रविवार, अप्रैल 19, 2015

पचास साल में सवा तीन कोस

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) की विशाखापत्तनम कांग्रेस से आगे की चुनौती 

भला किसने सोचा होगा कि भारत में वामपंथी राजनीति की हरावल पार्टी- भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) अपनी स्थापना के पचासवें साल में उससे भी बुरे हाल में खड़ी होगी जहाँ से 1964 में उसने अपनी यात्रा शुरू की थी? अपने स्वर्ण जयंती साल में पार्टी न सिर्फ सबसे गहरे और कठिन वैचारिक-राजनीतिक संकट का सामना कर रही है बल्कि अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद से गुजर रही है. राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा खतरे में है. 

सीपीआई-एम को इतने गंभीर वैचारिक-राजनीतिक संकट से उस समय भी नहीं गुजरना पड़ा था जब 1964 में अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) टूटी थी. उस समय एक नया हौसला था, ‘क्रांति’ का सपना था और पी. सुन्दरैया, ए.के.गोपालन, ई.एम.एस नम्बूदरीपाद, टी.नागीरेड्डी, प्रमोद दासगुप्ता, हरे कृष्ण कोनार, ज्योति बसु जैसे नेताओं/संगठनकर्ताओं का एक एकजुट और प्रतिबद्ध नेतृत्व था जो सीपीआई नेतृत्व के संशोधनवादी लाइन के खिलाफ ‘वर्ग संघर्ष’ पर जोर देने की वकालत करते हुए नई राह पर निकला था. 

लेकिन 50 सालों में सीपीआई-एम कहाँ पहुंची? 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने कुल 98 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें से सिर्फ 9 सीटों (अगर केरल में वाम मोर्चा समर्थित दो स्वतंत्र उम्मीदवारों की जीत को जोड़ लिया जाए तो कुल 11 सीटों) पर उसे जीत मिली और उसे देश में पड़े कुल वोटों का सिर्फ 3.2 फीसदी वोट मिला. यह 1964 में सीपीआई-एम की स्थापना के बाद से अब तक का सबसे कम वोट प्रतिशत है.

ऐसा लगता है कि पार्टी नौ दिन चले अढाई कोस की तर्ज पर 50 साल में सवा तीन कोस चल पाई है. पार्टी की राजनीतिक ढलान साफ़ दिख रही है. पश्चिम बंगाल जहाँ सीपीआई-एम के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने 1977 से 2011 तक एकछत्र राज किया और जो किसी जमाने में अभेद्य लाल दुर्ग समझा जाता था, वहां की राजनीति में वह क्रमश: अप्रासंगिक होने की ओर बढती हुई दिखाई दे रही है. पश्चिम बंगाल में पार्टी के वोटों में जिस तेजी से क्षरण हो रहा है, वह चौंकानेवाला है. पार्टी को राज्य में 2009 के आम चुनावों में 33.1 फीसदी, 2011 के विधानसभा चुनावों में 30 फीसदी और 2014 के आम चुनावों में मात्र 22.7 फीसदी वोट मिले.

इसके उलट राज्य में भाजपा के वोटों में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है. यह जले पर नमक छिडकने की तरह है. लेकिन सच यही है कि बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच हो रहे ध्रुवीकरण में सबसे ज्यादा नुकसान सीपीआई-एम को हो रहा है जिसके राजनीतिक आधार से समर्थकों के अलावा कार्यकर्त्ता और स्थानीय स्तर के नेता भी भाजपा की ओर जा रहे हैं. नतीजा, पार्टी 2014 के आम चुनावों में राज्य की 42 सीटों में से मात्र दो सीटें जीत पाईं जितनी की राज्य की राजनीति में हाशिए की पार्टी समझे जानेवाली भाजपा को मिलीं. यहाँ तक कि पार्टी ने 1964 में स्थापना के बाद 1967 में अपने पहले लोकसभा चुनाव राज्य से चार सीटें जीतीं थीं.

