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शनिवार, नवंबर 02, 2013

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई को आमलोगों की हक-हुकूक की लड़ाई से जोड़ना होगा

९० के दशक की छात्र राजनीति के सबक: साम्प्रदायिकता का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति ही सकती है 

जैसे-जैसे आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं, साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा फिर से गर्म होने लगा है. चुनावी आंच पर एक बार फिर धर्मनिरपेक्षता की खिचड़ी पकाने की तैयारी होने लगी है. पिछले चार-साढ़े चार साल से जो बढ़ती साम्प्रदायिकता को अनदेखा करते रहे या उससे कभी खुले-कभी छिपे प्रेम की पींगें बढ़ाते रहे या भाजपा के साथ सत्ता सुख भोगते रहे या फिर केन्द्र या प्रदेश में राज करते हुए जनता से किये गए वायदों को भुलाकर सत्ता की मलाई का लुत्फ़ उठाते रहे, उन सभी को साम्प्रदायिकता की चिंता सताने लगी है.
खुद को सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ शुरू हो गई है और एक बार फिर से साम्प्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और लड़ाई की दुहाई दी जाने लगी है.
ऐसा लगता है जैसे हर चुनाव से पहले होनेवाला कोई पांच साला कर्मकांड शुरू हो गया है. हमेशा की तरह एक बार फिर इस कर्मकांड की मुख्य पंडित- वामपंथी पार्टियां हैं जो केन्द्र की अगली सरकार में अपनी जगह पक्की करने और सत्ता की मलाई में अपने-अपने हिस्से के लिए बेचैन यजमानों को चुनावी युद्ध में उतरने से पहले धर्मनिरपेक्षता का मन्त्र पढ़ाने में जुट गई हैं. वे एक बार फिर यजमानों को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट बांट रही हैं, भले ही यजमान चार महीने पहले तक सांप्रदायिक खेमे का बड़ा सिपहसालार था.

यही नहीं, वामपंथी पार्टियां भी अच्छी तरह से जानती हैं कि अगले चुनावों से पहले कोई गैर कांग्रेस-गैर भाजपा धर्मनिरपेक्ष तीसरा मोर्चा नहीं बनने जा रहा है, सबने चुनावों के बाद अपने सभी विकल्प खुले रखे हैं और इनमें से कई चुनावों के बाद फिर भाजपा के साथ गलबहियां करते हुए दिख जाएंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि ठीक चुनावों से पहले साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई और धर्मनिरपेक्षता का झंडा बुलंद करने और चुनावों के बाद नतीजों के मुताबिक कभी धर्मनिरपेक्षता के झंडे के नीचे सत्ता की मलाई काटने और कभी उस झंडे को लपेट कर कुर्सी के नीचे रख देने और सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सत्ता सुख भोगने की अवसरवादी राजनीति की कलई खुल चुकी है.
सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा वास्तव में बढ़ता जा रहा है लेकिन उसके खिलाफ राजनीतिक लड़ाई लगातार कमजोर होती जा रही है क्योंकि धर्मनिरपेक्षता के अवसरवादी अलमबरदारों ने इस लड़ाई को चुनावी रणनीति और गणित तक सीमित करके निहायत अविश्वसनीय और मजाक का विषय बना दिया है.
असल में, साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ाई आमजन के बुनियादी सवालों- रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ्य, बिजली-सड़क-पानी, सुरक्षा, अमन-चैन आदि और हक-हुकूक से कटकर नहीं हो सकती है.

मुझे याद है कि ९० के दशक के शुरूआती वर्षों में जब देश खासकर उत्तर भारत साम्प्रदायिकता के बुखार में तप रहा था, भगवा ब्रिगेड के नेतृत्व में एक अत्यंत जहरीले साम्प्रदयिक अभियान के बाद बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी, देश के कई हिस्सों में भड़के दंगों में हजारों लोग मारे गए थे और सबसे बढ़कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की कोशिशें परवान चढती दिख रही थीं, उस समय हमने पूरे उत्तर प्रदेश के परिसरों में छात्रों-युवाओं के बीच आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोशियेशन (आइसा) की अगुवाई में साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी.

