रविवार, मार्च 31, 2013

राजकोषीय घाटे का हव्वा

राजकोषीय घाटे में कटौती के लिए सरकार इतनी बेचैन क्यों है? 

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
वित्त मंत्री का तर्क है कि राजकोषीय घाटा बढ़ने से सरकार पर कर्ज बढ़ता है. इसके ब्याज में कीमती संसाधन जाया होते हैं. दूसरे, इसकी भरपाई के लिए सरकार बाजार में कर्ज लेने उतरती है और उसके कारण न सिर्फ ब्याज दरें बढ़ जाती हैं बल्कि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए सस्ती दरों पर कर्ज नहीं मिल पाता है.
तीसरे, इससे अनावश्यक उपभोग बढ़ता है और मुद्रास्फीति बढ़ने लगती है. चौथे, सरकार अपनी अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के कारण पैसे का दुरुपयोग करती है. लेकिन ये सभी तर्क बहुत कमजोर और एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए बेमानी हैं.
सच यह है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की मांग आवारा विदेशी पूंजी की ओर से आती रही है क्योंकि उन्हें मुद्रास्फीति बढ़ने से अपने निवेश की कीमत घटने का अंदेशा सताता रहता है.
तथ्य यह है कि दुनिया भर में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय घाटा आम बात रही है. विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने भी अपने शुरूआती दौर में राजकोषीय घाटे के जरिये ही विकास सम्बन्धी जरूरतें पूरी कीं और विकास की बुनियाद रखी. दूसरे, राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए लिया गया कर्ज घरेलू और दीर्घकालिक है तो उसमें चिंता की कोई बात नहीं है.

तीसरे, राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर किये जानेवाले सार्वजनिक निवेश से निजी निवेश बढ़ता है क्योंकि उससे मांग बढ़ती है. चौथे, राजकोषीय घाटे के कारण मुद्रास्फीति आमतौर पर उस समय बढ़ती है जब मांग के अनुपात में आपूर्ति नहीं होती है.

इसलिए इसके लिए सिर्फ राजकोषीय घाटे को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है. लेकिन जैसे हर चीज की अति बुरी होती है, वैसे बहुत अधिक राजकोषीय घाटा भी अच्छा नहीं है.
सवाल यह है कि क्या भारत में राजकोषीय घाटा खतरे की सीमा पार कर गया है? तथ्य यह है कि इस समय अधिकांश देशों में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी ५ से ७ फीसदी के आसपास है. इसलिए भारत में राजकोषीय घाटे का हौव्वा खड़ा करना तथ्यों के विपरीत है.
दूसरे, भारत में राजकोषीय घाटे का बड़ा हिस्सा आंतरिक संसाधनों से पूरा किया जाता है. ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, केन्द्र सरकार पर कुल कर्ज ४४६८७१४ करोड़ रूपये है जो जी.डी.पी का ५० फीसदी के आसपास है. इसकी तुलना में दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों में कर्ज-जी.डी.पी अनुपात १०० से लेकर १५० फीसदी तक पहुँच चुका है. इस लिहाज से भारत में स्थिति इतनी गंभीर नहीं है जितना कि हौव्वा खड़ा किया जाता है.
तीसरे, इस कर्ज का ७६.३ प्रतिशत सार्वजनिक कर्ज है जिसमें ९०.९ फीसदी आंतरिक कर्ज है. घरेलू कर्ज होने के कारण भारत वैश्विक पूंजी बाजार की उथल-पुथल से काफी हद तक संरक्षित है. यही नहीं, कुल कर्ज में सिर्फ १.८ फीसदी कर्ज ही फ्लोटिंग ब्याज दर पर लिया गया है, बाकी कर्ज फिक्स्ड ब्याज दर पर है.

साफ़ है कि राजकोषीय घाटे का हौव्वा यू.पी.ए सरकार अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से बचने, आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने और बड़ी विदेशी पूंजी के मुनाफे की गारंटी के लिए खड़ा कर रही है.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यू.पी.ए सरकार को राजकोषीय घाटे की इतनी ही चिंता है तो वह खर्चों में कटौती और आमलोगों पर बोझ डालने के बजाय आय बढ़ाने का विकल्प क्यों नहीं आजमाती है? खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि भारत दुनिया के चुनिन्दा देशों में है जहाँ टैक्स-जी.डी.पी अनुपात कम है.
खुद वित्त मंत्री ने स्वीकार किया है कि भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात बढ़ाने की गुंजाइश है. तथ्य यह है कि भारत में वर्ष ११-१२ में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात ९.१ फीसदी था जो वर्ष २००७-०८ के टैक्स-जी.डी.पी अनुपात ११.९ फीसदी २.८ फीसदी कम है. दूसरी ओर, बहुतेरे विकासशील देशों में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात १५-२० फीसदी के बीच है.
इस तरह अगर भारत अगर २००७-०८ के स्तर को ही हासिल कर ले तो कोई तीन लाख करोड़ रूपये सरकारी खजाने में आ सकते हैं. अगर वह दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के स्तर तक पहुँच जाए तो एक झटके में राजकोषीय घाटा पूरी तरह से खत्म हो जाएगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार सरकार की आय बढ़ाने के बजाय अमीरों, आवारा विदेशी पूंजी और बड़े देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को टैक्स में छूट/रियायतों के जरिये हर साल ५.५० लाख करोड़ रूपये से अधिक की सब्सिडी दे रही है.

यही नहीं, ताजा बजट से पहले अमीरों पर टैक्स की बहस चलवाने के बाद चिदंबरम ने एक करोड़ रूपये से अधिक की आयवाले लोगों के टैक्स पर १० फीसदी का सरचार्ज लगाने का प्रस्ताव यह कहते हुए किया है कि यह सिर्फ एक साल के लिए हैं.