इसके अलावा पार्टी के दूसरे गढ़ केरल में भी स्थिति अच्छी नहीं है. वहां की बीस सीटों में से वाम-लोकतान्त्रिक मोर्चे (एलडीएफ) को कुल 8 सीटें (सीपीआई-एम को पांच) सीटें मिलीं जबकि पार्टी इसबार वहां से इसकी दुगुनी सीटें जीतने की उम्मीद कर रही थी. केरल में लगभग एक नियम की तरह हर पांच साल में एक बार सीपीआई-एम के नेतृत्ववाले एलडीएफ और एक बार कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूडीएफ को सत्ता और सीटें मिलती हैं. इस कारण पार्टी इस बार यहाँ से अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कर रही थी लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी. उल्लेखनीय है कि केरल में 2011 के विधानसभा चुनावों में एलडीएफ बहुत मामूली अंतर से हार गया था.

लेकिन राज्य में पार्टी के करिश्माई नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन (1964 में गठित पार्टी के 32 प्रमुख नेताओं में से अब जीवित बचे दो नेताओं में से एक) और राज्य सचिव पिनराई विजयन के बीच दो धडों में बंट गई है. पिछले दस सालों से ज्यादा समय से दोनों नेताओं के बीच तीखे संघर्ष और खींचतान के कारण पार्टी का हाल बेहाल है. इसका नतीजा हाल के आम चुनावों में दिखाई पड़ा. लेकिन पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इस झगड़े को आज तक सुलझा नहीं सका है और इसके कारण भाजपा यहाँ भी अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही है.

सीपीआई-एम के लिए अगर कोई राहत की बात है तो वह यह कि उत्तर पूर्व के राज्य त्रिपुरा में पार्टी की मजबूत पकड़ बनी हुई है. विधानसभा चुनावों के साथ 2014 के लोकसभा चुनावों में सीपीआई-एम ने राज्य की दोनों सीटें 64 फीसदी वोट के साथ जीत लीं. लेकिन इसे पार्टी से ज्यादा राज्य में मुख्यमंत्री माणिक सरकार और उनकी साफ़-सुथरी छवि और बेहतर सरकार की जीत माना जा रहा है. यही नहीं, अपने ज्यादा मजबूत गढ़ों में पिट गई सीपीआई-एम के लिए यह भले सांत्वना पुरस्कार की तरह हो लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में त्रिपुरा की जीत के कोई बहुत मायने नहीं हैं. इस जीत से पार्टी के दिन नहीं बहुरनेवाले हैं.
   
असल में, देश के तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की राजनीति में सबसे प्रभावी और ताकतवर पार्टी होने के कारण राष्ट्रीय राजनीति और खासकर गैर कांग्रेसी-गैर भाजपा तीसरे मोर्चे के अंदर सीपीआई-एम की जो हैसियत रही है, वह पश्चिम बंगाल और केरल में पार्टी की राजनीतिक फिसलन के कारण तेजी से ढलान की ओर है. याद रहे कि पार्टी के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने 2004 के आम चुनावों में अपना सबसे बेहतर प्रदर्शन किया और उसे कुल 60 सीटें मिलीं. इस कारण उसकी यूपीए सरकार बनवाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही और इस सरकार में शामिल न होते हुए भी वह लगभग ड्राइवर की सीट पर थी.

हालाँकि 543 की संसद में 60 सीटें 10 फीसदी से कुछ ही ज्यादा बनती हैं लेकिन तथ्य यह है कि वास्तविक संसदीय मौजूदगी की तुलना में सीपीआई-एम और वाम मोर्चे का राष्ट्रीय राजनीति में प्रभाव कहीं ज्यादा दिखाई पड़ा. यह एक अवसर था जब पार्टी और उसके नेतृत्व में वाम मोर्चा एक लम्बी राजनीतिक छलांग लगा सकता था. इसके लिए जरूरी था कि पार्टी अपने राजनीतिक प्रभाव के प्रमुख तीन राज्यों की सीमा को तोड़कर देश के अन्य हिस्सों खासकर हिंदी क्षेत्रों में विस्तार करे. पार्टी कांग्रेस में यह फैसला भी किया गया. पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने खुद आगे बढ़कर इसकी जिम्मेदारी भी ली.

लेकिन 2004 से लेकर 2014 के बीच देश और खासकर हिंदी क्षेत्रों में पार्टी के विस्तार का लक्ष्य तो दूर रहा, सीपीआई-एम ने अपने मजबूत किले भी गँवा दिए. आखिर ऐसा क्यों हुआ? कहने की जरूरत नहीं है कि इसका कोई एक कारण नहीं है लेकिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण कारण सीपीआई-एम का राजनीतिक-वैचारिक विचलन और रणनीतिक भूलें हैं. पार्टी ने जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में एक ओर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का विरोध किया लेकिन दूसरी ओर, केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को उन्हीं नीतियों को आगे बढाने दिया. यही नहीं, खुद पश्चिम बंगाल में उन्हीं नीतियों को जोर-जबरदस्ती लागू करने की कोशिश की.