मुझे वे दिन आज भी याद है जब हमने साम्प्रदायिकता के खिलाफ छात्रों-नौजवानों को गोलबंद करने के लिए परिसरों में नारा दिया था- ‘दंगा नहीं, रोजगार चाहिए/ जीने का अधिकार चाहिए.’
नतीजा यह हुआ कि १९९२-९३ में इलाहाबाद, बी.एच.यू, कुमाऊं, लखनऊ, गोरखपुर आदि कई विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों के चुनावों में आइसा ने भगवा हिंदुत्व की चैम्पियन ए.बी.वी.पी, नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ा रही कांग्रेस के छात्र संगठन- एन.एस.यू.आई और सामाजिक न्याय के नामपर जातिवादी गोलबंदी करने में जुटी छात्र जनता और छात्र सभा जैसे संगठनों को हारने में कामयाबी हासिल की. उसी दौर में दशकों बाद बी.एच.यू में छात्रसंघ में मैं भी एक वामपंथी छात्र कार्यकर्ता के बतौर छात्रसंघ चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बना था.
लेकिन मुझे इसका कोई मुगालता नहीं है कि वह मेरी या आइसा की जीत थी बल्कि वह सांप्रदायिक फासीवाद और नव उदारवादी अर्थनीति की राजनीति का पूर्ण नकार और सामाजिक न्याय की सीमित-संकीर्ण राजनीति का सकारात्मक नकार था. यह एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी के पक्ष में आम छात्रों का जनादेश था.

इस जीत ने साफ़ कर दिया था कि साम्प्रदायिक राजनीति का मुकाबला एक बेहतर और जन सरोकारों से जुड़ी राजनीति और वैचारिकी से ही किया जा सकता है. इस जीत का सबक यह था कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ कोई भी लड़ाई आमलोगों के रोजी-रोटी और हक-हुकूक से जुड़े बिना कामयाब नहीं हो सकती है.

असल में, आमलोगों के दुःख-दर्दों से जुड़े बिना और उनके दैनिक जीवन के संघर्षों और हक-हुकूक की लड़ाई से जुड़े बिना साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की गोलबंदी एक अवसरवादी सत्तालोलुप राजनीति का पर्याय बन जाती है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि सांप्रदायिक राजनीति की चैम्पियन के बतौर भाजपा के उभार में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश मध्यमार्गी और कथित धर्मनिरपेक्ष दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिन्होंने अपनी सुविधा और अवसर के मुताबिक कभी भाजपा के साथ सत्ता की मलाई काटी और कभी उसका विरोध करके सत्ता सुख भोगा.
यही नहीं, इन कथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपनी जनविरोधी अर्थनीति और राजनीति, भ्रष्टाचार, कुशासन, परिवारवाद और तमाम गडबडियों पर पर्दा डालने का माध्यम बना लिया है.
चिंता की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की यह अवसरवादी राजनीति सबसे ज्यादा नुकसान धर्मनिरपेक्षता को ही पहुंचा रही है. इससे आमलोग धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के प्रति ‘सिनिकल’ होते जा रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि यू.पी.ए के राज में बढ़े भ्रष्टाचार, आसमान छूती महंगाई और रोजगार के घटते अवसरों के खिलाफ लोगों के गुस्से को दिशा देने में प्रगतिशील-लोकतांत्रिक राजनीति की नाकामी का सबसे अधिक फायदा सांप्रदायिक राजनीति उठा रही है. यह देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और समता के बुनियादी मूल्यों के लिए खतरे की घंटी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के २ नवम्बर के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित)


