आखिर राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी के माडलों में बुनियादी अंतर क्या है?
अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने और विकास की गति को तेज करने को लेकर राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल की चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं.
अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने और विकास की गति को तेज करने को लेकर राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल की चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं.
दोनों मॉडलों में ज्यादा बुनियादी समानताओं और मामूली भाषा और शैलीगत
भिन्नताओं के बावजूद राजनीतिक पंडित और स्पिन डाक्टर दोनों के बीच के बारीक
फर्कों, उनकी खूबियों और कमियों को स्पष्ट करने में खूब पसीना बहा रहे हैं. खुद
दोनों नेताओं ने इस फर्क को उछालने और उसपर जोर देने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा
है.
लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि राहुल गाँधी और नरेन्द्र
मोदी शासक वर्ग की जिन दोनों प्रमुख और प्रतिनिधि पार्टियों की अगुवाई कर रहे हैं,
उनकी वैचारिकी और अर्थनीति के केन्द्र में वही नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है
जो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण और उसके जरिये हासिल की गई तेज आर्थिक वृद्धि दर
को देश-समाज की सभी समस्याओं और चुनौतियों का हल मानती है.
आश्चर्य नहीं कि अपने बुनियादी चरित्र और अंतर्वस्तु में राहुल गाँधी
मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल में भी कोई खास अंतर नहीं है. यही कारण है कि दोनों मॉडलों
को लेकर हो रही बहसों और चर्चाओं में विचारों, नीतियों, मुद्दों और कार्यक्रमों से
ज्यादा उनके व्यक्तित्वों, भाषण शैलियों और अदाओं पर चर्चा हो रही है.
उदाहरण के लिए, राहुल गाँधी मॉडल को ही लीजिए जिसे नरेन्द्र मोदी मॉडल
के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. सवाल यह है कि राहुल मॉडल में ऐसा नया
या अनूठा क्या है जो उसे कांग्रेस या यू.पी.ए सरकार से अलग और विशिष्ट बनाता है?
हाल के महीनों में राहुल गाँधी के सार्वजनिक भाषणों में ऐसी कोई नई
बात, सोच या आइडिया नहीं दिखाई पड़ा है जो कांग्रेस की वैचारिकी या नीतियों में कोई
बड़े या उल्लेखनीय बदलावों की ओर इशारा करता हो.
उनके भाषणों में वही समावेशी विकास
और आर्थिक वृद्धि का लाभ गरीबों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों
तक पहुँचाने की बातें हैं, विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को सशक्त बनाने पर जोर है और
युवाओं के लिए नए अवसर और उम्मीदें पैदा करने जैसे आह्वान और सपने हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यू.पी.ए
सरकार पिछले नौ सालों से यही बातें कर रही हैं. लेकिन व्यवहार में इसके ठीक उलट हो
रहा है. तथ्य यह है कि पिछले छह-सात महीनों में कांग्रेस नेतृत्व ने नव उदारवादी
आर्थिक नीतियों को न सिर्फ निर्णायक रूप से अंगीकार किया है बल्कि खुलकर उसके
समर्थन में आ गया है और उसकी हरी झंडी के बाद यू.पी.ए सरकार उन्हें जोरशोर से लागू
करने और आगे बढ़ाने में भी जुटी है.
याद रहे, एक ओर कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी के नेतृत्व को
औपचारिक रूप आगे बढ़ाया जा रहा था और दूसरी ओर, उसी समय पार्टी कार्यसमिति की मुहर
के साथ यू.पी.ए सरकार खासकर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक झटके में खुदरा
व्यापार से लेकर पेंशन क्षेत्र में एफ.डी.आई को इजाजत देने से लेकर विदेशी पूंजी
को तमाम रियायतें देने के कई बड़े और विवादस्पद फैसले किये हैं.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों से थोड़ी दूरी बनाकर चलनेवाले और सुधारों को
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से डालनेवाले कांग्रेस नेतृत्व ने पहली बार
दिल्ली में खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के समर्थन में रैली आयोजित की जिसके स्टार
वक्ता खुद राहुल गाँधी थे.
साफ़ है कि कांग्रेस नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण को लेकर अब कोई भ्रम
नहीं है और उसने बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को खुश करने का और इसके लिए आर्थिक
सुधारों पर दांव लगाने फैसला कर लिया है और पिछले छह महीनों में यहाँ तक कि पार्टी
के उपाध्यक्ष बनने के बाद भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि राहुल गाँधी कांग्रेस नेतृत्व
से अलग सोच रहे हैं.
