शनिवार, दिसंबर 24, 2011

सरकार के न्यौते पर आई है औद्योगिक मंदी

सरकार के पास संसाधनों की नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है 



भारतीय अर्थव्यवस्था लड़-खड़ाकर पटरी से उतर रही है. यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे अनदेखा करना अब मुश्किल है. इसका सबसे ताजा सबूत यह है कि अक्टूबर महीने में औद्योगिक विकास की दर फिसलकर नकारात्मक हो गई है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, सवा दो वर्षों में पहली बार औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर अक्टूबर महीने में तेज गिरावट के साथ (–) ५.१ प्रतिशत रह गई है. पिछले वर्ष इसी महीने में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर ११.३ फीसदी थी.

औद्योगिक विकास की दर के नकारात्मक होने की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि इससे पहले अमेरिकी वित्तीय संकट और उसके कारण पैदा हुई वैश्विक मंदी के बीच औद्योगिक उत्पादन की दर दिसंबर’०८ से लगातार छह महीने तक नकारात्मक रही थी.

लेकिन इसमें चौंकानेवाली कोई बात नहीं है. सच यह है कि औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट की आशंका काफी पहले से जाहिर की जा रही थी. इसके संकेत भी पहले से मिलने लगे थे. जैसे, इससे ठीक पहले सितम्बर महीने में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर लुढ़ककर मात्र १.९ फीसदी रह गई थी.

यही नहीं, इस वित्तीय वर्ष में जुलाई से सितम्बर की तिमाही में औद्योगिक उत्पादन दर सिर्फ ३ फीसदी रही और अप्रैल से सितम्बर के बीच छह महीनों में औद्योगिक उत्पादन की दर सिर्फ ५ फीसदी रही जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में यह दर ८.२ फीसदी थी. साथ ही, इस वित्तीय वर्ष के पहले छह महीनों में जी.डी.पी की वृद्धि दर गिरकर सिर्फ ६.९ प्रतिशत रह गई है.

साफ़ है कि औद्योगिक उत्पादन में आई गिरावट न तो अचानक है और न ही अप्रत्याशित. लेकिन इस गिरावट की गहराई जरूर अप्रत्याशित और चिंतित करनेवाली है. यह गिरावट इसलिए भी गंभीर और चिंतित करनेवाली है क्योंकि गिरावट का दायरा और गहराई औद्योगिक उत्पादन के कुछ क्षेत्रों तक सीमित नहीं है बल्कि उसके प्रभाव से कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं बचा है.

उदाहरण के लिए, औद्योगिक उत्पादन के सबसे महत्वपूर्ण घटक मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में वृद्धि दर नकारात्मक (-) ६ फीसदी और खनन (माइनिंग) क्षेत्र में भी वृद्धि दर नकारात्मक (-) ७.२ फीसदी रही.

यही नहीं, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में भी किसी भी क्षेत्र- चाहे बेसिक गुड्स हो या इंटरमीडिएट गुड्स या कैपिटल गुड्स या फिर कंज्यूमर गुड्स में धनात्मक वृद्धि दर नहीं दर्ज की गई है. यहाँ तक कि पूंजीगत सामानों (कैपिटल गुड्स) की वृद्धि दर में सबसे तेज और भारी गिरावट दर्ज की गई है जहां ऋणात्मक वृद्धि दर (-) २५.५ तक पहुँच गई.

इसमें भी विद्युत मशीनरी और उपकरणों में (-) ५८.८ प्रतिशत और अन्य मशीनरी और उपकरणों में (-) १२.१ फीसदी की भारी गिरावट दर्ज की गई है. दूसरी ओर, खनन क्षेत्र में गिरावट का आलम यह है कि चालू वित्तीय वर्ष में लगातार तीसरे महीने इस क्षेत्र में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की गई है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि संकट कितना गहरा और गंभीर है.

कहने की जरूरत नहीं है कि औद्योगिक उत्पादन में मौजूदा गिरावट के कई कारण हैं. अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजर इसका सारा दोष अमेरिकी और यूरोपीय अर्थव्यवस्था के संकट और उसके कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में ठहराव और अनिश्चितता के मत्थे मढ़कर बच निकलने की कोशिश कर रहे हैं.

जबकि उद्योग जगत और गुलाबी अखबार इसका सारा ठीकरा यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ यानी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकामी और रिजर्व बैंक की सख्त मौद्रिक नीति पर फोड़ रहे हैं. लेकिन न तो सरकार और न ही उद्योग जगत पूरी सच्चाई बता रहे हैं.

यह सच है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की अनिश्चितता और कमजोरी का भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर औद्योगिक उत्पादन पर असर पड़ा है. इसका प्रभाव खासकर भारतीय निर्यात में आए गिरावट में दिख रहा है जिससे औद्योगिक उत्पादों के मांग में कमी आई है.

यह भी सही है कि पिछले डेढ़ साल से रिजर्व बैंक ने आसमान छूती मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए जिस तरह से ब्याज दरों में वृद्धि की है, उसके कारण नए निवेश खासकर निजी पूंजी निवेश में भारी गिरावट आई है जो औद्योगिक उत्पादन खासकर कैपिटल गुड्स में भारी गिरावट की एक बड़ी वजह है.

