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गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

प्रणब मुखर्जी को नींद क्यों नहीं आती है?

अमीरों और कार्पोरेट्स को पांच लाख करोड़ रूपये की सब्सिडी पर वित्त मंत्री की नींद क्यों नहीं उड़ती?
पहली किस्त

वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ गई है. इससे पहले कि आप उनके नींद उड़ने के कारणों को लेकर कयास लगाएं, यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि उन्हें नींद क्यों नहीं आ रही है? खुद वित्त मंत्री का कहना है कि जब भी वे सब्सिडी के बढ़ते बोझ के बारे में सोचते हैं, उनकी रातों की नींद उड़ जाती है.

असल में, वित्त मंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष के बजट में विभिन्न मदों (विशेषकर खाद्य, उर्वरक और पेट्रोलियम) में कुल १.४३ लाख करोड़ रूपये की सब्सिडी का अनुमान लगाया था लेकिन रिपोर्टों के मुताबिक, इसमें लगभग एक लाख करोड़ रूपये की और बढोत्तरी होने के आसार हैं. इससे प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ी हुई है और उन्हें बुरे सपने आ रहे हैं.

वित्त मंत्री के इस बयान पर चौंकने या हैरान होने की जरूरत नहीं है. कारण यह कि प्रणब मुखर्जी पहले वित्त मंत्री नहीं हैं जिनकी नींद सब्सिडी के बढ़ते बोझ के कारण उड़ी हुई है. उनसे पहले के वित्त मंत्रियों के लिए भी सब्सिडी एक दु:स्वपन की तरह रही है. सब्सिडी उनकी नींद खराब करती रही है और वे अपनी चिंता का इजहार करते रहे हैं. खासकर हर आम बजट के पहले बिना किसी अपवाद के वित्त मंत्रियों का सब्सिडी रोदन शुरू हो जाता है.

यह वित्त मंत्रियों की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. इसके जरिये वे एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश करते रहे हैं. एक, सब्सिडी के बढ़ते बोझ का हौव्वा खड़ा करके उसमें कटौती के लिए माहौल बनाना और दूसरे, कटौती संभव न हो पाए तो कम से कम उसमें बढोत्तरी के रास्ते बंद कर देना.

प्रणब मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं. आश्चर्य नहीं कि उनका बयान ऐसे समय में आया है जब नए बजट की तैयारियां जोर-शोर से जारी हैं. जाहिर है कि बजट से पहले वे बढ़ती सब्सिडी का हौव्वा खड़ा करके उसमें कटौती के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. यही नहीं, इसके जरिये वे आनेवाले बजट पर से बढ़ती अपेक्षाओं का बोझ भी कम करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे हर तरह की सब्सिडी को निशाना बनाने जा रहे हैं. असल में, उनके निशाने पर अमीरों और कारपोरेट को मिलनेवाली सब्सिडी नहीं है बल्कि उनकी नजर किसानों को मिलनेवाली उर्वरक और डीजल सब्सिडी और खासकर गरीबों की खाद्य सब्सिडी पर है.

इसका सबूत यह है कि पिछले दो बजटों में भी उन्होंने उर्वरक, पेट्रोलियम और खाद्य सब्सिडी को ही कटौती का निशाना बनाया था. उदाहरण के लिए, इन तीनों मदों में आम चुनाव के वर्ष २००९-१० में कुल सब्सिडी १.४१ लाख करोड़ रूपये थी लेकिन सत्ता में आते ही वर्ष २०१०-११ के पहले बजट में उन्होंने सब्सिडी के मद में २५ हजार करोड़ रूपये की कटौती करते हुए बजट में १.१६ लाख करोड़ रूपये का प्रावधान किया.

