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गुरुवार, जुलाई 28, 2011

मूल्यों पर मुनाफे को तरजीह देनेवाले कार्पोरेट मीडिया के सिरमौर हैं मर्डोक


मर्डोक ने अनुदार, मजदूर विरोधी और युद्धोन्मादी पत्रकारिता को आगे बढाया है   

दूसरी किस्त

कहते हैं कि मर्डोक के मीडिया साम्राज्य में उसकी इजाजत के बिना पत्ता भी नहीं खड़कता है. इसलिए यह स्वीकार करना बहुत मुश्किल है कि यह सारा धतकरम मर्डोक की मर्जी के बिना हुआ है. सच यह है कि मर्डोक ने ‘जो बिकता है, वही चलता और छपता है’ के तर्क के साथ आक्रामक तरीके से सनसनीखेज, चटपटे-रसीले, परपीडक रतिसुख देनेवाले ‘स्कूप’ खोजने को बढ़ावा दिया जो आज टैबलायड पत्रकारिता की पहचान बन चुका है.

इस मर्डोकी टैबलायड पत्रकारिता में पत्रकारिता के उसूलों, मूल्यों, आदर्शों और आचार संहिता से लेकर आम नियम-कानूनों के लिए कोई जगह नहीं है. वहां सिर्फ उस सर्कुलेशन और टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स की कदर और पूछ है जो अधिक से अधिक विज्ञापनदाताओं को खींच कर ला सकता है और इस तरह से मोटे मुनाफे की गारंटी कर सकता है.


कहते हैं कि मर्डोक को मुनाफे के अलावा और कुछ नहीं दिखता है. आखिर उसने छह महाद्वीपों में फैले अपने विशाल मीडिया साम्राज्य को यूँ ही नहीं खड़ा किया है. आज मर्डोक की मुख्य कंपनी न्यूज कार्पोरेशन मीडिया और मनोरंजन के क्षेत्र में सालाना कारोबार के मामले दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है. वर्ष २०१० में उसका सालाना कारोबार ३२.७७ अरब डालर और शुद्ध मुनाफा २.५३ अरब डालर था. उसकी कुल परिसंपत्ति ५४.३८ अरब डालर की है.

आश्चर्य नहीं कि आज खुद मर्डोक की परिसंपत्तियां लगभग ७.६ अरब डालर की हैं और वह दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में ११७ वें स्थान पर है. लेकिन अपने विशाल मीडिया साम्राज्य के कारण मर्डोक का राजनीतिक प्रभाव इससे कहीं अधिक है. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका ने मर्डोक को दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में १३ वें स्थान पर रखा है.

असल में, इस विशाल मीडिया साम्राज्य को खड़ा करने के लिए मर्डोक ने पूरी निर्ममता के साथ उस छिछली-छिछोरी और वैचारिक तौर पर अनुदार और युद्धोन्मादी पत्रकारिता को आगे बढ़ाया जिसमें न सिर्फ पत्रकारिता के उसूलों और मूल्यों के साथ नियम-कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई गईं बल्कि वैचारिक रूप से उदार और वाम विचारों, राजनीति, नेताओं, बुद्धिजीवियों, श्रमिक संगठनों आदि को निशाना बनाया गया.

यही नहीं, मर्डोक के अख़बारों और चैनलों ने मुक्त बाजार और राज्य की सीमित भूमिका की वकालत से लेकर बुश के आतंकवाद के खिलाफ युद्ध और इराक-अफगानिस्तान पर हमले के पक्ष में जहरीला प्रोपेगंडा अभियान चलाने में कोई कसर नहीं उठा रखी.

दरअसल, मर्डोक ने ७०-८० के दशक में ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर की मुक्त बाजार समर्थक नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का खुलकर समर्थन किया. थैचर की मदद से मर्डोक ने अख़बारों की ट्रेड यूनियनों को तोड़ा और खत्म कर दिया. बदले में, मर्डोक ने थैचर को रेल और कोयला खनिकों समेत अन्य श्रमिक आन्दोलनों को तोड़ने और खत्म करने के लिए खुला समर्थन दिया.

