सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)    

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