इस बार यह स्तंभ बहुत तकलीफ और मुश्किल से लिख रहा हूँ. कारण, ‘तहलका’
के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल खुद अपनी ही एक महिला सहकर्मी पत्रकार के साथ यौन
हिंसा और बलात्कार के गंभीर आरोपों से घिरे हैं और न्यूज मीडिया की सुर्ख़ियों में
हैं.
खुद ‘तहलका’ के सम्पादकीय नेतृत्व और प्रबंधन पर इस मामले को दबाने, रफा-दफा
करने और तथ्यों के साथ तोड-मरोड करने के अलावा अपनी पीड़ित पत्रकार के साथ खड़े होने
के बजाय तरुण तेजपाल का बचाव करने के आरोप लग रहे हैं.
यही नहीं, तेजपाल अपने बयान
बदल रहे हैं, पीड़ित पत्रकार को झूठा ठहराने और उसके चरित्र पर ऊँगली उठाने में लग
गए हैं. वे ‘तहलका’ की तेजतर्रार पत्रकारिता की आड़ लेकर खुद को षड्यंत्र का शिकार
साबित करने की भी कोशिश कर रहे हैं.
इस बीच, ‘तहलका’ के कुछ पत्रकारों ने भी इस्तीफा दे दिया है. इसमें
कोई दो राय नहीं है कि पीड़ित पत्रकार की शिकायत न सिर्फ बहुत गंभीर है बल्कि गोवा
पुलिस के मामला दर्ज कर लेने के बाद तेजपाल को कानून का सामना करना ही पड़ेगा. वे
इससे बच नहीं सकते हैं और न ही ‘तहलका’ सहित किसी को भी उन्हें बचाने की कोशिश
करनी चाहिए. कानून को बिना किसी दबाव के काम करने देना चाहिए. इसके लिए जरूरी है कि न्यूज मीडिया इस मामले की नियमित, तथ्यपूर्ण और संवेदनशील रिपोर्टिंग करे. यही नहीं, यह मामला समूचे न्यूज मीडिया के लिए भी एक टेस्ट केस है क्योंकि जो न्यूज मीडिया (‘तहलका’ समेत) यौन हिंसा खासकर ताकतवर और रसूखदार लोगों की ओर से किये गए यौन हिंसा के मामलों को जोरशोर से उठाता रहा है, उसे तेजपाल के मामले में भी उसी सक्रियता और साफगोई से रिपोर्टिंग करनी चाहिए.
निश्चय ही, इस रिपोर्टिंग का उद्देश्य यह होना चाहिए कि सच सामने आए,
यौन हिंसा की पीड़िता को न्याय मिले और अपराधी चाहे जितना बड़ा और रसूखदार हो, वह बच
न पाए. लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि यौन हिंसा के मामलों की रिपोर्टिंग
में पूरी संवेदनशीलता बरती जाए. जैसे पीड़िता की पहचान गोपनीय रखी जाए और बलात्कार
के चटखारे भरे विवरण और चित्रीकरण से हर हाल में बचा जाए. उसे सनसनीखेज बनाने के
लोभ से बचा जाए.
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया में ठीक इसका उल्टा हो
रहा है. इस मामले को जिस तरह से सनसनीखेज तरीके से पेश किया जा रहा है और ‘भीड़ का
न्याय’ (लिंच मॉब) मानसिकता को हवा दी जा रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान न्याय
का ही हो रहा है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया की रिपोर्टिंग और चैनलों की प्राइम टाइम बहसों
से ऐसा लग रहा है कि यौन उत्पीडन और हिंसा के मामले में खुद न्यूज मीडिया के
अन्तःपुर में सब कुछ ठीक-ठाक है और एकमात्र ‘सड़ी मछली’ तेजपाल हैं. हालाँकि सच यह
नहीं है और न्यूज मीडिया के अन्तःपुर में ऐसे कई तेजपाल हैं. सच पूछिए तो तेजपाल प्रकरण इस मामले भी एक टेस्ट केस है कि कितने अखबारों और चैनलों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीडन और हिंसा के मामलों से तुरंत और सक्षम तरीके से निपटने और पीडितों को संरक्षण और न्याय दिलाने की सांस्थानिक व्यवस्था है? क्या न्यूज मीडिया ने इसकी कभी आडिट की?
सच यह है कि इस मामले में पहले सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्देशों और
बाद में कानून बनने के बावजूद ज्यादातर अखबारों और चैनलों में कोई स्वतंत्र,
सक्रिय और प्रभावी यौन उत्पीडन जांच और कार्रवाई समिति नहीं है या सिर्फ कागजों पर
है.
क्या तेजपाल प्रकरण से सबक लेते हुए न्यूज मीडिया अपने यहाँ यौन उत्पीडन के
मामलों से ज्यादा तत्परता, संवेदनशीलता और सख्ती से निपटना शुरू करेगा और अपने
संस्थानों में प्रभावी और विश्वसनीय व्यवस्था बनाएगा? इसपर सबकी नजर रहनी चाहिए.
दूसरे, तेजपाल के बहाने खुद ‘तहलका’ पर भी हमले शुरू हो गए हैं. उसकी
फंडिंग से लेकर राजनीतिक संपर्कों पर सवाल उठाये जा रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि क्या
तेजपाल के अपराध की सजा ‘तहलका’ और उसमें काम करनेवाले कई जुझारू और निर्भीक
पत्रकारों को दी जा सकती है? यह भी कि क्या वे सभी अखबारों और चैनलों की फंडिंग और राजनीतिक संपर्कों की ऐसी ही छानबीन करेंगे? निश्चय ही, ऐसी छानबीन का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन यह चुनिंदा नहीं होनी चाहिए.
एक मायने में यह मौका भी है जब कारपोरेट न्यूज मीडिया के अंदर बढ़ती
हुई सडन सामने आ रही है. उसका घाव फूट पड़ा है. जरूरत उसे और दबाकर उसके अंदर के
मवाद को बाहर निकालने की है. इसके बिना उसके स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं की जा
सकती है.
('तहलका' के 15 दिसंबर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें