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गुरुवार, जुलाई 07, 2011

जारी है मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान

 न्यूज एजेंसियों की खराब वित्तीय स्थिति के लिए अखबार मालिक जिम्मेदार हैं



अख़बारों और न्यूज एजेंसियों के पत्रकारों और गैर पत्रकारों के लिए गठित मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अखबार मालिकों की मुहिम जारी है. इस मुहिम की अगुवाई ‘टाइम्स आफ इंडिया’ समूह कर रहा है. आज भी ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में पेज १७ पर दो कालम और सात पैराग्राफ की भारी भरकम खबर छपी है जिसमें बताया गया है कि अगर वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुईं तो देश की दोनों प्रमुख समाचार एजेंसियों- पी.टी.आई और यू.एन.आई बंदी के कगार पर पहुँच जाएँगी. इस रिपोर्ट के मुताबिक, यू.एन.आई पहले ही ३० करोड़ से अधिक के घाटे में और वित्तीय तौर पर खस्ताहाल है और पी.टी.आई भी इसी स्थिति की ओर बढ़ रही है.

इस रिपोर्ट का लिंक है: http://epaper.timesofindia.com/Daily/skins/TOINEW/navigator.asp?Daily=CAP&showST=true&login=default&pub=TOI&AW=1310012860916

कहने की जरूरत नहीं है कि टाइम्स में यह रिपोर्ट बहुत सुनियोजित तरीके प्लांट की गई है. उसका मकसद वेतन आयोग के खिलाफ माहौल बनाना और दुष्प्रचार करना है. इसका सबूत यह है कि रिपोर्ट बिना किसी बाइलाइन के है और पूरी खबर सूत्रों के हवाले से लिखी गई है. यही नहीं, यह ‘खबर’ कम और ‘विचार’ अधिक है. आश्चर्य की बात यह है कि जो बड़े अखबार समूह इन एजेंसियों की धीमी मौत के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं और जिन्होंने कभी भी उनकी खोज-खबर नहीं ली, उनमें आज अचानक एजेंसियों के वित्तीय स्वास्थ्य के लिए इतना प्रेम कैसे उमड़ पड़ा है?

सच यह है कि एजेंसियों की मौजूदा स्थिति के लिए काफी हद तक बड़े और मंझोले अखबार समूह भी जिम्मेदार हैं जिन्होंने अपने खर्चों में कटौती के नाम पर एजेंसियों की सेवाएं आधिकारिक तौर पर खत्म कर दी हैं या एक एजेंसी की सेवा में कई संस्करण निकाल रहे हैं या एजेंसियों की खबरें चोरी-चोरी अपने रिपोर्टर के हवाले से छाप रहे हैं. यही नहीं, वे एजेंसियों की सेवाओं के लिए बहुत कम भुगतान कर रहे हैं. इन सब कारणों से एजेंसियों की वित्तीय स्थिति कमजोर हुई है.

तथ्य यह है कि इन एजेंसियों के मालिक भी यही बड़े अखबार समूह हैं और उनके बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स में भी वही बैठे हैं. उनके मौजूदा हाल के लिए भी मुख्य रूप से वही जिम्मेदार हैं. लेकिन अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने के बजाय वे एजेंसियों के पत्रकारों और कर्मचारियों के वेतन बिल को उनकी वित्तीय दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. उनका वश चला होता तो आज यू.एन.आई बिक चुकी होती और रफ़ी मार्ग पर सुभाष चंद्र का साम्राज्य स्थापित हो चुका होता. लेकिन यू.एन.आई के पत्रकारों और कर्मचारियों के आंदोलन ने प्रबंधन को पीछे हटने को मजबूर कर दिया.

साफ है कि अख़बारों के मालिकों को एजेंसियों के स्वास्थ्य की कतई चिंता नहीं है. क्या अख़बारों या न्यूज एजेंसियों को बचाने के लिए कुर्बानी देने की जिम्मेदारी सिर्फ पत्रकारों की है? क्या मालिक अपने मोटे मुनाफे में कुछ हिस्सा उन्हें नहीं दे सकते? अगर वे सचमुच चिंतित हैं तो पहले ही एजेंसियों के लिए भी सरकार से सहायता पैकेज की मांग करते. वैसे ही जैसे उन्होंने खुद वैश्विक मंदी के समय सरकार से स्टिमुलस पैकेज लिया था. लेकिन सच यह है कि यहाँ इरादा एजेंसियों की मदद करना नहीं बल्कि उनकी आड़ में वेतन आयोग के खिलाफ दुष्प्रचार करना है. अख़बारों के मालिकान एजेंसियों के बहाने यही कर रहे हैं.

यह सचमुच अफसोस और शर्म की बात है कि अख़बारों के मालिक और उनका संगठन आई.एन.एस अपनी लाबीइंग की ताकत का इस्तेमाल करके मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को रद्द कराने या आधे-अधूरे तरीके से लागू कराने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए हैं. उनके तर्कों में कोई सच्चाई नहीं है. सबसे हैरानी की बात यह है कि इस मुहिम में शामिल अधिकांश बड़े अखबार खूब मुनाफा कमा रहे हैं लेकिन वे अपने मुनाफे में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों को उनका वाजिब हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं हैं.