सिंगुर और नंदीग्राम में बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार ने पार्टी के समर्थन से जिस तरह लाठी-गोली के जरिए जमीन छीनने की कोशिश की, उसका नतीजा उसे भुगता पड़ा. यही नहीं, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार की राजनीतिक-प्रशासनिक नाकामियों जैसे पीडीएस घोटाला, रिजवानुर रहमान हत्याकाण्ड, सच्चर कमिटी की रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की सबसे बदतर स्थिति का सामने आना और जंगलमहाल इलाके में दमन आदि ने वाम मोर्चे की पहले से ही घटती लोकप्रियता को और नीचे धकेल दिया. यही नहीं, पार्टी में जिस तरह से गुंडे, लम्पट, ठेकेदार, दलाल और भ्रष्ट तत्व घुस आये और जिला मुख्यालय से लेकर ग्राम पंचायत तक पार्टी के चहरे बन गए और समानांतर सरकार चलाने लगे, उससे आमलोगों में नाराजगी बढ़ी.

हालाँकि पार्टी ने ऐसे तत्वों को बाहर निकालने के लिए ‘शुद्धिकरण अभियान’ चलाया लेकिन वह आँख में धूल झोंकने की कोशिश ही साबित हुई. असल में, तीन दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता में रही पार्टी में जिस तरह का अहंकार और निश्चिंतता आ गई, उसने पार्टी में किसी तरह के बदलाव की सम्भावना खत्म कर दी. यहाँ तक कि सीपीआई-एम का राज्य और केन्द्रीय नेतृत्व किसी भी तरह की आलोचना सुनने को तैयार नहीं था, विरोध की हर आवाज़ को दबा दिया गया. पार्टी ने उन वाम बुद्धिजीवियों और छोटी पार्टियों की आलोचनाओं और विरोध का जवाब दमन से दिया जो उनसे सहानुभूति रखते थे. पार्टी नेतृत्व के इस रवैये ने उसे डूबाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

लेकिन सीपीआई-एम का मौजूदा संकट सिर्फ पश्चिम बंगाल-केरल में पराजय के कारण भर नहीं है. राजनीति में हार-जीत चलती रहती है. भाजपा 1984 के आम चुनावों में सिर्फ दो सीटें जीत पाई थी लेकिन अगले डेढ़ दशक में वह गठबंधन के जरिए केंद्र की सत्ता में और तीन दशकों में अकेले दम पर दिल्ली की सरकार में पहुँच गई. सीपीआई-एम का संकट कहीं ज्यादा गहरा और बड़ा है. उसका संकट यह है कि वह इन 50 सालों में वाम राजनीति को तीन राज्यों से बाहर नहीं ले जा पाई. उलटे इन राज्यों के बाहर जैसे आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भी उसका प्रभाव लगातार सिकुड़ता और सिमटता गया है.

खासकर हिंदी क्षेत्रों में वह जिस तरह से सांप्रदायिकता से लड़ने के नामपर अपनी स्वतंत्र पहचान और राजनीति को त्यागकर सत्तालोलुप, भ्रष्ट, परिवारवादी-जातिवादी और अवसरवादी राजनीति करनेवाली मध्यमार्गी पार्टियों और उनके नेताओं की पिछलग्गू बन गई, उसके कारण उसका विस्तार तो दूर जो जनाधार बचा था, वह भी उनका साथ छोड़कर मुलायम-लालू के साथ चला गया. सांप्रदायिकता से लड़ने के नामपर सीपीआई-एम ने जिस तरह से सामाजिक न्याय के नारे के नीचे जातियों की गोलबंदी और जोड़-गुणा की रणनीति को आगे बढ़ाया, उसकी सीमाएं और अंतर्विरोध शुरू से ही जाहिर थे लेकिन बुरी तरह पिट जाने के बावजूद वह आज तक इस रणनीति से आगे नहीं बढ़ पाई है.