यह और बात है कि वर्ष २०१०-११ के संशोधित बजट अनुमान में सब्सिडी बजट अनुमान से ४८ हजार करोड़ रूपये बढ़कर १.६४ लाख करोड़ पहुँच गई. लेकिन प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर वर्ष २०११-१२ के बजट अनुमान में २१ हजार करोड़ रूपये की कटौती करते हुए १.४३ लाख करोड़ रूपये का प्रावधान किया जिसके संशोधित अनुमान में फिर बढ़कर २.४३ लाख करोड़ रूपये तक पहुँचने की रिपोर्टें हैं.

इस उदाहरण से साफ़ है कि हर बजट में सब्सिडी में कटौती के बावजूद संशोधित बजट अनुमान में उसमें बढोत्तरी हुई है क्योंकि सब्सिडी के बजट अनुमान वास्तविकता से परे और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की वाहवाही लूटने के लिए पेश किये जाते हैं.

वित्त मंत्री को यह अच्छी तरह पता है लेकिन वे जानबूझकर बजट में सब्सिडी में कटौती और उसका एक अवास्तविक अनुमान पेश करते हैं ताकि उसमें बढोत्तरी के बाद सब्सिडी के बढ़ते बोझ का हौव्वा खड़ा किया जा सके और फिर उसमें कटौती के लिए माहौल बनाया जा सके. गौर करनेवाली बात यह है कि सब्सिडी में ‘भारी बढोत्तरी’ के कोहराम बावजूद यह जी.डी.पी की मात्र तीन फीसदी बैठती है.

लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि एक ओर गरीबों और किसानों को दी जानेवाली इस मामूली राहत को सब्सिडी और अर्थव्यवस्था की वित्तीय सेहत के लिए घातक बताकर निशाना बनाया जा रहा है.

वहीँ दूसरी ओर, हर बजट में बिना अपवाद के अमीरों और कारपोरेट क्षेत्र को दी जानेवाली लाखों करोड़ रूपयों की छूट और रियायतों को सब्सिडी न कहकर प्रोत्साहन कहा जाता है और उसमें साल दर साल बढोत्तरी होने के बावजूद वित्त मंत्री की नींद पर कोई असर नहीं पड़ता है.

तथ्य यह है कि वर्ष २०१०-११ के बजट में अमीरों और कार्पोरेट्स को आयकर, कारपोरेट टैक्स, सीमा शुल्क और उत्पाद करों में ५११६३० करोड़ रूपये की छूट और रियायतें दी गईं. यह अकेले जी.डी.पी का ६ फीसदी से ज्यादा है.

इसका अर्थ यह हुआ कि जिस सब्सिडी से वित्त मंत्री की नींद उड़ जाती है, अमीरों और कार्पोरेट्स को उसके कोई सवा दो गुने से भी ज्यादा की छूटों और रियायतों से उनकी नींद में कोई खलल नहीं पड़ता है.

मजे की बात यह है कि यह छूट अर्थव्यवस्था और विकास के लिए जरूरी मानी जाती है जबकि गरीबों और किसानों को दी जानेवाली मामूली राहत जिसका बड़ा हिस्सा कंपनियों और भ्रष्ट अफसरों/नेताओं/ठेकेदारों की जेब में जाता है, उसे अर्थव्यवस्था के लिए बोझ बताया जाता है.

इसके बावजूद मजा देखिए कि जैसे ही वित्त मंत्री का बढ़ती सब्सिडी के कारण नींद उड़ने का बयान आया, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों और उनके सबसे बड़े मुखपत्र बन गए गुलाबी अख़बारों को मौका मिल गया.

प्रणब मुखर्जी को सब्सिडी के मुद्दे पर सख्ती बरतने और उसमें कटौती के सुझाव दिए जाने लगे. ऐसा लगा जैसे वित्त मंत्री से ज्यादा नींद तो गुलाबी अख़बारों के संपादकों और आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की उड़ी हुई है.

उनके मुताबिक, ‘अर्थव्यवस्था और देश के विकास’ की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनी इन सब्सिडियों से पीछा छुडाने का अंतिम अवसर है क्योंकि अगले साल चुनाव वर्ष का बजट होगा.