शुक्रवार, जनवरी 04, 2013

छात्र-युवा आंदोलन की पुनर्वापसी के मायने

छात्रसंघ और छात्र-युवा आन्दोलन लोकतान्त्रिक राजनीति के प्राण-वायु हैं

दिल्ली गैंग रेप और महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के खिलाफ देश भर खासकर दिल्ली में शुरू हुए आंदोलन में छात्रों-युवाओं की सक्रिय, सचेत और नेतृत्वकारी भूमिका को सबने नोटिस किया है. इस बर्बर और शर्मनाक घटना के विरोध में जिस तरह से दिल्ली की सड़कों खासकर मुख्यमंत्री निवास-रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट और फिर जंतर-मंतर पर छात्रों-युवाओं का गुस्सा फूटा और पुलिस की ओर से हुए लाठीचार्ज, आंसूगैस और ठन्डे पानी की बौछारों के बावजूद वे डटे रहे, उसने सत्ता प्रतिष्ठान और समूचे राजनीतिक वर्ग को हिला कर रख दिया है.  
हालाँकि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने दिल्ली में छात्र-युवाओं के इस तरह से सड़क पर उतरने और विरोध करने की तुलना ‘फ्लैश मॉब’ से करके उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की है लेकिन सच यह है कि इसने ६० से लेकर ८० के दशक तक के छात्र-युवा आंदोलनों के तूफानी दौर और जज्बे की याद दिला दी है.

यह एक मायने में राष्ट्रीय जीवन और परिदृश्य से गायब से हो गए छात्र-युवा आंदोलन के पुनर्रूज्जीवन और वापसी का संकेत भी हो सकता है. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में मंडल-मंदिर से विभाजित और उदारीकरण-भूमंडलीकरण के तड़क-भड़क से प्रभावित छात्र-युवा आंदोलन काफी कमजोर हो गया था और उसकी धमक क्षीण सी हो गई थी.

यही नहीं, शासक वर्गों ने छात्र-युवा आंदोलन को कमजोर करने के लिए सुनियोजित तरीके से देश भर में खासकर उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों/कालेजों में पहले छात्रसंघों को प्रतिबंधित किया और फिर लिंगदोह समिति की सिफारिशों के जरिये छात्रसंघों को कमजोर, अराजनीतिक और पालतू बनाने की कोशिश की.
इसकी वजह यह थी कि चाहे कांग्रेस या गैर कांग्रेस पार्टियों की केन्द्र सरकार रही हो या राज्य सरकारें सभी छात्रसंघों और छात्र-युवा आन्दोलनों से डरती रही हैं क्योंकि ६० से ८० के दशक के दौरान देश में विभिन्न मुद्दों पर सत्ता को चुनौती देनेवाले ज्यादातर छात्र-युवा आंदोलनों की अगुवाई छात्रसंघों ने ही की थी.
इसके अलावा छात्र-युवा आन्दोलनों को कमजोर करने में ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों और उनके जेबी छात्र-युवा संगठनों की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है. इन सत्तारुढ़ पार्टियों ने अपने छात्र-युवा संगठनों को केवल राजनीतिक रैलियों में भीड़ जुटाने, शीर्ष नेताओं की जय-जयकार और जरूरत पड़ने पर हंगामा-तोड़फोड़ और गुंडागर्दी करने के लिए इस्तेमाल किया है.

नतीजा सामने है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण और उसे धर्मों, जातियों, क्षेत्रों और भाषाओँ के आधार पर बांटने में इन शासक पार्टियों की भूमिका किसी से छुपी नहीं है. छात्र-युवा राजनीति के अपराधीकरण ने उसे आम छात्र-युवाओं और उनके वास्तविक मुद्दों से दूर कर दिया और इसके कारण छात्र-युवाओं का बड़े पैमाने पर अराजनीतिकरण हुआ.  