निजीकरण की जमकर वकालत की और सत्ता प्रतिष्ठान से अपनी नजदीकियों का फायदा नियमों-कानूनों में तोड़-मरोड़ से लेकर मीडिया रेगुलेशन को अपने अनुकूल बनवाने में किया. बदले में, जब सत्ता प्रतिष्ठान को नव उदारवादी अमीरपरस्त नीतियों से लेकर युद्ध बेचने के लिए मर्डोक की जरूरत पड़ी, उसका मीडिया साम्राज्य सबसे आगे रहा.

कहने का अर्थ यह कि मर्डोक और राजनेताओं के बीच सम्बन्ध एक तरह के लेनदेन से बंधा हुआ है. इस गठजोड़ को खबरों में तोड़-मरोड़ करने, फर्जी खबरें गढ़ने और खबरों को मनमाना अर्थ देने के लिए ‘स्पिन’ करने से कभी परहेज नहीं हुआ. कहते हैं कि मर्डोक की पत्रकारिता डिक्शनरी में सच्चाई, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे शब्द नहीं हैं.

आश्चर्य नहीं कि मर्डोक और उसका विशाल मीडिया साम्राज्य आज पत्रकारिता में ‘डमबिंग डाउन’ यानि खबरों को हल्का-फुल्का, छिछला, मनोरंजक और बिना माने-मतलब का बनाने, सेक्स स्कैंडलों और साफ्ट पोर्नोग्राफी के जरिये पीत पत्रकारिता को नए सिरे से पारिभाषित करने, अनुदार पूर्वाग्रहों को आक्रामक तरीके से थोपने, मुनाफे के लिए ख़बरों की खरीद-फरोख्त से लेकर उसके हर तरह के व्यावसायिक इस्तेमाल का वैश्विक प्रतीक बन चुके हैं.

मर्डोक के मीडिया साम्राज्य के प्रभाव का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि ब्रिटेन और अमेरिका समेत दुनिया के और कई देशों में सत्ता में पहुँचने और वहां टिके रहने के लिए राजनेताओं में व्यक्तिगत रूप से मर्डोक से आशीर्वाद लेने की होड़ लगी रहती है. हालत यह है कि सत्ता का दावेदार कोई राजनेता मर्डोक को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता है.

यही नहीं, मर्डोक ने अपने रास्ते में आनेवाले राजनेताओं-अफसरों को धमकाने से भी गुरेज नहीं किया. हैकिंग विवाद के बाद ब्रिटेन के कई राजनेताओं ने मुंह खोलना शुरू किया है जिससे यह पता चल रहा है कि मर्डोक के लोगों ने उन्हें चुप न रहने पर किस तरह से देख लेने की धमकी दी. यहाँ तक कि पूर्व प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन भी इन धमकियों के शिकार हुए.

सच पूछिए तो ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ की तर्ज पर मर्डोक के किस्से अनंत हैं. लेकिन इस पूरे किस्से का सबसे बड़ा सबक यह है कि किसी एक व्यक्ति के हाथ में इतने बड़े मीडिया साम्राज्य का संकेन्द्रण न सिर्फ पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बल्कि व्यापक लोकतंत्र और समाज के लिए भी बहुत घातक और खतरनाक हो सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें भारत जैसे देशों के लिए गहरे सबक हैं जहाँ न सिर्फ खुद मर्डोक का मीडिया साम्राज्य लगातार अपने पैर पसार रहा है बल्कि कई देशी मीडिया मुग़ल भी उसके रास्ते पर चल रहे हैं.

यही नहीं, एक प्रवृत्ति के बतौर भारतीय मीडिया का बढ़ता मर्डोकीकरण किसी से छुपा नहीं है. मजा देखिए कि आत्मावलोकन के बजाय इसे यह कहकर अनदेखा करने की कोशिश की जा रही है कि हमारे यहाँ ब्रिटेन की तरह छिछोरी टैबलायड पत्रकारिता का कोई अस्तित्व नहीं है. लेकिन आप चाहें तो हमें अपने मर्डोक, रेबेका ब्रुक्स और एंडी कॉलसन को ढूंढने में बहुत दिक्कत नहीं होगी.