असल में, सीपीआई-एम की पचास साल की राजनीति की सबसे बड़ी नाकामी यह है कि वह राष्ट्रीय राजनीति में अपनी स्वतंत्र पहचान और पहलकदमी के बजाय हमेशा कोई कंधा खोजती रही. आश्चर्य नहीं कि पार्टी एक पेंडुलम की तरह पहले कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए गैर कांग्रेसी पार्टियों और यहाँ तक कि रणनीतिक रूप से भाजपा के साथ गलबहियां करने तक पहुँच गई और उसके बाद भाजपा के उभार को रोकने के नामपर कांग्रेस के साथ ब्रेकफास्ट/डिनर करने लगी. इस रणनीति पर चलते-चलते एक दौर ऐसा आया कि सीपीआई-एम और बाकी मध्यमार्गी पार्टियों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया.

इस दौर में हालत यह हो गई थी कि सी.पी.आई-एम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत बुर्जुआ राजनीति के चाणक्यमाने जाने लगे थे जिनकी सबसे बड़ी खूबीबुर्जुआ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच मध्यस्थता कराना,  जोड़तोड़ करना और बेमेल गठबंधनों को चलाना था. ऊपर से आ रहे इन संकेतों की तार्किक परिणति यह हुई कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम की हिंदी पट्टी की राज्य इकाइयों में भी सुरजीत की अनुकृतियाँ उभर आई कहने की जरूरत नहीं है कि सीपीआई-एम की यह रणनीति न सिर्फ बुरी तरह से नाकाम रही है बल्कि उसे इसका भारी राजनीतिक खामियाजा भी भुगतना पड़ा है.

यही नहीं, इस प्रक्रिया में सीपीआई-एम एक रैडिकल बदलाव की वामपंथी-कम्युनिस्ट पार्टी के बजाय सरकारी वामपंथी पार्टी में बदलती गई जहाँ उसका सबसे ज्यादा जोर पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा की सरकारों को बचाए रखने में लगने लगा. सरकार चलाने और उसे बनाए रखने के लिए वह मुद्दों को भी कुर्बान करने लगी. इसके कारण वह धीरे-धीरे अपने रैडिकल एजेंडे और मुद्दों को छोड़कर यथास्थितिवादी सरकारी पार्टी में तब्दील होती चली गई. पार्टी नेतृत्व में ऊपर से लेकर नीचे तक नौकरशाही और ‘बासिज्म’ हावी होने लगी, पार्टी जनसंघर्षों से दूर होने लगी, यहाँ तक कि खुद के शासित राज्यों में जनांदोलनों के दमन पर उतर आई और नए जनांदोलनों/विमर्शों जैसे छोटे राज्यों, पर्यावरण, नारी, आदिवासी-दलित के संवाद करने में नाकाम रही.

इसके साथ ही उसमें वह चमक और आकर्षण भी खत्म होने लगा जो किसी भी वामपंथी/कम्युनिस्ट पार्टी के रैडिकल बदलाव के एजेंडे में सहज रूप से होता है. हैरानी की बात नहीं है कि सीपीआई-एम की राजनीति और वैचारिकी आज छात्रों-युवाओं को उस तरह से आकर्षित नहीं कर पा रही है जिस तरह से कुछ दशकों पहले तक करती थी. इससे ज्यादा चौंकानेवाली बात क्या हो सकती है कि तीन राज्यों से बाहर उसकी ताकत और प्रभाव का चौथा राज्य माने जानेवाले जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में उसके छात्र संगठन-एसएफआई में पार्टी की राजनीतिक लाइन के खिलाफ खुला विद्रोह हो गया और पार्टी को पूरी यूनिट को भंग करना पड़ा.

इस सबके बीच ज्यादा चिंता की बात यह है कि अपने स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक और वैचारिक रूप से अप्रासंगिक होने के खतरे का सामना कर रहे सी.पी.आई-एम के नेतृत्व में इस खतरे को लेकर कोई बेचैनी नहीं दिख रही है और न ही उससे निपटने की रणनीति, तैयारी और उत्साह है. उल्टे लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश भर में वाम कार्यकर्ताओं के बीच पैदा हुई पस्त-हिम्मती, निराशा और हताशा के बीच वाम मोर्चे खासकर सी.पी.आई-एम नेतृत्व की निश्चिन्तता और जैसे कुछ हुआ ही न हो (बिजनेस एज यूजुअल) का रवैया हैरान करनेवाला है.

