सरकार और उद्योग जगत के बीच टकराव बढ़ रहा है
यह किसी से छुपा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों की शिकायत है कि उद्योग जगत देश में बेवजह निराशा और चिंता का माहौल बना रहा है. इसके कारण स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.
इस मामले में उद्योग जगत के नकारात्मक रवैये से प्रधानमंत्री इतने नाराज हैं कि उन्होंने देश के शीर्ष उद्योगपतियों के साथ एक हालिया बैठक में उन्हें झिड़कने से भी परहेज नहीं किया.
प्रधानमंत्री उद्योग जगत के उन बयानों से अधिक नाराज हैं जिनमें अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ को जिम्मेदार ठहराया गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों उद्योग जगत की इस राय से न सिर्फ इत्तेफाक नहीं रखते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि उनकी सरकार को बदनाम और अस्थिर करने की कोशिश हो रही है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसे बयानों से अनिश्चितता बढ़ती है. लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन बयानों से यह पता चलता है कि यू.पी.ए सरकार और उद्योग जगत के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है.
उल्टे ऐसा लगता है कि दोनों के बीच अविश्वास और टकराव बढ़ता जा रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को लेकर उद्योग जगत खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है.
उसे लगने लगा है कि यह सरकार जिस तरह से अपने ही अंतर्विरोधों में फंसती और अपना राजनीतिक इकबाल गंवाती जा रही है, उसके कारण आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का एजेंडा पीछे छूटता जा रहा है.
दरअसल, इस सरकार से उद्योग जगत को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. उद्योग जगत को विश्वास था कि वामपंथी पार्टियों के दबाव से मुक्त यू.पी.ए-२ सरकार न सिर्फ नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी बल्कि देश भर में नए औद्योगिक प्रोजेक्ट्स की राह में आ रही बाधाओं को भी हटाएगी.
लेकिन पिछले ढाई साल में यह सरकार उनमें से ज्यादातर अपेक्षाओं और उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई. इसके भी कारण किसी से छुपे नहीं हैं. एक तो यह सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण राजनीतिक रूप से घिर गई और आपसी झगडों में उलझ गई और दूसरी ओर, देश भर में जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण को लेकर किसानों-आदिवासियों और स्थानीय समुदायों का विरोध और संघर्ष तेज होता गया.
नतीजा, यह सरकार चाहकर भी उद्योग जगत की इच्छाएं पूरी नहीं कर पाई. यही नहीं, भ्रष्टाचार के मामलों में राजनेताओं और अफसरों के साथ उद्योग जगत की कई बड़ी हस्तियों को भी जेल जाना पड़ा है. इससे उद्योग जगत की बेचैनी बढ़ी है. आश्चर्य नहीं कि इसी निराशा और बेचैनी में उद्योग जगत का एक हिस्सा न सिर्फ सरकार की मुखर आलोचना करने लगा है बल्कि इस सरकार के राजनीतिक विकल्पों की खोज भी करने लगा है.
इसी प्रक्रिया में पिछले कुछ महीनों में उद्योग जगत की ओर से सरकार की आलोचना के स्वर मुखर हुए हैं. यही नहीं, कई बड़े उद्योगपतियों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की उम्मीदवारी को भी आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है.
जाहिर है कि इससे मनमोहन सिंह सरकार में नाराजगी है. लेकिन वह जानती है कि उद्योग जगत के नाराज करके सत्ता में टिके रहना मुश्किल है. इसलिए उसने उद्योग जगत को खुश करने की बहुत कोशिश की है. पिछले डेढ़ महीने में सरकार ने आनन-फानन में ऐसे कई फैसले किये जिनका असली मकसद बड़ी पूंजी को खुश करना है.
निश्चित ही, इनमें सबसे बड़ा फैसला खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत देने का था. लेकिन अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों और देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के कारण सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा.
इससे उद्योग जगत और सरकार के बीच खिंचाव और अविश्वास बढ़ा है. उद्योग जगत को लगता है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण फैसले के बचाव के लिए उतनी गंभीर कोशिश नहीं की जितनी परमाणु डील के समय की थी.
