रविवार, मार्च 31, 2013

राजकोषीय घाटे का हव्वा

राजकोषीय घाटे में कटौती के लिए सरकार इतनी बेचैन क्यों है? 

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
वित्त मंत्री का तर्क है कि राजकोषीय घाटा बढ़ने से सरकार पर कर्ज बढ़ता है. इसके ब्याज में कीमती संसाधन जाया होते हैं. दूसरे, इसकी भरपाई के लिए सरकार बाजार में कर्ज लेने उतरती है और उसके कारण न सिर्फ ब्याज दरें बढ़ जाती हैं बल्कि निजी क्षेत्र को निवेश के लिए सस्ती दरों पर कर्ज नहीं मिल पाता है.
तीसरे, इससे अनावश्यक उपभोग बढ़ता है और मुद्रास्फीति बढ़ने लगती है. चौथे, सरकार अपनी अक्षमताओं और भ्रष्टाचार के कारण पैसे का दुरुपयोग करती है. लेकिन ये सभी तर्क बहुत कमजोर और एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए बेमानी हैं.
सच यह है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की मांग आवारा विदेशी पूंजी की ओर से आती रही है क्योंकि उन्हें मुद्रास्फीति बढ़ने से अपने निवेश की कीमत घटने का अंदेशा सताता रहता है.
तथ्य यह है कि दुनिया भर में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय घाटा आम बात रही है. विकसित अर्थव्यवस्थाओं ने भी अपने शुरूआती दौर में राजकोषीय घाटे के जरिये ही विकास सम्बन्धी जरूरतें पूरी कीं और विकास की बुनियाद रखी. दूसरे, राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए लिया गया कर्ज घरेलू और दीर्घकालिक है तो उसमें चिंता की कोई बात नहीं है.

तीसरे, राजकोषीय घाटे को बढ़ाकर किये जानेवाले सार्वजनिक निवेश से निजी निवेश बढ़ता है क्योंकि उससे मांग बढ़ती है. चौथे, राजकोषीय घाटे के कारण मुद्रास्फीति आमतौर पर उस समय बढ़ती है जब मांग के अनुपात में आपूर्ति नहीं होती है.

इसलिए इसके लिए सिर्फ राजकोषीय घाटे को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है. लेकिन जैसे हर चीज की अति बुरी होती है, वैसे बहुत अधिक राजकोषीय घाटा भी अच्छा नहीं है.
सवाल यह है कि क्या भारत में राजकोषीय घाटा खतरे की सीमा पार कर गया है? तथ्य यह है कि इस समय अधिकांश देशों में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी ५ से ७ फीसदी के आसपास है. इसलिए भारत में राजकोषीय घाटे का हौव्वा खड़ा करना तथ्यों के विपरीत है.
दूसरे, भारत में राजकोषीय घाटे का बड़ा हिस्सा आंतरिक संसाधनों से पूरा किया जाता है. ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, केन्द्र सरकार पर कुल कर्ज ४४६८७१४ करोड़ रूपये है जो जी.डी.पी का ५० फीसदी के आसपास है. इसकी तुलना में दुनिया के कई विकसित और विकासशील देशों में कर्ज-जी.डी.पी अनुपात १०० से लेकर १५० फीसदी तक पहुँच चुका है. इस लिहाज से भारत में स्थिति इतनी गंभीर नहीं है जितना कि हौव्वा खड़ा किया जाता है.
तीसरे, इस कर्ज का ७६.३ प्रतिशत सार्वजनिक कर्ज है जिसमें ९०.९ फीसदी आंतरिक कर्ज है. घरेलू कर्ज होने के कारण भारत वैश्विक पूंजी बाजार की उथल-पुथल से काफी हद तक संरक्षित है. यही नहीं, कुल कर्ज में सिर्फ १.८ फीसदी कर्ज ही फ्लोटिंग ब्याज दर पर लिया गया है, बाकी कर्ज फिक्स्ड ब्याज दर पर है.

साफ़ है कि राजकोषीय घाटे का हौव्वा यू.पी.ए सरकार अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से बचने, आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ डालने और बड़ी विदेशी पूंजी के मुनाफे की गारंटी के लिए खड़ा कर रही है.

सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर यू.पी.ए सरकार को राजकोषीय घाटे की इतनी ही चिंता है तो वह खर्चों में कटौती और आमलोगों पर बोझ डालने के बजाय आय बढ़ाने का विकल्प क्यों नहीं आजमाती है? खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि भारत दुनिया के चुनिन्दा देशों में है जहाँ टैक्स-जी.डी.पी अनुपात कम है.
खुद वित्त मंत्री ने स्वीकार किया है कि भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात बढ़ाने की गुंजाइश है. तथ्य यह है कि भारत में वर्ष ११-१२ में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात ९.१ फीसदी था जो वर्ष २००७-०८ के टैक्स-जी.डी.पी अनुपात ११.९ फीसदी २.८ फीसदी कम है. दूसरी ओर, बहुतेरे विकासशील देशों में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात १५-२० फीसदी के बीच है.
इस तरह अगर भारत अगर २००७-०८ के स्तर को ही हासिल कर ले तो कोई तीन लाख करोड़ रूपये सरकारी खजाने में आ सकते हैं. अगर वह दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के स्तर तक पहुँच जाए तो एक झटके में राजकोषीय घाटा पूरी तरह से खत्म हो जाएगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार सरकार की आय बढ़ाने के बजाय अमीरों, आवारा विदेशी पूंजी और बड़े देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को टैक्स में छूट/रियायतों के जरिये हर साल ५.५० लाख करोड़ रूपये से अधिक की सब्सिडी दे रही है.

