अख़बारों और न्यूज एजेंसियों के पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अखबार मालिकों की मुहिम जारी है. इस मुहिम की अगुवाई ‘टाइम्स आफ इंडिया’ समूह कर रहा है. आज भी ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में पेज १७ पर दो कालम और सात पैराग्राफ की भारी भरकम खबर छपी है जिसमें बताया गया है कि अगर वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो देश की दोनों प्रमुख समाचार एजेंसियों- पी.टी.आई और यू.एन.आई बंदी के कगार पर पहुँच जाएँगी. इस रिपोर्ट के मुताबिक, यू.एन.आई पहले ही ३० करोड़ से अधिक के घाटे में और वित्तीय तौर पर खस्ताहाल है और पी.टी.आई भी इसी स्थिति की ओर बढ़ रही है.
इस रिपोर्ट का लिंक है: http://epaper.timesofindia.com/Daily/skins/TOINEW/navigator.asp?Daily=CAP&showST=true&login=default&pub=TOI&AW=1310012860916
कहने की जरूरत नहीं है कि टाइम्स में यह रिपोर्ट बहुत सुनियोजित तरीके प्लांट की गई है. उसका मकसद वेतन आयोग के खिलाफ माहौल बनाना और दुष्प्रचार करना है. इसका सबूत यह है कि रिपोर्ट बिना किसी बाइलाइन के है और पूरी खबर सूत्रों के हवाले से लिखी गई है. यही नहीं, यह ‘खबर’ कम और ‘विचार’ अधिक है. आश्चर्य की बात यह है कि जो बड़े अखबार समूह इन एजेंसियों की धीमी मौत के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं और जिन्होंने कभी भी उनकी खोज-खबर नहीं ली, उनमें आज अचानक एजेंसियों के वित्तीय स्वास्थ्य के लिए इतना प्रेम कैसे उमड़ पड़ा है?
सच यह है कि एजेंसियों की मौजूदा स्थिति के लिए काफी हद तक बड़े और मंझोले अखबार समूह भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपने खर्चों में कटौती के नाम पर एजेंसियों की सेवाएं आधिकारिक तौर पर खत्म कर दी हैं या एक एजेंसी की सेवा में कई संस्करण निकाल रहे हैं या एजेंसियों की खबरें चोरी-चोरी अपने रिपोर्टर के हवाले से छाप रहे हैं. यही नहीं, वे एजेंसियों की सेवाओं के लिए बहुत कम भुगतान कर रहे हैं. इन सब कारणों से एजेंसियों की वित्तीय स्थिति कमजोर हुई है.
तथ्य यह है कि इन एजेंसियों के मालिक भी यही बड़े अखबार समूह हैं और उनके बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स में भी वही बैठे हैं. उनके मौजूदा हाल के लिए भी मुख्य रूप से वही जिम्मेदार हैं. लेकिन अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने के बजाय वे एजेंसियों के पत्रकारों और कर्मचारियों के वेतन बिल को उनकी वित्तीय दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. उनका वश चला होता तो आज यू.एन.आई बिक चुकी होती और रफ़ी मार्ग पर सुभाष चंद्र का साम्राज्य स्थापित हो चुका होता. लेकिन यू.एन.आई के पत्रकारों और कर्मचारियों के आंदोलन ने प्रबंधन को पीछे हटने को मजबूर कर दिया.
साफ है कि अख़बारों के मालिकों को एजेंसियों के स्वास्थ्य की कतई चिंता नहीं है. क्या अख़बारों या न्यूज एजेंसियों को बचाने के लिए कुर्बानी देने की जिम्मेदारी सिर्फ पत्रकारों की है? क्या मालिक अपने मोटे मुनाफे में कुछ हिस्सा उन्हें नहीं दे सकते? अगर वे सचमुच चिंतित हैं तो पहले ही एजेंसियों के लिए भी सरकार से सहायता पैकेज की मांग करते. वैसे ही जैसे उन्होंने खुद वैश्विक मंदी के समय सरकार से स्टिमुलस पैकेज लिया था. लेकिन सच यह है कि यहाँ इरादा एजेंसियों की मदद करना नहीं बल्कि उनकी आड़ में वेतन आयोग के खिलाफ दुष्प्रचार करना है. अख़बारों के मालिकान एजेंसियों के बहाने यही कर रहे हैं.
यह सचमुच अफसोस और शर्म की बात है कि अख़बारों के मालिक और उनका संगठन आई.एन.एस अपनी लाबीइंग की ताकत का इस्तेमाल करके मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को रद्द कराने या आधे-अधूरे तरीके से लागू कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए हैं. उनके तर्कों में कोई सच्चाई नहीं है. सबसे हैरानी की बात यह है कि इस मुहिम में शामिल अधिकांश बड़े अखबार खूब मुनाफा कमा रहे हैं लेकिन वे अपने मुनाफे में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों को उनका वाजिब हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं हैं.
सच यह है कि प्रेस की आज़ादी के नाम पर मालिक मलाई काट रहे हैं लेकिन कई बड़े-मंझोले-छोटे अखबार अपने पत्रकारों को न्यूनतम वेतन भी देने को तैयार नहीं हैं. खासकर भाषाई अखबारों में स्थिति इतनी खराब है कि कल्पना नहीं की जा सकती है. उनमें पत्रकारों का वेतन सरकारी या निजी क्षेत्र में काम करनेवाले चपरासी या माली या ड्राइवर से भी कम है. दसियों साल की नौकरी के बावजूद भाषाई पत्रकारों को न नौकरी की कोई सुरक्षा है, न उचित वेतन मिल रहा है और न ही काम करने की परिस्थितियां अच्छी हैं.
अगर आई.एन.एस ने कभी यह नहीं किया तो उसे मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों का विरोध करने का कोई नैतिक हक नहीं है.