सरकार का तर्क है कि उद्योग जगत गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को समझ नहीं पा रहा है. इस तरह सरकार और उद्योग जगत के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है. इस टकराव के कारण जो ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति बन गई है, उसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि औद्योगिक उत्पादन दर के साथ-साथ जी.डी.पी की वृद्धि दर भी गिर रही है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश नहीं हो रहा है. घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के कारण बड़ी निजी पूंजी नया निवेश नहीं कर रही है.
इससे मांग भी मंद पड़ रही है. इस प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था एक तरह के दुष्चक्र में फंसती हुई दिखाई दे रही है. अगर अर्थव्यवस्था को इस दुष्चक्र से निकालने की तुरंत कोशिश नहीं की गई तो स्थिति सचमुच बद से बदतर हो सकती है.
अच्छी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति उतनी बुरी नहीं है जितनी गुलाबी अखबार और उद्योग जगत बताने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी इस कोशिश के पीछे उनका अपना एजेंडा है. वे सरकार पर दबाव बनाने और आर्थिक सुधारों की गति तेज करने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इससे स्थिति में कोई सुधार नहीं आनेवाला है. इसके उलट अगर सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह अर्थव्यवस्था खासकर आधारभूत ढांचे में सार्वजनिक निवेश को बढाकर अर्थव्यवस्था को संभाल सकती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार खुद नव उदारवादी सुधारों से इस कदर मोहग्रस्त है कि वह सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है.
इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी बिजनेस को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है. इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है.
लेकिन मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे के सामने है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है.
असल में , इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी.
लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए. यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है.
अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.
लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है. क्या सरकार इसके लिए तैयार है?
(दैनिक 'नया इंडिया' में २६ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' में २८ दिसंबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
यह किसी से छुपा नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की हालत अच्छी नहीं है. लेकिन प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों की शिकायत है कि उद्योग जगत देश में बेवजह निराशा और चिंता का माहौल बना रहा है. इसके कारण स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है.
इस मामले में उद्योग जगत के नकारात्मक रवैये से प्रधानमंत्री इतने नाराज हैं कि उन्होंने देश के शीर्ष उद्योगपतियों के साथ एक हालिया बैठक में उन्हें झिड़कने से भी परहेज नहीं किया.
प्रधानमंत्री उद्योग जगत के उन बयानों से अधिक नाराज हैं जिनमें अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ को जिम्मेदार ठहराया गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री दोनों उद्योग जगत की इस राय से न सिर्फ इत्तेफाक नहीं रखते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि उनकी सरकार को बदनाम और अस्थिर करने की कोशिश हो रही है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ऐसे बयानों से अनिश्चितता बढ़ती है. लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि इन बयानों से यह पता चलता है कि यू.पी.ए सरकार और उद्योग जगत के बीच सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है.
उल्टे ऐसा लगता है कि दोनों के बीच अविश्वास और टकराव बढ़ता जा रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को लेकर उद्योग जगत खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की निराशा और हताशा बढ़ती जा रही है.
उसे लगने लगा है कि यह सरकार जिस तरह से अपने ही अंतर्विरोधों में फंसती और अपना राजनीतिक इकबाल गंवाती जा रही है, उसके कारण आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का एजेंडा पीछे छूटता जा रहा है.
दरअसल, इस सरकार से उद्योग जगत को बहुत उम्मीदें और अपेक्षाएं थीं. उद्योग जगत को विश्वास था कि वामपंथी पार्टियों के दबाव से मुक्त यू.पी.ए-२ सरकार न सिर्फ नव उदारवादी सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी बल्कि देश भर में नए औद्योगिक प्रोजेक्ट्स की राह में आ रही बाधाओं को भी हटाएगी.
लेकिन पिछले ढाई साल में यह सरकार उनमें से ज्यादातर अपेक्षाओं और उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई. इसके भी कारण किसी से छुपे नहीं हैं. एक तो यह सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के कारण राजनीतिक रूप से घिर गई और आपसी झगडों में उलझ गई और दूसरी ओर, देश भर में जल-जंगल-जमीन और पर्यावरण को लेकर किसानों-आदिवासियों और स्थानीय समुदायों का विरोध और संघर्ष तेज होता गया.
