भोजन के अधिकार की आड़ में पी.डी.एस को ठिकाने लगाने की तैयारी
पहली किस्त
काफी ना-नुकुर, खींचतान और दांवपेंच के बाद आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पेश कर दिया. पिछले दो सालों से अधिक समय से सरकार के अंदर और बाहर इस कानून के मसौदे को लेकर बहस चल रही थी. दूसरी ओर, देश भर में खाद्य सुरक्षा यानी सभी नागरिकों को भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो रहे थे.
सरकार पर नैतिक और राजनीतिक दोनों दबाव थे. सचमुच इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार और भारत के आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के दावों के बीच देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की कुल तादाद बढ़कर २७ करोड़ से अधिक पहुँच गई है?
यही नहीं, दुनिया भर में भूखमरी के शिकार लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा अकेले भारत में रहता है. आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक (हंगर इंडेक्स) पर ८४ देशों में भारत कई अत्यधिक गरीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों से भी नीचे ६७ वें स्थान पर है.
विडम्बना देखिए कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर १९९० से २००५ के बीच तेज वृद्धि दर के कारण जहां भारत के जी.डी.पी का आकार दुगुना हो गया और प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि दर्ज की गई, उसी दौरान देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की तादाद में कमी आने के बजाय उनकी संख्या में लगभग ६.५ करोड़ की और बढोत्तरी हो गई.
हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कोई ४८ फीसदी बच्चे और ४० फीसदी वयस्क भरपेट और पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन न मिलने के कारण कुपोषण के शिकार हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून से देश के उन करोड़ों लोगों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं जो आज़ादी के ६३ साल बाद आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं.
लेकिन इतनी उम्मीदों, सरकार के भारी-भरकम दावों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बाद जो विधेयक संसद में पेश किया गया है, उसका मकसद कहीं से भी सबको भोजन का मौलिक अधिकार देना नहीं है.
इसके उलट सच यह है कि खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक न सिर्फ बहुत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है बल्कि यह देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून साबित होगा. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा के नाम पर यह भूखे लोगों का मजाक उड़ानेवाला विधेयक है जिसका असली मकसद खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में खादयान्नों के कारोबार से जुड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की मदद करना है.
इस कानून के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) में सुधार के नाम पर उसे पूरी तरह बर्बाद करने की तैयारी कर ली गई है जिससे सबसे ज्यादा फायदा बड़ी बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों को होगा.
असल में, यू.पी.ए सरकार इसके लिए बहुत दिनों से मौका खोज रही थी. यह किसी से छुपा नहीं है कि पी.डी.एस में सुधार के नाम पर उसे समेटने और बंद करने की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं. पी.डी.एस में सुधार की आड़ में उसे पहले ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) में बदलकर कमजोर और खोखला किया जा चुका है.
इसी नव उदारवादी एजेंडे को आगे बढाने के लिए अब खाद्य सुरक्षा विधेयक को एक मौके की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून को लागू करने के लिए सभी राज्यों को पी.डी.एस में सुधार करना होगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पी.डी.एस व्यवस्था में जितना भ्रष्टाचार और अराजकता है, उसे देखते हुए उसमें सुधार की और उसे भ्रष्टाचारमुक्त, प्रभावी और जन नियंत्रण में लाने की सख्त जरूरत है. लेकिन सरकार का इरादा उसमें सुधार करके उसे सशक्त और प्रभावी बनाने का नहीं है. इसके उलट वह पी.डी.एस में सुधार के बहाने उसमें अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) को घुसेड़ना चाहती है.
लेकिन इस विधेयक में सबसे खतरनाक प्रावधान यह किया गया है कि केन्द्र सरकार जिस दिन से और जिस क्षेत्र में अनाज की जगह कैश ट्रान्सफर, फ़ूड कूपन जैसी योजनाओं को लागू करना चाहेगी, राज्य सरकारों को उसे लागू करना होगा.
साफ़ है कि सरकार का असली इरादा लोगों को पी.डी.एस के माध्यम से अनाज मुहैया कराके खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि कैश ट्रांसफर और फ़ूड कूपन के बहाने खाद्यान्न के बड़े व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को मोटे मुनाफे की गारंटी करना है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि पहले एन.डी.ए और अब यू.पी.ए सरकार पिछले कई वर्षों से राशन लाभार्थियों को अनाज के बजाय नकद पैसा या फ़ूड कूपन देने की पेशकश करते रहे हैं जिसका इस्तेमाल करके वह खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद ले.