उसमें प्रणब मुखर्जी पर लोकलुभावन घोषणाएं करने का दबाव होगा. इसलिए इस बात के पक्के आसार हैं कि इस साल के बजट में वित्त मंत्री अपनी मानसिक शांति और नींद के लिए एक बार फिर उर्वरक, डीजल और खाद्य सब्सिडी को कटौतियों का निशाना बनाएं.

आश्चर्य नहीं होगा अगर इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश और गोवा विधानसभा चुनाव के लिए तीन मार्च को मतदान के तुरंत बाद पिछले दो-तीन महीनों से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में रुकी वृद्धि की घोषणा हो जाए. साफ़ है कि लोकतंत्र के भ्रम और चुनावों की मजबूरी नहीं हो तो बजट से किसानों और गरीबों को मिलनेवाली मामूली राहत का भी नामोनिशान मिट जाए.

इस मजबूरी को खत्म करने के लिए ही सैद्धांतिक तौर पर अर्थनीति को राजनीति के दबावों से मुक्त करने की वकालत की जाती रही है. दूसरी ओर, चुनावी मजबूरी से बचने के लिए ही भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं.

 
 
('जनसत्ता' के १५ फरवरी'१२ के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त)

शुक्रवार, दिसंबर 30, 2011

खाद्य सुरक्षा के नाम पर भूखों को फिर ठेंगा

भोजन के अधिकार की आड़ में पी.डी.एस को ठिकाने लगाने की तैयारी  


पहली किस्त

काफी ना-नुकुर, खींचतान और दांवपेंच के बाद आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पेश कर दिया. पिछले दो सालों से अधिक समय से सरकार के अंदर और बाहर इस कानून के मसौदे को लेकर बहस चल रही थी. दूसरी ओर, देश भर में खाद्य सुरक्षा यानी सभी नागरिकों को भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो रहे थे.

सरकार पर नैतिक और राजनीतिक दोनों दबाव थे. सचमुच इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार और भारत के आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के दावों के बीच देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की कुल तादाद बढ़कर २७ करोड़ से अधिक पहुँच गई है?

यही नहीं, दुनिया भर में भूखमरी के शिकार लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा अकेले भारत में रहता है. आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक (हंगर इंडेक्स) पर ८४ देशों में भारत कई अत्यधिक गरीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों से भी नीचे ६७ वें स्थान पर है.

विडम्बना देखिए कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर १९९० से २००५ के बीच तेज वृद्धि दर के कारण जहां भारत के जी.डी.पी का आकार दुगुना हो गया और प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि दर्ज की गई, उसी दौरान देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की तादाद में कमी आने के बजाय उनकी संख्या में लगभग ६.५ करोड़ की और बढोत्तरी हो गई.

हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कोई ४८ फीसदी बच्चे और ४० फीसदी वयस्क भरपेट और पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन न मिलने के कारण कुपोषण के शिकार हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून से देश के उन करोड़ों लोगों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं जो आज़ादी के ६३ साल बाद आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं.

लेकिन इतनी उम्मीदों, सरकार के भारी-भरकम दावों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बाद जो विधेयक संसद में पेश किया गया है, उसका मकसद कहीं से भी सबको भोजन का मौलिक अधिकार देना नहीं है.

इसके उलट सच यह है कि खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक न सिर्फ बहुत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है बल्कि यह देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून साबित होगा. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा के नाम पर यह भूखे लोगों का मजाक उड़ानेवाला विधेयक है जिसका असली मकसद खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में खादयान्नों के कारोबार से जुड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की मदद करना है.

इस कानून के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) में सुधार के नाम पर उसे पूरी तरह बर्बाद करने की तैयारी कर ली गई है जिससे सबसे ज्यादा फायदा बड़ी बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों को होगा.