अफ़सोस की बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता जैसे अत्यंत महत्वपूर्ण विचार और मुद्दे को जिस सिनिकल तरीके से कांग्रेस और दूसरी मध्यमार्गी पार्टियों के भ्रष्टाचार, परिवारवाद, अवसरवाद और निक्कमेपन को छुपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है, उसके लिए सीपीआई-एम कम जिम्मेदार नहीं है. इससे आज धर्मनिरपेक्षता का विचार संकट में है. कहने की जरूरत नहीं है कि धर्मनिरपेक्षता के विचार को आमलोगों के रोजी-रोटी और बेहतर जीवन के बुनियादी सवालों और बेहतर प्रशासन की जिम्मेदारी से काटकर सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए जोड़तोड़ का पर्याय बना देने की सिनिकल राजनीति अब अपने अंत पर पहुँच गई है
.
लेकिन अगले साल अप्रैल में पार्टी कांग्रेस की तैयारी कर रही सीपीआई-एम से जिस तरह की ख़बरें आ रही हैं, उससे यह आशंका बढ़ रही है कि भाजपा के जबरदस्त उभार के बाद अपनी गलतियों उर्फ़ ऐतिहासिक भूलों से सीखने के बजाय वह एक बार फिर चुकी और नकारी हुई कांग्रेस और दूसरी अवसरवादी मध्यमार्गी पार्टियों का गठबंधन बनाने की कोशिशें शुरू कर सकती है. यह आत्महत्या के अलावा और कुछ नहीं होगा. आम चुनावों का साफ़ सन्देश है कि लोग अस्मिताओं की अवसरवादी, संकीर्ण और सिनिकल राजनीति से उब रहे हैं, उनकी आकांक्षाएं बेहतर जीवन की मांग कर रही हैं और वे वैकल्पिक राजनीति को मौका देने के लिए तैयार हैं
   
यह सीपीआई-एम के लिए सबक है और आखिरी मौका भी. अगर वे अब भी नहीं संभले तो हाशिए
पर पहले ही पहुँच चुके थे, अब उन्हें अप्रासंगिक होने और खत्म होने से कोई बचा नहीं सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय राजनीति में वामपंथ के पुनरुज्जीवन का कोई शार्ट-कट नहीं है. वामपंथ के लिए एकमात्र रास्ता खुद को वामपंथ की स्वतंत्र पहचान के साथ खड़ा करना ही है. वामपंथ को वामपंथ की तरह दिखना होगा.

इसका सीधा मतलब है वामपंथ के रैडिकल एजेंडे के तहत वैकल्पिक राजनीति की ओर वापसी और बुर्जुआ पार्टियों के साथ अवसरवादी गठजोड़ बनाने की पिछलग्गू राजनीति को तिलांजलि देकर देश भर में जनांदोलन की ताकतों और संगठनों के साथ खड़ा होना और आम लोगों के बुनियादी मुद्दों पर जनांदोलनों की राजनीति को मजबूत करना. वामपंथ की पहचान और ताकत जनांदोलन रहे हैं और जनांदोलनों से ही वैकल्पिक राजनीति और विकल्प बने हैं

लेकिन क्या सीपीआई-एम इसके लिए तैयार है

(यह आलेख 'तहलका' के लिए पिछले साल लिखा गया था, जब सीपीएम के पचास साल पूरे थे. आज जब सीताराम येचुरी पार्टी की विशाखापत्तनम कांग्रेस के बाद नए महासचिव चुने गए हैं, इस आलेख में उठाये गए सवाल एक बार फिर महत्वपूर्ण हो गए हैं)         

मंगलवार, दिसंबर 16, 2014

एक नया ब्लॉग : चलते-चलते

एक नए सफ़र का ब्लॉग है 'चलते-चलते' 
मित्रों, एक नया ब्लॉग शुरू किया है: 'चलते-चलते (http://ghumakkadvadi.blogspot.in/ ) इस ब्लॉग का मकसद उन विषयों पर अलग से लिखना है, जो 'तीसरा रास्ता' के मिजाज के नहीं हैं.

जैसे अपनी यात्राओं की यादें या कभी फिल्मों या किताबों या किसी दोस्त-परिजन या साथियों पर लिखना हो तो 'तीसरा रास्ता' का मिजाज और तेवर आड़े आने लगता था. 

