जानता है कि न्यूज मीडिया की सकारात्मक कवरेज आप पार्टी की आक्सीजन है? ‘आप’ को याद रखना चाहिए कि उन्होंने खुद सार्वजनिक जीवन में नैतिक आचार-विचार के इतने ऊँचे मानदंड तय किये हैं कि उन मानदंडों पर सबसे पहले उनकी ही परीक्षा होगी. वे इससे बच नहीं सकते हैं बल्कि उनपर कुछ ज्यादा ही कड़ी निगाह रहेगी या रहनी चाहिए. आखिर लोगों को उनसे बहुत उम्मीदें हैं.

लेकिन ‘आप’ के प्रति न्यूज मीडिया के रवैये में अचानक आए बदलाव और तीखी होती आलोचनाओं के पीछे कोई एजेंडा या पूर्वाग्रह नहीं है? यह मानना भी थोड़ा मुश्किल है.
क्या मीडिया के रुख में इस बदलाव के पीछे खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति नहीं देने या निजी बिजली कंपनियों की आडिट करवाने जैसे फैसलों की भी कोई भूमिका है? क्या चैनलों/अखबारों पर मोदी को ज्यादा और सकारात्मक कवरेज देने का दबाव नहीं है? हाल में कुछ संपादक किस दबाव के कारण हटाए गए हैं? कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है.                 
('तहलका' के स्तम्भ 'तमाशा मेरे आगे' में प्रकाशित टिप्पणी)

सोमवार, दिसंबर 23, 2013

चैनलों का इतिहासबोध

चैनलों की स्मृति प्राइम टाइम तक सीमित हो गई लगती है 

“यह प्रतीत होता है कि समाचारपत्र एक साइकिल दुर्घटना और एक सभ्यता के ध्वंस में फर्क करने में अक्षम होते हैं.”
-    जार्ज बर्नार्ड शा   
बर्नार्ड शा का यह तंज चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों पर कुछ ज्यादा ही सटीक बैठता है. अपने न्यूज चैनलों की एक खास बात यह है कि वे काफी हद तक क्षणजीवी हैं यानी उनके लिए उनका इतिहास उसी पल/मिनट/घंटे/प्राइम टाइम तक सीमित होता है. वे उस घंटे/दिन और प्राइम टाइम से न आगे देख पाते हैं और न पीछे का इतिहास याद रख पाते हैं.

नतीजा यह कि चैनलों को लगता है कि हर पल-हर दिन नया इतिहास बन रहा है. गोया चैनल पर उस पल घट रहे कथित इतिहास से न पहले कुछ हुआ है और न आगे कुछ होगा. इस तरह चैनलों का इतिहासबोध प्राइम टाइम के साथ बंधा होता है.
 
हैरानी की बात नहीं है कि चैनल दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्ववाली आप पार्टी के प्रदर्शन पर बिछे जा रहे हैं. चैनलों की रिपोर्टिंग और चर्चाओं से ऐसा लगता है कि विधानसभा के चुनाव में जैसी सफलता आप को मिली है, वैसी न पहले किसी को मिली है और न आगे किसी को मिलेगी.

न भूतो, न भविष्यति! यह भी कि जैसे देश की राजनीति इसी पल में ठहर गई है, जहाँ से वह आगे नहीं बढ़ेगी. जैसे कि विधानसभा में दूसरे नंबर की पार्टी के बावजूद आप की जीत के साथ इतिहास का अंत हो गया हो. जैसे देश को राजनीतिक मोक्ष मिल गया हो.

मजे की बात यह है कि ये वही चैनल हैं जिनमें से कई मतगणना से पहले तक आप पार्टी की चुनावी सफलता की संभावनाओं को बहुत महत्व देने को तैयार नहीं थे या कुछ उसे पूरी तरह ख़ारिज कर रहे थे या फिर कुछ उसका मजाक भी उड़ा रहे थे.
लेकिन नतीजे आने के साथ सभी के सुर बदल गए. हैरान-परेशान चैनलों के लिए देखते-देखते आप का प्रदर्शन न सिर्फ ऐतिहासिक बल्कि चमत्कारिक हो गया. उत्साही एंकर बहकने लगे. कई का इतिहासबोध जवाब देने लगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आप ने उम्मीदों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली चुनावी प्रदर्शन किया है, कई मायनों में यह प्रदर्शन ऐतिहासिक भी है लेकिन वह न तो इतिहास का अंत है और न ही इतिहास की शुरुआत.       
असल में, पत्रकारिता के मूल्यों में ‘संतुलन’ का चाहे जितना महत्व हो लेकिन ऐसा लगता है कि न्यूज चैनलों के शब्दकोष से ‘संतुलन’ शब्द को धकिया कर बाहर कर दिया गया हो. हालाँकि यह नई प्रवृत्ति नहीं है लेकिन इसके साथ ही चैनलों से अनुपात बोध भी गधे के सिर से सिंघ की गायब हो गया है.

सच पूछिए तो संतुलन और अनुपातबोध के बीच सीधा संबंध है. अनुपातबोध नहीं होगा तो संतुलन बनाए रखना मुश्किल है और संतुलन खो देने पर पहला शिकार अनुपातबोध होता है.

