मर्ज का नहीं, लक्षण के इलाज का प्रस्ताव कर रहे हैं जस्टिस काटजू
पहली क़िस्त
इस समझ और चिंता के साथ उन्होंने प्रेस परिषद की एक समिति भी गठित कर दी है जो पत्रकारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अर्हताओं का सुझाव देगी. इस समिति को उन पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता की भी पड़ताल करके उन्हें विनियमित करने के बारे में भी सिफारिश करनी है.
एक अर्थ में जस्टिस काटजू और जस्टिस लिब्रहान की राय में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. जस्टिस काटजू भी पत्रकारिता के लिए क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का प्रस्ताव करके परोक्ष तौर पर लाइसेंस की ही वकालत कर रहे हैं.
जब कारपोरेट मीडिया संस्थान अखबार/चैनल को सिर्फ अपने मुनाफे को बढ़ाने और अपने दूसरे धंधों को संरक्षित और प्रोत्साहित करने का माध्यम समझता हो, पत्रकारिता का मतलब खबरों की बिक्री (पेड न्यूज) मानता हो, विज्ञापनदाताओं को खुश करने के लिए हल्की-फुल्की मनोरंजक ‘फीलगुड’ खबरों और अप-मार्केट पाठकों/दर्शकों के लिए सिनेमा-क्रिकेट-सेलेब्रिटीज को परोसने पर जोर देता हो तो पत्रकार चाहे जितना पढ़ा-लिखा हो, जितना ईमानदार-साहसी-संवेदनशील हो, वह इस कारपोरेट ढाँचे में क्या कर सकता है?
साफ़ है कि जस्टिस काटजू मर्ज का नहीं, लक्षण के इलाज का प्रस्ताव कर रहे हैं. असल मुद्दा मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र और उसके कारपोरेट माडल का है लेकिन वे उसपर बोलने में न जाने क्यों हिचकिचाते हैं?
उनकी निगाह इस ओर नहीं जाती है कि देश में मीडिया में संकेन्द्रण और द्वायाधिकार-एकाधिकार की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं जिससे लोकतंत्र में सूचनाओं-विचारों के मामले में विविधता-बहुलता खतरे में है.
इस समिति ने पेड न्यूज को रोकने के लिए दो महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं. पहली, श्रमजीवी पत्रकार कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए. दूसरे, पत्रकारों की नौकरी को पक्का और सुरक्षित किया जाए और उनके यूनियन बनाने के अधिकार की गारंटी की जाए.
जारी ...
'(कथादेश' के अप्रैल अंक के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी अगले महीने या 'कथादेश' के अंक में पढ़िए)
पहली क़िस्त
न्यूज मीडिया में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई विकृतियाँ दिखाई दी हैं.
न्यूज मीडिया के भ्रष्ट गतिविधियों में शामिल होने से लेकर उसके गंभीर नैतिक
विचलनों और गुणवत्ता में आई गिरावट को लेकर लंबे समय से चिंताएं जाहिर की जा रही
हैं. लेकिन हाल के वर्षों में न्यूज मीडिया विशेषकर न्यूज चैनलों के कंटेंट और
उसकी प्रस्तुति को लेकर आलोचना और तेज और तीखी हुई है.
इसमें कोई दो राय नहीं है
कि न्यूज मीडिया की साख में भी गिरावट आई है, उसपर सवाल उठने लगे हैं और उसे
विनियमित (रेगुलेट) करने की मांग ने भी जोर पकड़ा है. यह मांग करनेवालों में प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू सबसे मुखर रहे हैं.
लेकिन अब जस्टिस मार्कंडेय काटजू चाहते हैं कि पत्रकारों के लिए
डाक्टरों, वकीलों और ऐसे ही दूसरे पेशों की तरह ही क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक
योग्यता तय की जाए. उन्हें लगता है कि पत्रकारिता में आई गिरावट, नैतिक विचलनों और
भ्रष्ट गतिविधियों की जड़ में पत्रकारों में उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण का अभाव और
पत्रकारिता के पेशे में प्रवेश के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और मानदंडों (और
प्रकारांतर से लाइसेंस) का न होना है. इस समझ और चिंता के साथ उन्होंने प्रेस परिषद की एक समिति भी गठित कर दी है जो पत्रकारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता और अर्हताओं का सुझाव देगी. इस समिति को उन पत्रकारिता प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता की भी पड़ताल करके उन्हें विनियमित करने के बारे में भी सिफारिश करनी है.