ऊपर से देखने पर यह योजना बहुत आकर्षक लगती है कि लाभार्थी को राशन की दूकान और उसमें मिलनेवाले घटिया अनाज से मुक्ति मिल जायेगी और वह अपनी सुविधा और पसंद से अनाज खरीद सकता है.
लेकिन सच यह है कि सुधार के नाम पर गरीबों और भूखमरी से जूझ रहे लोगों को भ्रष्ट पी.डी.एस के बजाय खुले बाजार की मनमानी के भरोसे छोड़ा जा रहा है. आखिर कितने गरीब खुले बाजार से फ़ूड कूपन या नकद से अपनी इच्छा या पसंद से अनाज खरीद पाएंगे?
दूसरी ओर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर सरकार कैश ट्रांसफर या फ़ूड कूपन को आगे बढ़ाने जा रही है तो उसके अपने अनाज भण्डार का क्या होगा? अगर सरकार पी.डी.एस से अनाज का वितरण नहीं करना चाहती है तो उसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने और अनाज भण्डार रखने की भी क्या जरूरत है?
मतलब साफ़ है. सरकार का असली मकसद न सिर्फ पी.डी.एस को खत्म करना है बल्कि वह किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की जिम्मेदारी से भी मुक्ति चाहती है. इस तरह वह किसानों को भी बाजार और बड़े अनाज व्यापारियों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ना चाहती है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे ज्यादा खुशी अनाज के कारोबार से जुड़े बड़े व्यापारियों और देशी-विदेशी कंपनियों को होगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि किसानों और राशन लाभार्थियों दोनों को बाजार के भरोसे छोडकर सरकार वास्तव में देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाने जा रही है.
यही इस विधेयक की असलियत है. सच यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में नया कुछ भी नहीं है. इसमें मौजूदा व्यवस्था को ही नए नाम से पेश कर दिया गया है.
बाकी कल...
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)
पहली किस्त
काफी ना-नुकुर, खींचतान और दांवपेंच के बाद आख़िरकार यू.पी.ए सरकार ने खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पेश कर दिया. पिछले दो सालों से अधिक समय से सरकार के अंदर और बाहर इस कानून के मसौदे को लेकर बहस चल रही थी. दूसरी ओर, देश भर में खाद्य सुरक्षा यानी सभी नागरिकों को भोजन के अधिकार की मांग को लेकर आंदोलन तेज हो रहे थे.
सरकार पर नैतिक और राजनीतिक दोनों दबाव थे. सचमुच इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि जी.डी.पी की तेज रफ़्तार और भारत के आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनने के दावों के बीच देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की कुल तादाद बढ़कर २७ करोड़ से अधिक पहुँच गई है?
यही नहीं, दुनिया भर में भूखमरी के शिकार लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई से ज्यादा हिस्सा अकेले भारत में रहता है. आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक (हंगर इंडेक्स) पर ८४ देशों में भारत कई अत्यधिक गरीब अफ़्रीकी और एशियाई देशों से भी नीचे ६७ वें स्थान पर है.
विडम्बना देखिए कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर १९९० से २००५ के बीच तेज वृद्धि दर के कारण जहां भारत के जी.डी.पी का आकार दुगुना हो गया और प्रति व्यक्ति आय में तिगुनी वृद्धि दर्ज की गई, उसी दौरान देश में गंभीर भूखमरी के शिकार लोगों की तादाद में कमी आने के बजाय उनकी संख्या में लगभग ६.५ करोड़ की और बढोत्तरी हो गई.
हालात कितने गंभीर हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कोई ४८ फीसदी बच्चे और ४० फीसदी वयस्क भरपेट और पर्याप्त पोषणयुक्त भोजन न मिलने के कारण कुपोषण के शिकार हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून से देश के उन करोड़ों लोगों को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं जो आज़ादी के ६३ साल बाद आज भी भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं.
लेकिन इतनी उम्मीदों, सरकार के भारी-भरकम दावों और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बाद जो विधेयक संसद में पेश किया गया है, उसका मकसद कहीं से भी सबको भोजन का मौलिक अधिकार देना नहीं है.
इसके उलट सच यह है कि खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक न सिर्फ बहुत सीमित, आधा-अधूरा, विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ है बल्कि यह देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून साबित होगा. यही नहीं, खाद्य सुरक्षा के नाम पर यह भूखे लोगों का मजाक उड़ानेवाला विधेयक है जिसका असली मकसद खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की आड़ में खादयान्नों के कारोबार से जुड़ी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की मदद करना है.
इस कानून के जरिये सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) में सुधार के नाम पर उसे पूरी तरह बर्बाद करने की तैयारी कर ली गई है जिससे सबसे ज्यादा फायदा बड़ी बहुराष्ट्रीय खाद्यान्न कंपनियों को होगा.