यही नहीं, ताजा बजट से पहले अमीरों पर टैक्स की बहस चलवाने के बाद चिदंबरम ने एक करोड़ रूपये से अधिक की आयवाले लोगों के टैक्स पर १० फीसदी का सरचार्ज लगाने का प्रस्ताव यह कहते हुए किया है कि यह सिर्फ एक साल के लिए हैं.

हालाँकि यह सरचार्ज उनके टैक्स दर को सिर्फ तीन प्रतिशत बढाता है जबकि इसमें ५ से १० फीसदी की बढ़ोत्तरी होनी चाहिए थी. दूसरे, क्या यह बढ़ोत्तरी ५० या २० लाख सालाना से अधिक आयवाले करदाताओं पर नहीं होनी चाहिए थी?

उल्टे वित्त मंत्री ने कार्पोरेट्स को निवेश के लिए १५ प्रतिशत का अतिरिक्त प्रोत्साहन देकर सरकारी खजाने को २५ हजार करोड़ रूपये संभावित आय गँवा दी. मजे की बात यह है कि कारपोरेट क्षेत्र पर अधिकतम ३० फीसदी की टैक्स दर के बावजूद तमाम छूटों/रियायतों के कारण कारपोरेट टैक्स की वास्तविक प्रभावी दर मात्र २२ फीसदी रह जाती है.
लेकिन गरीबों और आमलोगों पर बोझ डालने में जुटे वित्त मंत्री अमीरों और कार्पोरेट्स पर मामूली बोझ डालने में भी न जाने क्यों घबराते हैं? यही नहीं, चिदंबरम ने शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-बिक्री पर लगनेवाले एस.टी.टी की दर में भी कटौती कर दी. उन्होंने उत्तराधिकार कर लगाने से भी एक बार फिर परहेज किया.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस बजट से यू.पी.ए सरकार की प्राथमिकताएं और पक्षधरता और उजागर हो गई है. इस सरकार की प्राथमिकता का अंदाज़ा इसी से चल जाता है कि खाद्य सुरक्षा के लिए सिर्फ १० हजार करोड़ रूपये का अतिरिक्त प्रावधान किया गया है लेकिन रक्षा बजट में सिर्फ हथियारों की खरीद पर ८६७४० करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

यही नहीं, कुल रक्षा बजट को चालू वित्तीय वर्ष के १७८५०३ करोड़ रूपये से बढ़ाकर २०३७६२ करोड़ रूपये कर दिया गया है. अफ़सोस यह कि यह एक गरीब देश का रक्षा बजट है. अगर इस साल के बजट में स्वास्थ्य, कृषि, महिला-बाल कल्याण, आदिवासी और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालयों के योजना बजट को जोड़ लिया जाए तो वह ८७९३४ करोड़ रूपये होता है जो हथियारों की खरीद के बजट के लगभग बराबर है.

इसी तरह अगर शिक्षा और स्वास्थ्य के योजना बजट को जोड़ा जाए तो वह ९८६०२ करोड़ रूपये होता है जो हथियारों की खरीदद के बजट से सिर्फ १२ हजार करोड़ रूपये ज्यादा है. इससे यू.पी.ए सरकार की राजनीति की प्राथमिकताओं का अनुमान लगाया जा सकता है. हथियारों की खरीद के इतने विशाल बजट का राज क्या है?
क्या यह भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडे का जवाब और खुद को बड़ा राष्ट्रवादी साबित करने के लिए है या हथियारों की खरीद में मिलनेवाले भारी कमीशन की लालच में है? कारण चाहे जो हो लेकिन इस सवाल का क्या जवाब है जब देश आर्थिक संकट में फंसा है और राजकोषीय घाटे को कम करने की चिंता है तो हथियारों की खरीद पर इतना खर्च करने का क्या औचित्य है?
इस तरह वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक बार फिर बजट में गरीबों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और युवाओं की दुहाई देते हुए आम आदमी पर बोझ बढाने और अमीरों, कार्पोरेट्स और आवारा विदेशी पूंजी को तोहफे देने की नव उदारवादी अर्थनीति को आगे बढ़ाया है.

इससे न तो महंगाई पर अंकुश लगनेवाला है, न अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधरनेवाली है और न ही युवाओं को रोजगार मिलनेवाला है. यह आर्थिक संकट को और बढ़ाएगा और फिर उसका सारा बोझ आम आदमी पर डाला जाएगा. साफ़ है कि आम आदमी की सरकार किसके लिए काम कर रही है?

('समकालीन जनमत' के मार्च'१३ अंक में प्रकाशित टिप्पणी की अंतिम क़िस्त। पहली क़िस्त ४ मार्च को छप चुकी है)  

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