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों से देश में इक्का-दुक्का और क्षेत्र विशेष तक सीमित छात्र-युवा आन्दोलनों के अलावा किसी बड़े मुद्दे पर छात्र-युवा आंदोलन की धमक नहीं सुनाई दी है. ऐसा लगने लगा था, जैसे छात्र-युवा आंदोलन इतिहास की बात हो गए हों. लेकिन २०१० में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में छात्र-युवाओं की बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी ने छात्र-युवा आंदोलन के फिर से उठ खड़ा होने की नई उम्मीदें पैदा कर दीं.
इसी दौरान आइसा जैसे रैडिकल-वाम और कुछ दूसरे वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों के संघर्षों के दबाव में जे.एन.यू से लेकर इलाहाबाद और पटना तक कई विश्वविद्यालयों में इस साल छात्रसंघों के चुनाव हुए और उसमें आइसा और अन्य वाम-लोकतांत्रिक छात्र संगठनों की जीत हुई.
इसका असर हमारे सामने है. दिल्ली के बर्बर गैंग रेप के बाद विरोध में सबसे पहले वाम छात्र संगठनों की अगुवाई वाला जे.एन.यू छात्रसंघ उतरा. उसने मुनीरका और वसंत विहार में बाहरी रिंग रोड को घंटों जाम रखा.

उसके अगले दिन आइसा-आर.वाई.ए-एपवा की अगुवाई में जे.एन.यू, जामिया और दिल्ली विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के घर पर जोरदार प्रदर्शन किया जिसपर पुलिस ने वाटर कैनन से ठंडे पानी की बौछारें छोडीं और लाठीचार्ज किया. लेकिन नाराज छात्र-युवा पीछे नहीं हटने को तैयार नहीं हुए.

मुख्यमंत्री निवास पर छात्र-युवाओं के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिसिया कार्रवाई को पूरे देश ने न्यूज चैनलों पर देखा. इसके बाद तो जैसे लोगों खासकर छात्र-युवाओं के सब्र का बाँध टूट पड़ा. रायसीना-विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक विरोध प्रदर्शनों की बाढ़ सी आ गई.
हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे छात्र-युवाओं खासकर छात्राओं ने एक तरह से राजधानी में सत्ता के केन्द्रों को घेर लिया. पुलिस के लाठीचार्ज, आंसूगैस और वाटर कैनन के बावजूद वे पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. इंडिया गेट पर तो पुलिस ने हद कर दी जहाँ शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों खासकर छात्राओं-महिलाओं तक पर लाठियां चलाने में उसे कोई संकोच और शर्म महसूस नहीं हुई.
लेकिन इस दमन से यह आंदोलन कमजोर नहीं हुआ बल्कि पूरे देश में फ़ैल चुका है. इस आंदोलन में छात्रों-युवाओं खासकर महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी और उसके कारण बने जन-दबाव का ही नतीजा है कि इसने एक झटके में महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा के मुद्दे को राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे पर ला खड़ा किया है.

केन्द्र और राज्य सरकारों से लेकर सभी राजनीतिक दलों की नींद टूट गई है और महिलाओं के खिलाफ होनेवाले यौन हिंसा को रोकने के लिए कड़े कानून, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने से लेकर पुलिस को चुस्त और संवेदनशील बनाने, हेल्पलाइन शुरू करने जैसे फैसले-वायदे लिए जा रहे हैं.