हालाँकि यह सरचार्ज उनके टैक्स दर को सिर्फ तीन प्रतिशत बढाता है जबकि इसमें ५ से १० फीसदी की बढ़ोत्तरी होनी चाहिए थी. दूसरे, क्या यह बढ़ोत्तरी ५० या २० लाख सालाना से अधिक आयवाले करदाताओं पर नहीं होनी चाहिए थी?

उल्टे वित्त मंत्री ने कार्पोरेट्स को निवेश के लिए १५ प्रतिशत का अतिरिक्त प्रोत्साहन देकर सरकारी खजाने को २५ हजार करोड़ रूपये संभावित आय गँवा दी. मजे की बात यह है कि कारपोरेट क्षेत्र पर अधिकतम ३० फीसदी की टैक्स दर के बावजूद तमाम छूटों/रियायतों के कारण कारपोरेट टैक्स की वास्तविक प्रभावी दर मात्र २२ फीसदी रह जाती है.
लेकिन गरीबों और आमलोगों पर बोझ डालने में जुटे वित्त मंत्री अमीरों और कार्पोरेट्स पर मामूली बोझ डालने में भी न जाने क्यों घबराते हैं? यही नहीं, चिदंबरम ने शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-बिक्री पर लगनेवाले एस.टी.टी की दर में भी कटौती कर दी. उन्होंने उत्तराधिकार कर लगाने से भी एक बार फिर परहेज किया.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस बजट से यू.पी.ए सरकार की प्राथमिकताएं और पक्षधरता और उजागर हो गई है. इस सरकार की प्राथमिकता का अंदाज़ा इसी से चल जाता है कि खाद्य सुरक्षा के लिए सिर्फ १० हजार करोड़ रूपये का अतिरिक्त प्रावधान किया गया है लेकिन रक्षा बजट में सिर्फ हथियारों की खरीद पर ८६७४० करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

यही नहीं, कुल रक्षा बजट को चालू वित्तीय वर्ष के १७८५०३ करोड़ रूपये से बढ़ाकर २०३७६२ करोड़ रूपये कर दिया गया है. अफ़सोस यह कि यह एक गरीब देश का रक्षा बजट है. अगर इस साल के बजट में स्वास्थ्य, कृषि, महिला-बाल कल्याण, आदिवासी और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालयों के योजना बजट को जोड़ लिया जाए तो वह ८७९३४ करोड़ रूपये होता है जो हथियारों की खरीद के बजट के लगभग बराबर है.

इसी तरह अगर शिक्षा और स्वास्थ्य के योजना बजट को जोड़ा जाए तो वह ९८६०२ करोड़ रूपये होता है जो हथियारों की खरीदद के बजट से सिर्फ १२ हजार करोड़ रूपये ज्यादा है. इससे यू.पी.ए सरकार की राजनीति की प्राथमिकताओं का अनुमान लगाया जा सकता है. हथियारों की खरीद के इतने विशाल बजट का राज क्या है?
क्या यह भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडे का जवाब और खुद को बड़ा राष्ट्रवादी साबित करने के लिए है या हथियारों की खरीद में मिलनेवाले भारी कमीशन की लालच में है? कारण चाहे जो हो लेकिन इस सवाल का क्या जवाब है जब देश आर्थिक संकट में फंसा है और राजकोषीय घाटे को कम करने की चिंता है तो हथियारों की खरीद पर इतना खर्च करने का क्या औचित्य है?
इस तरह वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार फिर बजट में गरीबों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और युवाओं की दुहाई देते हुए आम आदमी पर बोझ बढाने और अमीरों, कार्पोरेट्स और आवारा विदेशी पूंजी को तोहफे देने की नव उदारवादी अर्थनीति को आगे बढ़ाया है.

इससे न तो महंगाई पर अंकुश लगनेवाला है, न अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधरनेवाली है और न ही युवाओं को रोजगार मिलनेवाला है. यह आर्थिक संकट को और बढ़ाएगा और फिर उसका सारा बोझ आम आदमी पर डाला जाएगा. साफ़ है कि आम आदमी की सरकार किसके लिए काम कर रही है?

('समकालीन जनमत' के मार्च'१३ अंक में प्रकाशित टिप्पणी की अंतिम क़िस्त। पहली क़िस्त ४ मार्च को छप चुकी है)  

शनिवार, मार्च 23, 2013

चैनल बन रहे हैं दक्षिण एशिया की शांति-सुरक्षा के लिए खतरा

टी आर पी के लिए चैनल अंध राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काने में जुटे हुए हैं

क्या न्यूज चैनल, सचमुच, लोकतंत्र और इस उपमहाद्वीप में शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बनते जा रहे हैं? यह सवाल पिछले दिनों जब भारत-पाक सीमा पर दो भारतीय सैनिकों के सिर काटे जाने की बर्बर घटना के बाद चैनलों पर पाकिस्तान के खिलाफ युद्धोन्माद चरम पर पहुँच गया था, तब प्रतिष्ठित जर्नल ‘इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली’ (ई.पी.डब्ल्यू) ने अपने संपादकीय में उठाया था.
यह सवाल इस सन्दर्भ में उठाया गया था कि चैनलों की पाकिस्तान के खिलाफ उत्तेजक, दुराग्रह की हद तक आक्रामक, अतार्किक, भावुक और अंध-राष्ट्रवादी एजेंडे से प्रेरित रिपोर्टिंग और प्राइम टाइम बहसों/चर्चाओं के कारण देश में एक ऐसा विषाक्त जनमत तैयार हो गया है कि उसके साथ तनावपूर्ण संबंधों को सामान्य बनाने की गुंजाइश कम से कम होती जा रही है.
इसकी ताजा मिसाल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ की अजमेर की निजी यात्रा की न्यूज चैनलों पर कवरेज के दौरान देखने को मिली. अशरफ परिवार सहित अजमेर-शरीफ की जियारत पर आए थे.