('जनसत्ता' के २७ जुलाई को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख की दूसरी किस्त)

बुधवार, जुलाई 27, 2011

मर्डोकीकरण के सबक


क्या सचमुच मर्डोक को कुछ भी पता नहीं था?


वैश्विक मीडिया के बेताज बादशाह माने जानेवाले कीथ रूपर्ट मर्डोक ने शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसने जिस तरह की गटर टैबलायड पत्रकारिता को बढ़ावा और उसके बल पर अपना विशाल मीडिया साम्राज्य खड़ा किया, उसके अपराधों के लिए एक दिन ब्रिटिश जनता से इस तरह माफ़ी मांगनी पड़ेगी. लेकिन न चाहने के बावजूद अपने विशाल मीडिया साम्राज्य को बचाने के लिए मर्डोक को पिछले सप्ताह ऐसा करना पड़ा.

भले ही यह मर्डोक का नया ड्रामा हो और उसका कुछ खास न बिगड़ने वाला हो लेकिन दुनिया ने देखा कि जिस मीडिया मुग़ल के आगे पूरा ब्रिटिश सत्ता प्रतिष्ठान बिछा रहता है, प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के नेता तक उसके इशारे का इंतज़ार करते हैं, उस मर्डोक को न सिर्फ अपना सबसे अधिक बिकनेवाला साप्ताहिक टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ बंद करना पड़ा बल्कि ब्रिटिश जनता से हाथ जोड़कर और अख़बारों में लिखित रूप से माफ़ी मांगनी पड़ी.

यही नहीं, मर्डोक और उसके बेटे और ब्रिटेन में उसकी कंपनी- न्यूज इंटरनेशनल के प्रमुख जेम्स मर्डोक को संसदीय समिति के सामने पेश होकर सफाई देनी पड़ी. दूसरी ओर, मर्डोक की सबसे करीबी और ब्रिटेन में न्यूज इंटरनेशनल की सी.ई.ओ रेबेका ब्रुक्स को इस्तीफा देना पड़ा है.

इससे पहले ब्रुक्स और ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ के पूर्व संपादक और प्रधानमंत्री डेविड कैमरन के प्रेस सलाहकार रहे एंडी कॉलसन को पुलिस हिरासत में भी रहना पड़ा. चौतरफा आलोचनाओं और जन विक्षोभ के कारण प्रधानमंत्री कैमरन को इस पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जाँच के लिए जांच आयोग का गठन करना पड़ा है.

निश्चय ही, मर्डोक के लिए यह सब किसी दु:स्वपन से कम नहीं है. लेकिन सच पूछिए तो मर्डोक के लिए सबसे बड़ा झटका ब्रिटिश स्काई ब्राडकास्टिंग (बी.स्काई.बी) को अधिग्रहित करने के सौदे का खटाई में पड़ जाना है. बी.स्काई.बी के लिए मर्डोक ने कोई १३.६ अरब डालर का दांव चला था. मर्डोक ने इस सौदे को बचाने के लिए ही ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की कुर्बानी दी थी.

असल में, बी.स्काई.बी पर पिछले कई वर्षों से मर्डोक की निगाह गड़ी थी. मर्डोक का मानना था कि ब्रिटेन में अपने मीडिया साम्राज्य को अजेय बनाने के लिए बी.स्काई.बी पर पूर्ण नियंत्रण जरूरी है. उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में लेने के लिए मर्डोक ने पिछले डेढ़ साल में क्या नहीं किया?