जैसीकि उम्मीद थी कि जस्टिस काटजू के इस सुझाव और उसे अमली जामा
पहनाने के लिए प्रेस परिषद की समिति गठित करने के फैसले ने मीडिया में हंगामा खड़ा
कर दिया. उनके इस फैसले की खासी आलोचना हुई है और उसका मजाक उड़ाने से लेकर उसके
मकसद पर सवाल तक खड़े किये गए हैं.
हालाँकि जस्टिस काटजू पर इन आलोचनाओं का कोई खास
असर हुआ नहीं दिखता हुआ है और वे अपनी राय पर डटे हुए हैं कि पत्रकारिता की
महत्वपूर्ण भूमिका और जिम्मेदारी को देखते हुए उसके लिए क़ानूनी तौर पर न्यूनतम
शैक्षणिक योग्यता तय की जानी चाहिए. गोया शैक्षिक डिग्री पत्रकारिता की सारी
विकृतियों और समस्याओं का रामबाण इलाज हो.
लेकिन जस्टिस काटजू यह मांग करनेवाले पहले जज नहीं हैं. प्रसंगवश यह
उल्लेख करना जरूरी है कि बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की जांच के लिए गठित जस्टिस
लिब्रहान आयोग ने भी कुछ साल पहले दी अपनी रिपोर्ट में पत्रकारों के लिए लाइसेंस
अनिवार्य करने की सिफारिश करते हुए कहा था कि पत्रकारिता के उसूलों और आचार संहिता
का उल्लंघन करनेवाले पत्रकारों का लाइसेंस जब्त कर लिया जाना चाहिए. एक अर्थ में जस्टिस काटजू और जस्टिस लिब्रहान की राय में कोई बुनियादी फर्क नहीं है. जस्टिस काटजू भी पत्रकारिता के लिए क़ानूनी तौर पर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का प्रस्ताव करके परोक्ष तौर पर लाइसेंस की ही वकालत कर रहे हैं.
लेकिन सवाल यह है कि क्या न्यूज मीडिया और पत्रकारिता की सभी
विकृतियों और विचलनों के लिए पत्रकार जिम्मेदार हैं? दूसरे, पत्रकारों के विचलनों
और भ्रष्ट रवैये के लिए क्या उनकी कम शैक्षिक योग्यता जिम्मेदार है?
असल में,
जस्टिस काटजू गाड़ी को घोड़े के आगे खड़ा कर रहे हैं. पत्रकारिता की बुनियादी समस्याओं
खासकर उसकी गुणवत्ता में आई गिरावट, नैतिक विचलनों और भ्रष्ट गतिविधियों के लिए पत्रकारों
से अधिक मीडिया कंपनियों के स्वामित्व का मौजूदा ढांचा और उनकी व्यावसायिक संरचना
जिम्मेदार है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि अधिक से अधिक मुनाफा कमाने और अन्य
व्यावसायिक-आर्थिक-राजनीतिक निहित स्वार्थों को पूरा करने के लिए चलाई जा रही अधिकांश
मीडिया कंपनियों में पत्रकारों के पास अपनी स्वतंत्र राय रखने या रिपोर्टिंग करने
की आज़ादी बहुत सीमित है.
सवाल यह है कि जब मीडिया संस्थान ही भ्रष्ट हो, जैसाकि पेड न्यूज के
मामले में हुआ है, तब पत्रकार के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता और उसकी ईमानदारी
के क्या मायने रह जाते हैं? जब कारपोरेट मीडिया संस्थान अखबार/चैनल को सिर्फ अपने मुनाफे को बढ़ाने और अपने दूसरे धंधों को संरक्षित और प्रोत्साहित करने का माध्यम समझता हो, पत्रकारिता का मतलब खबरों की बिक्री (पेड न्यूज) मानता हो, विज्ञापनदाताओं को खुश करने के लिए हल्की-फुल्की मनोरंजक ‘फीलगुड’ खबरों और अप-मार्केट पाठकों/दर्शकों के लिए सिनेमा-क्रिकेट-सेलेब्रिटीज को परोसने पर जोर देता हो तो पत्रकार चाहे जितना पढ़ा-लिखा हो, जितना ईमानदार-साहसी-संवेदनशील हो, वह इस कारपोरेट ढाँचे में क्या कर सकता है?