सच यह है कि प्रेस की आज़ादी के नाम पर मालिक मलाई काट रहे हैं लेकिन कई बड़े-मंझोले-छोटे अखबार अपने पत्रकारों को न्यूनतम वेतन भी देने को तैयार नहीं हैं. खासकर भाषाई अखबारों में स्थिति इतनी खराब है कि कल्पना नहीं की जा सकती है. उनमें पत्रकारों का वेतन सरकारी या निजी क्षेत्र में काम करनेवाले चपरासी या माली या ड्राइवर से भी कम है. दसियों साल की नौकरी के बावजूद भाषाई पत्रकारों को न नौकरी की कोई सुरक्षा है, न उचित वेतन मिल रहा है और न ही काम करने की परिस्थितियां अच्छी हैं.

तथ्य यह है कि अधिकांश अख़बारों में अभी पिछला मनीसाना वेतन आयोग भी लागू नहीं है. यहाँ तक कि अधिकांश संस्थानों में श्रमजीवी पत्रकार कानून भी लागू नहीं होता है. इसके बावजूद अखबार मालिकों को कोई शर्म नहीं है. क्या आई.एन.एस ने कभी अपने सदस्यों को कहा कि उन्हें अपने संस्थानों में श्रमजीवी पत्रकार कानून और मणिसाना वेतन आयोग की सिफारिशें ईमानदारी से लागू करें? क्या उसने कभी अपने सदस्यों के संस्थानों में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों की स्थिति जानने और उसे बेहतर बनाने की कोशिश की?

अगर आई.एन.एस ने कभी यह नहीं किया तो उसे मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों का विरोध करने का कोई नैतिक हक नहीं है.

रविवार, जुलाई 03, 2011

प्रेस की आज़ादी पत्रकारों की नहीं, अखबार मालिकों की आज़ादी बन गई है

कौन है पत्रकारों के मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ?



अख़बारों और न्यूज एजेंसियों में काम करनेवाले पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों का वेतन आदि तय करने के लिए गठित जस्टिस जी.आर मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अखबार मालिकों ने चौतरफा युद्ध सा छेड दिया है. वे किसी भी कीमत पर इन सिफारिशों को लागू करने के लिए तैयार नहीं हैं.

उनके जबरदस्त दबाव का नतीजा है कि यू.पी.ए सरकार पिछले छह महीने से इस रिपोर्ट को दबाए बैठी है. हालाँकि प्रधानमंत्री ने अब पत्रकारों और गैर पत्रकारों के एक साझा प्रतिनिधिमंडल से वायदा किया है कि वे “अपनी ड्यूटी निभाएंगे.”

लेकिन सच्चाई यही है कि अभी तक उनकी सरकार ने इस मामले में अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही का पालन नहीं किया है. अगर उन्होंने अपनी ड्यूटी निभाई होती तो अब तक मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशें नोटिफाई कर दी गई होतीं.

इसके उलट सरकार अखबार मालिकों के दबाव में है और उनके साथ मिलकर मजीठिया आयोग की सिफारिशों की हत्या करने में जुटी हैं. यही कारण है कि सरकार अखबार मालिकों को इस बात का पूरा मौका दे रही है कि वे इन सिफारिशों के खिलाफ न सिर्फ झूठा, एकतरफा और मनमाना अभियान चलाएं बल्कि कोर्ट से लेकर अन्य मंचों पर उसे ख़ारिज करने के लिए जमकर लाबींग करें.

नतीजा यह कि मजीठिया आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अखबार मालिकों का अभियान जारी है. वे अपने अख़बारों और पत्रिकाओं में इन सिफारिशों के खिलाफ खबरें, विज्ञापन और संपादकीय पृष्ठ पर लेख लिख और छाप रहे हैं. उनमें कई खासकर विज्ञापन तो बहुत अपमानजनक हैं. मजे की बात यह है कि इन अखबारों में पत्रकारों और गैर पत्रकारों के पक्ष में न तो खबरें छप रही हैं और न ही लेख और संपादकीय.

आखिर अखबार की आज़ादी, पत्रकारों की नहीं बल्कि अखबार मालिकों की आज़ादी है. वे जो चाहते हैं, उनके अख़बारों में वही छपता है. जिनको अभी भी मुगालता हो कि प्रेस की आज़ादी का मतलब पत्रकारों की आज़ादी हैं, उनकी आँखें इस प्रकरण से खुल जानी चाहिए.

आश्चर्य नहीं कि अख़बारों में मजीठिया वेतन आयोग के खिलाफ लगातार छप रहा है जबकि वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की मांग कर रहे पत्रकारों और गैर पत्रकारों के संघर्षों की वास्तविक खबरें और रिपोर्टें कुछ अपवादों को छोडकर कहीं नहीं छप रही हैं.