इसलिए यह नया ब्लॉग शुरू किया है. गाहे-बगाहे उसपर अपनी यात्राओं की खोज-खबर, उनके खट्टे-मिट्ठे अनुभव और हाँ, कैमरे और मोबाइल से ली गई तस्वीरें शेयर करूँगा.

आप 'तीसरा रास्ता' के सुधी साथी रहे/रही हैं. 'तीसरा रास्ता' पहले की तरह जारी रहेगा. उसे फुर्सत मिलते ही अपडेट करूँगा. हालाँकि इधर ज्यादा नहीं लिख पाया लेकिन जो कुछ लिखा है, उसे जल्दी ही ब्लॉग पर डालने की कोशिश करूँगा. 

लेकिन नए ब्लॉग 'चलते-चलते' पर भी आपकी मौजूदगी की दरख्वास्त है. पता है: http://ghumakkadvadi.blogspot.in/ 

और हाँ, इस बीच, एबीपी न्यूज की वेबसाईट के लिए भी साप्ताहिक ब्लॉग लिखना शुरू किया है. हर शुक्रवार को आप एबीपी-हिंदी की वेबसाईट पर यह पढ़ सकते हैं. 

अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजियेगा. शुभकामनाओं सहित. 

आपका,
आनंद  

शनिवार, जुलाई 26, 2014

हिंदी मीडिया भारतीय भाषाओँ के आंदोलन के साथ क्यों नहीं है?

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन

अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुँच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देश भर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने.
यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएँ. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यू.पी.एस.सी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओँ की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टी.आर.पी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.
नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्ख़ियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहाँ तक कि उनकी २४ घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है.

हालाँकि दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपनी मांगों को लेकर अनशन पर बैठे छात्रों/युवाओं के आंदोलन को भारी जन-समर्थन मिल रहा है, सोशल मीडिया पर यह मुद्दा गर्म है और नेता उसके राजनीतिक महत्व को समझकर, दिखाने के लिए ही सही, वहां पहुँच रहे हैं लेकिन हजारों की भीड़ के साथ आमतौर पर मौजूद रहनेवाले न्यूज चैनलों के कैमरे, जिमि-जिम, ओ.बी वैन और 24x7 लाइव रिपोर्ट करते उत्साही रिपोर्टर वहां से नदारद हैं.

यह समझा जा सकता है कि यू.पी.एस.सी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है.
हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजर जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एन.डी.ए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्याँ ले रहे थे. लेकिन यू.पी.एस.सी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?
कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस “हीनता ग्रंथि” के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के अप-मार्केट के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को अपमार्केट दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है.

आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडिये, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहाँ तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है.
जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओँ के हक में आवाज़ उठा रहा हो?
लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आज़ादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?



(यह टिप्पणी 'तहलका' के लिए 11 जुलाई को लिखी थी. उसके बाद से इस आंदोलन ने और गति पकड़ी है और मीडिया का ध्यान भी उसकी ओर गया है लेकिन क्या वह पर्याप्त है?)                                 

मंगलवार, जून 17, 2014

आर अनुराधा एक मुस्कुराती जिजीविषा का नाम था

अलविदा मित्र!
आर अनुराधा चलीं गईं. कैंसर से १७ साल लड़ीं और लड़ते-लड़ते ही गईं. उनसे एक मई को मिलकर आया था. बीमारी की उस हालत में भी जब शायद उनसे बहुत बैठा नहीं जा रहा था,वे अपने कमरे से चलकर आईं, थोड़ी देर कुर्सी पर बैठीं और हालचाल पूछा. चेहरे पर वही हल्की, स्मित और अनुराधा मुस्कान थी. 

मैं उन्हें उसी मुस्कुराहट से जानता था. कोई २० साल पहले जब उनसे पहली बार मिला था और अब इस आख़िरी मुलाक़ात तक उनकी उस मुस्कान में कोई अंतर नहीं आया था.

हाँ, इस बार चेहरे पर दर्द की लकीरें ज़रूर थीं. लेकिन उनपर डर या हताशा के चिन्ह नहीं थे. कैंसर के आख़िरी स्टेज में होते हुए भी उनके चेहरे पर अपनी कविताओं की नई किताब को लेकर संतोष का एक भाव था. 
 