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर इस मुद्दे पर जे.एन.यू छात्रसंघ और आइसा-एपवा जैसे संगठनों ने विरोध की पहल नहीं की होती और दिल्ली सहित पूरे देश में हजारों-लाखों की संख्या में छात्र-युवा सड़कों पर नहीं निकले होते तो क्या सरकार और राजनीतिक पार्टियों की नींद खुलती?
दिल्ली गैंग रेप अपनी सारी बर्बरता के बावजूद क्या बलात्कार का एक और मामला बनकर पुलिस-कोर्ट तक सीमित नहीं रह जाता? क्या महिलाओं की आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा का सवाल हाशिए से राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आ पाता? क्या महिलाओं के विभिन्न मुद्दों पर देश भर में शुरू हुई बहस और उससे पैदा हो रही सामाजिक जागरूकता संभव हो पाती?
कहने का गरज यह कि छात्र-युवा आंदोलन और छात्रसंघ किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति के प्राणवायु हैं. वे न सिर्फ सरकारों की सामाजिक निगरानी और उनपर अंकुश रखने का काम करते हैं बल्कि उनके जनविरोधी फैसलों के खिलाफ आन्दोलनों की अगुवाई करके नया राजनीतिक विकल्प पैदा करने में भी मदद करते हैं. वे सामाजिक बदलाव के मुद्दों को भी राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने में मदद करते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि देश और दुनिया में जितने भी बड़े छात्र-युवा आंदोलन हुए हैं, वे छात्रों-युवाओं के तबके मुद्दों पर नहीं बल्कि तानाशाही के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए या भ्रष्टाचार के खिलाफ सार्वजनिक शुचिता और पारदर्शिता जैसे मुद्दों पर हुए हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि देश में छात्र-युवा राजनीति और छात्रसंघों को सुनियोजित तरीके से खत्म करने की कोशिशें अभी भी जारी हैं. हैरानी की बात नहीं है कि देश के अधिकांश राज्यों में विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव नहीं हो रहे हैं.
यहाँ तक कि बी.एच.यू., जामिया और ए.एम.यू जैसे कई केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में न सिर्फ छात्रसंघों के चुनाव प्रतिबंधित हैं बल्कि वहां छात्र संगठनों की गतिविधियों और सभा-चर्चाओं तक पर भी रोक है. इस कारण पिछले वर्षों में छात्र-युवाओं की कई पीढ़ियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ और छात्र-युवा आंदोलन ठंडे से पड़ते गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति को भारी नुकसान हुआ है. छात्र-युवा राजनीति का गला घोंट देने के कारण न सिर्फ नया नेतृत्व नहीं आ रहा है बल्कि उसके कारण अधिकांश राजनीतिक पार्टियों में वंशवाद मजबूत हुआ है.

समय आ गया है जब छात्र-युवा आन्दोलनों के महत्व और उनकी भूमिका को देखते हुए न सिर्फ सभी विश्वविद्यालयों/कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव अनिवार्य किये जाएँ बल्कि छात्र-युवा राजनीति को भी प्रोत्साहित किया जाए.

छात्रों-युवाओं को भी सत्तारुढ़ पार्टियों के जेबी छात्र-युवा संगठनों और अपराधी छात्र-युवा नेताओं के बजाय रैडिकल बदलाव की राजनीति करनेवाले वैचारिक-राजनीतिक छात्र-युवा संगठनों को आगे बढ़ाना होगा. अन्यथा उनके छात्रसंघ की भी वही मूकदर्शक की भूमिका होगी जो मौजूदा आंदोलन के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ की रही?

('दैनिक भास्कर' के 4 जनवरी के अंक में आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण) 

रविवार, अक्टूबर 14, 2012

बी एच यू में ये क्या हो रहा है?

परिसर के लोकतंत्रीकरण के लिए छात्रसंघ है जरूरी


बी.एच.यू मेरे लिए देश के अन्य कई विश्वविद्यालयों की तरह एक और विश्वविद्यालय भर नहीं है. वह मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. जहाँ जाता हूँ, वह मेरे साथ चलता है. मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन नौ साल उस परिसर में ही गुजरे हैं, जहाँ मेरे कवि मित्र राजेन्द्र राजन के मुताबिक,
यही है वह जगह/
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव/
हमउमर की तरह आता है/
आंखों में आंखे मिलाते हुए..”
 
उस वसंत एक टुकड़ा अभी मन के किसी कोने में जवान है.
लेकिन पिछले कुछ महीनों से बी.एच.यू से आ रही खबरों ने बेचैन कर दिया है. सुना है कि परिसर में आपातकाल के से हालत हैं. छात्रों और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच संवादहीनता की दीवार सी बन गई है. प्राक्टोरियल बोर्ड के रूप में परिसर का सैन्यीकरण चरम पर पहुँच गया है.