हालाँकि जयपुर हवाई अड्डे पर पाक प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए कोई केन्द्रीय मंत्री या राज्य के मुख्यमंत्री मौजूद नहीं थे लेकिन प्रोटोकॉल के तहत भारतीय विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने जयपुर के एक होटल में उनका स्वागत किया और उन्हें दोपहर भोज दिया.

लेकिन अधिकांश न्यूज चैनलों को यह पसंद नहीं आया. चैनलों की शिकायत यह थी कि पाकिस्तान ने अभी तक दो भारतीय सैनिकों के सिर नहीं लौटाए हैं. ऐसे में, पाक प्रधानमंत्री का स्वागत कैसे किया जा सकता है?          

यही नहीं, टी.आर.पी के पैमाने पर हिंदी के टाप तीन चैनलों में से एक की सवालिया सुर्खी थी कि राजा अशरफ का होटल में हाथी-घोड़ों से स्वागत किया गया. इसी तरह की सुर्खियाँ और भी चैनलों पर थी. आखिर मुकाबले में कोई पीछे कैसे रह सकता है?
नतीजा, चैनलों ने पाक प्रधानमंत्री की इस निजी यात्रा के खिलाफ हल्ला सा बोल दिया. खबरों में बार-बार दो सैनिकों के सिर काटे जाने से लेकर मुंबई में २६/११ के आतंकवादी हमले और ताजा हैदराबाद ब्लास्ट को उछाला जाता रहा. दूसरी ओर, चैनलों के चर्चाकार पाकिस्तान से दोस्ती की बात तो दूर उससे किसी भी तरह के संबंध के खिलाफ तर्क पेश करते रहे.
मजे की बात यह है कि एक ओर चैनल पाकिस्तान निंदा में जुटे थे और पाक प्रधानमंत्री के सीमित स्वागत से भी नाराज थे, वहीँ दूसरी ओर उनकी यात्रा की व्यापक कवरेज के लिए सुबह से ही दिल्ली और जयपुर से लेकर अजमेर तक अपने वरिष्ठ संवाददाताओं को उतार रखा था और स्टूडियो में विदेश नीति और रक्षा विशेषज्ञों को बैठकर यात्रा के अर्थ खोजने में जुटे थे.

सवाल यह है कि अगर वे इस यात्रा से सहमत नहीं थे तो उसे इतनी कवरेज देने की क्या जरूरत थी? उन्होंने इस यात्रा का बहिष्कार क्यों नहीं कर दिया? जाहिर है कि वे खुद के बनाए पाकिस्तान विरोधी माहौल को भुनाने में पीछे नहीं रहना चाहते थे.

असल में, चैनलों के लिए यह देशहित और राष्ट्रवाद से ज्यादा त्वरित टी.आर.पी का मामला है. उन्हें मालूम है कि देश में पाकिस्तान विरोधी माहौल बना हुआ है जिसमें पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक रिपोर्टिंग और बहसों से अच्छी टी.आर.पी मिल सकती है.
यह सही है कि पाकिस्तान में सब कुछ अच्छा नहीं चल रहा है. यह भी सही है कि वहां ऐसे तत्वों की संख्या अच्छी-खासी है जो भारत विरोधी भावनाएं भड़काकर अपनी रोटी सेंकते और राजनीति चलाते हैं. लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सही है कि वहां आम जनता और सिविल सोसायटी का एक बड़ा हिस्सा भारत से दोस्ती और अमन-चैन के हक में है.
हालाँकि यही बातें कमोबेश भारत पर भी लागू होती हैं लेकिन चिंता और अफ़सोस की बात यह है कि भाजपा-शिव सेना जैसे दलों और हिंदी-अंग्रेजी के कई बड़े चैनलों ने पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान के खिलाफ अहर्निश अभियान से उसकी इकहरी छवि बना दी है.

इससे देश के अंदर ऐसा विषाक्त जनमत बन गया है जिसमें पाकिस्तान के साथ तनाव घटाने या संबंधों को सुधारने के लिए कोई नई कूटनीतिक पहल करने की गुंजाइश लगातार सिकुड़ती जा रही है.

सवाल यह है कि इससे किसे फायदा हो रहा है? क्या यह स्थिति इस उप-महाद्वीप की शांति-सुरक्षा को खतरे में नहीं डाल रही है?
सवाल यह भी है कि मौजूदा माहौल में आखिर दो परमाणुशक्ति संपन्न देश कब तक इस तनाव के हाथ से निकलने के खतरे को टाल सकते हैं? अफ़सोस चैनल टी.आर.पी से आगे देखने को तैयार नहीं हैं.            
('तहलका' के ३१ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

शुक्रवार, मार्च 22, 2013

आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्रेम के खतरे

विदेशी पूंजी के आगे बेबस सरकार 'नीतिगत लकवे' का सबसे बड़ा उदाहरण है  

भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति निर्माताओं का विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी से प्रेम किसी से छुपा नहीं है. लेकिन नई बात यह है कि वे इस एकतरफा प्रेम में अंधे से होते जा रहे हैं. विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को लुभाने और खुश करने के लिए वे नई-नई रियायतें और छूट दे रहे हैं.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेशकों को भारत से कोई विशेष प्यार नहीं है और वे सिर्फ अपना फायदा देखकर भारतीय बाजार में आते हैं. उनके लिए यह प्यार तब तक है, जब तक फायदे का सौदा है. लेकिन क्या यही बात भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी कही जा सकती है?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए सबसे ताजे उदाहरण पर गौर कीजिए. वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अगले वित्तीय वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त विधेयक में एक मामूली सा संशोधन का प्रस्ताव किया कि मारीशस जैसे देशों के जरिये भारतीय बाजारों में निवेश करनेवाले विदेशी निवेशकों और विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.एफ.आई) के लिए दोहरे कराधान से बचने के वास्ते टैक्स निवास सर्टिफिकेट देना ‘अनिवार्य होगा लेकिन यह टैक्स लाभ लेने के लिए पर्याप्त नहीं होगा.’