असल में, राहुल मॉडल और कुछ नहीं बल्कि नव उदारवादी आर्थिक वैचारिकी
पर आधारित बड़ी पूंजी-कारपोरेट निर्देशित ‘विकास’ और उसके भीतर गरीबों के लिए
थोड़ी-मोड़ी राहतों की व्यवस्था करके उसे आमलोगों के बीच सहनीय बनाने तक सीमित है.
सच पूछिए तो यह रणनीति नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के राजनीतिक
प्रबंधन की रणनीति है जिसका मकसद आर्थिक सुधारों के लिए आमलोगों खासकर
गरीबों-हाशिए पर पड़े लोगों का समर्थन जीतना और उसे उनके बीच स्वीकार्य बनाना है.
यहाँ तक कि अब तो विश्व बैंक ने भी इसी भाषा में बोलना शुरू कर दिया
है. विश्व बैंक ने भी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को समावेशी बनाने के नामपर
गरीबों को कुछ राहत देने और इसके लिए एन.जी.ओ आदि की मदद लेने की बात दशक भर पहले
से ही शुरू कर दी थी.
इस सोच को २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के पिटने और एन.डी.ए की
हार के बाद एक तरह की स्वीकार्यता मिली. अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति
नियंताओं ने आर्थिक सुधारों को लोगों के गले उतारने के लिए समावेशी विकास और नरेगा
जैसी योजनाएं शुरू कीं. नीति निर्णय में एन.जी.ओ को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) जैसे प्रबंध किये गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे एक राजनीतिक स्थिरता आई और आर्थिक
सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद मिली. याद रहे कि समावेशी विकास के नारों के बीच इसी
दौर में जमीन की लूट का रास्ता साफ़ करने के लिए सेज आया, विदेशी पूंजी के लिए
अर्थव्यवस्था के दरवाजे और ज्यादा खोले गए और सार्वजनिक संसाधनों की लूट (जैसे
२-जी और के.जी बेसिन आदि) तेज हुई.
इसलिए जब राहुल गाँधी समावेशी विकास के लिए अधिकार आधारित एप्रोच की
बात करते हैं तो आज वह एक मजाक से अधिक नहीं लगता है. एक नारे के बतौर समावेशी
विकास अपनी चमक खो चुका है. उसकी सीमाएं किसी से छुपी नहीं हैं.
सच यह है कि चाहे नरेगा हो या शिक्षा का अधिकार या खाद्य सुरक्षा का अधिकार- ये सभी अपने मूल अंतर्वस्तु में शिक्षा, रोजगार और भोजन के मौलिक अधिकार के आइडिया का मजाक उड़ानेवाले हैं. तथ्य यह है कि कांग्रेस और यू.पी.ए के समावेशी विकास की सीमा नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी सीमित और आधी-अधूरी योजनाएं हैं.
सच यह है कि चाहे नरेगा हो या शिक्षा का अधिकार या खाद्य सुरक्षा का अधिकार- ये सभी अपने मूल अंतर्वस्तु में शिक्षा, रोजगार और भोजन के मौलिक अधिकार के आइडिया का मजाक उड़ानेवाले हैं. तथ्य यह है कि कांग्रेस और यू.पी.ए के समावेशी विकास की सीमा नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी सीमित और आधी-अधूरी योजनाएं हैं.
अन्यथा यह तो खुद राहुल गाँधी भी जानते हैं कि कारपोरेट निर्देशित
विकास में आमलोगों को कुछ खास नहीं मिल रहा है. उल्टे उन्हें उसकी भारी कीमत
चुकानी पड़ रही है. सी.आई.आई के सम्मेलन में खुद राहुल गाँधी ने स्वीकार किया कि
‘विकास के ज्वारभाटे में हर नाव ऊँचा उठ जाती है लेकिन यहाँ तो बहुसंख्यकों के पास
नाव ही नहीं है.’
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों के नव उदारवादी आर्थिक
सुधारों के तहत कारपोरेट विकास के मॉडल में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार तो जरूर तेज
हुई है लेकिन उससे आई समृद्धि एक बहुत ही छोटे वर्ग तक सीमित हो गई है.
इसकी वजह यह है कि यह मूलतः ‘रोजगारविहीन, शहर केंद्रित और कुछ
क्षेत्रों तक सीमित और सार्वजनिक संसाधनों की लूट’ पर आधारित ‘कारपोरेट विकास’ रहा
है. इसके कारण न सिर्फ आर्थिक गैर बराबरी और विषमताएं बढ़ी हैं, गरीबों-आदिवासियों
को उनके अपने जल-जंगल-जमीन-खनिजों से बेदखल किया गया है बल्कि लाखों किसानों को
आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं, श्रमिकों का शोषण-उत्पीडन बढ़ा है और श्रम की कोई गरिमा
कम हुई है.
