बुधवार, अप्रैल 03, 2013

सोने की भूख और चालू खाते का बढ़ता घाटा

अमीर फैला रहे चादर से बाहर पैर लेकिन उसकी कीमत चुकायेंगे गरीब

ऊँची मुद्रास्फीति और घटती वृद्धि दर के बीच बेहाल भारतीय अर्थव्यवस्था एक और बड़ी मुसीबत में फंसती हुई दिखाई दे रही है. यह मुसीबत है चालू खाते का घाटा जो १९९१ के दुगुने से भी ज्यादा हो चुका है और जिसके कारण दो दशक पहले भारतीय अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस चुकी है.
ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, चालू खाते का घाटा वित्तीय वर्ष (१२-१३) की तीसरी तिमाही (अक्टूबर-दिसंबर) में उछलकर जी.डी.पी के ६.७ फीसदी तक पहुँच गया है. साफ़ तौर पर चालू खाते का घाटा खतरे के निशान को पार कर गया है. खुद वित्त मंत्री ने भी बजट भाषण में स्वीकार किया था कि चालू खाते का बढ़ता घाटा उनके लिए सबसे बड़ी चिंता है.
यही नहीं, ब्रिक्स सम्मेलन से लौटते हुए खुद प्रधानमंत्री ने माना कि चालू खाते के घाटे की स्वीकार्य सीमा जी.डी.पी की ३ फीसदी है. चालू खाते का घाटा किसी देश के सेवाओं और जिंसों के निर्यात, विदेशों में निवेश और कैश ट्रांसफर से होनेवाली कुल आय और सेवाओं-जिंसों के आयात, देश में विदेशी निवेश और कैश ट्रांसफर पर होनेवाले खर्च के बीच का अंतर है.

यह अर्थव्यवस्था की सेहत का महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता है. इसकी भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा की जरूरत पड़ती है जिसके अभाव में कई बार देशों को अपनी देनदारियों के भुगतान में चूकना पड़ा है. इसका बहुत नकारात्मक असर उस देश की मुद्रा और उसकी साख पर पड़ता है.

यह सही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था १९९१ के मुकाबले आज इस मायने में ज्यादा बेहतर स्थिति में है कि आज भारत के पास विदेशी मुद्रा का पर्याप्त भण्डार है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, भारत के पार इस समय कुल २९३.४ अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है जोकि छह महीने के आयात के लिए पर्याप्त है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि दिसंबर’१२ में भारत का कुल विदेशी कर्ज ३७६.३ अरब डालर तक
पहुँच गया है और इस तरह विदेशी मुद्रा का भण्डार इसके ७८.६ फीसदी की ही भरपाई कर सकता है. यह साफ़ तौर पर सिर्फ नौ महीने पहले मार्च’१२ के कुल विदेशी कर्ज-कुल विदेशी मुद्रा भण्डार के अनुपात ८५.२ प्रतिशत की तुलना में बदतर होती स्थिति की ओर इशारा कर रहा है.
लेकिन उससे भी अधिक चिंता की बात है कि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज की मात्रा तेजी से बढ़ रही है. मार्च’१२ की तुलना में दिसंबर’१२ में जहाँ दीर्घावधि के विदेशी कर्ज में ६.४ प्रतिशत की वृद्धि हुई, वहीँ लघु अवधि के कर्ज में १७.५ फीसदी की तेज उछाल दर्ज की गई और यह ९१.९ अरब डालर पहुँच गया है. दिसंबर’१२ में लघु अवधि के विदेशी कर्ज, कुल विदेशी कर्ज के २४.४ फीसदी तक पहुँच गए हैं.

माना जाता है कि विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात जितना ज्यादा होता है, उससे अर्थव्यवस्था के संकट में फंसने का खतरा उतना ही बढ़ता जाता है. याद रहे कि ९० के दशक के उत्तरार्द्ध में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं इसी कारण गहरे संकट में फंस गईं थीं.

हालाँकि भारत के कुल विदेशी कर्ज में लघु अवधि के कर्ज का अनुपात अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में कम है लेकिन चिंता की बात यह है कि यह तेजी से बढ़ रहा है. इसके तेजी से बढ़ने की एक बड़ी वजह चालू खाते का घाटा है जिसकी भरपाई के लिए लघु अवधि के कर्ज लेने की प्रवृत्ति बढ़ी है.
यही नहीं, चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए विदेशी मुद्रा को आकर्षित करने का दबाव और बढ़ जाता है. खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने बजट भाषण में माना कि चालू खाते के बढ़ते घाटे की भरपाई के लिए इस साल कोई ७५ अरब डालर की जरूरत पड़ेगी और यह सिर्फ एफ.डी.आई, एफ.आई.आई और विदेशी व्यावसायिक कर्ज से ही आ सकता है.  
लेकिन विदेशी पूंजी अपनी ही शर्तों और कीमत के साथ आती है. नतीजा यह कि सरकार पर विदेशी निवेशकर्ताओं को न सिर्फ अधिक से अधिक छूट और रियायतें देने का दबाव रहता है बल्कि उसे उनकी अनुचित शर्तों को भी मानना पड़ता है.