हालाँकि इस संशोधन में कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन इसका ऐसा असर हुआ कि बजट पेश होने से पहले और भाषण के दौरान चढ़ रहा शेयर बाजार शाम होते-होते ३५० अंक गिर गया.

ऐसी चर्चाएं चल पड़ी कि विदेशी संस्थागत निवेशकों में घबराहट है कि इस नए संशोधन का फायदा उठाकर टैक्स अधिकारी उन्हें परेशान कर सकते हैं. आशंकाएं जाहिर की जाने लगीं कि अगर जल्दी स्थिति स्पष्ट नहीं की गई तो शेयर बाजार में कत्लेआम मच सकता है और विदेशी पूंजी शेयर बाजार और देश छोड़कर निकलने लगेगी. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
इन चर्चाओं का ऐसा दबाव बना कि देर रात वित्त मंत्रालय की ओर से एक स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा कि ये आशंकाएं निराधार हैं और टैक्स निवास सर्टिफिकेट देनेवाले निवेशकों और एफ.आई.आई को पहले की तरह टैक्स छूट मिलती रहेगी.
यही नहीं, अगले दिन खुद वित्त मंत्री विदेशी निवेशकों की मिजाजपुर्सी में उतर आए. उन्होंने न सिर्फ यथा-स्थिति बहाल रखने का भरोसा दिया बल्कि वित्त विधेयक से इस संशोधन को हटाने का भी संकेत दिया.

इसका असर भी हुआ. अगले दिन शेयर बाजार फिर चढ़ गया. लेकिन यह कोई पहला मामला नहीं है जब विदेशी निवेशकों खासकर आवारा पूंजी ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नीति नियंताओं और मैनेजरों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया हो. बहुत ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है.

आवारा पूंजी और बड़े कार्पोरेट्स ने पिछले साल के बजट में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की ओर से लाये गए जनरल एंटी अवायडेंस नियमों (गार) का भी इसी तरह विरोध किया था.

उल्लेखनीय है कि गार का उद्देश्य टैक्स बचाने के मकसद से टैक्स व्यवस्था के छिद्रों का लाभ लेने पर रोक लगाना था. गार जैसे नियमों/कानूनों की घोषणा हाल के वर्षों में कई देशों खासकर विकसित पश्चिमी देशों ने की है लेकिन भारत में उसका ऐसे विरोध किया गया, जैसे सरकार ने विदेशी निवेशकों, बड़े कार्पोरेट्स और विदेशी कंपनियों के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ने का एलान कर दिया हो.
गार के एलान के बाद सिर्फ कुछ ही महीनों के अंदर एफ.आई.आई यानी आवारा पूंजी ने अरबों डालर भारत से निकल लिए. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने गार के विरोध को देखते हुए उसे एक साल के लिए टालने की घोषणा तुरंत कर दी लेकिन अकेले पार्टिसिपेटरी नोट (पी-नोट) के जरिये शेयर बाजार में लगा कोई २० अरब डालर भारत से बाहर निकल गया.
नतीजा यह हुआ कि जब पिछले साल पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्रालय का कार्यकाल संभाला तो उन्होंने गार से पीछा छुड़ाने के लिए अर्थशास्त्री पार्थसारथी शोम की अध्यक्षता में गार की समीक्षा के लिए समिति गठित कर दी.

यही नहीं, वित्त मंत्रालय शोम समिति की सिफारिश पर इस साल बजट से ठीक महीने भर पहले आनन-फानन में गार पर अमल को अप्रैल’२०१६ तक के लिए टालने की घोषणा कर दी. इस तरह विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए गार को दफ़न कर दिया गया. यही हाल वोडाफोन मामले में पिछली तारीख से टैक्स लगाने के फैसले का भी हुआ.

असल में, बड़ी विदेशी पूंजी खासकर पोर्टफोलियो निवेश अपनी शर्तों पर भारतीय बाजारों में निवेश करना चाहते हैं. जाहिर है कि वे न सिर्फ निवेश के लिए अनुकूल रियायतें/छूट मांगते हैं बल्कि वे अपने मुनाफे पर कोई टैक्स भी नहीं देना चाहते हैं. इसके लिए वे भारत और मारीशस, यू.ए.ई और सिंगापुर जैसे देशों के बीच हुए दोहरे कराधान से बचने के समझौते का इस्तेमाल करते हैं.
इस प्रावधान के तहत इन देशों में रजिस्टर्ड किसी कंपनी को भारत में निवेश से होनेवाली आय पर टैक्स नहीं देना पड़ता है क्योंकि वे उन देशों में टैक्स चुकाती हैं. लेकिन यह तथ्य है कि तमाम विदेशी कम्पनियाँ और एफ.आई.आई इन देशों को सिर्फ पोस्ट-आफिस की तरह इस्तेमाल करते हैं जहाँ उन्हें बहुत मामूली टैक्स देना पड़ता है.
एक मोटे अनुमान के मुताबिक, भारत में आनेवाले कुल विदेशी निवेश का लगभग ४० फीसदी अकेले मारीशस के रास्ते आता है. यही नहीं, एफ.आई.आई को शेयर बाजार में पार्टिसिपेटरी नोट्स के जरिये भी निवेश की इजाजत मिली रही है जिसके वास्तविक निवेशक की पहचान नहीं की जा सकती.