नतीजा, यह सरकार चाहकर भी उद्योग जगत की इच्छाएं पूरी नहीं कर पाई. यही नहीं, भ्रष्टाचार के मामलों में राजनेताओं और अफसरों के साथ उद्योग जगत की कई बड़ी हस्तियों को भी जेल जाना पड़ा है. इससे उद्योग जगत की बेचैनी बढ़ी है. आश्चर्य नहीं कि इसी निराशा और बेचैनी में उद्योग जगत का एक हिस्सा न सिर्फ सरकार की मुखर आलोचना करने लगा है बल्कि इस सरकार के राजनीतिक विकल्पों की खोज भी करने लगा है.
इसी प्रक्रिया में पिछले कुछ महीनों में उद्योग जगत की ओर से सरकार की आलोचना के स्वर मुखर हुए हैं. यही नहीं, कई बड़े उद्योगपतियों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की उम्मीदवारी को भी आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है.
जाहिर है कि इससे मनमोहन सिंह सरकार में नाराजगी है. लेकिन वह जानती है कि उद्योग जगत के नाराज करके सत्ता में टिके रहना मुश्किल है. इसलिए उसने उद्योग जगत को खुश करने की बहुत कोशिश की है. पिछले डेढ़ महीने में सरकार ने आनन-फानन में ऐसे कई फैसले किये जिनका असली मकसद बड़ी पूंजी को खुश करना है.
निश्चित ही, इनमें सबसे बड़ा फैसला खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत देने का था. लेकिन अपने राजनीतिक अंतर्विरोधों और देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के कारण सरकार को यह फैसला वापस लेना पड़ा.
इससे उद्योग जगत और सरकार के बीच खिंचाव और अविश्वास बढ़ा है. उद्योग जगत को लगता है कि सरकार ने इस महत्वपूर्ण फैसले के बचाव के लिए उतनी गंभीर कोशिश नहीं की जितनी परमाणु डील के समय की थी.
सरकार का तर्क है कि उद्योग जगत गठबंधन राजनीति की मजबूरियों को समझ नहीं पा रहा है. इस तरह सरकार और उद्योग जगत के बीच टकराव बढ़ता ही जा रहा है. इस टकराव के कारण जो ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति बन गई है, उसका सीधा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि औद्योगिक उत्पादन दर के साथ-साथ जी.डी.पी की वृद्धि दर भी गिर रही है. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था में नया निवेश नहीं हो रहा है. घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता के कारण बड़ी निजी पूंजी नया निवेश नहीं कर रही है.
इससे मांग भी मंद पड़ रही है. इस प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था एक तरह के दुष्चक्र में फंसती हुई दिखाई दे रही है. अगर अर्थव्यवस्था को इस दुष्चक्र से निकालने की तुरंत कोशिश नहीं की गई तो स्थिति सचमुच बद से बदतर हो सकती है.
अच्छी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति उतनी बुरी नहीं है जितनी गुलाबी अखबार और उद्योग जगत बताने की कोशिश कर रहे हैं. उनकी इस कोशिश के पीछे उनका अपना एजेंडा है. वे सरकार पर दबाव बनाने और आर्थिक सुधारों की गति तेज करने की कोशिश कर रहे हैं.
लेकिन इससे स्थिति में कोई सुधार नहीं आनेवाला है. इसके उलट अगर सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह अर्थव्यवस्था खासकर आधारभूत ढांचे में सार्वजनिक निवेश को बढाकर अर्थव्यवस्था को संभाल सकती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार खुद नव उदारवादी सुधारों से इस कदर मोहग्रस्त है कि वह सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है. इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है.
इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी बिजनेस को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है. इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है.
लेकिन मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे के सामने है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है.
असल में , इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी.
लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए. यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है.
अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ़ दिखाई पड़ रही है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.
लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है. क्या सरकार इसके लिए तैयार है?
(दैनिक 'नया इंडिया' में २६ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' में २८ दिसंबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
1 टिप्पणी:
सुन्दर लेख के लिए धन्यवाद सर, पर भारतीय अर्थव्यवथा में जब तक हम प्राथमिक सेक्टर कृषि पर ध्यान नहीं देंगें तब तक समन्वित विकास नहीं हो सकेगा.
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