हालाँकि ख़ुद मैं उनसे बात करते हुए आँखें नहीं मिला पा रहा था, गले में कुछ अटकता हुआ सा महसूस हो रहा था और एक
असहायता को बोध छाता जा रहा था.
 
लेकिन अनुराधा जी की जीजिविषा में कोई कमी नहीं थी. ऐसा लग रहा था कि हम नहीं, वे हमें ढाँढस बँधा रही हैं. उनकी कविताओं की तारीफ़ की जिसपर उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट दौड़ गई. मेरा जैसे दिल डूबा जा रहा था.
 
जानता हूँ कि खुद गहरी पीड़ा में होने के बावजूद उन्होंने दिलीप जी को कहकर मुझे घर पर क्यों बुलाया था. मैं खुद उस दिन हाल की घटनाओं के कारण बहुत परेशान और तनाव में था. अकेला महसूस कर रहा था. अनुराधा स्वस्थ होतीं तो शायद खुद घर आतीं लेकिन अपनी बीमारी के उस हाल में भी दिलीप जी मैसेज करवा के मुझे बुलाया। कहा कुछ नहीं लेकिन मैं उनके व्यवहार में वह ढाँढस महसूस कर सकता था.
 
हालाँकि उनसे मेरी कोई गहरी दोस्ती नहीं थी. अलबत्ता कैंसर से उनकी अनथक लड़ाई, उनके उन अनुभवों की किताब, उनके लेखन-संपादन और सक्रियताओं के कारण अनेकों लोगों की तरह मैं भी उनका चुप्पा फ़ैन बन चुका था. हालाँकि उनसे मुलाक़ात या बातचीत बहुत कम ही हो पाती थी. लेकिन मन ही मन उनके हौसले और सक्रियता और दिलीप जी के धैर्य, दृढ़ता, निष्ठा और समर्पण का कायल था.
 
महीनों में कभी कहीं किसी सभा-सेमिनार या कार्यक्रम में मुलाक़ात हो जाती थी. इन बीस सालों में मैं तीन-चार बार उनके घर
गया और एक बार वे दिलीप जी के साथ मेरे यहाँ खाने पर आईं. उस दिन वे एक पेंटिंग भी दे गईं जो मेरे कमरे में हमेशा उनकी याद दिलाती है. कभी-कभार फ़ोन पर भी बात हो जाती थी. 
 
इसके बावजूद वे जब भी मिलीं, उसी अनुराधा मुस्कान के साथ मिलीं. वे एक मिसाल हैं जिनसे जीवन जीने का सलीक़ा सीखा जा सकता है.

वे अपने जीवन के हर मिनट की क़ीमत जानती थीं और उसे भरपूर जी कर गईं. वे पी.एचडी करना चाहती थीं, लेकिन कैंसर ने उन्हें वह मौक़ा नहीं दिया. उसे उन्हें यह मौक़ा देना चाहिए था. 
 
वे चली गईं लेकिन अपने लेखन, कामों, इरादों और जिजीविषा के साथ वे हमारे साथ हैं. वे हम में से हर उस औरत या मर्द में जीवित रहेंगीं जो जीवन को अपनी शर्तों पर और मुस्कुराहट के साथ जीता है और जो कैंसर के पार भी इंद्रधनुष देखता है.

अलविदा मित्र आर अनुराधा! 

शुक्रवार, जून 06, 2014

अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता का युग

लेकिन ख़बरों के इर्द-गिर्द है आयरन कर्टेन और लुटियन पत्रकारिता मुश्किल में   

दिल्ली में मोदी सरकार आने के साथ न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की ‘पत्रकारिता’ में कई बदलाव दिखने लगे हैं. इसका पहला सुबूत यह है कि राजधानी के धाकड़ रिपोर्टरों, सत्ता के गलियारों में दूर तक पहुंच रखनेवाले संवाददाताओं और सर्वज्ञानी संपादकों को मोदी मंत्रिमंडल के संभावित मंत्रियों और उनके विभागों के बारे में तथ्यपूर्ण सूचनाएं नहीं थीं.
इसकी भरपाई वे परस्पर विरोधी सूचनाओं और अटकलों से करने की कोशिश कर रहे थे. यहाँ तक कि ‘अच्छे दिन लौटने’ की उम्मीद कर रहे भाजपा बीट के रिपोर्टरों के पास भी अटकलों के अलावा कुछ नहीं था.
नतीजा यह कि चैनल-दर-चैनल और अख़बारों तक में सिर्फ अटकलें थीं. चैनलों पर घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक एंकरों, रिपोर्टरों और चर्चाकारों में संभावित मंत्रिमंडल और मंत्रियों के विभागों को लेकर जिस तरह की अटकलबाजी चलती रही, क्या वह न्यूज मीडिया में पत्रकारिता की बजाय ‘अटकलकारिता’ युग के आगमन का संकेत है?