माना जाता है कि पी-नोट्स का इस्तेमाल कालेधन से लेकर आपराधिक पैसे को वापस लाने और बाजार में लगाकर मुनाफा कमाने के लिए किया जाता है. इसपर कई बार रिजर्व बैंक और सेबी तक आपत्ति जताई है. इसके बावजूद हालत यह थी कि पिछले साल जून तक शेयर बाजार में लगी कुल विदेशी पूंजी का लगभग ५० फीसदी धन पी-नोट्स के जरिये ही आया था.

जाहिर है कि यह भारत के लिए टैक्स राजस्व का नुकसान है. यही नहीं, इससे शेयर बाजार की विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी पर निर्भरता बहुत ज्यादा बढ़ गई है. आज हालत यह हो गई है कि शेयर बाजार पर मुट्ठी भर एफ.आई.आई का कब्ज़ा हो गया है और वे अपनी मनमर्जी से बाजार को उठाते-गिराते रहते हैं.
इसके कारण किसी वित्त मंत्री में उनकी मर्जी के खिलाफ कोई फैसला करने की हिम्मत नहीं रह गई है क्योंकि अर्थव्यवस्था की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है. मारीशस की टैक्स निवास सर्टिफिकेट का मामला और उसपर चिदंबरम की घबराहट और बेचैनी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आवारा विदेशी पूंजी के साथ प्यार कितनी खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है.                         
(साप्ताहिक पत्रिका 'शुक्रवार' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

बुधवार, मार्च 20, 2013

जस्टिस काटजू को गुस्सा क्यों आता है?

मर्ज का नहीं, लक्षण के इलाज का प्रस्ताव कर रहे हैं जस्टिस काटजू 
पहली क़िस्त

न्यूज मीडिया में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई विकृतियाँ दिखाई दी हैं. न्यूज मीडिया के भ्रष्ट गतिविधियों में शामिल होने से लेकर उसके गंभीर नैतिक विचलनों और गुणवत्ता में आई गिरावट को लेकर लंबे समय से चिंताएं जाहिर की जा रही हैं. लेकिन हाल के वर्षों में न्यूज मीडिया विशेषकर न्यूज चैनलों के कंटेंट और उसकी प्रस्तुति को लेकर आलोचना और तेज और तीखी हुई है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि न्यूज मीडिया की साख में भी गिरावट आई है, उसपर सवाल उठने लगे हैं और उसे विनियमित (रेगुलेट) करने की मांग ने भी जोर पकड़ा है. यह मांग करनेवालों में प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू सबसे मुखर रहे हैं.   
लेकिन अब जस्टिस मार्कंडेय काटजू चाहते हैं कि पत्रकारों के लिए डाक्टरों, वकीलों और ऐसे ही दूसरे पेशों की तरह ही क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की जाए. उन्हें लगता है कि पत्रकारिता में आई गिरावट, नैतिक विचलनों और भ्रष्ट गतिविधियों की जड़ में पत्रकारों में उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण का अभाव और पत्रकारिता के पेशे में प्रवेश के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और मानदंडों (और प्रकारांतर से लाइसेंस) का न होना है.

इस समझ और चिंता के साथ उन्होंने प्रेस परिषद की एक समिति भी गठित कर दी है जो पत्रकारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अर्हताओं का सुझाव देगी. इस समिति को उन पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता की भी पड़ताल करके उन्हें विनियमित करने के बारे में भी सिफारिश करनी है.

जैसीकि उम्मीद थी कि जस्टिस काटजू के इस सुझाव और उसे अमली जामा पहनाने के लिए प्रेस परिषद की समिति गठित करने के फैसले ने मीडिया में हंगामा खड़ा कर दिया. उनके इस फैसले की खासी आलोचना हुई है और उसका मजाक उड़ाने से लेकर उसके मकसद पर सवाल तक खड़े किये गए हैं.
हालाँकि जस्टिस काटजू पर इन आलोचनाओं का कोई खास असर हुआ नहीं दिखता हुआ है और वे अपनी राय पर डटे हुए हैं कि पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका और जिम्मेदारी को देखते हुए उसके लिए क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की जानी चाहिए. गोया शैक्षिक डिग्री पत्रकारिता की सारी विकृतियों और समस्याओं का रामबाण इलाज हो.     
लेकिन जस्टिस काटजू यह मांग करनेवाले पहले जज नहीं हैं. प्रसंगवश यह उल्लेख करना जरूरी है कि बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की जांच के लिए गठित जस्टिस लिब्रहान आयोग ने भी कुछ साल पहले दी अपनी रिपोर्ट में पत्रकारों के लिए लाइसेंस अनिवार्य करने की सिफारिश करते हुए कहा था कि पत्रकारिता के उसूलों और आचार संहिता का उल्लंघन करनेवाले पत्रकारों का लाइसेंस जब्त कर लिया जाना चाहिए.

एक अर्थ में जस्टिस काटजू और जस्टिस लिब्रहान की राय में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. जस्टिस काटजू भी पत्रकारिता के लिए क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का प्रस्ताव करके परोक्ष तौर पर लाइसेंस की ही वकालत कर रहे हैं.