असल में, यू.पी.ए सरकार इसके लिए बहुत दिनों से मौका खोज रही थी. यह किसी से छुपा नहीं है कि पी.डी.एस में सुधार के नाम पर उसे समेटने और बंद करने की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं. पी.डी.एस में सुधार की आड़ में उसे पहले ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) में बदलकर कमजोर और खोखला किया जा चुका है.

इसी नव उदारवादी एजेंडे को आगे बढाने के लिए अब खाद्य सुरक्षा विधेयक को एक मौके की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून को लागू करने के लिए सभी राज्यों को पी.डी.एस में सुधार करना होगा.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पी.डी.एस व्यवस्था में जितना भ्रष्टाचार और अराजकता है, उसे देखते हुए उसमें सुधार की और उसे भ्रष्टाचारमुक्त, प्रभावी और जन नियंत्रण में लाने की सख्त जरूरत है. लेकिन सरकार का इरादा उसमें सुधार करके उसे सशक्त और प्रभावी बनाने का नहीं है. इसके उलट वह पी.डी.एस में सुधार के बहाने उसमें अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) को घुसेड़ना चाहती है.

लेकिन इस विधेयक में सबसे खतरनाक प्रावधान यह किया गया है कि केन्द्र सरकार जिस दिन से और जिस क्षेत्र में अनाज की जगह कैश ट्रान्सफर, फ़ूड कूपन जैसी योजनाओं को लागू करना चाहेगी, राज्य सरकारों को उसे लागू करना होगा.

साफ़ है कि सरकार का असली इरादा लोगों को पी.डी.एस के माध्यम से अनाज मुहैया कराके खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि कैश ट्रांसफर और फ़ूड कूपन के बहाने खाद्यान्न के बड़े व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को मोटे मुनाफे की गारंटी करना है.

यह किसी से छुपा नहीं है कि पहले एन.डी.ए और अब यू.पी.ए सरकार पिछले कई वर्षों से राशन लाभार्थियों को अनाज के बजाय नकद पैसा या फ़ूड कूपन देने की पेशकश करते रहे हैं जिसका इस्तेमाल करके वह खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद ले.

ऊपर से देखने पर यह योजना बहुत आकर्षक लगती है कि लाभार्थी को राशन की दूकान और उसमें मिलनेवाले घटिया अनाज से मुक्ति मिल जायेगी और वह अपनी सुविधा और पसंद से अनाज खरीद सकता है.

लेकिन सच यह है कि सुधार के नाम पर गरीबों और भूखमरी से जूझ रहे लोगों को भ्रष्ट पी.डी.एस के बजाय खुले बाजार की मनमानी के भरोसे छोड़ा जा रहा है. आखिर कितने गरीब खुले बाजार से फ़ूड कूपन या नकद से अपनी इच्छा या पसंद से अनाज खरीद पाएंगे?

दूसरी ओर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर सरकार कैश ट्रांसफर या फ़ूड कूपन को आगे बढ़ाने जा रही है तो उसके अपने अनाज भण्डार का क्या होगा? अगर सरकार पी.डी.एस से अनाज का वितरण नहीं करना चाहती है तो उसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने और अनाज भण्डार रखने की भी क्या जरूरत है?

मतलब साफ़ है. सरकार का असली मकसद न सिर्फ पी.डी.एस को खत्म करना है बल्कि वह किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की जिम्मेदारी से भी मुक्ति चाहती है. इस तरह वह किसानों को भी बाजार और बड़े अनाज व्यापारियों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ना चाहती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे ज्यादा खुशी अनाज के कारोबार से जुड़े बड़े व्यापारियों और देशी-विदेशी कंपनियों को होगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि किसानों और राशन लाभार्थियों दोनों को बाजार के भरोसे छोडकर सरकार वास्तव में देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाने जा रही है.

यही इस विधेयक की असलियत है. सच यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में नया कुछ भी नहीं है. इसमें मौजूदा व्यवस्था को ही नए नाम से पेश कर दिया गया है.
 
बाकी कल...
 
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)