उदाहरण के लिए पिछले कुछ महीनों में विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने न सिर्फ अर्थव्यवस्था के कई संवेदनशील क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार, बीमा-पेंशन को प्रत्यक्ष विदेशी
निवेश के लिए खोलने और उन्हें खुश करने के लिए टैक्स बचाने पर रोक नियमों (गार) को टालने का फैसला किया है बल्कि आवारा पूंजी कहे जानेवाले विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) को लुभाने के लिए कई वित्तीय लेखपत्रों में निवेश की सीमा बढ़ाने से लेकर कई छूट/रियायतें दी गईं हैं.

यह सही है कि इसके कारण पिछले छह महीनों में देश में विदेशी पूंजी खासकर आवारा विदेशी पूंजी यानी एफ.आई.आई का प्रवाह तेजी से बढ़ा है जबकि एफ.डी.आई में उस अनुपात में बढ़ोत्तरी नहीं हुई है.
लेकिन आवारा पूंजी पर भरोसा नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह संकट का पहला संकेत मिलते ही देश छोड़कर निकल जाती है. उसके निकालने का सीधा असर वित्तीय बाजारों की स्थिरता और रूपये की कीमत पर पड़ता है और अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंस सकती है.
पिछले दो-ढाई दशकों में दुनिया भर के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट में फंसने में इस आवारा पूंजी का पलायन एक बड़ी वजह रही है.
लेकिन चिंता की बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजर चालू खाते को घाटे को कम करने के ठोस उपाय करने के बजाय उस घाटे की भरपाई के लिए देश को लघु अवधि के कर्जों और आवारा पूंजी पर निर्भर बनाते जा रहे हैं.

सवाल यह है कि चालू खाते का घाटा इतनी तेजी से क्यों बढ़ रहा है? इसकी मुख्य वजह यह है कि निर्यात में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है जबकि आयात तेजी से बढ़ रहा है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष २००१ में भारत का आयात जी.डी.पी का १० फीसदी था जो वर्ष २०११ में बढ़कर २५ फीसदी से ऊपर पहुँच चुका है जबकि इसी अवधि में निर्यात जी.डी.पी का ९.२ फीसदी से १६ फीसदी पहुंचा है.

साफ़ है कि भारत चादर से ज्यादा पैर फैला रहा है और यह खतरे की घंटी है. असल में, भारत के आयात में सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल और सोने का है. खासकर पिछले कुछ सालों में देश में जिस
तरह से सोने की भूख बढ़ी है, वह चौंकानेवाली है.
आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा सोना आयातक देश है. यह प्रवृत्ति पिछले एक दशक खासकर पिछले चार वर्षों में तेजी से बढ़ी है. रिपोर्टों के मुताबिक, वर्ष २००२-०३ में भारत ने ३.८ अरब डालर का सोना आयात किया जो वर्ष २००३-०४ में लगभग तिगुना उछलकर १०.५ अरब डालर तक पहुँच गया. यह २००९-१० में और बढ़कर २८.६ अरब डालर और वर्ष ११-१२ में रिकार्ड़तोड़ उछाल के साथ ५७.५ अरब डालर तक पहुँच गया. चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) के पहले नौ महीनों में सोने का आयात ३९.५ अरब डालर पहुँच चुका है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इतनी भारी मात्रा में सोने के आयात के कारण न सिर्फ चालू खाते का घाटा बेकाबू हो रहा है बल्कि इसे कालेधन को छुपाने और सट्टेबाजी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

इससे अर्थव्यवस्था को दोहरा नुकसान हो रहा है. एक ओर, चालू खाते का घाटा बढ़ रहा है, उसकी भरपाई के लिए आवारा विदेशी पूंजी पर निर्भरता बढ़ रही है और दूसरी ओर, निवेश योग्य पूंजी एक मृत परिसंपत्ति में बदलकर बेकार जा रही है.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इसपर रोक लगाने के लिए कड़े फैसले करने से हिचकती रही है. यह ठीक है कि सोने के आयात पर आयात शुल्क में वृद्धि की गई है लेकिन उसका कोई असर नहीं पड़ा है.

सवाल यह है कि उसपर मात्रात्मक प्रतिबन्ध लगाने से सरकार कन्नी क्यों काट रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि सोने का भारी आयात करके इस देश के अमीर चादर से बाहर पैर फैला रहे हैं लेकिन जब देश आर्थिक संकट में फंसेगा तो उसकी सबसे अधिक कीमत गरीबों को चुकानी पड़ेगी.                  
('राष्ट्रीय सहारा' के 2 अप्रैल के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

अमित/Амит/অমিত/Amit ने कहा…

सर ये मुद्दे तो समझ मेँ आ गए, अब अगर समय हो तो चीनी को नियंत्रण मुक्त किए जाने पर कुछ लिख दीजिए, इस निर्णय से किसका फायदा है?