लेकिन सवाल यह है कि क्या न्यूज मीडिया और पत्रकारिता की सभी विकृतियों और विचलनों के लिए पत्रकार जिम्मेदार हैं? दूसरे, पत्रकारों के विचलनों और भ्रष्ट रवैये के लिए क्या उनकी कम शैक्षिक योग्यता जिम्मेदार है?
असल में, जस्टिस काटजू गाड़ी को घोड़े के आगे खड़ा कर रहे हैं. पत्रकारिता की बुनियादी समस्याओं खासकर उसकी गुणवत्ता में आई गिरावट, नैतिक विचलनों और भ्रष्ट गतिविधियों के लिए पत्रकारों से अधिक मीडिया कंपनियों के स्वामित्व का मौजूदा ढांचा और उनकी व्यावसायिक संरचना जिम्मेदार है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि अधिक से अधिक मुनाफा कमाने और अन्य व्यावसायिक-आर्थिक-राजनीतिक निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए चलाई जा रही अधिकांश मीडिया कंपनियों में पत्रकारों के पास अपनी स्वतंत्र राय रखने या रिपोर्टिंग करने की आज़ादी बहुत सीमित है.
सवाल यह है कि जब मीडिया संस्थान ही भ्रष्ट हो, जैसाकि पेड न्यूज के मामले में हुआ है, तब पत्रकार के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता और उसकी ईमानदारी के क्या मायने रह जाते हैं?

जब कारपोरेट मीडिया संस्थान अखबार/चैनल को सिर्फ अपने मुनाफे को बढ़ाने और अपने दूसरे धंधों को संरक्षित और प्रोत्साहित करने का माध्यम समझता हो, पत्रकारिता का मतलब खबरों की बिक्री (पेड न्यूज) मानता हो, विज्ञापनदाताओं को खुश करने के लिए हल्की-फुल्की मनोरंजक ‘फीलगुड’ खबरों और अप-मार्केट पाठकों/दर्शकों के लिए सिनेमा-क्रिकेट-सेलेब्रिटीज को परोसने पर जोर देता हो तो पत्रकार चाहे जितना पढ़ा-लिखा हो, जितना ईमानदार-साहसी-संवेदनशील हो, वह इस कारपोरेट ढाँचे में क्या कर सकता है?

सच पूछिए तो पत्रकारिता के मौजूदा कारपोरेट-व्यावसायिक माडल में पत्रकार की भूमिका और उसकी आज़ादी बहुत सीमित रह गई है. इस कारण पत्रकारिता एक और प्रोफेशन यानी नौकरी भर बनकर रह गई है और मौजूदा ढाँचे के बने रहते जस्टिस काटजू का सुझाव रही-सही कसर भी पूरी कर देगा, डिग्री के साथ पत्रकारिता वास्तव में, क्लर्की बनकर रह जाएगी.
दरअसल, जस्टिस काटजू यह भूल रहे हैं कि पत्रकारिता में वह जिन गुणों- ईमानदारी, मुद्दों की गहरी समझ, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता, साहस आदि को खोज रहे हैं, उनका डिग्री यानी औपचारिक शिक्षा से बहुत कम संबंध रह गया है.   
हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में भ्रष्ट गतिविधियों और पत्रकारीय उसूलों और आचार संहिता के उल्लंघन के जो गंभीर मामले सामने आए हैं, उनमें शामिल वरिष्ठ पत्रकारों के पास ऊँची डिग्रियां हैं. उदाहरण के लिए, नीरा राडिया टेप कांड में जिन पत्रकारों के नाम सामने आए, वे अनपढ़ नहीं हैं और उनमें से अधिकांश ने बड़े संस्थानों से ऊँची डिग्रियां हासिल की हुई हैं.

साफ़ है कि जस्टिस काटजू मर्ज का नहीं, लक्षण के इलाज का प्रस्ताव कर रहे हैं. असल मुद्दा मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र और उसके कारपोरेट माडल का है लेकिन वे उसपर बोलने में न जाने क्यों हिचकिचाते हैं?

उनकी निगाह इस ओर नहीं जाती है कि देश में मीडिया में संकेन्द्रण और द्वायाधिकार-एकाधिकार की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं जिससे लोकतंत्र में सूचनाओं-विचारों के मामले में विविधता-बहुलता खतरे में है.

यही नहीं, मुद्दा यह भी है कि पत्रकारों की आज़ादी की एक हद तक हिफाजत करनेवाले श्रमजीवी पत्रकार कानून की भी कारपोरेट मीडिया संस्थानों द्वारा खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, उसे पत्रकारों को ठेके पर नियुक्त करने के जरिये बेमानी बना दिया गया है और पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा के लिए कोई संरक्षण नहीं है लेकिन जस्टिस काटजू उसपर चुप रहना पसंद करते हैं.
मुद्दा यह भी है कि यूनियन बनाने के संवैधानिक अधिकार के बावजूद ज्यादातर कारपोरेट मीडिया संस्थानों में यूनियनें खत्म कर दी गई हैं और पत्रकारों के लिए बोलनेवाला कोई नहीं है. हालाँकि पत्रकारिता के विचलनों और विकृतियों से इसका गहरा संबंध है लेकिन जस्टिस काटजू इससे आँख चुराते रहे हैं.
क्या उन्हें इनका पता नहीं है? उम्मीद है कि उन्होंने खुद प्रेस परिषद की ओर से पेड न्यूज की जांच के लिए गठित समिति की रिपोर्ट जरूर पढ़ी होगी. ऐसा मानने के पीछे वजह यह है कि इस रिपोर्ट को खुद जस्टिस काटजू ने प्रेस काउन्सिल की ओर से सार्वजनिक किया क्योंकि उससे पहले की काउन्सिल ने तो उस रिपोर्ट को तहखाने में डाल दिया था.