अखबार मालिकों की पत्रकारों के वेतन आयोग से कई तरह की नाराजगी है. उनका कहना है कि जब किसी अन्य उद्योग या क्षेत्र यहाँ तक कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों के लिए वेतन आयोग नहीं है तो पत्रकारों के लिए अलग से वेतन आयोग क्यों होना चाहिए? उनका आरोप है कि वेतन आयोग की आड़ में सरकार पत्रकारों की वफ़ादारी खरीदना चाहती है.

अखबार मालिकों का यह भी कहना है कि अगर मजीठिया आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया गया तो ज्यादातर अखबार बढे हुए वेतनों का बोझ नहीं उठा पाएंगे और बंद हो जाएंगे. उनके मुताबिक, मजीठिया आयोग ने पत्रकारों और गैर पत्रकारों के वेतन में अस्सी से सौ फीसदी तक बढोत्तरी की सिफारिश की है.

यही नहीं, अखबार मालिकों की संस्था- आई.एन.एस के एक विज्ञापन में बड़े अपमानजनक तरीके से कहा गया है कि इन सिफारिशों के मुताबिक अखबार के चपरासी और ड्राइवर को भी ५०००० हजार रूपये तक की तनख्वाह देनी पड़ेगी.

उनका कहना है कि इतना तो सरकार भी अपने ड्राइवरों और चपरासियों को नहीं देती है. यह और बात है कि विज्ञापन के नीचे २ पॉइंट में बताया गया है कि यह सिफारिश उन अख़बारों के लिए है जिनका सालाना टर्नओवर १००० करोड़ रूपये से अधिक का है.

अखबार मालिकों का आरोप है कि सरकार वेतन आयोग के बहाने आज़ाद प्रेस को खत्म करना चाहती है और यह लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है. इसलिए उनकी मांग है कि सरकार तुरंत मजीठिया आयोग की सिफारिशों को नामंजूर करे और प्रेस की आज़ादी को बनाये रखने के लिए पत्रकारों के वेतन और अन्य सेवाशर्तों को तय करने का अधिकार मालिकों के हाथ में रहने दे.

साफ है कि अखबार मालिकों और उनकी संस्था-आई.एन.एस की नाराजगी की जड़ में असली मकसद यही है. वे अपनी मनमर्जी से पत्रकारों का वेतन और अन्य सेवाशर्तें तय करने का अधिकार कतई नहीं छोड़ना चाहते हैं. वैसे इससे बड़ा भ्रम और कुछ नहीं है कि सरकार मजीठिया आयोग की सिफारिशें नोटिफाई कर देती है तो अखबार मालिक उसे लागू कर देंगे.

सच यह है कि अगर मजीठिया वेतन आयोग लागू भी हो गया तो भी उसका वही हश्र होगा जो इससे पहले मणिसाना या बच्छावत वेतन आयोगों का हुआ था. तथ्य यह है कि कोई भी अखबार वेतन आयोगों की सिफारिशों को ईमानदारी और सच्ची भावना से लागू नहीं करता है.

यही नहीं, पिछले डेढ़-दो दशकों में लगभग ८० से ९० प्रतिशत अख़बारों में पत्रकारों की अस्थाई और संविदा पर नियुक्ति के कारण वेतन आयोग पूरी तरह से बेमानी हो चुका है.

हकीकत यह है कि अधिकांश बड़े और मंझोले अख़बारों में ज्यादातर पत्रकारों की तनख्वाहें और सेवाशर्तें लगातार बद से बदतर होती चली गई हैं. यहाँ तक कि बड़े अख़बारों में भी संपादक सहित मुट्ठी भर पत्रकारों को छोड़ दिया जाए जिन्हें संविदा सिस्टम का लाभ मिला है तो बाकी ८० फीसदी पत्रकारों की तनख्वाहें बहुत कम हैं. खासकर निचले स्तर पर उप संपादकों और रिपोर्टरों की तनख्वाह सरकारी और निजी क्षेत्र के महकमों के सबसे निचले कर्मचारी से भी कम हैं.

यही नहीं, सबसे गंभीर चिंता की बात यह है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी अख़बारों और चैनलों में पत्रकारों और गैर पत्रकारों की यूनियनें नहीं रह गई हैं. अधिकांश यूनियनों को धीरे-धीरे खत्म कर दिया गया है और जो बच गई हैं कि उनके नेतृत्व को खरीद लिया गया है.

नतीजा यह कि पत्रकारों और गैर पत्रकारों के पास वेतन और अन्य सेवाशर्तों के मामले में प्रबंधन के साथ सामूहिक मोलतोल की क्षमता नहीं रह गई है. वे पूरी तरह से मालिकों की दया और मर्जी पर निर्भर हैं. इस तरह मालिकों ने प्रेस की आज़ादी को अपनी चेरी बना लिया है. सच पूछिए तो प्रेस की आज़ादी को असली खतरा अखबार मालिकों की इसी तानाशाही से है.