छात्रसंघ के सीधे चुनाव वर्षों से बंद हैं और उसकी जगह एक जेबी छात्र परिषद खड़ी करने की कोशिश जारी है. परिसर में राजनीतिक चर्चा, बहस और संवाद प्रतिबंधित सा है. हर विरोध को डंडे और निष्कासन/निलंबन की नोटिस से दबाने का नियम सा बन गया है. विश्वविद्यालय की अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी है जो छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों की जासूसी करती है.  

मेरे लिए यह जानना तो अकल्पनीय सा है कि स्वतंत्रता आंदोलन के उस परिसर में छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों को बोलने, सवाल उठाने और विरोध करने की मौलिक आज़ादी नहीं है, जहाँ मैंने अपनी आवाज़ पाई, विरोध और सवाल करने का सलीका और जनतंत्र को जीना सीखा?

मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि विश्वविद्यालय परिसर है या जेल? हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे दमघोंटू और अविश्वास से भरे माहौल में परिसर से हिंसा, आगजनी, मारपीट और उपद्रव की निराश करनेवाली खबरें आ रही हैं. खासकर अध्यापकों के साथ मारपीट, गालीगलौज और उनके घरों में आगजनी की तो जितनी निंदा की जाए, कम है.
छात्र राजनीति गुंडागर्दी का लाइसेंस नहीं है. विरोध का मतलब हिंसा और आगजनी नहीं है. इससे छात्र आंदोलन की नैतिक सत्ता कमजोर होती है. छात्रों को ऐसे अपराधी, जातिवादी, अराजक तत्वों को पहचानना होगा और उन्हें छात्र आंदोलन से बाहर करना होगा.

इन तत्वों के कारण ही छात्रसंघ और छात्र आंदोलन बदनाम हुए और प्रशासन को उन्हें खत्म करने का मौका मिला. लेकिन बी.एच.यू प्रशासन को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है. परिसर की हिंसा और अशांति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी उसी की बनती है.

आखिर छात्रसंघ के गठन से कौन डर रहा है? क्या यह सच नहीं है कि छात्रसंघ-शिक्षक संघ का सबसे अधिक विरोध विश्वविद्यालय प्रशासन के भ्रष्ट अफसर करते हैं? उन्हें हमेशा अपने भ्रष्ट कारनामों के खुलासे और मनमानी पर ऊँगली उठने का डर सताता रहता है.
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद छात्रसंघ के गठन और उसके सीधे चुनाव से परहेज क्यों है? मेरी राय में, छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि छात्रसंघ छात्रों का मौलिक अधिकार है. वह जनतंत्र की पाठशाला है. यह परिसर के लोकतंत्रीकरण की अनिवार्य शर्त है. विश्वविद्यालय पर पहला हक छात्रों और अध्यापकों का है. विश्वविद्यालय के संचालन में अध्यापकों के साथ-साथ छात्रों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए.

क्या यह जनतांत्रिक तरीके से चुने गए छात्र और शिक्षक प्रतिनिधियों के बिना संभव है? सच पूछिए तो आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है.

आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.
इसके बजाय जो लोग छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताते नहीं थकते है, वे सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?
तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी तैयार करने में मदद मिलती है.

क्या वह समय नहीं आ गया है जब बी.एच.यू एक बार फिर से देश के सामने एक बेहतरीन छात्रसंघ के साथ परिसर के लोकतंत्रीकरण का नया आदर्श पेश करे?
आखिर मेरी स्मृतियों में विश्वविद्यालय का आज़ाद वसंत गुनगुनाता रहता है, कविगुरु रबीन्द्रनाथ के मुताबिक, “जहाँ उड़ता फिरे मन बेख़ौफ़/
और सिर हो शान से उठा हुआ/
जहाँ इल्म हो सबके लिए बे रोक टोक/
बिना शर्त रखा हुआ...जहाँ दिलो दिमाग तलाशे नए नए ख्याल और उन्हें अंजाम दे/ ऐसी आजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन (या विश्वविद्यालय) की हो नयी सुबह.”
आमीन.

('दैनिक हिन्दुस्तान', वाराणसी में 14 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)