इस समिति ने पेड न्यूज को रोकने के लिए दो महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं. पहली, श्रमजीवी पत्रकार कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए. दूसरे, पत्रकारों की नौकरी को पक्का और सुरक्षित किया जाए और उनके यूनियन बनाने के अधिकार की गारंटी की जाए.

जारी ...

'(कथादेश' के अप्रैल अंक के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी अगले महीने या 'कथादेश' के अंक में पढ़िए)

शनिवार, मार्च 16, 2013

नितीश जी, विशेष राज्य से ज्यादा विशेष दृष्टि और सोच की जरूरत है

पिछड़े ही नहीं, विकसित राज्यों में भी गैर बराबरी बढ़ी है और मानव विकास के पैमानों पर स्थिति बदतर हुई है  

जब ८० के दशक में जाने-माने अर्थशास्त्री और जनसंख्याविद प्रो. आशीष बोस ने उत्तर भारत के चार राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को उनके आर्थिक-सामाजिक पिछडेपन के कारण ‘बीमारू’ राज्य कहा था, तब शायद उन्हें भी अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि इन राज्यों की बीमारी इतनी लंबी चलेगी.
यह सच है कि पिछले एक दशक में इन ‘बीमारू’ राज्यों की स्थिति में सुधार के संकेत दिखे हैं लेकिन इसके बावजूद अन्य राज्यों खासकर पश्चिम और दक्षिण भारत के राज्यों की तुलना में उनकी स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है.
हालाँकि इस बीच कई बीमारू राज्यों खासकर बिहार की जी.डी.पी में औसतन दोहरे अंकों में वृद्धि का खूब शोर है लेकिन तथ्य यह है कि आर्थिक विकास और मानवीय विकास से लेकर समावेशी विकास के किसी भी पैमाने पर देश के विकसित राज्यों की तुलना में इन चारों राज्यों की बुनियादी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है.

उल्टे ९० के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में भारतीय राज्य के अर्थव्यवस्था से पीछे हटने और निजी देशी-विदेशी पूंजी के ड्राइविंग सीट पर आ जाने के बाद से विकसित और पिछड़े बीमारू राज्यों के बीच की खाई और चौड़ी हुई है.

तथ्य इसकी पुष्टि करते हैं. उदाहरण के लिए, पिछले पांच वर्षों में बिहार की जी.डी.पी में औसतन दोहरे अंकों की वृद्धि के बावजूद तथ्य यह है कि देश के कुल जी.डी.पी में बिहार का योगदान या हिस्सा मात्र २.८ फीसदी है जबकि देश की कुल जनसंख्या में राज्य का हिस्सा ८.२ फीसदी है.
हैरानी की बात नहीं है कि तीव्र आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद बिहार विकास के लगभग सभी पैमानों पर देश के प्रमुख राज्यों की सूची में आखिरी तीन पायदानों में बना हुआ है. यही नहीं, ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (२००७-१२) के दौरान पांच राज्यों- बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की औसत जी.डी.पी वृद्धि दर ८.५८ फीसदी रही लेकिन इससे विकसित राज्यों और बीमारी राज्यों के बीच विकास के विभिन्न पैमानों बनी खाई घटने के बजाय बढ़ती हुई दिखाई दे रही है.
खुद योजना आयोग मानता है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में देश के अमीर और गरीब राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति आय के मामले में गैर-बराबरी घटने के बजाय बढ़ी है.

योजना आयोग के मुताबिक, राज्यों के बीच विषमता और गैर बराबरी को मापने वाले गिनी गुणांक के पैमाने पर विकसित और बीमारू राज्यों के बीच १९८१ से ९० के मध्य में औसत गिनी गुणांक ०.१५ था जो १९९१ से २००० के बीच बढ़कर ०.१९ हो गया और २००० से २०१० के बीच और बढ़कर ०.२२ हो गया.

इससे साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि के दावों के बावजूद विकसित और बीमारू राज्यों के बीच की खाई बढ़ती ही जा रही है.

इसका अंदाज़ा एक और तथ्य से लगाया जा सकता है. सबसे कम प्रति व्यक्ति आय और सबसे अधिक प्रति आय वाले राज्य के रूप में बिहार और महाराष्ट्र के बीच बिहार की प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के बावजूद इस मामले में दोनों राज्यों के बीच का फर्क घटने के बजाय बढ़ता जा रहा है.
उदाहरण के लिए, वर्ष २००४-०५ में बीमारू राज्यों में सबसे बीमार बिहार की प्रति व्यक्ति आय ७९१४ रूपये थी जो पिछले आठ सालों में लगभग दुगुनी होकर वर्ष २०११-१२ में १५२६८ रूपये हो गई लेकिन इस बीच महाराष्ट्र की प्रति व्यक्ति आय ६४९५१ रूपये हो गई जोकि बिहार की तुलना में चार गुने से भी ज्यादा है.
लेकिन मुद्दा केवल आर्थिक विषमता या गैर-बराबरी का नहीं है. मानव विकास के विभिन्न पैमानों पर बीमारू राज्यों की हालत और खराब है. यह कोढ़ में खाज की तरह है कि मानव विकास के सूचकांक पर देश के सबसे बदतर राज्यों की सूची में छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश और राजस्थान बने हुए हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर पीने के साफ़ पानी और शौचालयों की सुविधा के मामले में बीमारू राज्यों के प्रदर्शन में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. सच पूछिए तो हाल के वर्षों में बीमारू राज्यों की तीव्र वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के पैमानों पर उनके फीके प्रदर्शन के कारण ऐसा लगता है जैसे बीमारू राज्य किसी दुश्चक्र में फंस गए हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीमारू राज्यों की इस स्थिति के लिए मुख्य तौर पर केन्द्र सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियां और विकास का माडल जिम्मेदार है लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि बीमारू राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व ने भी केन्द्र की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का कोई विकल्प नहीं पेश किया है और न ही समावेशी और मानव विकास का कोई वैकल्पिक माडल पेश किया है.
यहाँ तक कि सुशासन और तेज आर्थिक वृद्धि का दावा करनेवाले नीतिश कुमार ने भी समावेशी विकास का कोई वैकल्पिक माडल पेश करने का जोखिम नहीं लिया है. आश्चर्य नहीं कि जी.डी.पी में बिहार के औसतन दोहरे अंकों की वृद्धि दर के बावजूद मानव विकास के कई पैमानों पर उसका प्रदर्शन उतना चमकदार नहीं है.
यही नहीं, आर्थिक विषमता और गैर बराबरी के मामले में जहाँ देश के विकसित और बीमारू राज्यों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है, वहीं खुद बीमारू राज्यों के अंदर भी विभिन्न क्षेत्रों/जिलों और अमीर-गरीब के बीच आर्थिक गैर बराबरी बढ़ी है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि बीमारू राज्यों में हाल के वर्षों की तेज आर्थिक वृद्धि दर का फायदा मुट्ठी भर अमीरों, ठेकेदारों, अफसरों और व्यापारियों को मिला है. आप पटना या जयपुर या लखनऊ या भोपाल चले जाइए या इन राज्यों के बड़े शहरों में जाइए, आपको आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से के बीच आई यह समृद्धि उनके आलीशान कोठियों और एस.यू.वी में दिखाई देगी.