यही नहीं, नए निवेश में गिरावट की एक वजह सरकार का अनिर्णय और ‘नीतिगत पक्षाघात’ भी है लेकिन यह वह ‘पक्षाघात’ नहीं है जो उद्योग जगत और गुलाबी अखबार बता रहे हैं. दरअसल, औद्योगिक उत्पादन में ऋणात्मक वृद्धि की सबसे बड़ी और बुनियादी वजह यह है कि औद्योगिक उत्पादों की मांग में निरंतर और व्यापक वृद्धि का अभाव और इस कारण नए निवेश में वृद्धि का न होना.

इसके लिए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं. इस मायने में इस औद्योगिक मंदी को सरकार ने निमंत्रित किया है. तथ्य यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अति व्यामोह (आब्सेशन) के कारण सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र को पूरी तरह से निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है. लेकिन निजी क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र खासकर आधारभूत ढांचागत क्षेत्र में निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिखता है या अपनी शर्तों पर और भारी मुनाफे की गारंटी के साथ निवेश करना चाहता है.

केन्द्र और राज्य सरकारों ने ‘विकास’ के नाम पर देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी की इन मांगों को सहर्ष स्वीकार भी किया है लेकिन मुश्किल यह है कि आम लोग खासकर गरीब किसान, आदिवासी और हाशिए पर पड़े लोग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

इसका नतीजा यह हुआ है कि हाल के वर्षों में देश भर में जहां भी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी नई परियोजनाएँ शुरू करने की कोशिश कर रही है, स्थानीय जनता के साथ जल, जंगल और जमीन से लेकर खनिजों के दोहन को लेकर तीखा संघर्ष शुरू हो जा रहा है. लोगों की आजीविका से लेकर पर्यावरण के सवाल उठ रहे हैं. इसके कारण स्टील से लेकर बिजली और खनन से लेकर रीयल इस्टेट तक अनेकों बड़ी-छोटी परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं या उनमें काम की रफ़्तार बहुत धीमी है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन टकरावों में चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें, वे बड़ी पूंजी के साथ खड़ी हैं. वे निजी पूंजी को हर तरह की रियायतें देने से लेकर उनपर सार्वजनिक संसाधनों को लुटाने (बतर्ज २ जी) में अब भी संकोच नहीं कर रही हैं. लेकिन दूसरी ओर, दमन के बावजूद गरीब लोग पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

उनके लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है. सरकार चाहकर भी उन्हें हटा नहीं पा रही है. दूसरी ओर, उद्योग जगत अभी भी गरीब किसानों की भावनाओं और जरूरतों को समझने के लिए तैयार नहीं है. वह न तो मुनाफे की भूख को कम करने के लिए राजी है और न ही अपने मुनाफे में स्थानीय समुदायों और गरीबों को उनकी न्यायोचित हिस्सेदारी देने के लिए तैयार है.

नतीजा यह कि एक गतिरोध बन गया है. इस गतिरोध को उद्योग जगत और उनके भोंपू गुलाबी अखबार ‘नीतिगत पक्षाघात’ बता रहे हैं और चाहते हैं कि सरकार न सिर्फ अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए और खोले बल्कि मौजूदा परियोजनाओं के रास्ते में आ रही बाधाओं को भी दूर करे.

यू.पी.ए सरकार अपनी ‘राजनीतिक और लोकतान्त्रिक मजबूरियों’ के बीच यह कोशिश भी कर रही है लेकिन उतनी कामयाब नहीं हो पा रही है जितनी उद्योग जगत अपेक्षा कर रहा है. जाहिर है कि इसके कारण निजी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ रहा है.

लेकिन अब समय आ गया है जब सरकार और उद्योग जगत विकास के नाम पर विस्थापन और गरीबों की आजीविका छीनने और पर्यावरण को ठेंगा दिखाने की नीति से बाज आयें. साफ है कि औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में लोगों को बराबरी का हक दिए बिना आगे बढ़ना संभव नहीं है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि निजी निवेश में कमी इस कारण भी आ रही है क्योंकि आधारभूत ढांचा क्षेत्र की लंबे अरसे से उपेक्षा और अपेक्षित निवेश न होने से निजी निवेश के लिए नए निवेश में अपेक्षित प्रोत्साहन नहीं है.

ऐसे में, यह जरूरी है कि सरकार निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए अर्थव्यवस्था खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश बढ़ाए. इससे रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे, उससे मांग बढ़ेगी और निजी क्षेत्र के निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनेगा. एक बात साफ़ है कि घरेलू मांग को बढ़ाए बिना औद्योगिक मंदी को रोक पाना असंभव है.

लेकिन जब भी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश और उसके जरिये मांग को बढ़ाने की बात होती है, सरकार तुरंत संसाधनों की कमी का रोना रोने लगती है.

लेकिन यह सच नहीं है. सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की नहीं बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कम्पनियों के पास इस समय २०५२५५ करोड़ रूपये का नगद और बैंक डिपोजिट है.

लेकिन ये कम्पनियाँ इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं. उल्टे सरकार इन कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है. लेकिन सरकार अगर इन कम्पनियों को निवेश खासकर आधारभूत ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित करे तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है.

उदाहरण के लिए, चीन इस समय अपने रेल नेटवर्क के भारी विस्तार में जुटा है. साथ ही, वह आधारभूत ढांचा में भारी निवेश के जरिये घरेलू मांग को बढ़ाने की नीति पर चल रहा है.

इस मामले में चीन से सीखने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह से बाहर आना पड़ेगा. क्या यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार है?

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में प्रकाशित आलेख: http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17 )

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