लेकिन अनुपातबोध बनाए रखने के लिए इतिहासबोध जरूरी है. अगर आपमें इतिहासबोध नहीं है तो आपके लिए छोटी-बड़ी घटनाओं के बीच अनुपातबोध के साथ संतुलन बनाए रखना संभव नहीं है. इतिहासबोध न हो तो वही असंतुलन दिखाई देगा जो दिल्ली में आप पार्टी की सफलता की प्रस्तुति में दिखाई पड़ रहा है.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर चैनलों के लिए आप की चुनावी सफलता पहेली है जिसे एक ऐतिहासिक-राजनीतिक सन्दर्भों में देखने और समझने में नाकाम रहने की भरपाई वे उसे चमत्कार की तरह पेश करके और उसपर लहालोट होकर कर रहे हैं.
कहते हैं कि लोगों की स्मृति छोटी होती है लेकिन चैनलों की स्मृति तो प्राइम टाइम तक ही सीमित हो गई लगती है. वे प्राइम टाइम में ऐसे बात करते हैं जैसे कल सुबह नहीं होगी, फिर चुनाव नहीं होंगे, फिर कोई और जीतेगा-हारेगा नहीं और जैसे राजनीति और इतिहास उसी पल में ठहर गए हों. यह और बात है कि कल भी राजनीति और इतिहास उन्हें इसी तरह हैरान करते रहेंगे.

('तहलका' के 30 दिसंबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)         

गुरुवार, दिसंबर 12, 2013

तेजपाल से आगे

कार्पोरेट न्यूज मीडिया के अंदर का मवाद बाहर आने दीजिए 
 
इस बार यह स्तंभ बहुत तकलीफ और मुश्किल से लिख रहा हूँ. कारण, ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल खुद अपनी ही एक महिला सहकर्मी पत्रकार के साथ यौन हिंसा और बलात्कार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं और न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में हैं.
खुद ‘तहलका’ के सम्पादकीय नेतृत्व और प्रबंधन पर इस मामले को दबाने, रफा-दफा करने और तथ्यों के साथ तोड-मरोड करने के अलावा अपनी पीड़ित पत्रकार के साथ खड़े होने के बजाय तरुण तेजपाल का बचाव करने के आरोप लग रहे हैं.
यही नहीं, तेजपाल अपने बयान बदल रहे हैं, पीड़ित पत्रकार को झूठा ठहराने और उसके चरित्र पर ऊँगली उठाने में लग गए हैं. वे ‘तहलका’ की तेजतर्रार पत्रकारिता की आड़ लेकर खुद को षड्यंत्र का शिकार साबित करने की भी कोशिश कर रहे हैं.  
इस बीच, ‘तहलका’ के कुछ पत्रकारों ने भी इस्तीफा दे दिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि पीड़ित पत्रकार की शिकायत न सिर्फ बहुत गंभीर है बल्कि गोवा पुलिस के मामला दर्ज कर लेने के बाद तेजपाल को कानून का सामना करना ही पड़ेगा. वे इससे बच नहीं सकते हैं और न ही ‘तहलका’ सहित किसी को भी उन्हें बचाने की कोशिश करनी चाहिए. कानून को बिना किसी दबाव के काम करने देना चाहिए.

इसके लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया इस मामले की नियमित, तथ्यपूर्ण और संवेदनशील रिपोर्टिंग करे. यही नहीं, यह मामला समूचे न्यूज मीडिया के लिए भी एक टेस्ट केस है क्योंकि जो न्यूज मीडिया (‘तहलका’ समेत) यौन हिंसा खासकर ताकतवर और रसूखदार लोगों की ओर से किये गए यौन हिंसा के मामलों को जोरशोर से उठाता रहा है, उसे तेजपाल के मामले में भी उसी सक्रियता और साफगोई से रिपोर्टिंग करनी चाहिए.

निश्चय ही, इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए, यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच न पाए. लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार के चटखारे भरे विवरण और चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के लोभ से बचा जाए.
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय का ही हो रहा है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीडन और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में सब कुछ ठीक-ठाक है और एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल हैं. हालाँकि सच यह नहीं है और न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में ऐसे कई तेजपाल हैं.

सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडितों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है? क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी आडिट की?

सच यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र, सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीडन जांच और कार्रवाई समिति नहीं है या सिर्फ कागजों पर है.
क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहाँ यौन उत्पीडन के मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इसपर सबकी नजर रहनी चाहिए.
दूसरे, तेजपाल के बहाने खुद ‘तहलका’ पर भी हमले शुरू हो गए हैं. उसकी फंडिंग से लेकर राजनीतिक संपर्कों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या तेजपाल के अपराध की सजा ‘तहलका’ और उसमें काम करनेवाले कई जुझारू और निर्भीक पत्रकारों को दी जा सकती है?

यह भी कि क्या वे सभी अखबारों और चैनलों की फंडिंग और राजनीतिक संपर्कों की ऐसी ही
छानबीन करेंगे? निश्चय ही, ऐसी छानबीन का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह चुनिंदा नहीं होनी चाहिए.

एक मायने में यह मौका भी है जब कारपोरेट न्यूज मीडिया के अंदर बढ़ती हुई सडन सामने आ रही है. उसका घाव फूट पड़ा है. जरूरत उसे और दबाकर उसके अंदर के मवाद को बाहर निकालने की है. इसके बिना उसके स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
('तहलका' के 15 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)