असल में, यू.पी.ए सरकार इसके लिए बहुत दिनों से मौका खोज रही थी. यह किसी से छुपा नहीं है कि पी.डी.एस में सुधार के नाम पर उसे समेटने और बंद करने की कोशिशें लंबे समय से चल रही थीं. पी.डी.एस में सुधार की आड़ में उसे पहले ही लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) में बदलकर कमजोर और खोखला किया जा चुका है.
इसी नव उदारवादी एजेंडे को आगे बढाने के लिए अब खाद्य सुरक्षा विधेयक को एक मौके की तरह इस्तेमाल किया गया है जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि इस कानून को लागू करने के लिए सभी राज्यों को पी.डी.एस में सुधार करना होगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि पी.डी.एस व्यवस्था में जितना भ्रष्टाचार और अराजकता है, उसे देखते हुए उसमें सुधार की और उसे भ्रष्टाचारमुक्त, प्रभावी और जन नियंत्रण में लाने की सख्त जरूरत है. लेकिन सरकार का इरादा उसमें सुधार करके उसे सशक्त और प्रभावी बनाने का नहीं है. इसके उलट वह पी.डी.एस में सुधार के बहाने उसमें अत्यंत विवादास्पद आधार पहचानपत्र (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) को घुसेड़ना चाहती है.
लेकिन इस विधेयक में सबसे खतरनाक प्रावधान यह किया गया है कि केन्द्र सरकार जिस दिन से और जिस क्षेत्र में अनाज की जगह कैश ट्रान्सफर, फ़ूड कूपन जैसी योजनाओं को लागू करना चाहेगी, राज्य सरकारों को उसे लागू करना होगा.
साफ़ है कि सरकार का असली इरादा लोगों को पी.डी.एस के माध्यम से अनाज मुहैया कराके खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना नहीं बल्कि कैश ट्रांसफर और फ़ूड कूपन के बहाने खाद्यान्न के बड़े व्यापारियों और बड़ी कंपनियों को मोटे मुनाफे की गारंटी करना है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि पहले एन.डी.ए और अब यू.पी.ए सरकार पिछले कई वर्षों से राशन लाभार्थियों को अनाज के बजाय नकद पैसा या फ़ूड कूपन देने की पेशकश करते रहे हैं जिसका इस्तेमाल करके वह खुले बाजार से अपनी पसंद का अनाज खरीद ले.
ऊपर से देखने पर यह योजना बहुत आकर्षक लगती है कि लाभार्थी को राशन की दूकान और उसमें मिलनेवाले घटिया अनाज से मुक्ति मिल जायेगी और वह अपनी सुविधा और पसंद से अनाज खरीद सकता है.
लेकिन सच यह है कि सुधार के नाम पर गरीबों और भूखमरी से जूझ रहे लोगों को भ्रष्ट पी.डी.एस के बजाय खुले बाजार की मनमानी के भरोसे छोड़ा जा रहा है. आखिर कितने गरीब खुले बाजार से फ़ूड कूपन या नकद से अपनी इच्छा या पसंद से अनाज खरीद पाएंगे?
दूसरी ओर, एक बड़ा सवाल यह भी है कि अगर सरकार कैश ट्रांसफर या फ़ूड कूपन को आगे बढ़ाने जा रही है तो उसके अपने अनाज भण्डार का क्या होगा? अगर सरकार पी.डी.एस से अनाज का वितरण नहीं करना चाहती है तो उसे किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने और अनाज भण्डार रखने की भी क्या जरूरत है?
मतलब साफ़ है. सरकार का असली मकसद न सिर्फ पी.डी.एस को खत्म करना है बल्कि वह किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदने की जिम्मेदारी से भी मुक्ति चाहती है. इस तरह वह किसानों को भी बाजार और बड़े अनाज व्यापारियों और कंपनियों के रहमो-करम पर छोड़ना चाहती है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे ज्यादा खुशी अनाज के कारोबार से जुड़े बड़े व्यापारियों और देशी-विदेशी कंपनियों को होगी. लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि किसानों और राशन लाभार्थियों दोनों को बाजार के भरोसे छोडकर सरकार वास्तव में देश की खाद्य सुरक्षा को दांव पर लगाने जा रही है.
यही इस विधेयक की असलियत है. सच यह है कि खाद्य सुरक्षा विधेयक में नया कुछ भी नहीं है. इसमें मौजूदा व्यवस्था को ही नए नाम से पेश कर दिया गया है.
बाकी कल...
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली किस्त)
1 टिप्पणी:
एक टिप्पणी भेजें