यहाँ तक कि मर्डोक के दबाव में इस सौदे की राह में रोड़ा बन रहे वाणिज्य मंत्री विन्स केबल से इस सौदे की जांच-पड़ताल का अधिकार छीन लिया गया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की गटर पत्रकारिता खासकर फोन हैकिंग का विवाद इस हद तक नहीं बढ़ा होता तो अब तक बी.स्काई.बी पर मर्डोक का कब्ज़ा हो चुका होता.

यह किसी से छुपा नहीं है कि प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपने मीडिया संरक्षक की इस महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरा जोर लगा रखा था. दरअसल, कैमरन एक तरह से आम चुनावों में मर्डोक के ताकतवर मीडिया साम्राज्य की खुली मदद का कर्ज उतारने की कोशिश कर रहे थे.

आश्चर्य नहीं कि हैकिंग विवाद के बढ़ने के बाद भी पिछले पखवाड़े तक कैमरन इस सौदे को यह कहकर बचाने की कोशिश कर रहे थे कि उनकी सरकार आम वाणिज्यिक सौदों में हस्तक्षेप नहीं करती. हालांकि कैमरन को अच्छी तरह से पता था कि यह आम वाणिज्यिक सौदा नहीं था. इससे ब्राडकास्टिंग क्षेत्र में न सिर्फ मर्डोक के एकाधिकार या वर्चस्व का खतरा दिख रहा था बल्कि इससे समाचार मीडिया के क्षेत्र में लोकतंत्र और सर्व सूचित नागरिक समाज के लिए अनिवार्य ‘विविधता और बहुलता’ का ह्रास भी निश्चित था.

तथ्य यह है कि इस सौदे से ब्रिटेन के मीडिया परिदृश्य पर मर्डोक का एकछत्र राज कायम हो जाता. अभी मर्डोक का ब्रिटेन के एक तिहाई मीडिया पर कब्ज़ा है. लेकिन यह जानते हुए भी कैमरन और उनकी सरकार इस सौदे को सफल बनाने के लिए जिस तरह से जुटी हुई थी, उससे मर्डोक के राजनीतिक प्रभाव का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.

कैमरन ही क्यों, ब्रिटेन में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष- सभी मर्डोक की कृपा के आकांक्षी रहे हैं. मर्डोक के जलवे का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि चाहे लेबर पार्टी के प्रधानमंत्री रहे टोनी ब्लेयर और गोर्डन ब्राउन रहे हों या अब कंजर्वेटिव पार्टी के डेविड कैमरन और विपक्ष में बैठे एड मिलिबैंड- सभी बिना किसी अपवाद के मर्डोक की मेहमाननवाजी का लुत्फ़ उठाते और उसके इशारों पर नाचते रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि इन्हें मर्डोक की टैबलायड पत्रकारिता और उसके निरंतर सनसनीखेज, पतित और अपराधी होते चरित्र के बारे में मालूम नहीं था. सच यह है कि मर्डोक के टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ और ‘सन’ पिछले कुछ महीनों या सालों से नहीं बल्कि एक-डेढ़ दशक से अधिक समय से चर्चित फ़िल्मी सितारों, खिलाडियों, राजनेताओं और सेलेब्रिटीज के निजी जीवन में तांक-झांक के लिए फोन हैकिंग और ई-मेल पढ़ने सहित निजी जासूसों के इस्तेमाल से लेकर पुलिस अफसरों को घूस देने जैसे तमाम कानूनी-गैरकानूनी हथकंडे इस्तेमाल कर रहा था.

शुरुआत में निशाने पर सेलेब्रिटीज थीं लेकिन धीरे-धीरे इस खून का स्वाद ऐसा लगा कि आम लोगों के निजी जीवन में भी घुसपैठ शुरू हो गई. हालत यह हो गई कि पत्रकारिता की आड़ में फोन हैकिंग का धंधा लगभग औद्योगिक स्तर पर पहुँच गया जहाँ उसकी चपेट में आने से ब्रिटिश राजपरिवार, अन्य सेलेब्रिटीज से लेकर ईराक युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवारजनों, लन्दन बम विस्फोट के पीडितों एयर यहाँ तक कि हत्या की शिकार १३ साल की मिली डावलर भी नहीं बच सकी.