सच पूछिए तो पत्रकारिता के मौजूदा कारपोरेट-व्यावसायिक माडल में
पत्रकार की भूमिका और उसकी आज़ादी बहुत सीमित रह गई है. इस कारण पत्रकारिता एक और
प्रोफेशन यानी नौकरी भर बनकर रह गई है और मौजूदा ढाँचे के बने रहते जस्टिस काटजू
का सुझाव रही-सही कसर भी पूरी कर देगा, डिग्री के साथ पत्रकारिता वास्तव में, क्लर्की
बनकर रह जाएगी.
दरअसल, जस्टिस काटजू यह भूल रहे हैं कि पत्रकारिता में वह जिन
गुणों- ईमानदारी, मुद्दों की गहरी समझ, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों के प्रति
प्रतिबद्धता, साहस आदि को खोज रहे हैं, उनका डिग्री यानी औपचारिक शिक्षा से बहुत
कम संबंध रह गया है.
हैरानी की बात नहीं है कि हाल के वर्षों में भ्रष्ट गतिविधियों और
पत्रकारीय उसूलों और आचार संहिता के उल्लंघन के जो गंभीर मामले सामने आए हैं,
उनमें शामिल वरिष्ठ पत्रकारों के पास ऊँची डिग्रियां हैं. उदाहरण के लिए, नीरा
राडिया टेप कांड में जिन पत्रकारों के नाम सामने आए, वे अनपढ़ नहीं हैं और उनमें से
अधिकांश ने बड़े संस्थानों से ऊँची डिग्रियां हासिल की हुई हैं. साफ़ है कि जस्टिस काटजू मर्ज का नहीं, लक्षण के इलाज का प्रस्ताव कर रहे हैं. असल मुद्दा मीडिया के राजनीतिक अर्थशास्त्र और उसके कारपोरेट माडल का है लेकिन वे उसपर बोलने में न जाने क्यों हिचकिचाते हैं?
उनकी निगाह इस ओर नहीं जाती है कि देश में मीडिया में संकेन्द्रण और द्वायाधिकार-एकाधिकार की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं जिससे लोकतंत्र में सूचनाओं-विचारों के मामले में विविधता-बहुलता खतरे में है.
यही नहीं, मुद्दा यह भी है कि पत्रकारों की आज़ादी की एक हद तक हिफाजत
करनेवाले श्रमजीवी पत्रकार कानून की भी कारपोरेट मीडिया संस्थानों द्वारा खुलेआम
धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, उसे पत्रकारों को ठेके पर नियुक्त करने के जरिये बेमानी
बना दिया गया है और पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा के लिए कोई संरक्षण नहीं है लेकिन
जस्टिस काटजू उसपर चुप रहना पसंद करते हैं.
मुद्दा यह भी है कि यूनियन बनाने के
संवैधानिक अधिकार के बावजूद ज्यादातर कारपोरेट मीडिया संस्थानों में यूनियनें खत्म
कर दी गई हैं और पत्रकारों के लिए बोलनेवाला कोई नहीं है. हालाँकि पत्रकारिता के
विचलनों और विकृतियों से इसका गहरा संबंध है लेकिन जस्टिस काटजू इससे आँख चुराते
रहे हैं.
क्या उन्हें इनका पता नहीं है? उम्मीद है कि उन्होंने खुद प्रेस परिषद
की ओर से पेड न्यूज की जांच के लिए गठित समिति की रिपोर्ट जरूर पढ़ी होगी. ऐसा
मानने के पीछे वजह यह है कि इस रिपोर्ट को खुद जस्टिस काटजू ने प्रेस काउन्सिल की
ओर से सार्वजनिक किया क्योंकि उससे पहले की काउन्सिल ने तो उस रिपोर्ट को तहखाने
में डाल दिया था. इस समिति ने पेड न्यूज को रोकने के लिए दो महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं. पहली, श्रमजीवी पत्रकार कानून को ईमानदारी से लागू किया जाए. दूसरे, पत्रकारों की नौकरी को पक्का और सुरक्षित किया जाए और उनके यूनियन बनाने के अधिकार की गारंटी की जाए.
जारी ...
'(कथादेश' के अप्रैल अंक के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। बाकी अगले महीने या 'कथादेश' के अंक में पढ़िए)
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