लेकिन खुद इन शहरों के अंदर और उससे बाहर गांवों में गरीबी-बीमारी-बेकारी का समुद्र वैसा ही उफनता हुआ दिखेगा.

निश्चय ही, इसके लिए सिर्फ केन्द्र की नीतियों या भेदभाव को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. इसकी जिम्मेदारी मुख्यतः इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व पर है जिन्होंने जन समर्थन के बावजूद नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में कोई वैकल्पिक दृष्टि सामने नहीं रखी.
उल्टे गैर बराबरी बढ़ानेवाली नव उदारवादी नीतियों को ही और बदतर तरीके से लागू किया है जिसका नतीजा सबके सामने है. लेकिन मजे की बात यह है कि अपनी राजनीतिक और वैचारिक सीमाओं और खामियों को छुपाने के लिए इन राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व ने केन्द्र की नीतियों और बीमारू राज्यों के साथ भेदभाव को मुद्दा बनाने की राजनीति ज्यादा की है दुश्चक्र को तोड़ने की गंभीर, ईमानदार और सक्रिय राजनीतिक पहल कम की है.  
लेकिन यह कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि बीमारू राज्यों की बीमारी के लिए ये राज्य और सिर्फ उनका राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है. जाहिर है कि ये राज्य भारत से बाहर नहीं हैं और वे उसी पूंजीवादी राजनीतिक-आर्थिक ढाँचे और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के हिस्सा हैं जिनका अपरिहार्य नतीजा क्षेत्रीय विषमता, असंतुलन, गैर बराबरी और अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई है.

याद रहे कि औपनिवेशिक दौर से ही पूंजीवादी विकास के माडल के तहत देश के कुछ हिस्सों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया जहाँ से ज्यादा विकसित इलाकों के उद्योगों, सेवा और कृषि क्षेत्र को सस्ते मजदूरों की आपूर्ति होती है. बीमारू राज्य उसी सस्ते श्रम के बाड़े बने हुए हैं.

अफ़सोस की बात यह है कि बीमारू राज्यों की इस नियति में आज़ादी के बाद चार दशकों तक और आर्थिक सुधारों के दो दशकों बाद भी कोई खास बदलाव नहीं आया है. बीमारू राज्य काफी हद तक अब भी आंतरिक उपनिवेश से बने हुए हैं.
लेकिन इस दुश्चक्र को केन्द्र से विशेष राज्य का दर्जा या और अधिक आर्थिक मदद हासिल करके नहीं तोडा जा सकता है. उदाहरण के लिए कथित विकसित राज्यों के अंदर भी क्षेत्रीय, शहर-गांव, अमीर-गरीब के बीच गैर बराबरी, विषमता और असमानताएं बढ़ी हैं.
यही नहीं, देश के कई आर्थिक रूप से विकसित और अमीर राज्यों का मानव विकास के विभिन्न सूचकांकों पर प्रदर्शन बहुत बदतर है. 
इससे पता चलता है कि आर्थिक वृद्धि दर अपने आप में सब कुछ नहीं है बल्कि उस समृद्धि का लाभ आम गरीबों और पिछड़े इलाकों यानी असली बीमारों तक पहुंचाने के लिए वैकल्पिक आर्थिक नीतियां और कार्यक्रम भी चाहिए.

लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि बीमारू राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व में यह वैकल्पिक सोच, राजनीतिक और आर्थिकी सिरे से गायब है. उल्टे उनमें जी.डी.पी आधारित वृद्धि दर की अंधी दौड़ में शामिल होने की होड़ सी लगी हुई है.

यह और बात है कि पिछले दो दशकों के अनुभवों से इस अंधी दौड़ के खतरे और सीमाएं साफ़ हो चुकी हैं.

लेकिन बीमारू प्रदेशों का राजनीतिक नेतृत्व इससे सबक लेने के बजाय इसी रास्ते पर और तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा है. इस कोशिश में वह इस सड़क पर लगे चेतावनी के संकेतों को भी अनदेखा कर रहा है.                                            
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 16 मार्च को प्रकाशित टिप्पणी)