ऐसा लगता है कि सत्ता में बदलाव के साथ न सिर्फ सूचनाओं के स्रोत बदल गए हैं बल्कि खुद भाजपा और मोदी सरकार के अंदर सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं के बाहर आने पर पर सख्त नियंत्रण का युग शुरू हो चुका है.

इस लिहाज से मंत्रिमंडल का गठन और विभागों का वितरण सूचनाओं के नियंत्रण और प्रबंधन के लिए खड़े किये जा रहे इस नए ‘लौह दीवार’ (आयरन कर्टेन) की पहली परीक्षा थी जिसमें वह न सिर्फ कामयाब रही बल्कि उसने लुटियन दिल्ली के उन धाकड़ पत्रकारों को ‘अटकलकारिता’ करने पर मजबूर कर दिया जो कल तक मंत्रिमंडल बनवाने के दावे किया करते थे.
यह उन धाकड़ पत्रकारों/संपादकों के लिए एक चुनौती है जिनकी ‘पत्रकारिता’ लुटियन दिल्ली के भवनों और बंगलों की गणेश परिक्रमा में फल-फूल रही थी. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि वे इस नए ‘आयरन कर्टेन’ से कैसे निपटें?
अफसोस यह कि इसका नतीजा सिर्फ अटकलकारिता में ही नहीं बल्कि ‘फील गुड पत्रकारिता’ के पुनरागमन में भी दिख रहा है. आश्चर्य नहीं कि इन दिनों चैनलों और अखबारों में नई सरकार के बारे में या तो गुडी-गुडी ‘खबरें’ चल रही हैं या उसे बिन मांगी सलाहें दी जा रही हैं या फिर सरकार के लिए कारपोरेट समर्थित एजेंडा तय किया जा रहा है.

लेकिन यह सिर्फ चैनलों और अखबारों और मोदी सरकार के बीच शुरूआती हनीमून का नतीजा भर नहीं है बल्कि सूचनाओं खासकर नकारात्मक सूचनाओं/ख़बरों के बाहर निकलने पर आयद आयरन कर्टेन और सूचनाओं के अनुकूल प्रबंधन की सुविचारित रणनीति का भी नतीजा है.

यह नए प्रधानमंत्री की कार्यशैली का अभिन्न हिस्सा रहा है. आश्चर्य नहीं कि यह सरकार जहाँ एक ओर महत्वपूर्ण खासकर नकारात्मक सूचनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है, वहीँ दूसरी ओर मीडिया को उदारतापूर्वक ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ दी जा रही हैं.
ये वे फीलगुड ‘खबरें’ और ‘विजुअल्स’ हैं जिनमें वास्तविक और जनहित से जुड़ी जानकारी कम और पी.आर ज्यादा है.
असल में, सरकार के मीडिया मैनेजरों को अच्छी तरह से मालूम है कि 24X7 न्यूज चैनलों के दौर में चैनलों के पर्दे को भरना और उन्हें चर्चा के लिए विषय देना बहुत जरूरी है.
इसलिए सूचना के प्रवाह को रोकने के बजाय उसे नियंत्रित और प्रबंधित करने पर ज्यादा जोर है. आश्चर्य नहीं कि चैनलों के कैमरों को प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मंत्रिमंडल की बैठकों तक पहुँच दी गई है और आधिकारिक तौर पर हर दिन चर्चा के लिए अनुकूल विषय भी दिए जा रहे हैं.

मजे की बात यह है कि चैनल बिना किसी जांच-पड़ताल और छानबीन के उसे लपककर अपनी अटकलकारिता और फील गुड पत्रकारिता से खुश हैं. सचमुच, अच्छे दिन आ गए हैं.             

('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित अंश)