पर्यावरण विनाश को अनदेखा किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच
है कि देश भर में इन नीतियों और कारपोरेट लूट के खिलाफ किसान, श्रमिक, आदिवासी और
गरीब लड़ाई में उतर आए हैं.
यह तथ्य है कि आज किसानों-गरीबों-आदिवासियों के इन विरोध प्रदर्शनों
के कारण देश भर में दर्जनों पावर, स्टील, हाईवे, रीयल इस्टेट प्रोजेक्ट्स ठप्प पड़े
हैं. दूसरी ओर, २-जी से लेकर कोयला आवंटन जैसे मामलों के खुलासों के बाद सार्वजनिक
संसाधनों की कारपोरेट लूट और याराना पूंजीवाद पर सवाल उठने लगे हैं.
जाहिर है कि इससे कारपोरेट जगत बहुत बेचैन है और यू.पी.ए सरकार पर
‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगा रहा है. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने पिछले छह महीनों में
देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट दबाव में आर्थिक सुधारों के बाबत बड़े फैसलों के
साथ ठहरे पड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में
कैबिनेट की निवेश सम्बन्धी समिति गठित की है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों में
पर्यावरण और आदिवासी जमीन से सम्बन्धी बाधाओं को दरकिनार करते हुए हजारों करोड़ के
प्रोजेक्ट्स को एक्सप्रेस अनुमति दी है.
राहुल माडल की सीमाओं का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर राहुल गाँधी सी.आई.आई के जिस सम्मेलन में
विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को और अधिकार देने की बात कर रहे हैं, गरीबों को सुनने
और उन्हें विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बात कर रहे थे, उसी सम्मेलन में
प्रधानमंत्री ने बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण में पंचायतों की अनुमति की
बाध्यता में छूट देने का एलान किया. क्या अब भी राहुल मॉडल की सीमाएं बताने की
जरूरत है?
हैरानी की बात नहीं है कि इसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है और उनके स्पिन
डाक्टरों की उसे चमकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके खरीददार उससे मुंह मोड़ते
दिख रहे हैं.
('राष्ट्रीय सहारा'के हस्तक्षेप में १ अप्रैल को प्रकाशित टिप्पणी)
3 टिप्पणियां:
आज मैं किसी काम से बाहर गया था, वहाँ दो लोग बात कर रहे थे। पड़ोस में किसी की दूकान से चोरी हो गयी थी। उसमें से एक ने ऐसी बात कही जिसने विकास के पश्चिमी नव-उदारवादी प्रारूप की विसंगतियों को इंगित किया। उसने कहा कि क्यों न हो चोरी - किसी के पास इतनी सम्पत्ति कि रखने को थाह नहीं और किसी के पास रखने की बात ही छोड़िए खाने के लिए भी कुछ नहीं है। आर्थिक उन्नति तो हुई है लेकिन इसका फ़ायदा चन्द लोगों को ही हुआ है।
ट्रिकल डाउन सिद्धांत - विकास का लाभ टपकते हुए देर-सबेर नीचले पायदान तक पहुँचता है - के अनुमानों के विपरीत यह लाभ ऊपर ही कहीं लगे सोखते द्वारा सोख लिया जा रहा है।
राहुल और मोदी दोनो का मॉडल एक है । दोनो के दोनो कॉरपोरेट के कारिंदे है । इसलिए देश को इनसे कोई आशा रखना अपने आप से छलावा करने के बराबर है । इनके मॉडल में आमआदमी की कोई भूमिका नहीं है । आम आदमी इनके लिए रा-मटेरीय है और उसका उपभोग किस प्रकार करना है ये दोनो अच्छी तरह से जानते है । बात करनी है तो त्रिपुरा के मुख्यमंत्री की कोई नहीं करता है । क्योंकि उसकी बात करने पर तो मीडिया की भी पीडलियां कॉंपति है । और उसके विकास मॉडल की कौई चर्चा करने की हिम्मत ही नही जुटा पाता है । जबकि उसका विकास मॉडल तो दूनिया का सबसे बेहतरीन विकास मॉडल है ।
आपसे सहमत हैं। मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि मीडिया की दौड़ वहीं तक सीमति हैं जहाँ तक टैम के पीपुल मीटरों का जाल फैल है। उसका बेहतरन विकास प्रारूपों से उतना वास्ता नहीं है जितना कि लोकप्रिय माडलों से । इसीलिए उसने पूवोत्तर के मुद्दों का सीमांतीकरण कर दिया है।
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