रिपोर्टों के मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ ने कोई ४५०० से ज्यादा फोन हैक किये और लोगों के निजी वायसमेल सुने. कहने की जरूरत नहीं है कि इतने सालों से और इतने बड़े पैमाने फोन हैकिंग से लेकर निजी जासूसों के इस्तेमाल और पुलिस अफसरों को घूस के जरिये सनसनीखेज स्कूप निकालने की ‘गटर पत्रकारिता’ बिना मर्डोक पिता-पुत्र और उनके सी.ई.ओ और संपादकों की जानकारी के नहीं चल रही होगी.

लेकिन अब मर्डोक पिता-पुत्र से लेकर उनकी सी.ई.ओ और संपादक तक यह सफाई दे रहे हैं कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी, उनके साथ धोखा हुआ है और यह सब कुछ पथभ्रष्ट रिपोर्टरों का किया-धरा है. इस कमजोर सफाई पर भला कौन भरोसा कर सकता है?

('जनसत्ता' में २७ जुलाई को प्रकाशित आलेख की पहली किस्त...बाकी कल)

शुक्रवार, जुलाई 08, 2011

'न्यूज आफ द वर्ल्ड' की मौत छिछोरी टैबलायड पत्रकारिता का अंत नहीं है

भारत में भी मर्डोक और उसके देशी अवतारों के बढ़ते साम्राज्य पर अंकुश लगाने का समय आ गया है


मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक को आखिरकार अपने प्रिय साप्ताहिक टैबलायड ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ को बंद करने का एलान करना पड़ा. इस टैबलायड पर राजनेताओं, सेलेब्रिटीज से लेकर आम लोगों यहाँ तक कि अपराध की शिकार छोटी बच्ची और ईराक और अफगानिस्तान में मारे गए सैनिकों के परिवार के सदस्यों तक के फोन टेप करने का आरोप है. इसे लेकर ब्रिटेन की राजनीति, समाज और मीडिया में जबरदस्त हंगामा मचा हुआ है.

लोगों के बढ़ते विरोध के कारण मर्डोक को मजबूरी में यह फैसला करना पड़ा है. फैसले के मुताबिक, इस सप्ताह इस १६८ साल पुराने टैबलायड का आखिरी अंक छपेगा. इसके साथ ही, छिछोरी और गटर पत्रकारिता के लिए कुख्यात ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ इतिहास के कूड़ेदान में चला जाएगा. उसने जिस तरह की पत्रकारिता की, उसमें उसका यही हश्र होना था. यह बहुत पहले हो जाना चाहिए था. आश्चर्य है कि यह १६८ साल कैसे चल गया?

जाहिर है कि आज उसकी मौत पर कोई आंसू बहानेवाला नहीं है. लेकिन ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की मौत से छिछोरी और गटर पत्रकारिता का अंत नहीं होनेवाला है. सच यह है कि मर्डोक का दूसरा दैनिक टैबलायड ‘सन’ भी इसी छिछोरी पत्रकारिता का अगुवा है. मर्डोक के दोनों अख़बारों ‘सन’ और ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ में कोई खास फर्क नहीं है. ‘सन’ सप्ताह में छह दिन निकलता है जबकि ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ रविवार को निकलता है.

असल में, मर्डोक ने न्यूज आफ द वर्ल्ड को एक झटके में बंद करके एक तीर से कई शिकार किये हैं. इस फैसले के जरिये उसने आम लोगों के गुस्से को शांत करने की कोशिश की है. वैसे भी अब ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ का कोई व्यावसायिक भविष्य नहीं रह गया था. विज्ञापनदाता उसे छोडकर भाग रहे थे और पाठक उसके बहिष्कार का अभियान चला रहे थे. साथ ही, मर्डोक की कंपनी- न्यूज इंटरनेशनल के लिए दो अलग-अलग टैबलायड को मैनेज करने में भी मुश्किल आ रही थी. इस फैसले के बाद चर्चा है कि ‘सन’ को अब सप्ताह के सातों दिन छापा जाएगा.

इस तरह मर्डोक को इस फैसले कोई आर्थिक नुकसान नहीं होने जा रहा है. अलबत्ता न्यूज इंटरनेशनल को एक झटके में २०० पत्रकारों को से बिना किसी झंझट के मुक्ति मिल गई. इनमें से अधिकांश की कोई गलती नहीं थी जबकि फोन टैपिंग के जिम्मेदार संपादक रेबेका ब्रुक्स आज भी मर्डोक की कंपनी में सी.इ.ओ के पद पर बैठी है और दूसरे संपादक एंडी कॉलसन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून के प्रेस सलाहकार बने हुए हैं.

यही नहीं, मर्डोक ने ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ की कुर्बानी देकर एक बड़े व्यावसायिक सौदे को बचाने की कोशिश की है. मर्डोक की कंपनी इन दिनों ब्रिटेन की बड़ी ब्राडकास्टिंग कंपनी- ब्रिटिश स्काई ब्राडकास्टिंग यानि बी.स्काई.बी के टेकओवर की कोशिश में लगी हुई है. अभी बी.स्काई.बी में मर्डोक का कोई ३९ प्रतिशत शेयर है लेकिन वह उसके पूरे मालिकाने के लिए पूरी ताकत लगाये हुए हैं. लेकिन ‘न्यूज आफ द वर्ल्ड’ के विवाद के बाद ब्रिटेन में यह बहस छिड गई है कि क्या मीडिया में किसी एक व्यक्ति और कंपनी को इतनी असीमित ताकत मिलना उचित है?

दरअसल, ब्रिटेन में मर्डोक के विशाल मीडिया साम्राज्य की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था पर बढ़ते प्रभाव को लेकर खूब बहस हो रही है और चिंताएं जाहिर की जा रही हैं. कहते हैं कि मर्डोक की लेबर और कंजर्वेटिव पार्टी में बराबर की पकड़ और घुसपैठ है. यही नहीं, दोनों ही पार्टियों में मर्डोक के समर्थन के लिए होड़ लगी रहती है. इसलिए यह मांग तेज हो रही है कि मर्डोक के मीडिया साम्राज्य को नियंत्रित किया जाना चाहिए. यही नहीं, मर्डोक को बी.स्काई.बी का टेकओवर करने की इजाजत नहीं देने की मांग भी जोर पकड़ रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मर्डोक ने ९ अरब डालर के इस सौदे को बचाने के लिए ही न्यूज आफ द वर्ल्ड की कुर्बानी देकर लोगों के बीच अपनी साख बहाल करने की कोशिश की है. हालांकि मर्डोक की इस चाल को लोग समझ रहे हैं लेकिन मुश्किल यह है कि सत्ता और विपक्ष दोनों उसके साम्राज्य के आगे घुटने टेक चुके हैं. यही कारण है कि न्यूज आफ द वर्ल्ड के एक आरोपी संपादक एंडी कॉलसन जिसको जेल में होना चाहिए था, वह प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार बने हुए हैं.

लेकिन ब्रिटेन में हाल के खुलासों के बाद मीडिया के जिस अंडरवर्ल्ड का पर्दाफाश हुआ है और जो लोगों के गुस्से और विरोध के निशाने पर है, उसपर लगाम लगाने की कोशिशें कामयाब होंगी. उम्मीद करनी चाहिए कि ब्रिटेन में यह मुहिम आगे बढ़ेगी.

लेकिन क्या उचित समय नहीं है कि हम भारत में भी मर्डोक और उसके देशी अवतारों की अगुवाई में मीडिया के निरंतर फैलते और बढ़ते अंडरवर्ल्ड को लेकर सावधान हो जाएँ और उसपर अंकुश लगाने के उपायों पर विचार करें? क्या हम अपने न्यूज आफ द वर्ल्ड का इंतज़ार कर रहे हैं?